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कांशी राम साहब की 84वी जयंती बड़े धूमधाम से मनाई गई- के. सी. पिप्पल

(उठे कई सवाल)

कांशी राम तेरी नेक कमाई, तूने सोती कौम जगाई

राष्ट्रीय समग्र विकास संघ के तत्वावधान में नोएडा स्थित दलित प्रेरणा केंद्र में दिनांक 15 मार्च 2017 को मान्यवर कांशी राम साहब की 84वी जयंती बड़े धूमधाम से मनाई गई। जयंती में भाग लेने वाले कांशी राम जी के पुराने शिष्य श्री टी आर खूंटे, श्री ए के मौर्य, मास्टर श्री  राम प्रकाश, सरदार श्री के एस रनोट, श्री जे सी आदर्श पूर्व आईएएस, प्रोफेसर राजकुमार, श्रीमती रेखा रानी, श्री नरेंद्र पाल वर्मा एडवोकेट, श्रीमती  विशाखा बौद्ध, श्री हीरालाल पूर्व आईएएस, मास्टर बलवान सिंह, जनाब नौशाद अली, श्री आर आर वर्मा, श्री रामव्रत यादव, श्री राजकुमार गुर्जर, श्री राजेन्द्र सिंह, श्री वीर पाल सिंह के अलावा राष्ट्रीय समग्र विकास संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष कर्नल आर एल राम, उपाध्यक्ष श्री आर के वर्मा एवं महासचिव श्री के के एल गौतम के अलावा  पूज्य भंते जी ने भी अपने विचार रखते हुए कांशीराम जी के संघर्ष, त्याग और समर्पण की तुलना भगवान बुद्ध से की। 

इस अवसर पर नोएडा के पुराने साथियों में से श्री नेपाल सिंह गौतम, श्री सुरेंद्र सिंह, श्री सुभाष सागर, श्री हरपाल सिंह, श्री उदयवीर सिंह, श्री रामलाल आनंद, श्री प्रमोद कुमार दोहरे एवं नोएडा एवं दिल्ली के बसपा कार्यकर्ता बड़ी संख्या में उपस्थित हुए। हजारों की संख्या में लोगों ने भाग लेकर अपने मसीहा को पुष्पांजलि अर्पित की।

इस अवसर पर बहुजन समाज पार्टी की हुई हार के संदर्भ में सभी वक्ताओं  ने चिन्ता व्यक्त  की। सभी ने कहा अब समय आ गया है कि स्वार्थी नेताओं के निर्देश के बिना सभी बुद्धिजीवी केडर साथियों को फील्ड में जाकर बहुजन समाज की गैरराजनीतिक जड़ों को मज़बूत करना होगा। सभा की अध्यक्षता चौधरी यशपाल मलिक के प्रतिनिधि चौ. नरेन्द्र पाल वर्मा एडवोकेट ने की तथा संचालन श्री आर सी मीना जी ने किया।

