10 जुलाई 2012 को उच्चन्यायालय उत्तराखंड ने श्री विनोद प्रकाश नौटियाल व अन्य व उत्तराखंड राज्य व अन्य के वाद में उत्तरप्रदेश लोकसेवाएं (अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण) अधिनियम 1994 की धारा 3 (7) को निरस्त कर दिया गया है। जिससे राज्य की सेवाओं में (चूंकि उत्तराखंड राज्य बनते समय इस अधिनियम को यथावत् लागू किया गया था।) अनुसूचित जाति एचं अनुसूचित जनजाति के लिए पदोन्नति में आरक्षण का प्रावधान करने वाली वर्तमान में कोई धारा मौजूद नहीं है। अतः राज्य सरकार वर्तमान में इन वर्गों को आरक्षण नहीं दे सकती है।
इस मुद्दे पर राज्य के तमाम कर्मचारी संगठनों ने हाईकोर्ट के फैसले के बाद उत्पन्न हुई वैधानिक स्थिति को यथावत् लागू करने के लिए 27 जुलाई को राज्यव्यापी प्रदर्शन किए। दूसरी ओर अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति के संगठनों एवं विधायकों और सांसदों ने राज्य सरकार पर पदोन्नति में आरक्षण का प्रावधान करने के लिए आवश्यक अधिनियम बनाने का दबाव बनाया है। इसके फलस्वरूप मुख्यमंत्री ने एक पांच सदस्यीय मंत्रीमंडलीय उपसमिति का गठन किया है। जो एक माह के भीतर उक्त विषय पर अपनी सिफारिशें देगी। इस घटनाक्रम के बाद राज्य में एक अजीब सी बेचैनी का माहौल व्याप्त है। सामान्य व आरक्षित वर्ग के कर्मचारियों के बीच की कड़वाहट सतह पर आ गई है। हाईकोर्ट के फैसले में धारा 3 (7) को यह कहते हुए निरस्त कर दिया गया है कि संदर्भित धारा को कुछ याचिकाओं द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी। मामला अंततः सुप्रीमकोर्ट पहुंचा। जिसमें कोर्ट ने एम नागराजा व अन्य बनाम भारत संघ व अन्य 2006 में दिए गए निर्णय के अनुरूप न होने के कारण 3 (7) को निरस्त कर दिया था।
हाईकोर्ट नैनीताल ने अपने फैसले में यह भी टिप्पणी की है कि यदि राज्य सरकार संविधान की भावना और एम नागराजा के मामले में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार यदि कोई अधिनियम लाती है तो यह फैसला उसमें कोई बाधा नहीं बनेगा। पूरे मामले को समझने के लिए हमें एम नागराजा मामले की ओर मुड़ना होगा। दरअसल 2006 में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष आए इस वाद में याचिकाकर्ता द्वारा संविधान (85वां संसोधन) अधिनियम 2001, संविधान (77वां संसोधन) अधिनियम 1995, संविधान (81वां संसोधन) अधिनियम 2000, संविधान (82वां संसोधन) अधिनियम 2001, में किए गए संविधान संसोधनों को अविधिमान्य ठहराने की मांग की गई थी। दरअसल संविधान (77वां संसोधन) अधिनियम 1995 द्वारा संविधान में अनुच्छेद 16 (4क) जोड़ा गया जिसमें यह कहा गया कि राज्य अनुसूचित जातियों अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में, जिनका राज्य की राय में राज्य की सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, आरक्षण का प्रावधान कर सकता है। यहां महत्वपूर्ण है कि लोक नियोजन में अवसर की समानता का प्रावधान 16 (1) एवं राज्य को पिछड़े वर्गों के लिए लोक नियोजन में विशेष प्रावधान करने के लिए सक्षम बनाने वाला अनुच्छेद 16 (4) मूल संविधान में मौजूद थे। संविधान (85वां संसोधन) अधिनियम 2001 जो कि 17 जून 1995 से लागू माना गया द्वारा अनुच्छेद 16(4क) में कुछ शब्द प्रतिस्थापित