मा कांशीराम साहब के 15वें परिनिर्वाण दिवस पर विशेष
मा. कांशीराम का मिशन अंबेडकर
-के सी पिप्पल
मा.कांशीराम साहब एक साइंटिस्ट थे, वे कैमिकल को मिलाकर नई कैमिस्ट्री बनाना बखूबी जानते थे। उन्होंने बाबासाहब की पुस्तक से जातियों के आधारभूत तत्वों को 6 वर्ष तक समझा। हिंदुत्व की राजनीतिक कैमिस्ट्री को समझा, कांग्रेस और गांधी की छिपी हुई जाति की राजनीति को समझा। देश में कमेरे वर्गों की आर्थिक स्थिति का अध्ययन किया। डॉ बाबा साहब अम्बेडकर के सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक आंदोलन को समझा। जब सारी बातें उनके समझ में आ गयीं तो उन्होंने निर्णय लिया कि इसकी असली चाबी खोजनी होगी। इसको खोजने के लिए उन्होंने बाबा साहब के आंदोलन के क्रम को उलट कर काम शुरू किया। 1973 से उन्होंने जातियों का ऑपरेशन शुरू किया। इसके बुद्धिस्ट रिसर्च सेंटर का थिंक टैंक बनाया, फिर ब्रेन-बैंक, मनी-बैंक, विचार बैंक और डायरेक्शन के लिए एक गैर राजनीतिक, गैर धार्मिक और गैर एजिटेशनल संगठन बनाया जिसको BAMCEF के नाम से जाना जाता है। इसके माध्यम से वेरोजगार छात्रों, महिलाओं और समाज सेवकों की सामाजिक फ़ौज तैयार की जिसका नाम दलित शोषित समाज संघर्ष समिति DS-4 रखा जिसके माध्यम से “अंबेडकर मेला ऑन व्हील”, से लेकर दलित बस्तियों में शराब की दुकानों और भट्टियों के विरुद्ध जेल भरो आंदोलन चलाया, जिसमें बड़े पैमाने पर महिलाएं बरेली जेल में गईं। इसके माध्यम से दिल्ली, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश में निर्दलीय तौर पर इलेक्शन की प्रेक्टिश अपने कैडर को कराई। 1980 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट का डाटा मिलते ही इसको लागू कराने की योजना बनाई इसके लिए पिछड़ा वर्ग आयोग के सदस्य रहे श्री एस डी सिंह चौरसिया, दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री चौधरी ब्रह्म प्रकाश, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री कर्पूरी ठाकुर जैसे अनेकों संगठनों का साथ लिया। कश्मीर से कन्याकुमारी तथा पोरबंदर से पुरी तक की सायकल यात्रा अपने कैडरों के साथ पूरी की, इससे पूरे देश में बहुजन समाज की बहुतसी जातियों का एक नेटवर्क तैयार किया। 14 अप्रेल 1984 से बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस की छुपी हुई जातिवादी मानसिकता को बहुजनों के बीच उजागर किया। परिणामस्वरूप, धीरे-धीरे कांग्रेस के प्रति बहुजनों का मोह भंग होने लगा। उत्तर प्रदेश में 1989 के इलेक्शन में 13 विधान सभा सीटें और तीन लोक सभा सीटें जीत कर धमाकेदार शुरुआत की। इसके बाद से कांग्रेस के वोट बैंक में गिरावट आने लगी, पहले 20% पर और बाद में 8-6% के बीच में स्थिर हो गया। बहुजन समाज पार्टी मात्र 11 वर्ष की अल्प आयु में दलितों के नेतृत्व वाली पहली और देश की तीसरी बड़ी राष्ट्रीय पार्टी बन गयी।
संविधान एक बड़ी क्रांति
बाबासाहब डॉ अंबेडकर को विपरीत परिस्थितियों में मनु द्वारा निर्मित असमानतावादी परंपरागत मान्यताओं को बदलने के लिए भारी संघर्ष करना पड़ा। इन मान्यताओं के विरूद्ध जितना संघर्ष इनके निर्माताओं के समाज से करना पड़ा उससे अधिक अपने समाज के उन लोगों से करना पड़ा जो इनके आदी हो चुके थे और छोड़ने को तैयार नहीं होते थे। इसके बावजूद भी उन्होंने इस बीमारी को काफी हद तक दूर करने में महान भूमिका निभाई थी। इस संदर्भ में भारत के संविधान को मनु की व्यवस्था और उसको टिकाए रखने वाले शास्त्रों के विरूद्ध एक क्रांति माना जाता है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 के द्वारा जाति विद्वेष की सबसे बड़ी बुराई (अस्पृश्यता) को जड़ से ही उखाड़ कर फैंक दिया। इसके बाबजूद उस व्यवस्था के पोषक तत्व सूखी हुई जड़ में पानी डाल कर विलाप करते रहते हैं। जयपुर के हाईकोर्ट परिसर में लगाई गई मनु की मूर्ति कानून के मंदिर में कानून के निर्माता को चिढ़ाने की एक प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा सकता है। ऐसे यथास्थितवादी लोगों को अंबेडकर की मूर्ति और भारतीय संविधान की समतामूलक व्यवस्थाएं फूटी आंख नहीं सुहाती हैं।
पानी, मंदिर और मताधिकार का संघर्ष
जाति के हथियार से कुचली गईं जातियां बिखर कर अस्तित्व विहीन हो गईं थीं उन्हें बहिष्कृत जातियों के नाम से जाना जाता था। शिक्षा से दूर होने के कारण वे अपने इतिहास को भूल गई थीं। उन्हें आर्थिक तंगी ने इतना बेहाल बना दिया था कि वे सिर्फ अपने पेट भरने के अलावा कोई दूसरी बात सोच ही नहीं पाते थे। अपमान, मानसिक प्रताड़ना, शारीरिक उत्पीड़न जैसे सामाजिक दण्ड उनके लिए आम बात बन गए थे। खाने के लिए मरे हुए जानवरों का मांस खाना, गोबर में से धोकर निकाले गए अन्न के दानों से बनी रोटियां खाकर जिंदा रहना सबसे बड़ी विवशता थी। पूरे देश में छितरी हुई 1108 बहिष्कृत या अछूत जातियों की कोई पहचान नहीं थी ऐसी अस्तित्व विहीन जातियों को "बहिष्कृत हितकारिणी सभा" नामक संगठन के सााथ संगठित करके बाबासाहेब अंबेडकर ने 1920-1927 तक उनकी एक अलग पहचान बनाई। उनके लिए 'मूक नायक" नामक एक अखबार मराठी भाषा में शुरू किया। नासिक में कालाराम मंदिर प्रवेश आन्दोलन और पानी के लिए महाद ताल का सत्याग्रह, उनके दोनों आंदोलनों ने संगठन के लिए अक्सीजन का काम किया। इनसे उत्साहित होकर उन्होंने अपना रुख राजनीतिक आंदोलन की तरफ किया और 1936 में "इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी" की स्थापना की और उससे मुंबई प्रांत में इलेक्शन लड़ कर बड़़ी संख्या में सीटें जीतकर इतिहास रचा। याद रहे 1918 में साइमन कमीशन भारत में मताधिकार देने के लिए आया था जो बहिष्कृत जातियों को भी वयस्क मताधिकार देना चाहता था जिसको तथाकथित यथास्थितवादियों और कांग्रेस द्वारा रोका गया। परंतु डॉ अंबेडकर की जागरूकता और अथक सक्रियता के कारण यह वयस्क मताधिकार मिल सका और 1919 में भारत सरकार का पहला इंडिया एक्ट बना जिसके तहत केंद्र में दो सदन वाली विधानसभा के निचले सदन के 145 सदस्यों में से 30 मुसलमान सदस्यों का चुनाव पृथक निर्वाचन मंडल के द्वारा किया जाता था, इसमें केवल मुसलमान वोटर ही मुसलमान प्रतिनिधि को चुनते थे। इसी तरह सिखों को भी सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व का विशेषाधिकार प्राप्त हो गया और सिखों को भी पृथक निर्वाचन मंडल में शामिल किया गया। मुसलमान और सिखों का राजनीतिक महत्व प्रांतीय विधान मंडलों में बड़ गया। उस समय तक मताधिकार सभी लोगों को नहीं मिल पाया था, वह संपत्ति विषयक योग्यता पर आधारित था। सरकार को टैक्स के रूप में एक निश्चित रकम अदा करने वाले को ही मताधिकार प्राप्त था। सन 1920 में भारत की कुल जनसंख्या 14 करोड़ 17 लाख थी, जिसमें से केवल 53 लाख लोगों को अर्थात केवल 5% वयस्क लोगों को ही मताधिकार प्राप्त था। महिलाओं को मताधिकार नहीं दिया गया था न ही उन्हें चुनाव में खड़े होने का अधिकार था, जबकि ब्रिटेन में महिलाओं को मताधिकार 1918 में ही प्राप्त हो चुका था।
अधिनियम 1935 से सीमित लोकतंत्र प्रारम्भ
