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संविधान और संवैधानिक संस्थानों में बढ़ती घुसपैठ-पी. आई. जोस एडवोकेट

संविधान और संवैधानिक संस्थानों में बढ़ती घुसपैठ

सम्मानित देवियो और सज्जनों,

जब हम 'संविधान और संवैधानिक संस्थानों में बढ़ती घुसपैठ' के बारे में बात करते हैं, तो हमें सर्वप्रथम उस व्यापक संदर्भ और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझना चाहिए जिसमें हमारा संविधान लिखा गया था। इस प्रकार हमें संवैधानिक विचारधारा के बारे में एक स्पष्ट तस्वीर मिल जाएगी। संवैधानिक विचारधारा की अज्ञानता से संवैधानिक संस्थानों के संचालकों की फ़ौज में 'सम्मानित अतितियों' और संविधान की मूल भावना को नुकसान पहुंचाने वाले 'घृणित घुसपैठियों' के बीच अंतर करना मुश्किल होता है।

आजादी के समय सकारात्मक और नकारात्मक विचारधाराओं के बीच चल रही रस्साकशी में एक ओर तो सकारात्मक पहलू यह था कि भारत और उसके 35 करोड़ लोगों को औपनिवेशिक शासकों के साथ-साथ देशी राजाओं से भी मुक्ति मिली तथा उदार विचारों वाले शिक्षित नेताओं और नागरिकों की फ़ौज भारत की सेवा करने के लिए तत्पर दिखाई दी। वहीं दूसरी तरफ देश एक अलग विघटनकारी विचारधारा के बीच चक्कर काट रहा था जिसमें धर्म के आधार पर भारत-विभाजन के कारण भारी विनाश हुआ, लाखों लोगों की जानें चली गयीं और लगभग डेढ़ करोड़ लोगों से भी अधिक लोगों को विस्थापित होना पड़ा। अस्पृश्यता और जातिवाद की पुरातन कुप्रथाओं के चलन के कारण भोली-भाली जनता का उत्पीड़न चरम सीमा पर था। इसके साथ देश की 65 फीसदी आबादी गरीबी के असहनीय दंश को भी झेल रही थी।

ऐसे समय में बाबा साहब डा. बी. आर. अम्बेडकर के साथ अनेकों उदारवादी नेताओं ने धर्म, मूलवश, जाति, लिंग या जन्मस्थान का विभेद के बिना हर नागरिक के लिए न्याय, समता और स्वतंत्रता के सार्वभौमिक सिद्धांतों के आधार पर एक संवैधानिक विचारधारा की स्थापना की। इसने संवैधानिक संस्थानों की नींव रखी और भारत के  हर नागरिक को मौलिक अधिकार दिए। संवैधानिक संस्थानों के माध्यम से विधि आधारित शासन की स्थापना करके संविधान के अंतिम लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए नीति निर्देशक सिद्धांतों का निर्धारण किया। इसमें न केवल संस्थानों के लिए बल्कि उन लोगों की सहायता हेतु व्यवस्था की गयी जो कमजोर लोगों की सहायता करना चाहते थे। इस कार्य में अग्रणी भूमिका निभाने वाले उन महान नेताओं को इस अवसर पर हम सलाम करते हैं। उनके संघर्ष के आगे नतमस्तक होते हैं जिन्होंने आजादी की सफल लड़ाई लड़ी तथा हमारे हितों की रक्षा करने वाला सक्षम  संविधान दिया।

हमारे संविधान का लक्ष्य एक भयमुक्त विकासयुक्त आदर्श समाज की स्थापना करना है। इसके लक्ष्य को साधने तथा परिणाम हासिल करने की जिम्मेदारी हमारे शासकों की है। इस सम्बन्ध में डा आंबेडकर ने कहा था की "संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो यदि उसको चलाने वाले बुरे है तो वह अंतत: बुरा ही साबित होगा।" 

आजादी के सत्तर सालों बाद भी हमारे देश के बहुत से नागरिक डर के साये में जीवन जी रहे हैं। ऐसे अनेकों मामले प्रकाश में आये हैं जिनमें भय से पीड़ित लोगों ने न्याय, समानता और स्वतंत्रता बहाल करने के लिए न्यायिक एवं संवैधानिक संस्थानों के समक्ष गुहार लगाई, परन्तु वहां पर अपेक्षित सुनवाई न होकर उल्टा उनके साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया गया जिससे वे निराश हो गए। ऐसे मामले लोगों के संज्ञान में तब आये जब  मॉब लिंचिंग से पीड़ित लोगों की चीखें और रोने की आवाज मुजफ्फरनगर, दादरी, ऊना, कोरेगांव, एनसीआर में चलने वाली लोकल ट्रेन, अलवर, कंधमाल, बिहार, राजस्थान और हापुड़ इत्यादि घटना स्थलों से लगातार आने लगीं। इस तरह की घटनाओं को यदि इकट्ठा किया जाय तो एक लम्बी लिस्ट बन जाएगी। 