करके राज्य को यह शक्ति दी गई कि वह अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में जिनका राज्य की सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, राज्य की सेवाओं में(किसी वर्ग या वर्ग के पदों पर परिणामी श्रेष्ठता सहित प्रोन्नति के मामलों में) आरक्षण का प्रावधान कर सकता है। संविधान (81वां संसोधन) अधिनियम 2000 द्वारा अनुच्छेद 16(4ख) स्थापित किया गया जो कि राज्य को यह शक्ति देता है कि वह 16(4) या 16(4क) के अधीन दिए गए आरक्षण से बनने वाली रिक्तियों को जो कि किसी वर्ष नहीं भरी जा सकी हैं, आगामी वर्ष/वर्षों में भरने के लिए पृथक रिक्तियों के रूप में विचार में ले सकता है इस स्थिति में वहां 50 प्रतिशत का नियम लागू नहीं किया जा सकता है। संविधान (82वां संसोधन) अधिनियम 2001 द्वारा अनुच्छेद 335 में परंतुक जोड़ा गया जिससे एससी व एसटी के सदस्यों के पक्ष में पदों या प्रोन्नति के मामलों में आरक्षण के लिए अर्हक अंकों में छूट का प्रावधान किया गया।
इन सभी संविधान संसोधनों के विषय में याचिकाकर्ता द्वारा यह कहा गया कि यह संसोधन संविधान के अनुच्छेद 16(1) में दिए गए अवसर की समता की भावना के विरूद्ध है। और चूंकि यह संसोधन संसद ने न्यायपालिका द्वारा समय समय पर दिए गए निर्णयों को पलटने के लिए किए गए हैं अतः यह न्यायपालिका की शक्ति का संसद द्वारा अवैध तरीके से स्वयं में सामाहित करना है। इसलिए यह संविधान संसोधन रद्द होने चाहिए। साथ ही याचिकाकर्ता द्वारा कहा गया कि संविधान का अनुच्छेद 16(4) जो कि राज्य को पिछड़े वर्गों के नागरिकों के लिए विशेष प्रावधान करने के लिए सक्षम बनाता है, मात्र एक इनेब्लिंग प्रावधान है। जो कि 16(1) को कमजोर नहीं कर सकता।
इस मामले में कोर्ट ने बहुमत से उक्त सभी संविधान संसोधन अधिनियमों को संवैधानिक रूप से विधिमान्य ठहराया। जिससे यह स्पष्ट हो गया कि पदोन्नति में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए राज्य आरक्षण का प्रावधान कर सकता है। परंतु कोर्ट ने इसी फैसले में यह व्यवस्था भी दी कि जिस वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान किया जाए वह वर्ग पिछड़ा हो, राज्य की सेवाओं में उसका प्रतिनिधित्व अपर्याप्त हो और साथ ही इस प्रकार के प्रावधान में अनुच्छेद 335 की भावना के अनुरूप प्रशासनिक दक्षता के अप्रभावित रहने का ध्यान रखा जाय अर्थात पदोन्नति में आरक्षण किया जा सकता है बशर्ते पिछड़ापन अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के क्वांटिफाएबल आंकड़े मौजूद हों और ऐसा करने से प्रशासनिक दक्षता अप्रभावित रहे। इस प्रकार इस फैसले ने कतिपय पूर्वपीठिकाओं के साथ पदोन्नति में आरक्षण को विधिमान्य ठहराया है।
परन्तु इन पंक्तियों के लेखक के विचार में कुछ प्रश्न हैं जो कि लेखक के संवैधानिक विधि का औरपचारिक छात्र ना होने के कारण उसकी सीमाएं भी हेा सकती हैं। परंतु इन प्रष्नों पर विचार कीजिए। वर्तमान में अनुच्छेद 16(4क) व 16(4ख) से पदोन्नति में आरक्षण का प्रावधान है। यदि पदोन्नति में आरक्षण के लिए अपर्याप्त प्रतिनिधित्व, पिछड़ापन के क्वांटिफाएबल डाटा इकट्ठे करने हैं तो 16(4) के अधीन नियुक्तियों में आरक्षण का प्रावधान करते हुए भी उक्त क्वांटिफाएबल डाटा इकट्ठे करने चाहिए। क्योंकि जिन वर्गों को नियुक्ति में आरक्षण मिलता है उन्हें ही पदोन्नति में भी (ओबीसी को छोड़कर)।
इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ के वाद में 13 जजों की संवैधानिक पीठ ने यह कहा है कि हिंदू समाज में जाति अपने आप में पिछड़े वर्ग का सूचक हो सकती है साथ ही यह भी कहा गया है कि 16(4) में जिस पिछड़ेपन की बात कही गई है वह मुख्यतः सामाजिक पिछड़ापन है।
यदि नियुक्तियों और पदोन्नतियों में आरक्षण के प्रावधान संविधान के एक ही अनुच्छेद/अनुच्छेदों से वैधता ग्रहण करते हों तो फिर यदि नियुक्तियों के समय पिछड़ापन और अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के क्वांटिफाएबल डाटा प्रस्तुत ना किए गए हों तो पदोन्नतियों में आरक्षण के समय ऐसे आंकड़े प्रस्तुत करना कैसे बाध्यकारी हो सकता है। यदि कोई जाति/वर्ग नियुक्ति के समय पिछड़ा है तो पदोन्नति के समय अगड़ा कैसे हो जाएगा? अथवा हम इसे इसके उलटे भी समझ सकते हैं कि वर्तमान में यदि क्वांटेफाएबल डाटा ना होने से पदोन्नति में आरक्षण कुछ राज्यों में अवैध है। तो इसी आधार पर यह नियुक्तियों में भी अवैध हो जाएगा। कृपया मेरी शंका का समाधान सुधि पाठक करें।
एक अन्य समस्या भी है जो कि अनुच्छेद 335 के निर्वचन से पैदा होती है। आरक्षण का प्रावधान करते समय अनुच्छेद 335 को ध्यान में रखने की बात कही गई है। अनुच्छेद की भाषा इस प्रकार है। ‘‘संघ या किसी राज्य के क्रिया-कलाप से संबंधित सेवाओं और पदों के लिए नियुक्तियां करने में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के दावों का प्रशासन की दक्षता बनाए रखने की संगति के अनुसार ध्यान रखा जाएगा।’’ इस अनुच्छेद का निर्वचन कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस तरह किया गया है कि यह 16(4) के अधीन दिए जाने वाले आरक्षण पर एक मर्यादा आरोपित करता है। परंतु यहां एक महत्वपूर्ण बात यह है कि अनुच्छेद 335 संविधान के किस भाग का अंग है। यह अनुच्छेद भाग 3 में नहीं है जो कि मूल अधिकारों से संबंधित भाग है और राज्य पर कुछ मर्यादाऐं आरोपित करता है। बल्कि अनुच्छेद 335 भाग 16 का एक अनुच्छेद है और संविधान का यह भाग कुछ वर्गों के लिए विषेश उपबंध करने के लिए बनाया गया है। इस भाग में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए राजनीतिक आरक्षण, अनुसूचित जाति जनजाति आयोग इत्यादि के संबंध में कई रक्षोपाय हैं। अनुच्छेद 335 को छोड़कर भाग 16 का कोई अन्य अनुच्छेद अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सेवाओं और पदों में उनके दावों के बारे में बात नहीं करता है।
यदि संविधान निर्माता अनुच्छेद 335 को इन वर्गों के राज्य की सेवाओं में दावों की मर्यादा के रूप में रखना चाहते तो वह इसे भाग 3 में रखते ना कि भाग 16 में।
दरअसल ‘सेवाओं में अनुसूचित जातियों जनजातियों के दावों का ध्यान रखा जाएगा।’ यह उपधारणा इसे भाग 16 में रखे जाने योग्य बनाती है। और इसीलिए यह भाग 16 में है ना कि प्रशासनिक दक्षता के मानक के कारण।
