.

"आरक्षण नहीं हिस्सेदारी" पुस्तक का विमोचन

पुस्तक का विमोचन

12 नवम्बर 2016 को "आमोद" के प्रथम स्थापना दिवस के अवसर पर दिल्ली के कांस्टिट्यूशन क्लब (स्पीकर सभागार) में "आरक्षण नहीं हिस्सेदारी" पुस्तक का विमोचन भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीष तथा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पूर्व चेअरपर्सन 'न्यायमूर्ति श्री के.जी. बालाकृष्णन जी' के कर कमलों द्वारा होगा।

प्रेस विज्ञप्ति

सामाजिक न्याय की अवधारणा हिस्सेदारी पर आधारित है न कि दया पर। दूसरी ओर आरक्षण की अवधारणा हिस्सेदारी पर आधारित न होकर दया पर अधिक निर्भर है। आरक्षण का शब्दिक अर्थ इस रूप में भी देखा जाना चाहिए कि वर्चस्ववादी वर्ग दाता के रूप में दिखने की कोशिश कर रहा है। संवैधानिक व्यवस्थाओं में भी आरक्षण जैसे शब्द को स्थान नहीं मिला है। इस दिशा में "आमोद" संगठन समाज के सभी वर्गों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में हिस्सेदारी या प्रतिनिधित्व दिलाने के लिए वैचारिक संघर्ष कर रहा है। उक्त दिशा में एक कदम के रूप में आज दिनांक 12 नवम्बर 2016 को "आमोद" अपना प्रथम स्थापना दिवस दिल्ली के कांस्टिट्यूशन क्लब के प्रांगण में मना रहा है। समारोह के मुख्य अतिथि भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीष तथा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पूर्व चेअरपर्सन 'न्यायमूर्ति श्री के.जी. बालाकृष्णन जी' हैं। विशिष्ट अतिथि के रूप में प्रख्यात सामाजिक विचारक श्री रघु ठाकुर जी मंचासीन होंगे।

इस अवसर पर एक सेमिनार का भी आयोजन किया गया है, जिसमें चर्चा हेतु विषय "सामाजिक न्याय एवं समावेशी विकास" (Social Justice and Inclusive Devlopment) रखा गया है। इस अवसर पर आमोद के उद्देश्य पर आधारित एक सारगर्भित पुस्तक का विमोचन भी किया जायेगा। पुस्तक का नाम "आरक्षण नहीं हिस्सेदारी" है। उक्त पुस्तक में सामाजिक न्याय और हिस्सेदारी के आंदोलन में जिन प्रमुख महापुरुषों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है उनका परिचय दिया गया है। आरक्षण का इतिहास 1882 से अब तक का दिया गया है। मंडल आयोग की रिपोर्ट का सारांश भी समाविष्ट किया गया है। फरवरी 2016 में हरियाणा में जाट समुदाय का आरक्षण आंदोलन हुआ था उससे सम्बंधित अनछुए पहलुओं का खुलासा आमोद द्वारा गठित एक समिति की रिपोर्ट में किया गया है। उक्त रिपोर्ट को इस पुस्तक के एक भाग में स्थान दिया गया है।

उक्त पुस्तक की अभिस्वीकृति आमोद के संयोजक श्री पी. आई. जोस ने लिखी है, पुस्तक का परिचय संगठन के सहसंयोजक श्री के के कठेरिया ने लिखी है। संगठन का उद्देश्य इशारा करता है आज समाज को आरक्षण नहीं हिस्सेदारी हेतु एक शशक्त आंदोलन की जरूरत है। इस विषय पर प्रख्यात पत्रकार श्री अनिल चमड़िया ने पुस्तक में अपने दो शब्दों के माध्यम से सम्पूर्ण पुस्तक का आशय प्रकट कर दिया है। इस पुस्तक के लेखन तथा संपादन में जिन प्रमुख हस्तियों का योगदान रहा है उनका उल्लेख करना भी बहुत जरूरी है। संपादक मंडल के अध्यक्ष श्री एस. एस. नेहरा, एडवोकेट, श्री राजेंद्र वर्मा एडवोकेट, श्री नरेंद्र पाल वर्मा एडवोकेट, हरियाणा जाट आरक्षण आंदोलन जांच समिति के चेयरपर्सन पूर्व आई.ई.एस. श्री के. सी. पिप्पल, श्री भूपेंद्र सिंह रावत, कर्नल आर एल राम, हेमचंद  मेहरा एवं श्री देवेंद्र भारती का प्रमुख योगदान रहा है। (संलग्नक  देखें)

