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कांशीराम साहब की 89वीं जयंती पर विशेष

जाति की राजनीति को धार देने वाले मा. कांशीराम साहब की 89वीं जयंती पर विशेष

-के सी पिप्पल

 15 March 2023

 

सरदार हरी सिंह और बिशन कौर के पुत्तर मा. कांशीराम साहब की 89वीं जयंती पर उनकी राजनीतिक सोच-समझ पर चर्चा करना आज के परिवेश में उपयुक्त लगता है। उन्होंने बाबासाहब की तरह जाति को समाप्त करने पर विचार करने की बजाय जाति की तलवार के ऊपरी फलक को पैना करने को बहुजन समाज के हित में समझा। हलांकि वैचारिक रूप से वह बाबासाहब, महात्मा फुले, नारायण गुरु, पेरियार ई वी रामास्वामी नायकर, छत्रपति शाहूजी महाराज के अनुयाई थे। महामानव बुद्ध, कबीर, रैदास और नानक के मानवतावादी सत्य दर्शन की उन पर स्पष्ट छाप दिखती है। बुद्ध की तरह बहुजन समाज का संघ बनाने के लिए अपने परिवार को त्यागना, शादी नहीं करना, निजी हित के लिए सम्पत्ति नहीं रखना इत्यादि लक्षण बुद्ध और मध्यकालीन संतों के जैसे थे। अत: उक्त कसौटी पर वे परिब्राजक या समण धर्म का पालन कर रहे थे। शीलवान चरित्र के कारण उनके नेतृत्व में बहुजन समाज सामाजिक, वैचारिक और राजनीतिक रूप से बहुत तेजी से संगठित और आंदोलित हुआ। उन्होंने ब्राह्मणी राजनीति को ललकारते हुए कहा "आर्य पुत्रो होश में आओ, दास पुत्रों से मत टकराओ" दासों की संख्या 100 में 85 है और तुम सिर्फ 15 फीसदी हो, अगर यह दास पुत्र जाग गए और जाति से जमात में बदल गए तो आप वोट की राजनीति में टिक नहीं पाओगे।

उनके जाने के बाद बहुजन राजनीति की धार कमजोर हुई है और सवर्ण राजनीति का किरदार कांग्रेस की जगह भारतीय जनता पार्टी के रूप में और मजबूत हुआ है। कांशीराम साहब के शिष्यों ने जाति के नाम पर अनेकों पार्टियां बना ली हैं जो सभी कांशीराम साहब के अधूरे मिशन को पूरा करने का राग अलापते हैं। सवर्ण समाज के गरीबों को 10 फीसदी आरक्षण मिलना भाजपा के नेतृत्व में इस नये राजनीतिक धुर्वीकरण की सबसे बड़ी विजय और बहुजन राजनीति को बड़ा चेलेंज है। जातीय जनगणना न कराकर मनुवादी राजनीति द्वारा OBC समाज को दूसरा बड़ा झटका दिया है। मंडल कमीशन को लागू करवाने के लिए जिस प्रकार बहुजन आंदोलन को मा. कांशीराम साहब ने नेतृत्व दिया इस प्रकार का नेता आज कोई नजर नहीं आ रहा है।

मनुवादी पार्टियों से असंतुष्ट नेता बहुजन समाज की राजनीति करने वाले कांशीराम के वोटरों को बांटने का काम करके भाजपा, कांग्रेस या अन्य मनुवादी पार्टियों को शक्तिशाली बनाने का रास्ता तैयार करते हैं। इस प्रकार मान्यवर कांशीराम साहब की धारदार बहुजन राजनीति वेअसर हो रही है। इस समय बहुजन समाज विखंडित है और 20 फीसदी मनुवादी समाज एक पार्टी के झंडे के नीचे संगठित है, उनमें बहुजन समाज से 15 फीसदी वोटों का जुगाड़ टिकटों के बल पर करके 35-40 फीसदी वोटों के मालिक बन जाते हैं। बहुजन समाज की जातीय पार्टियों को दाना डाल कर बहुजनों के वोटों का विभाजन करने में भाजपा (A) श्रेणी में आती है इसके बाद कांग्रेस (राजनीती B), तृणमूल कांग्रेस (C), मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (D), आम आदमी पार्टी (E), बीजू जनता दल (F), तेलंगना की भारत राष्ट्र समिति (G) और शिवसेना (H) श्रेणी में आने वाली बहुजनों के वोटों में विभाजन करके मनुवादी राजनीति को मजबूत करने वाली राजनीतिक ताकतें प्रकाश में आई हैं। 