1919 का अधिनियम भी भारतीय लोगों की मांगों और अपेक्षाओं से बहुत कम था। स्वतंत्रता आंदोलन की अगुवाई करने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1919 के अपने वार्षिक सत्र में इसे 'अपर्याप्त', 'असंतोषजनक' और 'निराशाजनक' बताया। मई 1928 में, बॉम्बे में एक सर्वदलीय सम्मेलन आयोजित किया गया था, और इसके तहत एक समिति नियुक्त की गई थी। स्वतंत्र भारत के संविधान के सिद्धांतों को निर्धारित करने के लिए श्री मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में समिति ने अन्य बातों के साथ-साथ, भारत की राजनीतिक स्थिति को अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों-ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका-भारत के लिए एक द्विसदनीय संसद, सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार, अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित सीटों पर उम्मीदवार का चुनाव प्रथक मताधिकार से नहीं बल्कि उसकी जगह संयुक्त मतदाताओं के द्वारा कराए जाने का प्रस्ताव दिया।
1919 के अधिनियम के संवैधानिक ढांचे से भारतीय लोगों के मोहभंग के परिणामस्वरूप, ब्रिटिश सरकार ने सभी जातीय और धर्म के भारतीय नेताओं के साथ कई गोलमेज सम्मेलन आयोजित किए। जिनमें दलितों के प्रतिनिधि के रूप में डॉ अंबेडकर ने हिस्सा लिया। इसके बाद मार्च 1933 में एक श्वेत पत्र प्रकाशित किया गया, जिसमें केंद्र में द्वैध शासन और प्रांतों में एक जिम्मेदार सरकार के साथ भारत के लिए एक नया संवैधानिक आदेश प्रस्तावित किया गया था। हालांकि, श्वेत पत्र को भी कांग्रेस के लोगों ने खारिज कर दिया था। इस अस्वीकृति के बावजूद, ब्रिटिश संसद ने 2 अगस्त 1935 को भारत सरकार अधिनियम 1935 पारित कर दिया। इस अधिनियम में ब्रिटिश सरकार के प्रांतों और भारतीय रियासतों के एक संघीय ढांचे की परिकल्पना की गई थी। इसने एक द्विसदनीय संघीय विधायिका स्थापित करने का प्रस्ताव रखा। इसमें एक उच्च सदन, जिसे राज्य परिषद कहा जाता था, और एक निचला सदन, जिसे विधानसभा या संघीय सभा कहा जाता था।
राज्य परिषद की कुल सदस्य संख्या 260 थी, जिनमें से 104 से अधिक भारतीय रियासतों के शासकों के प्रतिनिधि होंने का प्रावधान था। शेष 156 सदस्य ब्रिटिश सरकार के प्रांतों के प्रतिनिधि होने थे। इन 156 सदस्यों में से छह गवर्नर-जनरल द्वारा नामित किए जाने थे, 75 हिंदुओं द्वारा, 49 मुसलमानों द्वारा, चार सिखों द्वारा, सात यूरोपीय लोगों द्वारा, दो भारतीय ईसाइयों द्वारा, एक एंग्लो- भारतीय, 6 महिलाओं द्वारा और 6 प्रतिनिधि अनुसूचित जातियों की पहली अनुसूची में दर्ज जातियों द्वारा चुने जाने की व्यवस्था थी, उन्हें सीधे निर्वाचन क्षेत्रों से चुना जाना था, लेकिन एक बहुत ही संकीर्ण मताधिकार द्वारा। उन्हें नौ साल तक परिषद में बने रहने का अधिकार था, उनमें से एक तिहाई हर तीन साल के बाद सेवानिवृत्त होने थे। इस प्रकार, परिषद को एक स्थायी सदन बनाया गया था।
संघीय सभा में 375 से अधिक सीटें नहीं होनी थीं, जिनमें से 125 सीटें भारतीय रियासतों के शासकों के प्रतिनिधियों द्वारा भरी जानी थीं। शेष 250 सीटों का प्रतिनिधित्व ब्रिटिश प्रांतों द्वारा किया जाना था। इन सीटों को प्रांतीय विधान सभाओं के सदस्यों द्वारा चुनाव द्वारा भरा जाना था। इस प्रकार, संघीय विधानसभा के चुनाव अप्रत्यक्ष रुप से होने थे। यहां पर भी, सांप्रदायिक मतदाताओं को प्रोत्साहित किया गया था। उदाहरण के लिए, मुसलमानों को 82 सीटें, भारतीय ईसाइयों और यूरोपीय लोगों को आठ-आठ, सिखों को छह और सामान्य को 105 सीटें दी गईं। फेडरल असेंबली का कार्यकाल पांच साल होना था। उपरोक्त चुनावों के लिए निर्वाचक के रूप में नामांकन की पात्रता भी प्रतिबंधित थी और यह कराधान, संपत्ति, शिक्षा, सरकारी सेवा आदि पर निर्भर थी, और एक राज्य से दूसरे राज्य (1935 के अधिनियम की छठी अनुसूची के अनुसार) से दूसरे राज्य में मताधिकार की योग्यता में भिन्न थी।
हालाँकि, 1935 के अधिनियम के तहत परिकल्पित संघीय योजना में 1919 अधिनियम के तहत संवैधानिक व्यवस्था को ही जारी रखा गया था। 1935 के अधिनियम में प्रत्येक ब्रिटिश प्रांत में एक विधायिका का प्रावधान भी किया गया था। असम, बंगाल, बिहार, संयुक्त प्रांत, बॉम्बे और मद्रास में द्विसदनीय विधायिकाएँ थीं, जिनमें दो सदन शामिल थे, अर्थात् विधान सभाएँ और विधान परिषद; अन्य प्रांतों में एक एकल सदन होना था जिसे विधान सभा कहा जाता था। इन विधानसभाओं और परिषदों की ताकत एक प्रांत से दूसरे प्रांत में भिन्न होती थी (पांचवीं अनुसूची), जबकि विधान परिषदों को स्थायी सदन की मान्यता थीं जिसमें उनके एक तिहाई सदस्य हर तीसरे वर्ष सेवानिवृत्त होने थे, विधान सभाओं का कार्यकाल पाँच वर्ष का होना था या जब तक कि प्रांतीय गवर्नर द्वारा उसे पहले भंग न कर दिया जाए। इसमें गवर्नर-जनरल को कुछ विशेष अधिकार देकर संघीय व्यवस्थापिका को शक्तिहीन बना दिया गया। मुस्लिम लीग ने प्रांतीय स्वायत्तता की माँग पर जोर दिया था, ताकि मुस्लिम बहुमत वाले प्रांतों में वे स्वतंत्र और केन्द्र से मुक्त रह सकें।
इस अधिनियम को प्रांतीय क्षेत्रों में 1 अप्रैल, 1937 में लागू कर दिया गया। तदनुसार प्रांतों में चुनाव कराये गये, फलस्वरूप छः प्रांतों (बंबई, मद्रास, बिहार, उङीसा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रांत) में कांग्रेस को बहुमत प्राप्त हुआ। तीन प्रांतों (बंगाल, असम और उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत) में कांग्रेस को सबसे अधिक स्थान प्राप्त हुए तथा दो प्रांतों (पंजाब एवं सिंध) में कांग्रेस को नहीं के बराबर स्थान प्राप्त हुये।
- केन्द्रीय सरकार की कार्यकारिणी शक्ति गवर्नर जनरल में निहित थी। संघ में प्रशासन के विषय दो भागों 1. हस्तान्तरित 2. रक्षित में विभाजित थे।
- सन् 1935 के अधिनियम द्वारा प्रांतों को स्वायत्तता प्रदान की गयी। प्रांतीय विषयों पर विधि बनाने का अधिकार प्रांतों को दिया गया था।
- प्रांत की कार्यपालिका शक्ति गवर्नर में निहित थी तथा वह इसका प्रयोग ब्रिटिश सरकार की तरफ से करता था।
- गवर्नर जनरल के सभी कार्य, मंत्रिपरिषद की सलाह से होते थे, जिनके लिए वह विधान सभा के प्रति उत्तरदायी थी।
- केन्द्रीय विधान मंडल में दो सदन थे- विधानसभा तथा राज्य परिषद। विधान सभा में 375 सदस्य थे, जिसमें 250 सदस्य ब्रिटिश भारतीय प्रांतों से तथा 215 सदस्य भारतीय रियासतों से होते थे।
- 1935 के अधिनियम द्वारा बर्मा को ब्रिटिश भारत से पृथक कर दिया गया, दो नये प्रांत सिंध और उङीसा का निर्माण हुआ।
- राज्य परिषद् में कुल 260 सदस्य होते थे, जिनमें से 104 ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधि, 104 भारतीय रियासतों के प्रतिनिधि होते थे। राज्य परिषद एक स्थायी संस्था थी, जिसके एक तिहाई सदस्य प्रति दूसरे वर्ष अवकाश ग्रहण करते थे।
- प्रांतों की कार्यपालिका का गठन गवर्नर तथा मंत्रिपरिषद के द्वारा होता था।
- गवर्नर को तीन प्रकार की शक्तियां प्राप्त थी-1. विवेकीय शक्तियां, 2. विशिष्ट उत्तरदायित्व की शक्तियां, 3. मंत्रिमंडल की सलाह से प्रयुक्त शक्तियां।
- कोई भी विधेयक, बिना गवर्नर की अनुमति के कानून नहीं बन सकता था।
- किसी ऐसे विधेयक पर, जिसको गवर्नर की अनुमति प्राप्त थी, सम्राट उसको अस्वीकृत कर सकता था।
- अपनी विवेकीय शक्ति एवं व्यक्तिगत निर्णय की शक्तियों के परिणाम स्वरूप गवर्नर एक तानाशाह का कार्य करता था।