आज हमारे सामने विचारणीय प्रश्न है, कि हम कौन से नेताओं के विचारों को आगे बढ़ाएं? क्या उनके विचारों को जिन्होंने विघटनकारी ताकतों के खिलाफ लड़ाई लड़ कर हमें एक आदर्श संविधान दिया; या फिर उनके विचारों को जिन्होंने गरीबों और अज्ञानी लोगों को जाति और सम्प्रदायों में बाँट कर, उत्तेजित करके, समाज में हिंसा की ज्वाला भड़का कर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा किया।

हमारे देश के प्रतिष्ठित संस्थानों जैसे चुनाव आयोग, आरबीआई, सीबीआई, सुप्रीम कोर्ट, कैग इत्यादि से चरमराहट की आवाजें निकल रही हैं। ...उक्त संस्थानों में जो कश्मकश आज चल रही है, इसे आप क्या नाम देंगे? यह चिंता का विषय है, आखिर हम इस हद तक कैसे पहुंचे?

मेरी रूचि उपरोक्त घटनाचक्र की विशिष्टताओं एवं गहराई में जाने की नहीं है। फिर भी, मैं यहां उल्लेख करना चाहूंगा कि इस मुद्दे पर कोई भी चर्चा केवल उन संस्थानों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, जिनके नामों का संविधान में विशिष्ट तौर पर उल्लेख मिलता है, बल्कि आज की चर्चा में संवैधानिक संस्थानों के अतिरिक्त उन  महत्वपूर्ण विधिक संस्थानों को भी  शामिल करना चाहिए जिनका कार्य करने का तरीका  उनसे मिलता जुलता है। इस तरह के विधिक संस्थानों के कामकाज से ज्यादातर गरीब और समान्य जनता को ही न्याय प्राप्त करने का अवसर मिलता हो।

इस पृष्टभूमि में विभिन्न न्यायिक आयोगों के सृजन और कार्यप्रणाली के विशेष उल्लेख की आवश्यकता है, क्योंकि हर बार लोगों के साथ जब भी सामूहिक अन्याय किया जाता है, तो एक नए न्यायिक आयोग का गठन, आयोग अधिनियम 1952 के तहत किया जाता है। इस तरह के आयोगों में लोग इस लिए अपना विश्वास व्यक्त करते हैं क्योंकि वहां नियुक्त न्यायाधिकारी पूर्व में उच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश रह चुके होते हैं। हालांकि, उनके कामकाज का ट्रैक रिकॉर्ड और उनकी रिपोर्टें बहुत संतोषजनक नहीं रही हैं, और वे न्याय की दहलीज से कोसों दूर हैं। अनेकों आयोगों की जाँच रिपोर्टों ने विशिष्ट तौर पर यही निष्कर्ष निकला है कि बहुतसे संस्थानों में विघटनकारी और सांप्रदायिक एजेंडे को बढ़ावा देने के लिए नायब तरीकेअपनाए जाते हैं।

न्यायमूर्ति वेणुगोपाल आयोग की रिपोर्ट (1982 कन्याकुमारी दंगों की जाँच) से पता चलता है, "प्रशासन में घुसपैठ के तरीके अपनाकर पुलिस और सिविल सेवाओं के अधिकारियों के सांप्रदायिक दृष्टिकोण का  फायदा उठाते हुए उन्हें वैचारिक रूप से उत्प्रेरित किया, यहाँ तक कि साम्प्रदायिक दंगे कराने में उनका तकनीकी रूप से दुरपयोग किया।“ हम नहीं समझते इन निष्कर्षों पर शायद ही कभी कोई चर्चा अथवा कार्रवाई हुई हो। उक्त न्यायिक आयोग के इस तरह के निष्कर्षों पर कुल तीन दशक  तक की निष्क्रियता ने ही देश को वर्तमान स्थिति में पहुंचाया है। इसलिए इस विषय पर संज्ञान लिए बिना कोई भी चर्चा अधूरी रहेगी।