दूसरी ओर बहुजन समाज की राजनीति को मजबूती प्रदान करने वाली राष्ट्रीय पार्टियों में बहुजन समाज पार्टी ही अभी तक एकमात्र राजनीतिक ताकत है जिसका 16 राज्यों में जनाधार है, इस लिए यह बहुजनों की (A) श्रेणी की पार्टी है। बाकी की करीब 60 बहुजन पार्टियां अलग अलग राज्यों में अपना अलग अलग मजबूत बजूद रखती हैं, मनुवादी मीडिया इन पार्टियों की व्याख्या बहुजन पार्टियों के नाम से न करके जातिवादी, परिवारवादी और क्षेत्रिय या छत्रप पार्टियों के नाम से प्रचारित करके उनकी अहमियत को छोटा करने की कोशिश करता है। जिसके कारण बहुजनों की राज्य स्तरीय मजबूत पार्टियां कभी राष्ट्रीय लेवल पर एकजुट होकर चुनाव नहीं लड़ सकीं बल्कि वे तथाकथित मनुवादी राष्ट्रीय पार्टियों के NDA या UPA का हिस्सा बनती रही हैं। बहुजन समाज पार्टी की नेता बहन मायावती जी ने भी इनको कभी एकजुट करने की पहल नहीं की।

आज बहुजनों की राजनीतिक पार्टियों को इकठ्ठा करने के लिए बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन बड़ी कोशिश कर रहे हैं, परन्तु रिजल्ट उतना दिख नहीं रहा है। राजनीति के जानकारों का मानना है कि बहुजन समाज पार्टी के बिना कोई भी बहुजन पार्टियों का गठबंधन उतना कामयाब नहीं होगा जितना मनुवादी पार्टियों का NDA और UPA होआ है। अगर बहन मायावती जी मान्यवर कांशीराम साहब की सच्ची उत्तराधिकारी हैं तो उन्हें बहुजनशक्ति को राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट करने की कोशिश करनी होगी। अन्यथा बहुजनों की राजनीति का राग अलापना एक बेमानी होगी।                                                  

बाबा साहब की राजनीतिक विरासत रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया का 1970 तक पतन हो जाने के बाद, बहुजनों की विरासत को फिर से पुनर्स्थापित करने के लिए मान्यवर कांशीराम साहब ने अपने साथियों के साथ मिलकर पूना में 1973 में अखिल भारतीय पिछड़ा और अल्पसंख्यक कर्मचारी महासंघ (BAMCEF) का निर्माण किया। यह संगठन पूरी तरह से नॉन पॉलिटिकल, नॉन रिलिजियस और नॉन एजीटेशनल था। 1978 में राष्ट्रीय स्तर पर बामसेफ का विधिवत गठन किया गया। बामसेफ के प्रशिक्षकों ने एससी, एसटी, ओबीसी और माइनॉरिटी समाज के पढ़े-लिखे कर्मचारियों को कैडर कैंपों के माध्यम से बहुजन महापुरुषों की विचारधारा से परिचित कराया। यह बहुजन समाज का एक वैचारिक आंदोलन था जिसने प्रशिक्षित कर्मचारियों के परिवारों के नौजवानों और महिलाओं को सामाजिक संघर्ष के लिए प्रेरित किया। वैचारिक आंदोलन से प्रेरित बहुजन समाज के जागरूक कार्यकर्ताओं को सामाजिक समानता और स्वाभिमान के लिए संघर्ष करने हेतु दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (DS-4) नामक अर्ध-राजनीतिक संगठन में समाहित किया। बामसेफ लाखों बहुजन सरकारी कर्मचारियों की राजनीतिक आकांक्षाओं को पूरा करने में सक्षम साबित हुआ। इस पहल के बिना शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस-4) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का एक विशाल राजनीतिक संगठन के रूप में विकास संभव नहीं था। 

