पुस्तकीय ज्ञान के महत्व पर भी कबीर के विचार अत्यंत प्रासंगिक हैं। आज शिक्षा के कई आयाम हैं। तकनीकी विकास के साथ समृद्ध शिक्षा प्रणाली का दंभ भर रहें हैं। बड़े से बड़े प्रमाणपत्र प्राप्त कर बुद्धिजीवियों की पंक्ति में खड़े हैं। सवाल यह है कि हम कैसी शिक्षा का दंभ भर रहे हैं? जो नैतिक एवं मानवीय शिक्षा से परे केवल मानव रूपी मशीन तैयार कर रहा है। स्वार्थ, संवेदनहीनता से लबरेज मनुष्य जीवन के सत्य से भटक रहा है। कबीर स्वयं पढ़े-लिखें नहीं थे। अनपढ़ और नीच जाति से होने के कारण काशी के पंडितों से उलाहना पाते रहें। कबीरकालीन समाज तथा आज भी लोगों में अंधविश्वास व्याप्त है कि पढ़ा-लिखा व्यक्ति ही पंडित, विद्वान होता है। कबीर इस धारणा को तोड़ते हुए कहते हैं कि सच्चा पंडित पुस्तकीय ज्ञान से नहीं बनता, बल्कि प्रेम में डूबकर बनता है। वे पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा जीवन के अनुभव तथा सच्चे प्रेम को महत्व देते हैं –
मध्ययुग में कबीर और संतों की वाणी ने जो अलख जगाया वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना तत्कालीन युग में था। उन्होंने अपने समय में प्रचलित सभी मत-मतांतरों के सार को ग्रहण किया। उन्हें अपने तर्क और अनुभव की कसौटी पर कसा और जो विश्वास या मान्यताएँ मानवता के मार्ग में बाधक थीं उनका विरोध किया। कबीर सच्चे भक्त होने के साथ-साथ एक निर्भीक और स्पष्ट वक्ता थे। सामाजिक कुरीतियों, रूढ़ियों-आडंबरों, दुराचार, पाखंड आदि का जैसा तीव्र विरोध उनकी वाणी में देखा जाता है, वह अद्वितीय है।
भारत में धनानंद की सत्ता का अंत संत कबीर के काल से 17 सौ वर्ष पहले विष्णुगुप्त (चाणक्य) नाम के एक ब्राह्मण ने, तक्षशिला के यूनानी शासक सेल्यूकस के सहयोग से करवाया। चंद्रगुप्त मौर्य को मगध का शासक बनाया गया। जिसके द्वारा चाणक्य ने ब्राह्मण धर्म का प्रचार कराया और आजीवक जैसे पंथ को किनारे करवा दिया। मौर्य वंश के तीसरे शासक सम्राट अशोक ने ब्राह्मण धर्म को किनारे कर के बौद्ध धर्म का चरम प्रचार किया। ईसा से 185 वर्ष पहले मौर्य वंश के अंतिम शासक व्रहद्रथ मौर्य की कायरतापूर्ण तरीके से उनके ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग हत्या करके मौर्य वंश की गद्दी हथियाली। इसके बाद भारत में अस्थिरता पैदा होने लगी और विदेशी आक्रमण होने लगे सबसे पहले विदेशी आक्रमण सिकंदर का हुआ जो मगध के शासक धनानंद की ताकत से डर कर भाग गया। शुंग और गुप्त काल में एक के बाद एक लगातार विदेशियों के आक्रमण होते रहे जिनमें यूनानियों, सीथियनों, हूंणों, कुषाणों, मंगोलों, तुर्कों और मुगलों ने भारत पाक लंबे समय तक राज किया।
मध्ययुगीन संत