फासीवादियों और मनुवादी घुसपैठियों की मौजूदगी हमेशा से उक्त संस्थानों में चली आ रही है। इन विगत दशकों में, जब वे हमारे दिमाग और संस्थानों में घुसपैठ कर रहे थे तब हम अपनी सतर्कता दिखाने में असफल रहे।

मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने मिनर्वा मिल्स मामले में कहा था "संविधान एक बहुमूल्य विरासत है और, इसलिए, आप इसकी पहचान को नष्ट नहीं कर सकते हैं", हालांकि यह एक 'जीवित संविधान' है, और प्रत्येक नागरिक के लिए 'न्याय, समानता और स्वतंत्रता के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए इसके विकास और इसकी प्रगति में किया गया हर सकारात्मक योगदान 'स्वागत अतिथि' है। लेकिन कोई भी ऐसा विचार जो संविधान की मूल भावना और उसके आदर्शों की अवहेलना करता है या खंडित करने की ओर  जाता है, वह न केवल असम्मान योग्य है अपितु घुसपैठिया या अनधिकृत प्रवेशकर्ता है।     

संविधान की तीसरी अनुसूची कुछ संवैधानिक पदों पर नियुक्त व्यक्तियों द्वारा शपथ लेने के प्रारूप प्रदान करती है। संविधान के प्रति सच्चे विश्वास और निष्ठा को वहन करने और कार्यालय के कर्तव्यों को निष्पादित करने के लिए 'भय या पक्ष पात, अनुराग या द्वेष के विरूद्ध वचनबद्धता है। फिर भी, हम हर कदम पर जाति और सांप्रदायिक पूर्वाग्रह का छिपा हुआ एजेंडा आगे बढ़ता देखते हैं।

44 वर्षीय मनीषा खोपकर ने 6 सितंबर 2018 को दक्षिण मुंबई में न्यायिक जांच कार्यालय से बाहर निकल कर 'वायर' को जो बात बताई वह 10 सितम्बर के अंक में छपी थी। इस रिपोर्ट को पड़ने के बाद ऐसा लग रहा है कि वास्तव में संवैधानिक और न्यायिक संस्थाओं में एक विचारधारा के लोगों की घुसपैठ हो चुकी है जो न्याय व्यवस्था को मनमाने तरीके से संचालित कर रहे हैं। रिपोर्ट के कुछ अंश आगे की लाइनों मैं उल्ल्खित हैं।  

1 जनवरी को पुणे के निकट भीमा कोरेगांव में हिंसा हुई थी।  उसके कारणों और  हिंसा के बाद राज्य के अन्य हिस्सों में उक्त कांड के विरुद्ध प्रतिक्रिया हुई।  उसके बाद कोरे गांव की घटना की जाँच हेतु दो सदस्यीय न्यायिक आयोग बनाया गया है। मनीषा खोपकर इस घटना की चश्मदीद गवाह हैं, वह इस सम्बन्ध में पहले हीअपना हलफनामा दायर कर चुकी हैं। मनीषा ने सोचा था कि उसके शिकायत से संबंधित पक्ष को सुना जायेगा और न्याय मिलेगा, इस लिए उसने अनिच्छा के बाबजूद सोच समझ कर महाराष्ट्र के ठाणे जिले के स्थानीय पुलिस आफिस में जहां वे रहते हैं, अपनी शिकायत (FIR) दर्ज कराई थी। इन नौ महीनों में, खोपकर कहते हैं, कोई भी मीडिया हाउस या राज्य के प्रतिनिधियों ने उनसे या 48 अन्य लोगों से संपर्क नहीं किया, इन 48 लोगों पर विजय स्तम्भ के रास्ते पर भीमा कोरगांव युद्ध की वर्ष गांठ  का जश्न मानते समय हमला हुआ था। हम, हमारे परिवार के सदस्यों और बच्चों पर 1 जनवरी 2018 के दिन निशाना बना कर हमला किया गया था। जब हम पुलिस (ठाणे) में शिकायत करने गए तो उन्होंने उलटे हमसे कहा कि हम झूठ बोल रहे हैं। दूसरे मुझे उम्मीद थी, कि कम से कम यह न्यायिक आयोग पीड़ितों के हितों की रक्षा जरूर करेगा। परन्तु सितम्बर में दो दिन की पूंछ-तांछ ने मुझे कुचल दिया है। इस सुनवाई से निराशा ही नहीं बल्कि अत्यंत परेशानी और दुःख महसूस हो रहा है। खोपकर ने बताया कि पार परीक्षा (क्रॉस एग्जामिनेशन) के पहले दिन 'कोरेगांव जाँच आयोग' के रिकार्ड में उसकी जाति के कॉलम पहले से ही भरे हुए थे, और मिलिंद एकबोटे के वकील नाइटन प्रधान ने सुझाव दिया कि उनकी जाति को उनकी पसंदीदा बौद्ध पहचान के मुताबिक "महार" के रूप में वर्णित किया जाए। परन्तु खोपकर अपने स्टैंड पर अडिग रहीं, इस लिए आयोग के रिकॉर्ड में विवरण बदलना पड़ा। दूसरे दिन के सत्र के दौरान, राज्य की ओर से उपस्थित वकील शिशिर हिरय कमीशन के समक्ष उसे बदनाम करने के इरादे से सबूत के तौर पर कथित तौर से चेक बाउंस के किसी पुराने मामले को उछाल रहे थे।