वैचारिक एक्शन के लिए बामसेफ, सामाजिक एक्शन के लिए डीएस-4 और राजनीतिक एक्शन के लिए बीएसपी‌ का गठन किया। यह तीनों संगठन बाबा साहब द्वारा स्थापित बुद्धिस्ट रिसर्च सेंटर (बीआरसी) के द्वारा निर्धारित पूर्ण समानता के लक्ष्य को पूरा करने के लिए बनाए गए हैं। इसी लक्ष्य के तहत मान्यवर कांशी राम साहब ने 20 अक्टूबर 2006 को 6 करोड़ लोगों के साथ बुद्धिज्म में दीक्षित होने की इच्छा 2002 में व्यक्त की थी। असल में 20 अक्टूबर 2006 का दिन उन्होंने इसलिए चुना क्योंकि इस दिन बाबासाहब द्वारा बौद्ध दीक्षा दिए हुए 50 वर्ष पूरे हो रहे थे। बाबा साहब की तरह यह उनका एक बड़ा सांस्कृतिक एक्शन था, जो अधूरा रह गया। उनका 9 अक्टूबर 2006 को परिनिर्वाण हो गया। इस तरह उन्होंने बाबासाहब के अधूरे मिशन को पूरा करने हेतु अपना पूरा जीवन दाव पर लगा दिया। 

बहुजन राजनीति में बदलाव: मान्यवर कांशीराम साहब पेशे से एक वैज्ञानिक थे, धार्मिकता में वे एक सरदार के घर में पैदा हुए थे। सिक्ख गुरु रविदास जी की वाणी "रैदास सोई सूरा भला, जो लरै दीन के हेत। अंग−अंग कटि भुंइ गिरै, तउ न छाड़ै खेत॥“ से वे पूरी तरह प्रेरित थे। रैदास यहां कहते हैं कि वही शूरवीर श्रेष्ठ होता है जो धर्म की रक्षा के लिए लड़ते−लड़ते अपने अंग−प्रत्यंग कटकर युद्धभूमि में गिर जाने पर भी युद्धभूमि से पीठ नहीं दिखाता। "चिड़ियों से बाज़  उड़ाऊं" से भी प्रेरित थे। वे प्रोत्साहन और प्रेरणा के स्रोत थे उन्होंने बहुजनों के उज्ज्वल भविष्य के बारे में सोचा और एक संगठित आन्दोलन चलाया। अपने मुद्दों को संबोधित करने के लिए एक सवर्ण नेतृत्व के अधीन किसी संगठन में काम करने की अपेक्षा बहुजनों का अलग मंच बनाना बेहतर समझा। उनका मानना था शोषण करने वाले समाज का व्यक्ति शोषित समाज का लीडर कभी नहीं हो सकता। उन्होंने कहा था, "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी।" बहुजनों के राजनीतिक वर्चस्व को कायम करने के लिए उन्होंने बाबा साहब डॉ अंबेडकर की 93वीं जयंती पर 14 अप्रैल 1984 को बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की थी जो 1996 तक एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में विकसित हुई। 1989 से 2022 तक के राजनीतिक सफर की चर्चा हम यहां कर सकते हैं। 

डॉ अंबेडकर की विरासत बहुजन समाज पार्टी का पहला सकारात्मक परिणाम उसकी स्थापना के 5 वर्ष बाद उत्तर प्रदेश में 1989 में मिला, जब बसपा ने 9.4 फीसद वोट शेयर के साथ 13 विधान सभा और 3 लोक सभा की सीटें जीतने में कामयाबी हासिल की। इसके बाद बसपा निरंतर 2007 तक ऊंचाइयों को छूती रही। पहली बार 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा को शून्य पर गिरना पड़ा। 2017 के विधान सभा में उसे मात्र 19 सीटों से गुजरना पड़ा और अब 2022 में तो 1 सीट से संतोष करना पड़ा। वोट शेयर की बात करें तो 2022 में सबसे कम 12.9 फीसद वोट ही मिल सके हैं, जो उत्तर प्रदेश के जाटव/ चमार समाज की आबादी 13 फीसदी के बराबर हैं। 2017 में 22 फीसदी वोट शेयर था, उसकी बदौलत बसपा का सपा के साथ 2019 में गठबंधन हुआ था। गठबंधन में वोट शेयर पुराने स्तर पर लगभग बरक़रार रहते हुए बसपा ने 10 लोक सभा की सीटें भी जीतीं और सपा ने पांच। बसपा+सपा का गठबंधन टूटने का सबसे बड़ा नुकसान बसपा को हुआ। परिणाम स्वरूप 2022 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा इलेक्शन में बीएसपी को मौत 1 सट के साथ 12.88% वोट हासिल हुए जो उसके आधार वोटों से आने भी नहीं हैं।

जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी :  मान्यवर कांशीराम जी चाहते थे कि जनसंख्या के अनुपात में बहुजन समाज के लिए धर्म, राजनीति, शासन-प्रशासन, आर्थिक सम्पदा तथा शिक्षा में हिस्सेदारी के लिए संघर्ष करना चाहिए। आज बहुजन समाज का सही संख्याबल जानने के लिए जातियों की जनगणना की आवश्यकता है आंकलन से स्थाई समाधान नहीं होता है उसे कोर्ट भी नहीं मानता है। भारत में 2021 में होने वाली दशकीय जनगणना अभी तक इसलिए लंबित है, क्योंकि बहुजन समाज की मांग है कि जब भी जनगणना हो तो उसमें ब्राह्मणों सहित सभी जातियों की आबादी भी दर्ज की जाए। मंडल कमीशन की शिफारिशों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि 1931 के जातीय आंकड़े विभाजन से पहले के हैं जिनके आधार पर देश की जातीय आबादी का आकलन आयोग द्वारा किया गया है। इस लिए दशकीय जनगणना के साथ जातीय गणना कराने का काम भी सरकार को करना चाहिए। मंडल आयोग की रिपोर्ट और 2011 की जनगणना के आधार पर भारत की कुल जनसंख्या का प्रतिशत में वर्गीकरण निम्नानुसार है :

अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की कुल आबादी जो 22.56% थी वह 2011 की जनगणना में 25.20% हो गयी है और 2021 की जनगणना लंबित होने के कारण आंकड़े अनुपलब्ध नहीं हैं। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार केंद्र सरकार की नौकरियों में अनुसूचित जातियों को 15% के स्थान पर 16.6% और अनुसूचित जनजातियों  को 7.5% के स्थान पर 8.6% कोटा मिलना चाहिए जो सरकार नहीं दे रही है। जबकि लोकसभा की आरक्षित सीटों की संख्या नई 2001 की जनसंख्या के अनुपात में 119 से बड़ा कर 131 कर दी गई है। सरकार और समाज के लाभार्थी आरक्षित वर्ग को इस पर अवश्य ध्यान देना चाहिए। इसके आलावा अन्य पिछड़ा वर्ग की आबादी का आंकलन 1931 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर मंडल कमीशन ने 52.1% किया इनमें 'हिंदू अन्य पिछड़ा वर्ग' की हिस्सेदारी 43.70% है तथा गैर हिन्दू अन्य पिछडा वर्ग की हिस्सेदारी 8.40% है। OBC को 52% के स्थान पर मात्र 27% कोटा केंद्र की नौकरियों में दिया जाता है जिसमें क्रीमी लेयर वाले परिवार के अभ्यर्थी को कोटा का लाभ नहीं मिलता और ऐसे लोग सामान्य और EWS के कोटा में भी शामिल नहीं हो पाते हैं। SC में हिन्दू, सिक्ख और बौद्ध, ST में हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई और अन्य, OBC वर्ग में  हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध धार्मिक समुदाय शामिल हैं जिनकी कुल आबादी उपरोक्त  आंकड़ों के  हिसाब से 77.3% है। गैर बहुजनों की कुल आबादी मात्र 22 .7% है जिसमें 8% हिस्सेदारी गैर हिन्दू फॉरवर्ड क्लास की आबादी भी शामिल है। बेरोजगारी और गरीबी दूर करने के लिए आरक्षण नहीं  बल्कि जातीय अनुपातिक प्रतिनित्व की जरुरत है। इसके लिए वैधिक आंकड़े सिर्फ दशकीय जनगणना के ही माने जाते हैं, यह आंकड़े जनता को  उपलब्ध कराने में सरकार की कोई  दिलचस्पी नहीं है।

