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चतुर्थ स्थापना दिवस पर आयोजित सेमिनार का वैचारिक प्रपत्र

स्कूली शिक्षा का राष्ट्रीयकरण ही समग्र विकास का मूलमंत्र

राष्ट्रीय समग्र विकास संघ की सोच है कि समाज के सभी वर्गों के अमीर और गरीब परिवारों के बच्चों को अनिवार्य रूप से मुफ्त तथा समान स्तरीय स्कूल लेविल की एकरूप शिक्षा प्रदान हो। दोहरी शिक्षा प्रणाली का अंत किया जाए। प्राइवेट स्कूलों को सरकार अपने अधीन लेकर राष्ट्रीयकरण करे। इस दिशा में कोई संविधान संशोधन करने की जरूरत नहीं है क्योंकि शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE Act) 2009 के तहत देश के हर बच्चे को पढ़ने का मौलिक अधिकार प्राप्त हो चुका है। जिसमें प्रत्येक बच्चे को नर्सरी से स्कूल स्तर तक की समान स्तरीय शिक्षा की जिम्मेदारी सरकार की है। सरकार की नियत प्राइवेट स्कूलों का राष्ट्रीयकरण करने के पक्ष में नहीं है क्योंकि अधिकतर राजनेता शिक्षा के व्यवसाय से जुड़े हैं। इस कार्य को अमली जामा पहनाने के लिए एक बड़े जन आंदोलन की जरूरत है। ‘राष्ट्रीय समग्र विकास संघ’ (RSVS) ने दिनांक 25 मार्च 2018 को अपने चतुर्थ स्थापना दिवस तथा बहुजन नायक मान्यवर कांशीराम जी की जयंती के उपलक्ष में शिक्षा के राष्ट्रीयकरण के आंदोलन को वैचारिक धार देने के लिए बौद्धिक परिचर्चा का आयोजन किया है। सेमिनार का विषय है "स्कूली शिक्षा का राष्ट्रीयकरण ही समग्र विकास का मूलमंत्र"।

सर्व शिक्षा अभियान का सपना एकरूप शिक्षा (Uniform Education) के बिना अधूरा है जो राष्ट्रीयकरण की नीति के माध्यम से ही सम्भव हो सकता है। इन सभी विषयों पर सामाजिक सहमति बनना जरुरी है। इस सम्बन्ध में समाज के बुद्धिजीवी वर्ग को गंभीरता पूर्वक विचार करना होगा तथा गरीब-अमीर सभी को एकरूप समान शिक्षा उपलब्ध कराने हेतु सरकार पर दबाव बनाना होगा। समाज और देश हित में अपने निजी स्वार्थों से ऊपर उठ कर, समाज के समन्वित उत्थान की सोच बनाकर, मजबूत राष्ट्र निर्माण हेतु कमजोर भाइयों को मजबूती प्रदान करने हेतु इस आंदोलन में अपना योगदान करें। भारत में “राष्ट्रीय समग्र विकास संघ” इस दिशा में काम कर रहा है, जिसे आप सभी के सहयोग की अपेक्षा है।

एकरूप समान शिक्षा प्रणाली की रूपरेखा

पूरे देश के सभी प्राइवेट स्कूलों का राष्ट्रीयकरण किये बिना “एकरूप शिक्षा प्रणाली” लागू करना असंभव है। स्कूल स्तर की सभी कक्षाओं में पढ़ाने हेतु तीन भाषाएँ (हिंदी, अंग्रेजी और एक क्षेत्रीय भाषा) अनिवार्य विषयों के रूप में राष्ट्रीय पाठ्ठयक्रम में सम्मलित की जायें। गणित, विज्ञान एवं सामाजिक विषयों को पढ़ाने का माध्यम क्षेत्रीय भाषाओँ में हो ताकि बच्चे विषय को अच्छी तरह से समझ सकें। सभी स्कूलों में गणवेष और प्रार्थना एक ही हो जिससे समान राष्ट्रीय भावना का विकास हो सके। पूरे देश के अध्यापकों को राष्ट्रीय सिलेबस तैयार करके उसके हिसाब से प्रशिक्षित किया जाये। स्थानीय सरकार और प्रशासन की ज़िम्मेदारी सुनिश्चित की जाये  कि 6 से 18 वर्ष तक का प्रत्येक बच्चा स्कूल में पंजीकृत हो। क्षेत्र के सभी जन प्रतिनिधि अपना विकास फंड स्कूली शिक्षा में खर्च करें। मेडिकल कालेज की तर्ज पर प्रत्येक स्कूल को किसी औद्योगिक प्रतिष्ठान से सम्बद्ध किया जाये ताकि आधे दिन बच्चों को व्यावसायिक ज्ञान का प्रशिक्षण दिया जा सके। व्यवसायिक प्रशिक्षण के दौरान बच्चों के प्रयास से होने वाले  उत्पादन का कुछ हिस्सा उनको प्रोत्साहन भत्ते के रूप में प्रदान किया जाये। इसी प्रकार दसवीं की कक्षा पास कर चुके बच्चे, जो 11वीं या 12वीं कक्षा में पढ़ रहे हैं उनको नर्सरी से आठवीं तक की कक्षाओं को पढ़ाने का प्रशिक्षण दिया जाये और उसके बदले में प्रोत्साहन भत्ता दिया जाये। इस प्रणाली से गरीब परिवारों के बच्चे, शिक्षा शुल्क के आलावा पढ़ाई के दूसरे खर्चे के लिए अपने परिवार पर निर्भर नहीं रहेंगे।