दो सदस्यीय जाँच समिति का नेतृत्व कलकत्ता उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जे. एन. पटेल एवं महाराष्ट्र के पूर्व मुख्य सचिव सुमित मलिक कर रहे हैं। उनके सामने वकीलों ने पीड़ित पक्ष से बार-बार पूछा कि क्या वह ब्राह्मणों से नाराज हैं, और इस समुदाय के प्रति उसके अंदर घृणा भरी है। स्पष्ट रूप से परेशान, खोपकर के वकीलों को यह कहना पड़ा कि इस तरह के सवाल अनुचित हैं। बार-बार खोपकर के वकीलों को बोलना पड़ता था कि वह कमीशन के समक्ष एक पीड़ित के रूप में उपस्थित हुए हैं, न कि एक अपराधी के रूप में।

न्यायिक संस्थानों में घुसपैठ की यह साज़िश अब किसी से छिपी नहीं है, बल्कि उपरोक्त घटना उनके खुले  एजेंडे का एक स्पष्ट उदाहरण है। हमारी विफलता और हमारे कार्य करने में अड़चन का मुख्य कारण संविधान विरोधी विचारधारा का देश के हर संस्थान में तादात से ज्यादा प्रवेश है। 

संविधान विरोधी लोगों के असमानता पर आधारित एजेंडे से कभी भी देश का विकास नहीं हो सकता। इन्हीं की विचारधारा के लोगों ने संविधान की समीक्षा के लिए न्यायमूर्ति वेन्केटेचेलेया की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया था। आज वही लोग संविधान की संवीक्षा की बात न करके संविधानिक संस्थानों, न्यायिक संस्थानों और विधिक संस्थानों में अपनी विचारधारा के प्रतिनिधियों का प्रवेश दिला कर अपने मकसद को पूरा करना चाहते हैं। हमें यकीन है, अब अधिकतर लोग इस तरह की रणनीति को समझ चुके हैं। 

घुसपैठ की प्रवृत्ति को दूर करने और स्थायी संवैधानिक समाधान लाने का केवल एक ही रास्ता है। वह है संवैधानिक संस्थानों और महत्वपूर्ण सत्ता प्रतिष्ठानों में हर सामाजिक वर्ग को कम से कम पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिले। वर्तमान में सभी संवैधानिक संस्थानों में हमारे लोगों का आनुपातिक प्रतिनिधित्व न के बराबर है। उच्च न्यायपालिका (उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट) में प्रतिनिधित्व के आंकड़ों में हम अपने समाज की तस्बीर देख सकते हैं। पिछले साल के संविधान दिवस पर भारत के माननीय राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद जी ने कहा था, "विशेष रूप से उच्च न्यायपालिका में ओबीसी, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति जैसे परंपरागत रूप से कमजोर वर्गों का अस्वीकार्य रूप से कम प्रतिनिधित्व है।"

ऊपरी न्यायपालिका में एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक न्यायाधीशों के प्रतिनिधित्व के संबंध में सरकार के पास भी कोई स्पष्ट आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। बौद्धिक वर्ग के सामाजिक संगठन अर्थात 'राष्ट्रीय समग्र विकास संघ' और 'आमोद' ने संयुक्त रूप से अपने प्रयासों से सरकारी स्रोतों के माध्यम से उच्च न्याय व्यवस्था में न्यायधीशों की नियुक्ति सम्बन्धी आंकड़े एकत्र करके, इस प्रपत्र के माध्यम से समाज को अवगत करा रहे हैं। इस सम्बन्ध में सरकार से न्यायिक सेवाओं के सम्पूर्ण आंकड़े प्रकाशित करने का निवेदन किया जायेगा। अभी 1 अक्तूबर 2018 की स्थिति के आधार पर उपलब्ध आंकड़े नीचे की तालिका में सभी सामाजिक श्रेणियों की जनसँख्या के प्रतिशत के साथ प्रस्तुत किये जा रहे हैं: 