संविधान निर्माताओं ने जिस उद्देष्य से अनुच्छेद 335 को भाग 16 में रखा उस पर निर्वचन में ध्यान नहीं दिया गया बल्कि ‘प्रशासनिक दक्षता’ पर अधिक ध्यान दिया गया। जिससे यह भाग 16 के अन्य अनुच्छेदों से मूल भावना और उद्देश्य के स्तर पर विपरीत हो गया। यदि प्रशासनिक दक्षता का वाक्यांश गौण नहीं होता तो यह अनुच्छेद भाग 16 में नहीं रखा गया होता और यदि रखा भी गया होता तो किसी अनुच्छेद के परंतुक अथवा अपवाद के रूप में ना कि मूल अनुच्छेद के रूप में।
इस प्रकार हम देखते हैं कि एम नागराजा बनाम भारत संघ के मामले में दिए गए निर्णय के बाद भी अपर्याप्त प्रतिनिधित्व पिछड़ापन और प्रशासनिक दक्षता के विषय में न्यायिक पुनर्विचार याचिका का रास्ता खुला हुआ है।
यह तो रही बात संवैधानिक और वैधानिक स्थिति की अब बात करें सामाजिक स्थिति की। संवैधानिक और वैधानिक दस्तावेज यदि सामाजिक सच्चाईयों पर आधारित नहीं होंगे तो वे निष्फल हो जाऐंगे। भारतीय संविधान में जिस समानता की बात कही गई है। वह एक आदर्श है। यहां का समाज भयंकर असमानता का समाज है और जातिप्रथा भारत की सर्वव्यापी सच्चाई है। लोकनियोजन में अवसर की समता की अवधारणा सामाजिक असमानता से अप्रभावित नहीं रह सकती। इसलिए संविधान में समानों के साथ समान व्यवहार और असमानों के साथ असमान व्यवहार अर्थात युक्ति युक्त विभेद की अवधारणा अपनाई गई है और राज्य को नागरिकों के युक्ति युक्त वर्गीकरण की शक्ति प्रदान की गई है।
वर्तमान में उत्तराखंड में पदोन्नति में आरक्षण के मसले पर हाईकोर्ट के फैसले के बाद जिस तरह से तमाम कर्मचारी संगठनों शिक्षक संगठनों, ट्रेड यूनियनों ने हाईकोर्ट के फैसले को लागू करने के लिए आंदोलन छेड़ा हुआ है, (वास्तव में पदोन्नति में आरक्षण के लिए कानून बनाना भी हाईकोर्ट के फैसले की भावना के अनुरूप है।) उससे सामाजिक वर्चस्व की संरचनाओं को स्पष्ट देखा जा सकता है। चूंकि कर्मचारी संगठनों के चुनावों में आरक्षण नहीं है अतः वहां अनुसूचित जाति एवं जनजाति का प्रतिनिधित्व भी नहीं है। जब ये कर्मचारी संगठन पदोन्नति में आरक्षण का विरोध करते हैं। तो वे राज्य के 19 प्रतिशत अनुसूचित जातियों और 4 प्रतिशत अनुसूचित जनजातियों के कर्मचारियों के प्रतिनिधित्व का दावा नहीं कर सकते और वे कर भी नहीं रहे हैं। राज्य के शिक्षक सरकारी संघ सवर्ण वर्चस्व का जीता जागता नमूना हैं और इनके रवैये से सांगठनिक चुनावों में आरक्षण की अनिवार्यता स्पष्ट होती है। इसके अतिरिक्त राज्य के मीडिया ने अपनी भूमिका निष्पक्ष तौर पर कतई नहीं निभाई है। आरक्षण के विरोध में होने वाले प्रदर्शनों और गोष्ठियों को तो मीडिया ने काफी कवरेज दिया लेकिन अनुसूचित जातियों और जनजातियों की आवाज को नाम मात्र का ही कवरेज मिला। आरक्षण के विरोध में कोर्ट का फैसला आने पर गाल बजाने वाला मीडिया आखिर किसका है? वस्तुनिष्ठता भारत के मीडिया में है ही नहीं। यह सवर्ण वर्चस्व की एक और बानगी है।
अनुसूचित जातियां एवं जनजातियां कोई पुश्तैनी जमीदारों के वंशज नहीं हैं। आम तौर पर ये भूमिहीन और छोटे मोटे काम करने वाली श्रमशील जातियां हैं। जो वर्गीय रूप से कमजोर और सामाजिक रूप से तिरस्कृत हैं। उत्तराखंड के भूसंबंध गूंठ परंपरा, जागीरदारी, पुरोहित पंथी पर आधारित हैं। जो कि सवर्ण केंद्रित हैं। जिसके कारण अनुसूचित जातियों-जनजातियों का पिछड़ापन स्पष्ट है। आरक्षण प्राप्त अनुसूचित जाति जनजाति एक कर्मचारी एवं अधिकारियों का एक से दो पीढ़ी पुराना इतिहास खेत मजदूरों