संगठन का स्वरूप

“राष्ट्रीय समग्र विकास संघ” पूर्णत: गैर राजनीतिक, धर्मनिरपेक्ष एवं सामाजिक न्याय की अवधारणा पर आधारित संगठन है। इस संगठन के सदस्य सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक विषयों पर समय-समय पर अनुसन्धान एवं विश्लेषण करके सरकार और जनता को प्रेस, संगोष्ठियों और सेमिनारों के माध्यम से अवगत कराते रहते हैं।

भारतीय संविधान में निहित सामाजिक न्याय की परिकल्पना का लक्ष्य आज भी अधूरा है। डॉ.भीम राव अंबेडकर ने राष्ट्र निर्माण का असली लक्ष्य तो भारतीय संविधान में पहले ही निर्धारित कर दिया था। भारतीय  संविधान का उद्देश्य "समता, स्वतंत्रता, बन्धुत्व और न्याय" के लक्ष्य को पूरा करने में पूरी तरह से सक्षम है। देश का यह पवित्र क़ानूनी ग्रन्थ अधिकांश आबादी का प्रहरी है। जो तमाम संस्कृतियों, विभिन्न सामाजिक समुदायों, भाषा-भाषियों तथा सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के हितों की रक्षा करता है। अगर जरूरत है तो इसको लागू करने की नियत रखने वाली सरकार की, जो समग्र विकास की धारणा के साथ काम करे। हमें अनेक समाज सुधारकों के लम्बे संघर्ष के बाद यह मुकाम हासिल हो सका है। जिनमें महात्मा ज्योतिवा फुले का सर्वशिक्षा का आंदोलन, कोल्हापुर के महाराज छत्रपति शाहू जी का सामाजिक न्याय का आंदोलन, महान समाज-सुधारक नारायणा गुरु का सांस्कृतिक समानता का आंदोलन, पेरियार रामास्वामी नायकर का आत्मस्वाभिमान आंदोलन एवं बाबा साहब डॉ. अम्वेडकर का समग्र विकास का मिशन उल्लेखनीय है।

यह सत्य है, कि कुछ यथास्थितवादी ताकतों का लक्ष्य भारत में जाति-व्यवस्था को बनाए रखना है, जबकि जाति-व्यवस्था भारत निर्माण में सबसे बड़ी बाधा है। हम यहाँ एक बात और जोड़ना चाहते हैं कि जाति-व्यवस्था भारतीय समाज की कड़वी सच्चाई है। असमानता पर आधारित उक्त व्यवस्था को परिवर्तित करने के लिए समाज सुधारकों के अलावा अनेक संतों, गुरुओं एवं महापुरुषों ने भी निरंतर संघर्ष किया जिनमें संत कबीर, गुरु रविदास, चोखामेला, विरसा मुंडा, संत गाडगे, गुरु घासी दास, स्वामी अछूतानंद, स्वामी विवेकानंद आदि का महान योगदान रहा है। जाति-व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करने वाले महान समाज सुधारक तो आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन जाति व्यवस्था आज भी कायम है, और जातियों की संख्या पहले से भी अधिक बढ़ गई है। जहाँ तक आजादी के बाद देश के विकास का सवाल है तो, अनेक  सरकारी, गैर-सरकारी एवं अंतराष्ट्रीय संगठनों की रिपोर्टें इस बात की साक्षी हैं कि विगत वर्षों में केवल 20 प्रतिशत भारत का ही निर्माण हो सका है, जिसका अधिकतर लाभ समाज के उच्च वर्णीय समर्थवान लोगों को ही प्राप्त हुआ है। 

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

महात्मा ज्योतिबा फुले ने 1848 में पुणे में अछूतों के लिए और 1857 में लड़कियों के लिए स्कूल खोले, इस तरह भारत में पहली बार निम्न वर्गों के लिए शिक्षा के द्वार खुले। महात्मा ज्योतिबा फुले ने 1873 में ‘गुलामगीरी’ नामक किताब लिख कर शूद्र-बहुजन समाज को शिक्षा के माध्यम से गुलामी से मुक्ति का रास्ता सुझाया। भारत में सबसे पहले महात्मा फुले ने ही 1882 में हंटर आयोग से बहुजन जातियों हेतु शिक्षा तथा नौकरियों में आरक्षण की मांग की थी।