एस एस नेहरा, एडवोकेट

12.11.2016

एक परिचय - "आरक्षण नहीं हिस्सेदारी"

सामाजिक न्याय का मुद्दा हो चाहे जाति उत्पीड़न का मामला हो, “आमोद”संगठन ने सदैव इन बातों को गंभीरता से लिया है। जहां एक ओर जाति जनगणना और रोहित वेमुला की संथागत हत्या जैसे मुद्दे पर आमोद ने सेमिनार के माध्यम से चर्चा कराकर समाज में जागरूकता पैदा करने का प्रयास किया वहीं गुजरात के ऊना में गाय की हत्या के आरोप में दलितों का सार्वजनिक उत्पीड़न करने की घटना के विरोध में दिल्ली के तमाम संगठनों को एक साथ लाकर जंतर मंतर पर समूहिक विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया। सामाजिक न्याय की स्थापना में आरक्षण व्यवस्था एक सशक्त उपाय है, लेकिन आरक्षण का मामला संविधान लागू होने के समय से ही विवादों में रहा है। चूंकि सत्ता के प्रतिष्ठानों में शासक जातियों का वर्चस्व रहा हैं, इसलिए संख्या में अल्पसंख्यक होते हुए भी शासक जातियां आरक्षण व्यवस्था के द्वारा सामाजिक न्याय की प्राप्ति में अवरोध उत्पन्न करने में प्राय: सफल होती रही हैं। इन शासक जातियों के वर्चस्व वाले मीडिया ने भी सामाजिक न्याय के संघर्ष में आरक्षण प्रणाली के महत्व को न केवल नजरंदाज किया है, बल्कि  आरक्षण से संबन्धित मुददों को भी जनता के सामने तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया है। हरियाणा के जाट समुदाय के आरक्षण आंदोलन के मामले में भी मीडिया का रोल ऐसा ही रहा है। हरियाणा में जाट समुदाय का आरक्षण आंदोलन आरक्षण की मांग को लेकर किसी जाति द्वारा किया गया पहला आंदोलन नहीं था। इससे पहले गुजरात में पाटीदार(पटेल) समाज, महाराष्ट्र में मराठा समाज, राजस्थान में गुर्जर समाज, आंध्र में कापू समाज और इसी प्रकार अनेक जातिय समुदायों द्वारा आरक्षण के प्रश्न पर आंदोलन किए गए, लेकिन उनके आंदोलन सदैव सत्ता के विरुद्ध अपनी मांगों को लेकर थे, हरियाणा में जाट समुदाय का आंदोलन भी अपनी मांगों को लेकर सत्ता के विरूद्ध था परंतु एक षड्यंत्र के तहत इस आंदोलन के दौरान जाट समुदाय के विरुद्ध दूसरी पिछड़ी जातियों को खड़ा करके लड़वाने का प्रयास किया गया। फरवरी 2016 में जब आंदोलन ने हिंसात्मक रूप ले लिया, उस समय भी मीडिया ने उसे उसी रूप में प्रचारित किया और जाट समुदाय को खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया।      

ऐसी परिस्थितियों में आमोद संगठन ने अपने साथी भारतीय आर्थिक सेवा से सेवानिवृत अधिकारी श्री के. सी. पिप्पल के नेतृत्व में विभिन्न सामाजिक संगठनों की पांच सदस्यी समिति को हरियाणा भेजा, ताकि घटनाओं की तह में जाकर सत्य को समाज के सामने लाया जा सके। उक्त समिति ने हरियाणा जाकर न केवल आंदोलन को समझने का प्रयास किया बल्कि विभिन्न समुदायों के लोगों से मिलकर हिंसा के पीछे निहित कारणों को भी जानने का प्रयास किया। उक्त समिति  के प्रयासों का संकलन एक रिपोर्ट के रूप में इस पुस्तक "आरक्षण नहीं हिस्सेदारी" का मुख्य भाग है। साथ ही मण्डल आयोग की रिपोर्ट का संक्षिप्त विवरण, 1882 से आरक्षण का इतिहास और बाबा साहब अंबेडकर, महात्मा ज्योतिबा फुले व पेरियार ई.वी.रामासामी नायकर जैसे महापुरुषों के आरक्षण पर विचारों ने इस पुस्तक को और भी समाजोपयोगी एवं सारगर्भित बना दिया है।    

मुझे विश्वास है, कि यह पुस्तक जाट आरक्षण आंदोलन के संबंध में रुचि रखने वाले तथा सामाजिक न्याय के आंदोलन से जुड़े रहे साथियों को अवश्य पसन्द आयेगी। 'आमोद' संगठन जाट आरक्षण आंदोलन का समर्थन करता है। 'आमोद' संगठन 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी' में विश्वास करता है और यह मानता है कि आरक्षण व्यवस्था से उत्पन्न विवादों का समाधान सभी समुदायों के लिए उनकी संख्या के अनुपात में शतप्रतिशत आरक्षण कर देना ही है।    