- 1935 के अधिनियम में विषयों को तीन श्रेणियों में बांटा गया था- संघ सूची, प्रांतीय सूची, समवर्ती सूची। संघ सूची- इसमें कुल 59 विषय थे। अखिल भारतीय हित के विषय इसमें आते थे। प्रांतीय सूची- इसमें कुल 54 विषय थे। इसमें स्थानीय महत्त्व के मुद्दे शामिल थे। समवर्ती सूची- इसमें 36 विषय थे। ये विषय प्रांतीय हित के विषय थे।
- अवशिष्ट शक्तियों पर अंतिम निर्णय गवर्नर जनरल को था कि इस पर कानून कौन बनायेगा।
- विधियों में असंगति की स्थिति में केन्द्रीय विधि, प्रांतीय विधि पर अधिभावी थी।
- सन् 1935 के अधिनियम के द्वारा एक संघीय न्यायालय की स्थापना की भी व्यवस्था थी।
- फेडरल न्यायालय के विरुद्ध अपील प्रिवी कौंसिल में की जा सकती थी।
- संघीय न्यायालय को तीन प्रकार की अधिकारिता प्राप्त थी- प्रारंभिक, अपीलीय, परामर्श दात्री।
- प्रारंभिक अधिकारिता के अंतर्गत संघीय न्यायालय संविधान के उपबंधों की व्याख्या करता था।
- अपीलीय अधिकारिता के अंतर्गत संघीय न्यायालय भारत स्थित सभी उच्च न्यायलयों के विनिश्चयों से अपीलों की सुनवायी करता था।
- संघीय न्यायालय का सिविल और दांडिक मामलों में अपीलीय अधिकारिता नहीं दी गयी थी।
- परामर्श दात्री अधिकारिता के अंतर्गत गवर्नर जनरल को विधि एवं तथ्य के किसी विषय पर सलाह देने का अधिकार प्राप्त था।
1935 का ब्रिटिश भारत का संविधान जिसमें डॉ अंबेडकर की बड़ी भूमिका रही। यही संविधान आजाद भारत के संविधान की आधारशिला बना। अनुसूचित जातियों को इस संविधान में मान्यता मिल गई। और अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार भी मिल गया। इस लिए अनुसूचित जातियों के लिए एक महासंघ बनाने की जरूरत पड़ी। अनुसूचित जातियां भी मुसलमान, सिख तथा हिंदुओं की तरह अपने प्रतिनिधियों को चुनने के लिए संगठित हो गईं।
ऑल इण्डिया शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन से देश की तमाम दलित जातियों को देश के भावी संविधान के निर्माण के परिदृश्य में अपनी आवाज पुरजोर तरीके से रखने का मौका मिला था। तब, डॉ अंबेडकर वाइसरॉय के एक्जेक्यूटिव कौंसिल में लेबर मिनिस्टर थे। रॉय बहादूर एन शिवराज और प्यारेलाल कुरील तालिब सेन्ट्रल असेम्बली के मनोनीत सदस्य थे।
अनुसूचित जातियां और शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन
1942 में डॉक्टर अंबेडकर ने शेड्यूल्ड कास्ट्स को रिकॉग्नाइज कराया तथा 1931 की जनगणना मैं जो जातियां शेड्यूल्ड कास्ट्स के रूप में चिन्हित की गई थी वह केवल 1108 जातियां थीं।
”ऑल इण्डिया शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन" एक ऐसा राजनीतिक दल था जो अनुसूचित जाति के लोगों का प्रतिनिधित्व करता था। इसकी स्थापना बाबा साहब डॉ. अंबेडकर ने की थी। इसके पहले, डॉ अंबेडकर ने 1936 में 'इनडिपेंडेंट लेबर पार्टी की स्थापना की थी। तब, वे मजदूरों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे थे।
आजादी के आंदोलन के दौरान भारतीय राजनीति का परिदृश्य तेजी से बदल रहा था। इस समय, डॉ अंबेडकर दलित जातियों के राजनैतिक अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ रहे थे। अब उन्हें ऐसे राजनैतिक मंच की आवश्यकता थी जो दलितों के हितों को देश के भावी संविधान में सुनिश्चित करे। दलित जातियों में अनुसूचित जाति और जन-जातियां आती थी।
मगर, यहाँ एक पेंच था। आदिवासी समुदाय के नेताओं में इतना दम -ख़म नहीं था कि कांग्रेस से अलग हट कर कुछ सोच सके। ठक्कर बापा जैसे लोग, जो गांधीजी के करीबी थे और जो उस समय आदिवासी समाज के सर्व-मान्य नेता के तौर पर जाने जाते थे, कांग्रेस का साथ छोड़ने तैयार नहीं थे। मजबूरन, डॉ अंबेडकर को अपना ध्यान अनुसूचित जन-जातियों से हटाकर केवल अनुसूचित जातियों पर केंद्रित करना पड़ा था।
"ऑल इण्डिया शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन" की स्थापना 17-20 जुलाई 1942 के दौरान नागपुर अधिवेशन में हुई थी। मद्रास के दलित नेता राव बहादूर एन शिवराज इसके प्रथम अध्यक्ष बने और बाम्बे से पी.एन. राजभोज इसके प्रथम महासचिव चुने गए थे। वास्तव में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन 'इनडिपेंडेंट लेबर पार्टी' का ही एक विकसित रूप था जिसकी स्थापना उन्होंने सन 1936 में की थी।
मार्च 1946 में जो आम चुनाव हुए थे, उसमें शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन ने अखिल भारतीय स्तर पर विभिन्न प्रान्तिय असेम्ब्लियों में कुल 51 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे। इनकी प्रान्त वार संख्या इस प्रकार थी- मद्रास से 24, बाम्बे से 5, बंगाल से 6, यूपी से 5, सीपी एंड बरार से 11, मगर, इन में से मात्र दो उम्मीदवार जोगेन्द्रनाथ मंडल (बंगाल) और आर पी जाधव (सी पी एंड बरार) से जीत पाए थे।
ब्रिटिश सरकार का केबिनेट मिशन विभिन्न राजनैतिक पार्टियों/ संस्थाओं की राय लेने 24 मार्च 1946 को भारत आया था। केबिनेट मिशन को डा.अंबेडकर ने "शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन" की ओर से एक मेमोरेंडम सौपा था। मगर, केबिनेट मिशन ने जो प्लान घोषित किया, उसमें "शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन" के उक्त मेमोरेंडम के तारतम्य में कोई बात नहीं थी। केबिनेट मिशन के प्रस्ताव के अनुसार, संविधान सभा के लिए 210 सदस्य सामान्य मतदाताओं के चुनाव मंडल से, 78 सदस्य मुस्लिम मतदाताओं के चुनाव मंडल से और 4 सदस्य सिख मतदाताओं के चुनाव मंडल से चुने जाना थे। कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने तो केबिनेट मिशन के प्रस्ताव को मान लिया था मगर, डॉ अंबेडकर की "शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन" के लिए यह बड़ा झटका था।
केबिनेट मिशन के इस रवैये से नाराज होकर "शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन" ने पी. एन. राजभोज के नेतृत्व में 15 जुलाई 1946 से देश भर में सत्यागृह आरम्भ किया था।
जब पं.जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में दिल्ली में अंतरिम सरकार की स्थापना हुई तब, इस अंतरिम सरकार में "शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन" का केवल एक सदस्य; बंगाल इकाई से जोगेन्द्रनाथ मंडल को लिया गया था।
इसी दौरान, संविधान सभा के लिए शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की टिकिट पर डॉ अंबेडकर पहले बंगाल से, और पार्टीशन के बाद बाम्बे से निर्वाचित हुए थे। डॉ अंबेडकर संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष बने और बाद में स्वतंत्र भारत के कानून मंत्री बने थे।
सन 1952 में सम्पन्न लोकसभा के आम चुनाव में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन ने कुल 34 उम्मीदवार खड़े किए थे; बाम्बे से 4, सी पी एंड बरार से 3, मद्रास से 9, पंजाब से 2, यू पी से 8, हैदराबाद से 4, राजस्थान से 1, दिल्ली से 1, हिमांचल प्रदेश से 1, विन्ध्य प्रदेश से 1 ने चुनाव लड़ा। मगर, इन सभी 34 उम्मीदवारों में सिर्फ दो ही चुने जा सके थे। इनमें सोलापुर (महाराष्ट्र) से पी.एन. राजभोज और करीमनगर से एम.आर. कृष्णा चुनाव जीत सके। डा. अंबेडकर, जो बाम्बे सीट से खड़े हुए थे, चुनाव नहीं जीत पाए। इसके बाद उन्होंने भंडारा (महाराष्ट्र) लोक सभा सीट का उपचुनाव (1954) में लड़ा किन्तु यहाँ भी वे सफल नहीं हो सके ।