और घुमंतू पशुपालकों का है। आरक्षण के प्रावधानों से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे शोषण की तमाम संरचनाओं का उन्मूलन कर देंगे परंतु वे सरकारी क्षेत्र में इन वर्गों की भागेदारी को कुछ हद तक बढ़ाते हैं। जहां आरक्षण नहीं है वहां ये जातियां नहीं हैं। निजी क्षेत्र मीडिया कला उद्योग, व्यावसायिक प्रतिष्ठान, मनोरंजन आदि क्षेत्रों में इन वर्गों की उपस्थिति नगण्य है। कृषि में ये जातियां मालिकाना हक के साथ नहीं वरन् खेत मजदूरों के रूप् में हैं। देश भर में कृषि योग्य कुल भूमि के महज 4 प्रतिशत पर अनुसूचित जातियों का हक है। आम तौर पर जब आरक्षण की बात की जाती है तो शिक्षा, नौकरियों और राजनीतिक आरक्षण पर ही जोर दिया जाता है। परंतु सदियों से चले आ रहे सामाजिक आरक्षण की बात नहीं की जाती जो कि उच्च जातियों के पक्ष में है। मंदिरों में पुरोहितों का आरक्षण क्या आरक्षण नहीं है? इस आरक्षण के विरोध में कोई आवाज क्यों नहीं उठती? भूमि पर मालिकाना हक भी कतिपय उच्चजातियों के लिए ही आरक्षित है। व्यवसाय और उद्योग भी सामाजिक संरचना के अनुरूप उच्च जातियों के लिए ही आरक्षित हो जाते हैं। तो आरक्षण के सामाजिक स्वरूपों की भी चर्चा की जानी चाहिए। जिसमें केवल संसाधनों पर कतिपय जातियों का वर्चस्व ही शामिल नहीं है वरन् उच्च-निम्न, पवित्र-अपवित्र, अस्पृष्यता जैसी अमानवीय प्रथाऐं इन सामाजिक आरक्षणों के चलते ही पनपती हैं।
लोक नियोजन तो सामाजिक गतिविधियों का छोटा सा हिस्सा है। जब समाज में अवसर की समता हो तो ही लोकनियोजन में अवसर की समता सच्चे अर्थों में आ सकती है।
चूंकि हमारे समाज में कतिपय जातियों के सदस्यों के लिए अवसर की समानता नहीं है और हमने आर्थिक विकास के जिस ढांचे को चुना है वह संसाधनों के सामाजिक नियंत्रण के सिद्धांत को बाध्यकारी नहीं मानता है। अतः विकास (यदि उसे विकास कहा जा सके) की दौड़ में इन वर्गों के लिए विशेष उपाय आवश्यक हैं। अथवा एक गंभीर असंतुलन पैदा हो जाएगा। कई लोगों का तर्क रहता है कि नियुक्तियों में आरक्षण के बाद पदोन्नति में आरक्षण की आवश्यकता नहीं है। वर्तमान में कम से कम उत्तराखंड राज्य की स्थिति यह है कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षित पदों का हजारों की संख्या में बैकलाॅग नहीं भरा गया है। इससे पता चलता है कि सरकारें इन वर्गों को संवैधानिक भावनाओं के अनुरूप पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने में असफल रही हैं। यदि किसी तरह अनुसूचित जातियों और जनजातियों के सदस्य राजकीय सेवाओं में आ भी जाएं तो क्या तथाकथित ‘अवसर की समानता’ के पक्षधर यह दावा कर सकते हैं कि इन वर्गों के नौकरी पेषा लोग जाति के आधार पर थोपी गई निर्योग्यता के शिकार नहीं होंगे? स्थिति इतनी खराब है कि अनुसूचित जाति के अधिकारी कर्मचारियों को किराए पर कमरा नहीं मिलता। कई कर्मचारी बताते हैं कि किस प्रकार उन्हें अपनी पहचान छुपाकर आवास की व्यवस्था करनी पड़ती है। सामान्यतया अनुसूचित जाति जनजाति के कर्मचारियों की पोस्टिंग/स्थानांतरण में हमेशा ही भेदभाव बरता जाता है। कर्मचारी संगठनों में सवर्ण वर्चस्व के कारण इनकी आवाज को हमेशा ही दबा दिया जाता है। दूरदराज के इलाकों में इन वर्गों के अधिकारी तक