मान्यवर की राजनीति का भविष्य : बहुजन समाज के लोग बसपा, सपा, लोकदल एवं अन्य समान विचारधारा की छोटी पार्टियों का गठबंधन चाह रहे हैं। 2024 के चुनाव के लिए बसपा प्रमुख बहन मायावती जी को गंभीरता से प्रभावी गठबंधन के बारे में सोचना चाहिए। अन्यथा मान्यवर कांशीराम साहब की विरासत को बचाना मुश्किल हो जायेगा। ध्यान रहे कि  कांग्रेस सहित सभी परिवारवादी पार्टियों को समाप्त करना भाजपा का लक्ष्य है। मान्यवर कांशीराम साहब साहब की जयंती पर यह याद करना चाहिए कि उन्होंने अपने समय में 1993 में सपा से, 1996 में कांग्रेस से, कर्णाटक में जनता दल (सेक्युलर) से पंजाब में सिरोमणि अकाली दल (बादल) से गठबंधन किया और अपने वोट शेयर को बढ़ाया। अपनी रणनीति और राजनीतिक कुशलता के कारण उन्होंने बहुजनों के नेतृत्व वाली पहली राजनीतिक पार्टी बसपा को राष्ट्रीय स्तर की मान्यता दिलाने में सफलता हासिल की। 2024 के चुनाव में बड़े राजनीतिक विरोधी से मुकाबला करने के लिए बहुजन समाज के हित में कांग्रेस जैसे वैचारिक विरोधी राजनीतिक दल से हाथ मिलाना भी कोई ग़लत कदम नहीं होगा। बिना गठबंधन किए हुए बसपा को 2024 में 10 लोकसभा की सीटें लौटाना मुश्किल हो जाएगा। और बसपा लगातार हारती रही तो समर्थक समाज के मतदाता भी साथ छोड़ सकते हैं। भारतीय रिपब्लिकन पार्टी के ऐतिहासिक पतन से कांशीराम जी ने सबक लेकर आगे का राजनीतिक सफर तय किया था। अगर यह फिर से दोहराया गया तो समाज में भारी निराशा पैदा हो जाएगी, इसे बचाना बहन मायावती जी की जिम्मेदारी है। बहुजन समाज के छोटे-मोटे राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों के साथ सकारात्मक संवाद स्थापित करने के लिए रास्ता निकलना भी जरुरी है। 2019 में जब बहिन जी ने सामाजिक विचारकों की बात मानकर गठबंधन किया तो उसका पार्टी को फायदा मिला।

मा. कांशीराम साहब की दूरदर्शिता: मान्यवर कांशीराम साहब के संघर्ष से बहुजन समाज की जैसे-जैसे जागरूकता बढ़ी वैसे-वैसे दलित, आदिवासी, ओबीसी और मुसलमानों के वोट पर से कांग्रेस की पकड़ ढीली होने लगी थी। मजबूरी में उसे अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिए बहुजनों की छोटी पार्टियों से हाथ मिलाकर यूपीए गठबंधन करना पड़ा। 1996 में कांग्रेस नेहरू परिवार के हाथ से निकल कर नरसिम्हाराव के पास आ गयी जिनके साथ कांशीराम जी ने 1996 में उत्तर प्रदेश में 125 सीटें दे कर समझौता किया और सपा से टूट की भरपाई कर ली। अटल बिहारी वाजपेयी जी ने भी नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (एनडीए) बनाकर 1998 से चुनाव लड़ना शुरू कर दिया जो आज भी जारी है। इसी एनडीए की तर्ज पर जब सोनिया जी की कांग्रेस ने भी अकेला चलना छोड़ कर यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस (यूपीए) बनाया तो 2004 और 2009 में उनकी सरकार बनी। इस दौरान सपा और बसपा का भी फायदा हुआ उनका ग्राफ और सीटें दौनों बढ़ीं। मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए की सरकारों में सपा और बसपा दौनों का नुकसान हुआ दौनों को उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर कर दिया और राष्ट्रीय स्तर पर बसपा का वोट शेयर भी घट गया। अब लुटे-पिटे दलों को आपसी कड़वाहट भुलाकर हाथ मिलाकर चलना जरूरत और मजबूरी है। 