"ऑल इण्डिया शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन" ने देश के विभिन्न प्रान्तों की असेंबलियों में कुल 215 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे, जिसमें 12 ने जीत दर्ज की थी। इनमें हैदराबाद से 5, मद्रास से 2, बाम्बे से 1, मैसूर से 2, पेप्सू से 1 और हिमांचल प्रदेश से 1 ने जीत दर्ज की।
डा अंबेडकर बाम्बे असेम्बली से राज्य सभा के लिए चुने गए थे। इसी प्रकार शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के उम्मीदवार जे एच सुब्बिय्हा हैदराबाद से सन 1952 में राज्य सभा के लिए चुने गए थे।
शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन ने सन 1942-1956 के अवधि में दलितों के प्रश्न पर भारत की राजनीति पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला था। इसकी शाखाएं उत्तर से दक्षिण तक पूरे देश में फैली थी। विधायी मसलों पर भी "शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन" के सदस्यों ने अहम भमिका अदा की थी।
सेन्ट्रल असेम्बली में "शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन" के सदस्य के तौर पर प्यारेलाल कुरील तालिब ने अपने सदस्यता कार्यकाल के दौरान सेन्ट्रल असेम्बली में एक बिल प्रस्तुत किया जिसमें किसी अछूत के आफिसर बनने पर लगे प्रतिबन्ध को ख़त्म करने का प्रस्ताव था, बिल पारित कराके अनुसूचित जातियों का यह अधिकार बहाल कराया।
उन दिनों में डा अंबेडकर स्वत: चाहते थे कि शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन को ख़त्म कर रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इण्डिया की स्थापना की जाए ताकि इसमें जाति नहीं, विचारों की मान्यता हो।
बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण करने के बाद से दलित जातियों और धर्मान्तरित बौद्धों की राजनैतिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए बाबासाहब अम्बेडकर "शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन" को भंग कर इसका विस्तार करते हुए 'अखिल भारतीय रिपब्लिकन पार्टी' का गठन करना चाहते थे ताकि इस राजनैतिक पार्टी में जाति और धर्म के परे लोगों का प्रतिनिधित्व हों। किन्तु बाबासाहब के महापरिनिर्वाण के बाद निकट आम चुनावों को देखते हुए शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के अध्यक्ष-मंडल ने तुरंत इसे भंग न कर इसी संगठन के बैनर तले 1957 के लोकसभा चुनाव लड़ने का निर्णय लिया।
1957 के लोकसभा चुनाव में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के नौ सांसद चुने गए जिसमें महाराष्ट्र से 6 उम्मीदवार चुन कर आए थे। इसके अलावा कर्नाटक, मद्रास और गुजरात राज्य से भी 1-1 उम्मीदवार चुन कर आए थे। चुने गए उम्मीदवारों के नाम थे- नासिक से दादासाहेब गायकवाड़, मध्य मुंबई से जी.के. माने, खेड़ से बी.डी. साळुंखे, मुंबई से एडव्होकेट बी.सी. काम्बले, कोल्हापुर से एस.के. दीघे, नांदेड़ से हरिहरराव सोनुले, चिकोडी (मैसूर ) से दत्ता आप्पा कट्टी, गुजरात से के.यू.परमार और मद्रास से एन. शिवराज।
अनुसूचित जाति में क्यों आना चाहती हैं अन्य जातियां?
आज बहुत सी जातियां अनुसूचित जातियों की श्रेणी में शामिल होना चाहती हैं। आज बहुत सी जगह ऐसा भी हो रहा है कि जब दलितों में, खासकर अस्पृश्यों में एक यूनिटी आती है और एक पॉलिटिकल फोर्स बनती हैं, तो वहां के राज्य के विरोधी नेता लोग उनके खिलाफ साजिश करते हैं। वे यह साजिश करते हैं कि इन जातियों की यूनिटी को तोड़ना है, तो इसमें किसी और नई जाति को जोड़ो। हमारे देश में एक स्टेट में अगर एक जाति शेडय़ूल्ड कास्ट लिस्ट में है, तो दूसरी स्टेट में वह बैकवर्ड लिस्ट में शामिल है और तीसरी स्टेट में वह शेडय़ूल्ड ट्राइब्स की लिस्ट में शामिल है। यह इसलिए है कि उन राज्यों में उनकी आर्थिक स्थिति, सोशल स्टेटस और अनटचेबिलिटी को देखकर पहले उनको उन लिस्ट्स में शामिल किया गया था। कोई एक विशेष जाति एक राज्य में सछूत हो सकती है, किंतु वह दूसरे राज्य में अछूत हो सकती है, इस बात को ध्यान में रखना जरूरी है। ऐसा न हो कि एक जगह वह कम्यूनिटी शेडय़ूल्ड कास्ट में है, इसीलिए उसे सारे देश में शेडय़ूल्ड कास्ट में शामिल किया जाएगा। इसका मकसद यह नहीं है। इसमें आपको एक इकोनॉमिक स्टेटस, सोशल स्टेटस और एडूकेशनल स्टेटस को ध्यान में रखना होगा। केवल यही नहीं देखना है कि राजनीतिक रूप से कौनसी जाति कितनी तकतभर है, बल्कि यह देखना भी जरूरी है कि वह अनुसूचित जातियों के मापदंडों पर कितनी खरी उतरती है। क्योंकि आजकल हम देखते हैं कि हर राज्य में एजिटेशन हो रहा है। जो कम्यूनिटी राजनीतिक रूप से पॉवरफुल हैं, जिनके पास लैण्ड है, पैसा है और जिनके पास एडूकेशन है, वे भी इस लिस्ट में जाने की दौड़ में शामिल हैं। इसीलिए इस मुद्दे पर गंभीरता से सोचना जरूरी है।
बाबा साहब ने सन् 1949 में स्पष्ट कहा था कि “अगर इस देश में डैमोक्रेसी को टिकाना है, डैमोक्रेसी के तहत इस देश को चलाना है, तो आज न कल इकॉनमिक-सोशल इक्वैलिटी को लाना जरूरी है। नहीं तो वे इस सिस्टम को उड़ा देंगे। वे आंदोलन करेंगे और यह उनके खिलाफ जाएगा।“
"हमें केवल राजनीतिक लोकतंत्र से संतुष्ट नहीं होना है। हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र भी बनाना चाहिए। राजनीतिक लोकतंत्र तब तक नहीं टिक सकता जब तक कि उसके आधार पर सामाजिक लोकतंत्र न हो। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? इसका अर्थ जीवन का एक तरीका है जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में मान्यता देता है। इन सिद्धांतों को ट्रिनिटी में अलग-अलग मदों के रूप में नहीं माना जाना चाहिए। वे इस अर्थ में त्रिमूर्ति का एक संघ बनाते हैं कि एक को दूसरे से तलाक देना लोकतंत्र के मूल उद्देश्य को हराना है। स्वतंत्रता को समानता से अलग नहीं किया जा सकता है और समानता को स्वतंत्रता से अलग नहीं किया जा सकता है और न ही स्वतंत्रता और समानता को बंधुत्व से अलग किया जा सकता है। बंधुत्व के बिना, स्वतंत्रता और समानता चीजों का एक स्वाभाविक पाठ्यक्रम नहीं बन सकती थी। उन्हें लागू करने के लिए एक कांस्टेबल की आवश्यकता होगी। हमें इस तथ्य को स्वीकार करते हुए शुरू करना चाहिए कि भारतीय समाज में दो चीजों का पूर्ण अभाव है। इनमें से एक सामाजिक मैदान की समानता है, हमारे भारत में एक समाज है जो श्रेणीबद्ध असमानता के सिद्धांतों पर आधारित है, जिसका अर्थ है कुछ का उत्थान और दूसरों का पतन। आर्थिक मैदान पर, हमारे पास एक ऐसा समाज है जिसमें हमारे पास अत्यधिक गरीबी में रहने वाले कई लोगों के मुकाबले अपार संपत्ति है। ”
बहुजन बेरोज़गारी, अल्प रोजगार एक जातिगत कहर
श्रम आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण साधन है यही उत्पादन का ऐसा घटक है जिसका मालिक श्रमिक को ही माना जाता है। एक श्रमिक की सबसे बड़ी पूंजी उसका स्वस्थ शरीर या श्रम है, इस लिए जब तक वह कार्य करने लायक है, उसके लिए काम आसानी से उपलब्ध है तब तक वह श्रम करता है और आर्थिक विकास में अपना योगदान देता है। अर्थशास्त्र में वेतन अर्जक के रूप में एक श्रमिक को माना गया है परन्तु भारत के संदर्भ में हर श्रमिक जातिगत अयोग्यता के कारण हर तरह का काम नहीं कर सकता। वह जिस जाति के परिवार में पैदा हुआ उसी का जातिगत काम वह आजीवन करेगा। यहां पर उसकी अन्य अर्जित योग्यताएं उसके जातिगत पेशे को बदलने में बहुत अधिक मदगार नहीं बन पातीं हैं।