18 मार्च 1910 को भारत में "मुफ्त और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा" के प्रावधान के लिए ब्रिटिश विधान परिषद् के समक्ष गोपाल कृष्ण गोखले ने प्रस्ताव रखा था, जो निहित स्वार्थों के विरोध के चलते अंततः ख़ारिज हो गया। हर्टांग समिति 1929 ने प्राथमिक विद्यालयों की संख्यात्मक वृद्धि पर बल न देकर गुणात्मक उन्नति पर जोर दिया था।

सूत्रकाल तथा लोकायत के बीच शिक्षा की सार्वजनिक प्रणाली के पश्चात हम बौद्धकालीन शिक्षा को निरंतर भौतिक तथा सामाजिक प्रतिबद्धता से परिपूर्ण होते देखते हैं। बौद्धकाल में स्त्रियों और शूद्रों को भी शिक्षा की मुख्यधारा में सम्मिलित किया गया था।

प्राचीन भारत में जिस शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया गया था वह समकालीन विश्व की शिक्षा व्यवस्था से समुन्नत व उत्कृष्ट थी लेकिन कालान्तर में भारतीय शिक्षा व्यवस्था का क्रमिक ह्रास हुआ। एक लम्बे समय तक शिक्षा पर एक विशेष वर्ग का एकाधिकार रहा जिसके कारण समाज में जाति विभेद पैदा हो गया जिसका दंश आज तक भारतीय समाज झेल रहा है।

वर्तमान व्यवस्था

महिलाएं और शूद्र वर्ग के लोग स्वतंत्रता पूर्वक अपना विकास कर सकें इसके लिए डा. अम्बेडकर ने उन्हें ‘शिक्षित होने’, ‘संघर्ष करने’ तथा ‘संगठित होने’ का मूल मन्त्र दिया। आजाद भारत के संविधान निर्माता डा. भीमराव अम्बेडकर ने शिक्षा के अधिकार को अनुच्छेद 41 के तहत राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में सम्मलित किया था क्योंकि उस समय देश की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। एक लम्बे संघर्ष के बाद निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा विधेयक भारतीय संसद द्वारा सन् 2009 में पारित हो सका। इस विधेयक के पास होने के बाद बच्चों को मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा का मौलिक अधिकार मिल गया। इस प्रकार संविधान के अनुच्छेद 45 के तहत छ: से चौदह वर्ष तक के बच्चों के लिये अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था हो गयी। अब 86वें संवैधानिक संशोधन के बाद संविधान के अनुच्छेद 21(क) में प्राथमिक शिक्षा को सब नागरिको का मूलाधिकार बना दिया गया है। उक्त अधिनियम 1 अप्रैल 2010 से जम्मू-कश्मीर को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में लागू हो गया है। आज भी भारत में दोहरी शिक्षा प्रणाली के कारण समाज का वर्ग विभाजन हो गया है, जिसको रोका नहीं गया तो समाज में एक और नई जाति व्यवस्था का जन्म हो जायेगा।

उपरोक्त संदेभ में शिक्षा के महत्व को समझाते हुए महात्मा बुद्ध ने सन्देश दिया था:

"बुद्धङ्ग शरणङ्ग गच्छामि"। (बुद्धि की शरण में जाओ)

शिक्षा के महत्व को समझाते हुए महात्मा ज्योतिबा फुले ने कहा था:

"विद्या बिना मति गयी, मति बिना नीति गयी।

नीति बिना गति गयी, गति बिना वित्त गया।

वित्त बिना शूद्र गये, इतने अनर्थ, एक अविद्या ने किये।"

अपने पूर्वजों की बात को और आगे बढ़ाते हुए महात्मा बुद्ध और महात्मा फुले के शिष्य डा. भीमराव अम्बेडकर ने कहा था: "शिक्षित हो" और शिक्षित होकर इस मिशन को जन-जन तक पहुचाने के लिए, संगठित होकर तब तक संघर्ष करते रहो जब तक “एक आदमी की एक कीमत" न हो जाए। शिक्षा के क्षेत्र में उपरोक्त तीनों महापुरुषों का आशय लगभग एक समान प्रतीत होता है कि ‘सम्पूर्ण समाज के सभी घटकों को समुन्नत बनाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षित करना जरूरी है’। 

इस लिए, उपरोक्त लक्ष्य हासिल करने के लिए शिक्षित लोगों द्वारा एकरूप शिक्षा के लिए शिक्षा के राष्ट्रीयकरण हेतु संगठित तरीके से वैचारिक आन्दोलन चलाने की आवश्यकता है।

अतिरिक्त जानकारी एवं सुझाव देने हेतु संपर्क सूत्रWebsite: www.rsvsindia.com , Email: This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it.