तालिका 1: भारत की उच्च न्यायपालिका में श्रेणीवार प्रतिनिधित्व (संख्या)
श्रेणियों का नाम न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या कार्यरत न्यायाधीशों की संख्या महिला न्यायाधीशों की संख्या $ ओबीसी न्यायाधीशों की संख्या एससी/ एसटी न्यायाधीशों की संख्या अल्पसंख्यक न्यायाधीशों की संख्या कुल सवर्ण न्यायाधीशों की संख्या
भारत का सर्वोच्च न्यायलय    31 25 3 2 0 4 16
राज्यों के उच्च न्यायालय 1079 645 76 25 20 34 490
तालिका 2: कार्यरत न्यायाधीशों की संख्या में सामाजिक श्रेणियों का प्रतिनिधित्व और जनसँख्या में हिस्सा (%)
आबादी * न्यायाधीशों के रिक्त पद 100.00 - 439# 25.3 20.2 10.6
भारत का सर्वोच्च न्यायलय 19.4 100.00 12 8 0 16.0 64
राज्यों के उच्च न्यायालय 40.2 100.00 11.8 3.9 3.1 5.2 76.0
* जनगणना 2011 के अनुसार। $ महिलाएं एक को छोड़कर सभी सामान्य वर्ग से सम्बंधित है।
नोट: #ओबीसी वर्ग की आबादी मंडल कमीशन के अनुसार देश की जनसँख्या का 52.1 फीसदी है परन्तु यहाँ 43.9 फीसदी दर्शायी गयी है क्योंकि 8.2% फीसदी ओबीसी की आबादी अल्पसंख्यक वर्ग में भी शामिल है।

यह अत्यंत चिंता का विषय है की तथाकथित घुसपैठियों और विभाजनकारी ताकतों ने कमजोर वर्गों के चंद वैचारिक पिट्ठुओं और लालची लोगों को कुछ संविधानिक या विधिक संस्थानों में नाम मात्र का प्रतिनिधित्व देकर खाना पूर्ति करने की कोशिश की है। प्रतिनिधित्व की आड़ में संविधान-विरोधियों की मंशा महत्वपूर्ण संस्थानों पर कब्ज़ा करने की है। बहुजन वर्गों को नाममात्र का प्रतिनिधित्व देकर उनके सम्पूर्ण हिस्सेदारी के आंदोलन की धार को कमजोर करना कहते हैं। 

कमजोर वर्गों के ऐसे प्रतिनिधि अपने समाज के लोगों के हितों की रक्षा करने में नाकारा साबित हुए हैं। बल्कि ऐसे प्रतिनिधि अपने वर्ग के हितों के खिलाप बात करके अपने आका को खुश करने का प्रयास करते हैं। इस लिए बहुजन समाज का हित आज तक अधूरा है। संविधान में दिया गया प्रतिनिधित्व का अधिकार भी संविधान की मंशा को पूरा करने में अक्षम साबित हुआ है। बुद्दिजीवी वर्ग और सामाजिक संगठनों का दायित्व है कि कमजोर वर्गों के बोगस जनप्रतिनिधियों की कारगुजारियों को उजागर करके समाज के सामने लाने का प्रयास करें। तभी संविधान दिवस मानाने का मकसद पूरा होगा।

मैं अपनी बात को अब यहीं विराम देना चाहूंगा। हमारे समक्ष बहुत ही विद्वान और अनुभवी वक्ता गण मौजूद हैं। उन्हें हम लोग सुनना चाहते हैं। मुझे विश्वास है कि वे संविधान और संवैधानिक संस्थानों को तथाकथित घुसपैठियों से मुक्त करने के तरीके तथा संविधान के उच्च आदर्शों को हासिल करने में नागरिकों के योगदान पर यथोचित मार्गदर्शन करेंगे। अंत मैं अपनी बात कांशीराम जी के एक सर्वविदित नारे के साथ समाप्त करूँगा "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी"।

लेखक

पी. आई. जोस, एडवोकेट, सुप्रीमकोर्ट
‘राष्ट्रीय समग्र विकास संघ’ तथा ‘अमोद’,
25.11.2018 (रविवार)