उच्च जाति के हिंदू भारत में सबसे अमीर हैं उनके पास देश की कुल संपत्ति का 41% हिस्सा है जबकि एसटी के पास सबसे कम 3.7% हिस्सा है यह आंकड़े संपत्ति वितरण पर एक अध्ययन में निकल कर आये हैं। यह रिपोर्ट अंजलि मरार द्वारा लिखित है जो 14 फरवरी 2019 के द इंडियन एक्सप्रेस, पुणे में प्रकाशित की गयी है।
एसपीपीयू, जेएनयू और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ दलित स्टडीज द्वारा संयुक्त रूप से किए गए दो साल के लंबे अध्ययन से पता चला है कि देश की उच्च जाति के केवल 22.3 प्रतिशत हिंदुओं के पास ही देश की 41% संपत्ति है। इस अध्ययन में 20 भारतीय राज्यों के 1,10,800 परिवारों को शामिल किया गया, जिनमें से 56 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में और शेष ग्रामीण क्षेत्रों में थे।
एक व्यक्ति के लिए उपलब्ध शैक्षिक और व्यावसायिक विकल्पों में जाति एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, और परिणामी आय और संपत्ति, सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय (एसपीपीयू), जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) और भारतीय दलित अध्ययन संस्थान द्वारा संयुक्त रूप से किए गए दो साल के लंबे अध्ययन से पता चलता है। देश की उच्च जाति के केवल 22.3 प्रतिशत हिंदुओं के पास देश की कुल संपत्ति का 41 प्रतिशत हिस्सा है और वे सबसे अमीर समूह हैं, जबकि 7.8 प्रतिशत हिंदू अनुसूचित जनजातियों के पास केवल 3.7 प्रतिशत या देश की संपत्ति का सबसे कम धन का हिस्सा है। कुल परिवारों के शीर्ष 5 प्रतिशत के पास कुल सम्पति का 46 प्रतिशत हिस्सा है। इसके विपरीत, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय द्वारा 2013 में किए गए अखिल भारतीय ऋण और निवेश सर्वेक्षण के अनुसार, निचले 40 प्रतिशत परिवारों के पास देश की कुल संपत्ति का केवल 3.4 प्रतिशत हिस्सा था, जिसका मौद्रिक मूल्य 3,61,919 अरब रुपये था।
सामाजिक-धार्मिक आधार पर संपत्ति के विभाजन पर यह आंकड़े गहराई से नज़र डालते हैं, ऐसे समय में जब केंद्र सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लिए जाति की रेखाओं से परे शिक्षा और नौकरियों में 10 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की है। वेल्थ ओनरशिप एंड इनइक्वलिटी इन इंडिया: ए सोशल-रिलिजियस एनालिसिस नामक एक अध्ययन में कहा गया है। यह 2015 से 2017 तक आयोजित किया गया था, और अध्ययन के निष्कर्ष हाल ही में सामने आए थे।
अभी भी शिक्षा के स्तर, पेशे की प्रकृति और परिणामी आय और संपत्ति का निर्धारण करने में "जाति की अग्रणी भूमिका बरक़रार है। इस देश में एक व्यक्ति के पास संपत्ति का स्वामित्व, चाहे वह भूमि या भवन के रूप में हो, भारत में किसी भी अन्य जाति की तुलना में हिंदू उच्च जातियों के पास अधिक हिस्सा पाया गया है। यह बात SPPU में प्रमुख लेखक और अर्थशास्त्र विभाग में सहायक प्रोफेसर, ”नितिन तागड़े ने इंडियन एक्सप्रेस को बतायी।
इस अध्ययन में 20 भारतीय राज्यों के 1,10,800 परिवारों को शामिल किया गया, जिनमें से 56 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में और शेष ग्रामीण क्षेत्रों में थे। जनसंख्या को कई समूहों में वर्गीकृत किया गया था - हिंदू अनुसूचित वर्ग (एचएससी), हिंदू अनुसूचित जनजाति (एचएसटी), हिंदू अनुसूचित जाति (एचएससी), हिंदू अनुसूचित जनजाति (एचएसटी), गैर-हिंदू अनुसूचित जाति (एनएचएससी), गैर-हिंदू अनुसूचित जनजाति। (एनएचएसटी), हिंदू अन्य पिछड़ा वर्ग (एचओबीसी), हिंदू उच्च जातियां (एचएचसी), मुस्लिम अन्य पिछड़ा वर्ग (एमओबीसी), मुस्लिम उच्च जातियां (एमएचसी) और बाकी अन्य।
शोधकर्ताओं ने धन वितरण में एक उल्लेखनीय विभाजन भी पाया है जो इस बात पर निर्भर करता है कि किसी विशेष जाति के सदस्य शहरी या ग्रामीण क्षेत्रों में रहते थे या नहीं। उदाहरण के लिए, शहरी क्षेत्रों में 34.9 प्रतिशत संपत्ति हिंदू उच्च न्यायालयों के पास थी, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले एक ही जाति के लोगों के पास कुल संपत्ति का केवल 16.7 प्रतिशत ही था। इसी तरह, ग्रामीण क्षेत्रों में हिंदू एसटी अमीर थे और उनके पास 10.4 प्रतिशत संपत्ति थी, जबकि उनके शहरी समकक्षों के स्वामित्व में केवल 2.8 प्रतिशत धन हिस्सेदारी थी।
इस असमानता के बारे में बताते हुए, अध्ययन के सह-शोधकर्ता और जेएनयू में एमेरिटस प्रोफेसर, सुखदेव थोराट ने कहा, “बहुत कम संख्या में हिंदू एसटी शहरी क्षेत्रों में शिक्षा या नौकरी के लिए पलायन करते हैं, शिक्षा या नौकरी दोनों क्षेत्रों में कुछ आरक्षण के माध्यम से अर्जित हो जाता है। हालांकि, अधिकांश एसटी प्रवासी आबादी असंगठित क्षेत्रों में काम कर रही है और उनकी आय कम है। यही कारण है कि शहरों में झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों में हिंदू एसटी बहुसंख्यक हैं।”
अध्ययन में यह भी कहा गया है कि ऐतिहासिक रूप से, संपत्ति और शिक्षा का अधिकार केवल हिंदू उच्च जाति की आबादी के लिए उपलब्ध था, और यह प्रवृत्ति काफी हद तक अपरिवर्तित रही है। “आज भी, जाति एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और हिंदुओं के भीतर जाति पदानुक्रम नीचे की ओर, गरीब पाया गया। निचली जातियों की आबादी अभी भी असमानता और भेदभाव का सामना कर रही है। यह संपत्ति की खरीद या किसी भी व्यवसाय को करने के लिए सही है, दोनों पर उच्च जातियों का शासन जारी है, ऐसा प्रोफेसर थोराट ने बताया।
मा. कांशीराम ने मोड़ दी बहुजन श्रमजीवियों की दिशा
उपरोक्त संघर्ष की मशाल को महात्मा फुले ने जलाया था जिसे डॉ अंबेडकर ने संकल्प के साथ एक मंजिल तक पहुंचाया। इस कड़ी में डॉ अंबेडकर के इस संघर्ष को ईमानदारी और समर्पण के साथ किसी ने बढ़ाया तो वह सिर्फ मान्यवर कांशीराम थे, उन्हें बहुजन नायक के नाम से जाना जाता है। उनका लक्ष्य संविधानिक क्रांति का फायदा उसके हकदार लोगों तक पहुंचाने के लिए उनको इस देश का हुक्मरान बनाना था। ऐसा वह इस लिए चाहते थे क्योंकि बिना हुक्मरान बने आप संविधान की समतामूलक व्यवस्थाओं का लाभ उनके असली पात्र लोगों को नहीं दे सकते। आज का "बहुजन समाज" बंचितों के लिए एक लोकतांत्रिक खजाना है, मान्यवर ने इसे इसलिए बनाया था क्योंकि इसका सही तरीके से उपयोग करके नोटों वाले सेठियों से मुकाबला करके सर्वोच्च खजाने की चाभी इसके असली मालिकों को सौंंपी जा सकती है। इस बदलाव से एक श्रमिक की जिंदगी में चार चांद लगेंगे उसकी इच्छा के बिना कोई भी सत्ता के दरवाजे तक नहीं जा सकता। अत: अब वह श्रम का मालिक या उत्पादन का घटक ही नहीं बल्कि सत्ता का निर्माता और असली दावेदार भी बन जाएगा। इस तरह अशोक के भारत का निर्माण होगा, यही मान्यवर का लक्ष्य था।
असंगठित श्रमिक के रूप में 90 फीसदी बहुजन
भारत में शारीरिक श्रम का अधिकतर काम बहुजन समाज की जातियां ही करती हैं। अर्थात बहुजन कमरतोड़ कमाता है और धन्ना सेठ धनवान बन जाता है। यह किसी ने सोचा है काम करने वाला गरीब, लाचार, अशिक्षित और असहाय क्यों है?