मध्ययुग मुगलों के आक्रमणों, धर्मांतरण, देशी राजाओं की विलासिता, धार्मिक पाखण्डादि से उपजे असुरता, भय, कुंठा, सांप्रदायिकता, रूढ़ियों, अंधविश्वासों एवं कुरीतियों का युग था। हताश-निराश जनता मंत्र, योग, जात-पांत, छुआछूत, सामंतशाही, दमन-शोषण से त्रस्त थी। समाज नैतिक पतन के गहरे गर्त में गिर रहा था। ऐसे में संत कवियों ने समय की नस को पकड़ा। उन्होंने जो कहा अपने अनुभव से कहा। जो देखा, भोगा और सहा उसी की काव्यात्मक अभिव्यक्ति कबीर की वाणी है।
कबीर से लेकर अन्य सभी संत समाज के अति सामान्य समझे जाने वाले पेशे से संबंध रखते थे। ये मोची, बुनकर, दर्जी, धोबी, लोहार आदि थे। समाज अनेक जातियों-उपजातियों, विभिन्न वर्गों में विभाजित था। फलस्वरूप जातिप्रथा तथा भेदभाव ने समाज को खोखला कर दिया था। मानवता कराह रही थी। कबीर मानव मात्र के समानता के पक्षधर थे। उनके अनुसार ऊँचे कुल में जन्म लेने से या ब्राह्मण होने मात्र से कोई ऊँचा या श्रेष्ठ नहीं हो जाता। मनुष्य अपने आचरण एवं सुंदर कर्मों से ऊँचा बनता है। सोने के कलश में मदिरा भरा हो तो निंदनीय हो जाता हैं-
ऊँचे कुल का जनमियाँ, जे करणी ऊँच न होइ।
सोबन कलस सुरै भरया, साधू निंदत सोइ॥
मूर्ति पूजा के विरोधी
पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार।
याते तो चाकी भली जो पीस खाए संसार ।।
इस दोहे के माध्यम से कबीर दास जी ने मूर्तिपूजन का विरोध किया है। उन्होंने कहा है की अगर पत्थर(मूर्ति) के पूजने से भगवान् की प्राप्ति होती है, तो मै उस पत्थर जो जहां से निकला है उसे ही पूजा करता हूं। मुझे तो हरि का सानिध्य मिल जाएगा। जो हमें ज्ञात ही नहीं है उस वस्तु को पूजने से क्या लाभ। इससे अच्छा तो हम उस चक्की को पूजें जिसका पिसा हुआ आटा हम उपभोग करते हैं।
उपरोक्त संदर्भ में एक कहानी
एक बार एक महिला ने अपने पुत्र का विवाह किया, बहू आयी, सास ने बहू से कहा कि चलो तुम्हें मंदिर में पूजा करा लाऊँ, दोनों मंदिर गयीं। मंदिर पहुचते ही बहू ने दो शेर देखे, बहू डर गयी। तब सास ने बोला, डरो मत ये तो पत्थर के हैं, और अपना माथा पीटा कहा, क्या पागल बहू मिली है। फिर आगे बढ़ी तो गाय अपने बछड़े को दूध पिला रही थी। बहू बोली, माता जी पहले घर जाकर एक बाल्टी ले आऊं, दूध निकाल लूँ। सास फिर नाराज हुयी। सास बोली, ये पत्थर की गाय है। कहीं पत्थर की गाय भी दूध देती है, फिर आगे मंदिर में पहुची। तब सास बोली, अब चलो देवी की पूजा करो। बहु इधर-उधर देखने लगी बोली, कहां है देवी? मुझे तो कहीं नही दिख रही हैं। सास ने कहा, सामने ही देवी हैं। इनसे जो मागो वह मिलता है। तब बहू बोली, ये तो पत्थर की है, ये मुझे क्या देगी। मेरे लिये तो आप ही सचमुच की देवी हो, आप से जो प्यार सम्मान मिलेगा, वह पत्थर से नही मिल सकता। आप घर चलिये, मैं आपकी ही पूजा करुँगी, आपकी ही सेवा करुंगी, आप ही मेरी देवी हो।कहने का भाव यह है कि जो आप के पास है उसकी इज्जत करो, उसकी ही सेवा करो, वही सच्ची सेवा है, वही पूजा है।
मानवता के लिये उससे ज्यादा कुछ नही है, अगर आप घर में रहनेवालों की सेवा नही करेंगे और बाहर जाकर मंदिर में भगवान की पूजा करते हैं। वह पूजा कभी सफल नही हो सकती।