                                                   कमल किशोर कठेरिया, IRS

                                       राष्ट्रीय सहसंयोजक, आमोद

दो शब्द - हिस्सेदारी की चेतना के संगठित होने का दौर

सामाजिक न्याय का आंदोलन का एक चरण पूरा हो चुका है। इसे सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग और आरक्षण की व्यवस्था करने के लिए संगठित होने के रूप में देखा जा सकता है। दूसरा चरण इस रूप में सामने आ रहा है कि सामाजिक न्याय के लिए अपेक्षित वर्ग इसे विविध रूपों में विस्तार दे रहा है। आंदोलन चेतना के स्तर को विकसित करता है और उसके आधार में आंदोलन के दौरान अर्जित अनुभव होते हैं। अनुभवों ने बौद्धिक स्तर पर आंदोलन को समृद्ध किया है। इसमें पहली बात तो ये दिख रही है कि सामाजिक न्याय को आरक्षण के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की गई। वर्चस्ववादी वर्ग जब आरक्षण देने की बात करता है तो वह आरक्षण शब्द के जरिये सांस्कृतिक स्तर पर अपने वर्चस्व को बनाए रखने की कवायद भी करता दिखता है। आरक्षण का शब्दिक अर्थ इस रूप में भी देखा जाना चाहिए कि वर्चस्ववादी वर्ग दाता के रूप में दिखने की कोशिश कर रहा है। दूसरी बात कि संवैधानिक व्यवस्थाओं में भी आरक्षण जैसे शब्द नहीं है।

सामाजिक न्याय का आंदोलन अपनी मांग पूरी करने का मोहताज नहीं है। वह चेतना से अर्जी लगाने की स्थिति को बाहर निकल रहा है क्योंकि उसकी चेतना में ये बाहर से थोपा गया है। सामाजिक न्याय का आंदोलन तो उस दर्शन पर आधारित है जिसमें सभी को समानता हासिल हो और उस समानता का आधार समाज के चरित्र और ढांचे के आधार पर हो। समानता हासिल करने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वह इस विचार को ही खत्म करना चाहता है कि वहां कोई दाता है। डा. भीमराव अम्बेडकर ने जब ये कहा कि राजनीतिक समानता हासिल तो कर ली है लेकिन सामाजिक और आर्थिक स्तर पर समाज में गहरी खाई बनी हुई है तो इसका एक ही अर्थ है कि वे एक मुक्कमल लड़ाई की जरूरत पर बल देते हैं। राजनीतिक समानता केवल वोट देने के अधिकार तक ही सीमित रही है। यह नहीं माना जा सकता है कि समानता खंड़ों में पूरी हो सकती है। समानता एक मुक्कमल अवधारणा है। वह एक साथ सभी स्तर पर ही पहुंचकर अपना अर्थ ग्रहण करती है।

सामाजिक न्याय के आदोलन की चेतना इस स्तर पर पहुंची है कि वर्चस्व की स्थिति को खत्म किया जाना चाहिए और राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्तर पर बराबर की हिस्सेदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए। हिस्सेदारी ही इस चरण की गति है। वह हिस्सेदारी समग्रता पर जोर दे रही है क्योंकि वर्चस्ववादी वर्ग राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक के रूप में अलग अलग रणनीतियां अपनाकर सामाजिक न्याय के आंदोलन को व्यापक होने से रोकने में लगा हुआ हैं। सामाजिक न्याय के आंदोलनों की नई धारा देश के विभिन्न हिस्सों में दिख रही है। वह धारा एक मुख्य धारा बनने की पृष्ठभूमि है और आमोद के सामने इसके लिए अपनी भूमिका निश्चित करने की चुनौती है। सामाजिक न्याय का यह चरण वास्तव में देश की मुख्यधारा के दर्शन को स्पष्ट करने का चरण है।

हिस्सेदारी के विचार सामाजिक चेतना के विस्तार की तरफ इंगित करते हैं। सामाजिक न्याय के लिए अपेक्षित वर्गों का विस्तार भी इसमें शामिल है।

हिस्सेदारी की चेतना के साथ हम अन्याय के खिलाफ संघर्ष की तरफ बढ़ रहे हैं। हमारा इतिहास बोध हमारी इस शक्ति का पुख्ता आधार है।

अनिल चमड़िया