तकनीकी अर्थों में, श्रम का अर्थ "धन-उत्पादन" में श्रमिक द्वारा प्रदान की जाने वाली एक मूल्यवान सेवा है, जो उद्यमों के दूसरे साधनों जैसे पूंजी, साहस एवं प्रबंधन के अतिरिक्त है। इसमें शारीरिक श्रमिकों की सेवाएं भी शामिल हैं। लेकिन मानव द्वारा दी जाने वाली दूसरे प्रकार की बौद्धिक सेवाओं को परिश्रम का पर्याय नहीं माना जाता है क्योंकि यह दिमागी कार्य है, शरीर से इसका एक दूरस्थ संबंध है।
सभी प्रकार के श्रम की एक विशेषता यह है कि एक कर्मी अपने जीवन के कीमती समय को बेच कर अपने और अपने आश्रितों के जीवन यापन के लिए श्रम की वास्तविक कीमत से कम आय प्राप्त कर पाता है। उसकी मेहनत की कीमत का एक हिस्सा उसका मालिक खा जाता है। अगर श्रमिक काम नहीं करें तो लोगों के पास कितना भी धन हो वे भूखे मर जाएंगे और अर्थव्यवस्था का चक्का जाम हो जाएगा। कोरोना काल में लॉक डाउन के समय का उदाहरण देखा जा सकता है। मतलब साफ है कि जितना एक श्रमिक किसी उद्यम या पूंजीपति पर निर्भर है उतना ही एक उत्पादन यूनिट और उसका मालिक मजदूर के ऊपर निर्भर है। एक मजदूर को अपने काम में आनंद तब मिलता है जब उसकी सेवाओं का सर्वोत्तम मूल्य मिलने मैं आसानी हो।
भारत में अधिकतर श्रमिक बहुजन समाज से आते हैं जो असंगठित क्षेत्र में काम करने के कारण अपनी मेहनत का वास्तविक मूल्य प्राप्त नहीं कर पाते हैं, इसलिए उनकी आमदनी अन्य क्षेत्रों के कार्मिकों से कम होती है। जिसका दुष्प्रभाव उनके जीवन स्तर पर पड़ता है, वह गंदी बस्तियों और तंग वातावरण में रहने के लिए विवश होते हैं, बच्चे कुपोषण के शिकार हो जाते हैं, बच्चों को पढ़ाने लिखाने के लिए उनके पास पैसे नहीं बच पाते हैं। उपरोक्त सब बातों के चलते मजदूरों के बच्चे भी मजदूरी करने के लिए विवश हो जाते हैं इस तरह उनका भविष्य हमेशा अंधकार में बना रहता है। उनके भविष्य को उज्जवल बनाने के लिए और इनके बच्चों को होनहार बनाने के लिए अच्छी पारिवारिक आमदनी होना जरूरी है। इसके कायाकल्प के लिए मा. कांशीराम साहब के पास कारगर योजना थी। जिसके लिए बहुजनों की सरकार बनना बहुत जरूरी है।
बेरोज़गार बहुजन की परिभाषा
बेरोज़गारी या बेकारी किसी काम करने के लिए योग्य व उपलब्ध व्यक्ति की वह अवस्था होती है जिसमें उसकी न तो किसी कम्पनी या संस्थान के साथ और न ही अपने ही किसी व्यवसाय में नियुक्ति है। किसी देश, राज्य या अन्य क्षेत्र में पूरे श्रम करने वाले लोगों की आबादी में बेरोज़गारों का प्रतिशत उस स्थान का बेरोज़गारी दर कहलाता है। अगर वह लोग जो बालक, वृद्ध, रोगी या अन्य किसी अवस्था के कारण अनियोज्य यानि रोज़गार के लिए अयोग्य- हों काम न करें तो उन्हें बेरोज़गार की श्रेणी में नहीं गिना जाता है और न ही उनकों बेरोज़गारी दर में सम्मिलित करा जाता है।
बेरोज़गारी का अस्तित्व श्रम की माँग और उसकी आपूर्ति के बीच स्थिर अनुपात पर निर्भर करता है। बेरोज़गारी के दो भेद हैं- असंतुलनात्मक (फ्रिक्शनल) तथा ऐच्छिक (वालंटरी)। ऐच्छिक बेरोजगारी का प्रभाव उस समय होता है जब मजदूर अपनी वास्तविक मजदूरी में कटौती को स्वीकार नहीं करता। समग्रत: बेरोजगारी श्रम की माँग और पूर्ति के बीच असंतुलित स्थिति का प्रतिफल है।
प्रोफेसर जे. एम. कीन्स "अनैच्छिक बेरोजगारी" को भी बेरोजगारी का भेद मानते हैं। "अनैच्छिक बेरोजगारी" की परिभाषा करते हुए उन्होंने लिखा है- 'जब कोई व्यक्ति प्रचलित वास्तविक मजदूरी से कम वास्तविक मजदूरी पर कार्य करने के लिए तैयार हो जाता है, चाहे वह कम नकद मजदूरी स्वीकार करने के लिए भले ही तैयार न हो, तब इस अवस्था को अनैच्छिक बेरोजगारी कहते हैं।' यदि कोई व्यक्ति किसी उत्पादक व्यवसाय में कार्य करता है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि वह बेकार नहीं है। ऐसे व्यक्तियों को पूर्णरूपेण रोजगार में लगा हुआ नहीं माना जाता जो आंशिक रूप से ही कार्य में लगे हैं अथवा उच्च कार्य की क्षमता रखते हुए भी निम्न प्रकार के लाभकारी व्यवसायों में कार्य करते हैं।
बेरोजगारी पर अंतरराष्ट्रीय श्रमसम्मेलन
सन् 1919 ई. में अंतरराष्ट्रीय श्रमसम्मेलन के वाशिंगटन अधिवेशन ने बेरोजगारी अभिसमय (convention) संबंधी एक प्रस्ताव स्वीकार किया था जिसमें कहा गया था कि केंद्रीय सत्ता के नियंत्रण में प्रत्येक देश में सरकारी कामदिलाऊ अभिकरण स्थापित किए जाए। सन् 1931 ई. में भारत राजकीय श्रम के आयोग ने बेरोजगारी की समस्या पर विचार किया और निष्कर्ष रूप में कहा कि बेरोजगारी की समस्या विकट रूप धारण कर चुकी है। यद्यपि भारत ने अंतर्राष्ट्रीय श्रमसंघ का "बेरोजगारी संबंधी" समझौता सन् 1921 ई. में स्वीकार कर लिया था परंतु इसके कार्यान्वयन में उसे दो दशक से भी अधिक का समय लग गया।
सन् 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट में बेरोजगारी (बेरोजगारी) प्रांतीय विषय के रूप में ग्रहण की गई। परंतु द्वितीय महायुद्ध समाप्त होने के बाद युद्धरत तथा फैक्टरियों में काम करनेवाले कामगारों को फिर से काम पर लगाने की समस्या उठ खड़ी हुई। 1942-1944 में देश के विभिन्न भागों में कामदिलाऊ कार्यालय खोले गए परंतु कामदिलाऊ कार्यालयों की व्यवस्था के बारे में केंद्रीकरण तथा समन्वय का अनुभव किया गया। अत: एक पुनर्वास तथा नियोजन निदेशालय की स्थापना की गई है। हम ये रोक सकते हैं।
बहुजन समाज की दुर्दशा के अन्य कारणों के साथ सबसे बड़ा कारण उनमें व्याप्त निम्नलिखित प्रकार की बेरोजगारी है:
बहुजन बेरोजगारी के प्रकार
- संरचनात्मक बेरोजगारी: सरचनात्मक बेरोजगारी वह बेरोजगारी है जो अर्थव्यवस्था मे होने वाले संरचनात्मक बदलाव के कारण उत्पन्न होती है।
- अल्प बेरोजगारी: अल्प बेरोजगारी वह स्थिति होती है जिसमै एक श्रमिक जितना समय काम कर सकता है उससे कम समय वह काम करता है। दूसरे शब्दो में, वह एक वर्ष मैं कुछ महीने या प्रतिदिन कुछ घंटे बेकार रहता है। अल्प बेरोजगारी के दो प्रकार है-
