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नोटबंदी के शोर में खो गया: एक क्रन्तिकारी फैसला- एच.एल.दुसाध

आठ नवम्बर की रात आठ बजे से देश में यदि किसी बात की चर्चा है, तो सिर्फ नोटबंदी की और हो भी क्यों न, नोट के लिए बैंकों और एटीएम मशीनों  के सामने पहले जहां एक समय में दस-पांच लोग नजर आते थे, वहां अब सैकड़ों लोग खड़े दिख दीखते हैं। इस क्रम में सैकड़ों लोग जान गवां चुके हैं। उद्योग-धंधे उजड़ रहे हैं और गाँव छोड़कर दो पैसा कमाने के लिए शहर आये लोग बेरोजगार हो होकर पुनः गाँव की ओर रुख कर रहे हैं। यह सब नोटबंदी की वजह से हो रहा है, जिसकी चपेट में आने से आम से लेकर खास, कोई भी नहीं बच पाया है। ऐसे में जाहिर है नोटबंदी को छोड़कर और किसी बात की चर्चा हो ही नहीं सकती। बहरहाल नोटबंदी से आम जनजीवन बुरी तरह प्रभावित और उद्योग- धंधे ही चौपट नहीं हो रहे हैं बल्कि इसकी बजह से दूसरे जरुरी मुद्दे भी खो गए हैं; जिनमें शीर्ष पर है ‘समान काम के लिए समान वेतन’ का सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला।

ऐसा बहुत कम होता है कि सामाजिक विविधता से शून्य सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत विविधतामय भारत के सभी समूहों के लोग समान रूप से करें। किन्तु 27 अक्तूबर, 2016 को उसकी ओर से एक ऐसा फैसला आया है, जिसका दिल खोल कर स्वागत किये बिना कोई नहीं रह सका।  हुआ यह था कि कुछ समय पूर्व पंजाब सरकार के कुछ अस्थाई कर्मचारी स्थाई कर्मचारियों के समान वेतन की मांग को लेकर हाईकोर्ट गए थे, जहां उन्हें भारी निराशा मिली। हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि अस्थाई कर्मचारी नियमित वेतनमान के न्यूनतम वेतन के सिर्फ इसलिए हकदार नहीं हो जाते कि उनके और नियमित कर्मचारियों के कार्य समान हैं। पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के फैसले से निराश हो कर वे  सुप्रीम कोर्ट के शरणापन्न हुए और 27 अक्तूबर को शीर्ष अदालत ने हाईकोर्ट के फैसले को पूरी तरह पलट कर अस्थाई कर्मचारियों के पक्ष में फैसला दे दिया। इससे एक झटके में ठेकों और संविदा पर कार्यरत लोगों को स्थाई कर्मचारियों के समान वेतन पाने का मार्ग प्रशस्त हो गया। यह एक विशुद्ध क्रान्तिकारी फैसला था, जिसकी भूमंडलीकरण की अर्थनीति के दौर में कोई उम्मीद नहीं कर सकता था। इस फैसले ने बुद्धिजीवियों और मजदूरों के लिए कार्यरत संगठनों को सुखद आश्चर्य में डाल दिया। इससे उबरने के बाद जब वे अस्थाई कर्मचारियों के समान वेतन के लिए अपनी सरगर्मियां तेज करने लगे, तभी आठ नवम्बर को कहर बनकर टूट पड़ा नोटबंदी का फैसला, जिसकी शोर में यह पूरी तरह दब गया।