1989 के लोकसभा चुनावों में बसपा को 3 सीटें और 2.1 प्रतिशत वोट मिले, 1991 के लोकसभा चुनावों में बसपा को 3 सीटें और 1.8 प्रतिशत वोट मिले, 1996 के लोकसभा चुनावों में बसपा को 11 सीटें और 4.0 प्रतिशत वोट मिले, 1998 के लोकसभा चुनावों में बसपा को 5 सीटें और 4.7 प्रतिशत वोट मिले, 1999 के लोकसभा चुनावों में बसपा को 14 सीटें और 4.2 प्रतिशत वोट मिले, 2004 के लोकसभा चुनावों में बसपा को 19 सीटें और 5.3 प्रतिशत वोट मिले, 2009 के लोकसभा चुनावों में बसपा को 21 सीटें और 6.2 प्रतिशत वोट मिले, 2014 के लोकसभा चुनावों में बसपा को दिलचस्प रूप से 4.2 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 2.3 करोड़ वोट मिले और तीसरे स्थान पर आई थी, लेकिन उसकी झोली में कोई सीट नहीं थी। 2019 के लोकसभा चुनावों में बसपा 10 सीटें और 3.2 प्रतिशत या 2.22 करोड़ वोटों के साथ तीसरे स्थान पर आई थी। बसपा का ग्राफ पहले की अपेक्षा निश्चित रूप से गिरा है इसके कारण जो भी रहे हों परन्तु उसकी प्रभावशीलता आज भी बरकरार है। भारत के 16 राज्यों में बसपा की उपस्थिति आज भी मौजूद है। अभी तक अंबेडकरवादियों या बहुजनों की बड़े जनाधार वाली एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी बसपा ही है। हालांकि, अंबेडकर और कांशीराम के अनुयाइयों ने 60 से अधिक छोटी-छोटी राजनीतिक पार्टियां बना ली हैं। मा. कांशीराम साहब का लक्ष्य सम्राट अशोक का भारत बनाना था जो अभी पूरा होने में न जाने कितने वर्ष लगेंगे। अगर बहुजन समाज पार्टी बहुजनों के राजनीतिक और सामाजिक संगठनों के साथ संवाद करना शुरू करदे तो यह काम बहुत जल्दी आसान हो जाएगा और मान्यवर कांशी राम साहब की बहुजन विरासत बची रहेगी। 

जून 7, 2019 की स्थिति के अनुसार भारत में 8 "राष्ट्रीय दल" के रूप में मान्यता प्राप्त पार्टियों में  1. भारतीय जनता पार्टी, 2. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, 3. बहुजन समाज पार्टी, 4. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, 5. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, 6. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और 7. आल इंडिया तृणमूल कांग्रेस और 8. पी ए संगमा द्वारा स्थापित प्यूपिल पार्टी ऑफ़ इंडिया पार्टी शामिल हैं। चुनाव आयोग की शर्तों के अनुसार 1996-97 से बहुजन समाज पार्टी तीसरे नंबर की राष्ट्रीय पार्टी बनी हुई है। हालांकि बहुजन राजनीति की सबसे बड़ी सफलता यह है कि भारत की आठ राजनीतिक पार्टियों में से पांच का नेतृत्व बहुजन समाज के नेताओं के हाथ में है। इन पांच में से तीन (बसपा, कांग्रेस और सीपीआई) का नेतृत्व अनुसूचित जाति की (मायावती, मल्लिकार्जुन खरगे और डी राजा), चौथी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व OBC के शरद पावर और पांचवीं नेशनल पार्टी पीपीआई का नेतृत्व ईसाई-ST समाज के संगमा के हाथ में है। जबकि तीन राट्रीय पार्टियों का नेतृत्व ब्राह्मण समाज के हाथ में रह गया है। जिनमें भाजपा के अध्यक्ष जे पी नड्डा, टीएमसी की नेता ममता बनर्जी और सीपीआईएम के नेता सीता राम येचुरी ब्राह्मण समाज से सम्बंधित हैं। मा. कांशीराम साहब के समय में सात राष्ट्रीय पार्टी थीं उन सभी का नेतृत्व ब्राह्मण समाज के हाथ में होता था उसमें आज निश्चित रूप से कमी आई है।

मान्यवर कांशीराम जी की बहुजन राजनीति आज मजबूत बहुजन आंदोलन के रूप में प्रभावी हुई है और उनकी हिस्सेदारी लगातार धर्म, राजनीति, शासन-प्रशासन, आर्थिक सम्पदा और  शिक्षा में बढ़ रही है। यह मान्यवर द्वारा  बहुजन जमात की राजनीति को धार लगाने का ही परिणाम है। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने भी यह स्वीकार किया है कि “पंडितों ने जातियां बनाई हैं’। जातियों का निर्माण करने वालों को आज यह चिंता सताने लगी है कि कल तक जो जाति का हथियार बहुजन समाज को ही कमजोर बनाता था वह आज ब्राह्मण समाज को भी नुकसान पहुंचाने लगा है। यही मकसद था मान्यवर कांशीराम का कि जातियां जिन्होंने बनाई हैं वे ही इस बीमारी का इलाज करेंगे जब यह बीमारी उनके लिए बीमार और कमजोर बनाएगी।