सार्वजनिक जलाशयों से अपने आप पानी नहीं ले सकते। तो फिर लोकनियोजन में ‘अवसर की समता’ की अवधारणा काफी संकुचित हो जाती है। अनुच्छेद 17 के अस्प्रश्यता के अंत की घोषणा से जिस समता का प्रादुर्भाव होता है क्या उसे वास्तविक अर्थों में प्राप्त कर लिया गया है। संयोग से जिस समय यह लेख लिखा जा रहा है, उसी समय यह खबर आई है कि टिहरी-घनसाली में अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों को अलग पंक्तियों में बिठाकर मिड-डे मील दिया जा रहा है। (देखें मुखपृष्ठ, दैनिक अमर उजाला, 1अगस्त 2012)
सामाजिक वर्चस्व की श्रेणियां और भेदभाव मौजूद है। इसलिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों का यह दावा वैध है कि उच्च पदों में आरक्षण का प्रावधान होना चाहिए। उच्च पदों में इन वर्गों की नगण्य संख्या पदोन्नति में आरक्षण को जायज ठहराती है। कई लोगों का तर्क है कि राजकीय पदों में जातियों के आनुपातिक प्रतिनिधित्व का सिद्धांत जाति व्यवस्था को स्थाई रूप देता है और इससे भारतीय राज्य व्यवस्था का स्वरूप जातियों के कंफैडरेशन जैसा हो जाएगा। इन लोगों से यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि यदि सभी वर्गों की समुचित भागीदारी से जाति व्यवस्था मजबूत होती है तो क्या सवर्ण वर्चस्व से यह नष्ट होती है? यदि अलग अलग जातियों की समुचित भागीदारी को जातीय कंफैडरेशन कहा जाए तो वर्तमान सवर्ण वर्चस्व वाली व्यवस्था को सवर्ण साम्राज्यवाद ही कहना पड़ेगा जिसमें निम्न जातियों की स्थिति औपनिवेशिक है। निष्चित तौर पर कंफैडरेशन साम्राज्यवाद से बेहतर है। क्योंकि यदि उच्च जातियों को निम्न जातियों की समुचित भागीदारी स्वीकार नहीं है तो निम्न जातियों को उच्च जातियों का वर्चस्व क्यों स्वीकार होना चाहिए? वर्तमान मसले पर अनुसूचित जातियों और जनजातियों की क्रियाशीलता फिलहाल बैठकों और ज्ञापनों तक सीमित है। इन्होंने कोर्ट के आदेश को देखते हुए राज्य सरकार पर कानून बनाने के लिए दबाव बनाया हुआ है। परंतु असल रणनीति केंद्र सरकार पर संविधान संसोधन लाने के लिए दबाव बनाने की होनी चाहिए। ताकि एम नागराज में दिए गए फैसले को अधिक्रांत किया जा सके। हालांकि यह फैसला पदोन्नतियों में आरक्षण को वैधानिक ठहराता है परंतु क्वांटिफाएबल डाटा इकट्ठा करने की प्रक्रिया लंबी होगी। तदर्थ व्यवस्था के लिए भी संविधान संसोधन की आवश्यकता पड़ेगी इसके बगैर पदोन्नति में आरक्षण को एम नागराज फैसले के आधार पर अविधिमान्य ठहराए जाने की संभावना है।
पदोन्नति में आरक्षण का वर्तमान मसला जिस रूप में भी परिणत हो एक बात स्पष्ट हो गई है कि उत्तराखंड राज्य निर्माण के समय अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के द्वारा जो आशंकाएं व्यक्त की जा रही थी वे राज्य निर्माण के बाद सत्य होनी शुरू हो गई हैं। कम से कम आक्रामक कर्मचारी संगठनों के अनुसूचित जाति व जनजाति विरोधी रवैये से यह स्पष्ट हो गया है। यह नहीं भूला जाना चाहिए कि राज्य आंदोलन की बुनियाद आरक्षण विरोध है। यह राज्य जो कि कफलटा कांड, हनेरा कांड के लिए कुख्यात है, जहां अनुसूचित जाति की भोजन माताओं और विद्यार्थियों के साथ भेदभाव बहुत ही आम घटना है। यहां निम्न जातियों के लोगों को लंबे संघर्ष के लिए तैयार रहना होगा। *