स्थाई कर्मचारियों के समान वेतन का फैसला सुनाने वाले सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस जगदीश सिंह खेहर, जो 4 जनवरी को भारत के मुख्य न्यायाधीश का पदभार सँभालने जा रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे न्यायमूर्ति एसए बोबडे में डॉ.आंबेडकर और कार्ल मार्क्स की रूह समा गयी थी, तभी उन्होंने गुलामों जैसी जिंदगी जी रहे अस्थाई मजदूरों के श्रम को उचित मूल्य प्रदान करने का फैसला सुना दिया। उन्होंने अपने विस्तृत फैसले में कहा था,‘समान कार्य के लिए समान वेतन ‘का सिद्धांत दिहाड़ी मजदूरों,आकस्मिक और संविदा कर्मियों पर भी लागू होगा जो नियमित कर्मचारियों के बराबर कार्य का निष्पादन करते हैं। ’समान कार्य के लिए समान वेतन से इन्कार को शीर्ष अदालत ने शोषणकारी दासता,अत्याचारी, दमनकारी और लाचार करने वाला करार दिया  था।

फैसला सुनाते हुए जस्टिस जे एस खेहर और न्यायमूर्ति एस ए बोबडे की पीठ ने यह भी कहा था-’हमारा मानना है कि मेहनत का फल देने से इन्कार के लिए कृत्रिम मानक बनाना दोषपूर्ण है। समान कार्य के लिए नियुक्त कर्मचारी को अन्य कर्मचारी के मुकाबले कम भुगतान नहीं किया जा सकता। ’’कोई भी अपनी मर्जी से कम वेतन पर काम नहीं करता। वह अपने सम्मान और गरिमा की कीमत पर अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए इसे स्वीकार करता है क्योंकि उसे इस बात का इल्म रहता है कि अगर वह कम वेतन पर काम करना स्वीकार नहीं करेगा तो उस पर निर्भर इससे पीड़ित होंगे। कम वेतन या ऐसी कोई और स्थिति बंधुआ मजदूरी के समान है। ये कृत्य शोषणकारी, दमनकारी और परपीड़क है और इससे अस्वैच्छिक दासता थोपी जाती है। ’समान काम के लिए समान वेतन के सिद्धांत पर इसलिए भी जरुर अमल होना चाहिए क्योंकि भारत सरकार ने ‘इंटरनेशनल कन्वेंशन ऑन इकॉनोमिक, सोशल एंड कल्चरल राइट्स,1966’ पर हस्ताक्षर किये हैं, जिसमें समान काम के लिए समान वेतन देने की बात कही गयी है।

बहरहाल जिसमें श्रमिक वर्ग के प्रति रत्ती भर भी संवेदना है, उसके दिल से यह शब्द जरुर निकलेगा कि शीर्ष अदालत ने 27 अक्तूबर 2016 को एक क्रांतिकारी फैसला किया है। इससे 24 जुलाई,1991 से लागू नरसिंह राव-मनमोहन सिंह की भूमंडलीकरण की अर्थिनीति के बाद जिस तरह भारतीय राज्य अपनी कल्याणकारी भूमिका से विमुख होकर संविदा पद्धति के जरिये कर्मचारियों को लाचारी, शोषण तथा अनिश्चित भविष्य की गहरी खाई में धकलते जा रहा है, इस फैसले के बाद उसके रवैये में बदलाव आना तय है। इससे संविदा कर्मी जहां शोषण से भारी राहत पाएंगे, वहीं मजदूर संघों में नई उर्जा संचरित होगी। स्मरण रहे भूमंडलीकरण की अर्थनीति ने ट्रेड यूनियनों की भूमिका को प्रायः हाशिये पर धकेल दिया है। अब मजदूर हितों के लिए संघर्ष चलाने वाले संगठन चाहें तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले को आधार बनाकर संविदा कर्मियों  को स्थाई कर्मचारियों के समान वेतन, छुट्टी व अन्य सुविधायें दिलाने सहित उनकी नियुक्ति में सामाजिक विविधता लागू करवाने तक की लड़ाई लड़ सकते हैं। जानकारों के मुताबिक़ वर्तमान में सरकारी क्षेत्र में 50 प्रतिशत और निजी क्षेत्र में प्रायः 70 प्रतिशत कर्मचारी संविदा पर कार्यरत हैं। ये वर्षों से स्थाई कर्मचारियों के समान वेतन के लिए संघर्षरत रहे हैं,पर अब तक इनकी मांगों की बेरहमी से अनदेखी की जाती रही है। शीर्ष अदालत के फैसले ने अब ट्रेड यूनियनों को बड़ा रोल अदा करने का स्वर्णिम अवसर सुलभ करा दिया है।