- दृष्य अल्प रोजगार: इस स्थिति में, लोगो को सामान्य घन्टों से कम घन्टे काम मिलता है।
- अदृष्य अल्प रोजगार: इस स्थिति मै, लोग पूरा दिन काम करते हैं पर उनकी आय बहुत कम होती है या उनको ऐसे काम करने पडते हैं जिनमें वे अपनी योग्यता का पूरा उपयोग नहीं कर सकते।
- खुली बेरोजगारी: उस स्थिति को कह्ते है जिसमे यद्यपि श्रमिक काम करने के लिये उत्सुक है और उसमें काम करने की आवश्यक योग्यता भी है तथापि उसे काम प्राप्त नही होता। वह पूरा समय बेकार रहता है। वह पूरी तरह से परिवार के कमाने वाले सदस्यों पर आश्रित होता है। ऐसी बेरोजगारी प्राय: कृषि-श्रमिको, शिक्षित व्यक्तियों तथा उन लोगों में पायी जाती है। जो गावों से शहरी हिस्सों में काम की तलाश में आते हैं पर उन को कोई काम नही मिलता। यह बेरोजगारी का नग्न रूप है।
- मौसमी बेरोजगारी: इसका अर्थ एक व्यक्ति को वर्ष के केवल मौसमी महीनो में काम प्राप्त होता है। भारत में कृषि क्षेत्र में यह आम बात है। इधर बुआई तथा कटाई के मौसमों में अधिक लोगों को काम मिल जाता है किन्तु शेष वर्ष वे बेकार रहते हैं। एक अनुमान के अनुसार, यदि कोई किसान वर्ष मैं केवल एक ही फसल की बुआई करता है तो वह कुछ महिने तक बेकार रहता है। इस स्थिति को मौसमी बेरोजगारी माना जाता है।
- चक्रीय बेरोजगारी: ऐसी बेरोजगारी तब उत्पन्न होती है जब अर्थव्यवस्था में चक्रीय ऊंच नीच आती है। तेजी, आर्थिक सुस्ती, आर्थिक मंदी तथा पुनरुत्थान चार अवस्थाएं या चक्र है जो एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की मुख्य विशेषताएं हैं। आर्थिक तेजी की अवस्था में आर्थिक क्रिया उच्च स्तर पर होती है तथा रोजगार का स्तर भी बहुत ऊंचा होता है। जब अर्थव्यवस्था मैं कुल ज़रुरत के घटने की प्रवृत्ति पाई जाती है।
- छिपी बेरोजगारी: छिपी बेरोजगारी से पीडित व्यक्ति वह होता है जो ऐसे दिखाई देता है जेसे कि वह काम में लगा हुआ है, परन्तु वास्तव में ऐसा नही होता।
उपरोक्त सभी प्रकार की वेकारी, बेरोजगारी, अल्प रोजगार, ठेकेदारी प्रथा, सामंत शाही और स्लम दादाओं के खिलाफ उन्होंने आन्दोलन चला कर लोगो को जागरूक किया। वे इसके ऊपर एक अर्थशास्त्र की किताब लिखना चाहते थे। जिससे इन समस्याओं का समाधान बहुजन समाज की सरकारें करने के लिए मार्गदर्शन प्राप्त कर सकें।
बाबा का मिशन अधूरा कांशीराम ने कर दिया पूरा
बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक मा. कांशीराम साहब की आज पुण्यतिथि है। 80 के दशक में जब मंडल कमीशन की रिपोर्ट के बाद समाज बदलने लगा था, तब मा. कांशीराम साहब ने समझ लिया था कि एक बड़ा मैदान उनके लिए खाली पड़ा है। कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी के रूप में देश का तीसरा सबसे बड़ा दल कैसे खड़ा किया? खासकर ये बात उनकी पुण्यतिथि पर याद करनी ज्यादा जरूरी भी है। बसपा के संस्थापक कांशीराम का 72 साल की उम्र में 09 अक्टूबर 2006 में निधन हो गया. कहा जा सकता है कि दरअसल उन्होंने ही अंबेडकर के इस दर्शन को सबसे अच्छी तरह समझा, "राजनीतिक सत्ता ही हर ताले की कुंजी है." वो इस वाक्य को हर जनसभा में दोहराते थे। उन्होंने 80 के दशक में चमचा युग नाम से एक किताब लिखी, जिसमें कुछ खास दलित नेताओं को चमचा कहा।
यही बात उन्होंने मायावती को भी सिखायी। तभी तो मायावती सारी पढ़ाई-लिखाई और IAS बनने का सपना किनारे कर कांशीराम के साथ राजनीति में कूद पड़ीं। कांशीराम की दिक्कत ये थी कि जितने बड़े लक्ष्य उनके दिमाग में थे, उसे BAMCEF के जरिए पाना बहुत मुश्किल था। इसके लिए वो जमीन तलाश रहे थे। मायावती ने उन्हें यूपी जैसे राज्य में राजनीति के विस्तार की ताकत दी थी, क्योंकि मायावती की जड़ें यूपी में थीं, जबकि कांशीराम पंजाब से थे।
ये सब कुछ आठवें दशक के आखिर में हो रहा था, यानी इमरजेंसी खत्म होने के बाद। जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद। उस दौर में जनता में भारत के राजनीतिक परिदृश्य को लेकर बहुत असंतोष भी था, लेकिन जनता को एक ही सशक्त राजनीतिक विकल्प नजर आ रहा था कांग्रेस। 1980 के आम चुनावों में जनता ने फिर से इंदिरा को चुनकर ये बात साबित भी की।
हालांकि लोग इस राजनीतिक विकल्पहीनता के दौर में गंभीरता से नए विकल्पों के बारे में भी सोच रहे थे। ऐसे दौर में कांशीराम के लिए मायावती तुरुप का पत्ता बनीं। स्थानीय और प्रांतों की राजनीति में जातीय समीकरणों और अस्मिता की राजनीति को मौका मिलना लगा। इसे यूं भी कह सकते हैं कि कांग्रेस की राजनीतिक असफलता इन पार्टियों के लिए संजीवनी बनी।
मा. कांशीराम साहब सिर्फ बहुजन नायक थे दलित नेता नहीं
कांग्रेस हमेशा अपनी राजनीति दलित चेहरों के बल पर करती रही थी, उस समय उनके पास सबसे बड़ा दलित चेहरा बाबू जगजीवन राम थे। उनके जरिए दलितों को साधने की राजनीति श्रीमती इन्दिरा गांधी किया करती थीं। उन्होंने इंदिरा जी और उनकी इमरजेंसी से तंग आकर कांग्रेस का दामन छोड़कर कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी पार्टी बना ली, और बाद में उसे जनता पार्टी में मर्ज कर दिया। उस समय 'भारतीय रिपब्लिकन पार्टी' के कई धड़े हो चुके थे, वे सभी बुद्ध प्रिय मौर्य सहित कांग्रेस के साथ जा चुके थे। ऐसे समय में आरपीआई के मिशनरी कार्यकर्ता निराश हो चुके थे। मा.कांशीराम साहब के कैडर बेस्ड अम्बेडकर आंदोलन के साथ वे सभी धीरे-धीरे आने लगे। आरपीआई ने अपनी पहचान खो दी और उसका नीला झंडा और हाथी का निशान बसपा को मिल गया। बाद में अंबेडकर मिशन के सच्चे उत्तराधिकारी जनता की निगाह में मा. कांशीराम साहब बन गए। जैसे जैसे बसपा का ग्राफ बढ़ता गया वैसे वैस कांग्रेस का ग्राफ गिरता गया। इस प्रकार बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के राजनैतिक ग्राफ में प्रत्यक्ष सहसंबंध नजर आता है। 1996 विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस-बसपा का समझौता हुआ जिसमें कांग्रेस बसपा की जूनियर पार्टनर बनी, उसे 425 सीटों में से मात्र 125 सीटें मिलीं, इस तरह RPI और कांग्रेस को मा.कांशीराम साहब ने परास्त करके अपना राजनीतिक कद श्री अटलबिहारी बाजपेयी और श्री नरसिम्हाराव जैसे दिग्गज नेताओं के बराबर कर लिया।
इस तरह 14 अप्रैल, 1984 को मा.कांशीराम साहब ने बसपा की स्थापना की और वह 1996 तक राष्ट्रीय स्तर की मान्यता प्राप्त करके देश की तीसरी बड़ी पार्टी बन गयी। हाथी का चुनाव निशान, नीला झंडा और जय भीम का नारा बाबा साहब डा अंबेडकर की विरासत है जो बहुजन समाज पार्टी संजो रही है। बाबा साहब डा अम्बेडकर को भारत रत्न और अन्य पिछड़ा वर्ग को मंडल कमीशन बसपा की बदौलत श्री वीपी सिंह सरकार के समय मिला। और उत्तर प्रदेश जैसे देश के सबसे बड़े प्रदेश में बहिन मायावती जी चौथी बार बसपा के दम पर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में सफल रहीं।
हालांकि ऐसे राजनीतिक माहौल में भी बहुजन राजनीति के लिए संभावनाएं कम नहीं थीं, बल्कि बढ़ ही गई थीं। दरअसल 1980 में ही मंडल कमीशन ने 27% अतिरिक्त आरक्षण की पैरवी की। ये आरक्षण अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए उपलब्ध 22.5% से अलग था। सरकारी नौकरियों और उच्चतर शिक्षण संस्थाओं में इस आरक्षण की सिफारिश ने इन जातियों में नई चेतना पैदा कर दी।
मा.कांशीराम साहब ने हमेशा मौके बनाये और उनका फायदा उठाया और अपने कैडरों का आत्मविश्वास एक सेनानायक की तरह बढ़ाते गए। वह राष्ट्रपति नहीं बल्कि नीतियां बनाना और उनका संचालन करना चाहते थे। इस लिए उन्होंने राष्ट्रपति का पद ठुकरा दिया था। वे कभी भी रिजर्व सीट से चुनाव नहीं लड़ते थे इस मामले में वे श्री बुद्धप्रिय मौर्य जो भारतीय रिपब्लिकन पार्टी के बड़े नेता थे उनका अनुसरण करते थे। वे दलित और लाचार बनकर नहीं जीते थे वे हमेशा सम्मान और स्वाभिमान को महत्व देते थे। उन्होंने रिजर्वेशन से नौकरी भी नहीं ली थी। वे रिजर्वेशन लेने वाला नहीं बल्कि देने वाला बनने का प्रयास कर रहे थे। विधायक, संसद सदस्य और मंत्री बनाने की बड़ी मशीन तो उन्होंने बहुजन समाज के हाथ में देकर राजनीतिक दलितपन तो दूर कर ही दिया है। समय आने पर दूसरे दलितपन भी दूर हो जायेंगे। आज बहुजन समाज के लोग मुकाबले में खड़े होते हैं कल तक वे दूसरी राजनीतिक पार्टियों के सामने हाथ फैलाकर टिकिट माँगा करते थे। आज जो बहुजन की ताकत को समझ नहीं पाए हैं वही टिकिट के लिए दूसरों की खिड़की पर खड़े मिलते हैं। धीरे धीरे उनकी भी लाचारी दूर हो जाएगी। उनका साथ देने वाली थीं उनकी सेनापति मायावती आज बसपा की कमान संभाले हैं, उनकी राजनीतिक हैसियत चंद बड़े राष्ट्रीय राज नेताओं में हैं वे कभी भी देश की प्रधानमंत्री बन सकतीं हैं।
कांशीराम साहब की अंतिम इच्छा 6 करोड़ लोगों के साथ 14 अक्टूबर 2006 को बाबा साहब की 50वीं बौद्ध धम्म दीक्षा वर्षगांठ के अवसर पर बौद्ध दीक्षा ग्रहण करने की थी। यह एक संजोग ही था कि दीक्षा दिन से ठीक पांच दिन पूर्व 9 अक्टूबर 2006 को महापरिनिर्वाण को प्राप्त कर गए, उनकी अंतिम यात्रा बौद्ध रीति से निगम बोधघाट दिल्ली में बौद्ध गुरुओं द्वारा संपन्न हुई। उनकी अस्थियां बहुजन प्रेरणा केंद्र में रखी गयीं हैं। बाबा साहब के विचार बुद्ध के मार्ग पर चलने वाले कांशीराम साहब एक परिब्राजक थे, उनको सत्ता लेने में नहीं बल्कि सत्ता बना कर उसकी बागडोर बहुजनों को सौंपने में आनंद आता था। वे मिशनरी प्रचारक की तरह दिनरात काम करते थे। उन्होंने बहुजन संघ की स्थापना की उसकी संपत्ति से उनका कोई मोह नहीं था और न ही अपने परिवार से, यहां तक कि उन्होंने अपने ऑफिस से कोई पेंसन ली थी। वे जानते थे उम्र हर पल घटती है और अंत में मृत्यु होनी है, उनका लक्ष्य बड़ा था उसके मुकाबले जीवन बहुत छोटा है इस लिए कम समय में अपने छोटे से जीवन में लक्ष्य प्राप्त करने के लिए बहुत तेजी से दिन रात काम करते थे। वे कहा करते थे "Youth knows, Age goes" अर्थात यौवन जानता है उम्र के साथ यह चला जाता है। और देखते ही देखते मान्यवर का वह समय आ गया, सिर्फ एक बौद्ध दीक्षा को छोड़ कर उन्होंने बाबा का मिशन पूरा कर दिया। बाबा का अधूरे मिशन का मतलब था - बहिष्कृत जातियों को बाबा साहब ने अपने जीवन में अनुसूचित जाति और जनजातियों को आरक्षित वर्ग की संवैधानिक मान्यता प्रदान कराने तक का काम पूरा कर दिया था। इनमें ओबीसी जातियों को जोड़ कर बहुजन बनाने का काम मान्यवर कांशीराम साहब ने पूरा किया। अब आज नहीं तो कल बहुजन समाज स्वत: बुद्ध, अशोक और अंबेडकर के धम्म के मार्ग पर चल कर अपनी खोई हुई संस्कृति और प्रतिष्ठा को प्राप्त कर लेगा। यह किसी अकेले व्यक्ति का काम नहीं। यह बात मान्यवर कांशीराम साहब ने चमचा ऐज के अंतिम पन्नों में साफ साफ लिख दी है, जसे हम सबको अमल में लाना जरूरी है। बुद्ध की तरह वे शीलों का पालन करते थे, इस लिए उनमें ईमानदारी, प्रतिबद्धता और दृणता थी। जो हर नेता में नहीं मिलती। आपकी अदालत में जब उनसे पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहा राव के बारे में सवाल किया कि आपके दोस्त भ्रस्टाचार केस में कोर्ट कचहरी का चक्कर लगा रहे हैं! इस पर कांशीराम साहब का जवाब था "कबिरा तेरी झोंपड़ी गलकटियन के पास, जो करेंगे वो भरेंगे तू क्यों होइ उदास।" मतलब साफ था गलत काम का अंजाम गलत ही होता है, चाहे कोई भी किसी भी पद पर रहा हो, इस लिए मेरा रास्ता एक परिव्राजक फकीर जैसा है, मांग कर काम चलाता हूं।
मान्यवर को परिनिर्वाण दिवस पर विनम्र नमन