इस हिसाब से देखा जाय तो मोदी के नोटबंदी संबंधी तुगलकी फैसले के खिलाफ हमलावर हुए विपक्ष के लिए यह फैसला एक बेहद कारगर हथियार साबित हो सकता है।   

नोटबंदी के बाद एक विद्वान ने लिखा है- 'भारतीय राजनीति की एक विशेषता यह बनती जा रही है कि जब परिस्थितियां सत्ताधारी दल के प्रतिकूल जाने लगे तो एक विवादास्पद निर्णय लेकर विमर्श की पूरी धारा को एक ही दिशा में प्रवाहित कर दो। 'सत्ता में आने के पूर्व विदेशों से कालाधन ला कर प्रत्येक के खाते में 15-15 लाख जमा कराने तथा हर वर्ष दो करोड़ युवाओं को रोजगार देने जैसे भारी भरकम वादों को पूरा करने में बुरी तरह व्यर्थ प्रधानमंत्री मोदी ने बड़ी होसियारी से नोटबंदी के जरिये विमर्श की पूरी धारा को उस काले धन पर केन्द्रित कर दिया, जो नकदी के रूप में कुल काले धन का सिर्फ 5-6 प्रतिशत है। पूरा विपक्ष इसके भंवर में फँस गया है और यदि वह इससे नहीं निकला तो मीडिया के विपुल समर्थन और संघ के तीन दर्जन से अधिक आनुषांगिक संगठनों के मदद से पुष्ट मोदी काले धन के पिद्दी से मुद्दे को बड़ा आकार देकर अपनी बिगड़ी स्थिति सुधार लेंगे।

वैसे तो इस भंवर से निकलने का सर्वोत्तम उपाय सामाजिक न्याय की राजनीति को विस्तार देना ही हो सकता है। किन्तु यह नुस्खा मायावती को छोड़कर शायद ही किसी और को मुफीद लगे। किन्तु समान वेतन का मुद्दा सभी को ग्राह्य हो सकता है। ऐसे में ममता और केजरीवाल क्रमशः प.बंगाल और दिल्ली तथा राहुल गांधी कांग्रेस शासित राज्यों एवं मायावती सत्ता में आने पर उप्र में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू करवाने की घोषणा कर दें तो विमर्श की धारा ही बदल जाएगी और देश शर्तिया तौर पर एक खतरनाक तानाशाह के रूप उभर रहे मोदी से निजात पा जायेगा। अगर विपक्ष ‘समान काम के लिए समान वेतन’ के फैसले को अमल में लाने के लिए सामने नहीं आता है तो मानना पड़ेगा कि नोटबंदी से पीड़ित जनता के प्रति उसकी हमदर्दी दिखावा है; मोदी ने नोटबंदी के जरिये उनके पार्टी फंड पर जो आघात किया है, जनता के कष्टों के बहाने वे सरकार पर अपना गुस्सा निकाल रहे हैं।  कम से कम जिन बहुजन नेत्री मायावती पर आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा को रोकने का दारोमदार है, उन्हें तो सत्ता में आने पर  सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अमल में लाने का अवश्य ही आश्वासन देना चाहिए। कारण,गुलामों जैसे हालात में गुजर-वसर करने वाले अस्थाई कर्मचारी मुख्यतः दलित, आदिवासी, पिछड़े और उनसे धर्मान्तरित तबके से ही हैं, जिन्हें उनके गुरु कांशीराम जी ‘बहुजन समाज’ के रूप में चिन्हित कर गए हैं। अगर वह ऐसा करती हैं तो आगामी उप्र चुनाव में बहुजन समाज उसका प्रतिदान देने में पीछे नहीं रहेगा, इस बात के प्रति वे खुद आश्वस्त हो सकती हैं।