मंडल कमीशन को लागू कराने में कांशीराम की भूमिका 

मंडल  कमीशन की रिपोर्ट को लागू करवाने का काम कांशीराम जीने किया। सच्चाई यही है, लेकिन बात आरक्षण की है, इस लिए मीडिया सही बताएगा नहीं। सवाल उठता है कि क्या कांशीराम पिछड़ों के वास्तविक नेता थे ? यह बात विल्कुल ठीक है परन्तु पिछड़ा वर्ग नहीं मानता। कांशीराम ने पूरे देश में मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करवाने के लिए 31 मार्च 1990 से 14 अप्रैल 1990 तक दिल्ली के बोट क्लब पर लाखों लोगों के साथ लगातार धरना देने का काम किया। नारा लगाया था ‘मंडल कमीशन लागू करो बरना कुर्सी खली करो’। यहीं पर कांशीराम ने नारा दिया था ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’।  इसके बाद 07 अगस्त 1990 को मंडल कमीशन की रिपोर्ट को प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने कटौती प्रस्ताव के साथ लागू किया। यह उनके  आंदोलन के दबाव का परिणाम था। तत्कालीन पीएम विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार का एक पिलर (खंभा) देवीलाल थे और देवीलाल कांशीराम के इस तरह के मित्र थे कि वह कूटनीतिक और राजनौतिक मामलों  में उनकी पूरी बात मानते थे। ऐसे में कांशीराम के आंदोलन से पीएम वीपी सिंह डर गए और कटौती प्रस्ताव के साथ पिछड़ों को 52 की जगह 27 फीसदी (आधा) आरक्षण पहली बार मिला। यह राष्ट्रीय स्तर पर था। पूरे देश में मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करवा कर कांशीराम ने सभी पर दबाव बना दिया कि वह इसे अपने राज्यों में लागू करें। फिर भी मुलायम सिंह यादव हिम्मत नहीं दिखा पा रहे थे, हालांकि बाद में उन्हें लगा कि जब राष्ट्रीय स्तर पर रिपोर्ट लागू हो गई है, तो यूपी में न लागू कर वह बहुत बड़ी गलती करेंगे। यही वजह रही कि यह काम उन्हें करना पड़ा, लेकिन इसका श्रेय कांशीराम को जाता है। मुलायम सिंह यादव को नहीं।

आज मंडल कमीशन की रिपोर्ट के तहत मिले आरक्षण को खत्म करने की आवाज उठने लगी है। यह आवाजें मुलायम सिंह यादव और उनके बेटे अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री काल में ही उठीं हैं। बैसे तो पिता पुत्र पिछड़ों के नेता बनते हैं, लेकिन पिछड़ों का ही सबसे अधिक नुकसान करते हैं। मंडल कमीशन की रिपोर्ट को पूरा लागू करवा पाना तो दूर, जो आरक्षण मिला है, उसका ठीक से अनुपालन भी नहीं करवा सके। अखिलेश यादव ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट नहीं पढ़ी होगी। जब वह पढ़ेंगे नहीं, तो काम क्या करेंगे।अखिलेश की जय से पिछड़ों या यादवों का भला नहीं होगा। मंडल कमीशन की रिपोर्ट को जिस दिन अखिलेश पढ़ लेंगे, वह उस दिन से आरक्षण की बात करने लगेंगे। कांशी राम के उक्त आंदोलन से पूरे देश के पिछड़े वर्ग में एक चेतना जगी, राजनीति से लेकर सामाजिक, आर्थिक स्तर पर कई बदलाव देखने को मिले लेकिन दुर्भाग्य यह हुआ कि जो नेता पिछड़े वर्ग की सियासत करके सत्ता के उच्च शिखर तक पंहुचे  उन्होंने इस समाज के उत्थान में  बहुत कम योगदान दिया। इसलिए कांशीराम जी के आंदोलन की प्रासंगिकता आज भी मौजूद है।

दलित दस्तक पत्रिका के संपादक अशोक दास की बहन मायावती जी को चिट्ठी

उत्तर प्रदेश में बसपा हार गई है। हारी ही नहीं बल्कि बुरी तरह हार गई है। इतनी बुरी तरह; जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। जल्दी ही यह भी साफ हो जाएगा कि वह कहां कितने वोटों से हारी और कहां किस नंबर पर रही। लेकिन बसपा का इस तरह हार जाना भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में बसे लाखों-करोड़ों अम्बेडकरवादियों तक को निराश कर गया है। हालांकि इस हार के बाद आपने ईवीएम की गड़बड़ी की तरफ इशारा करते हुए यह मांग की है कि पुरानी बैलेट प्रणाली के तहत चुनाव कराया जाए। मैं इसको लेकर आपका समर्थन करता हूं। संभव है कि बहुजन समाज पार्टी के विरोधी इस बात के लिए आप पर तंज कसें लेकिन उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि पूर्व में भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी भी ऐसी ही मांग कर चुके हैं। 

लेकिन आपके द्वारा ईवीएम में गड़बड़ी से इतर अगर यूपी चुनाव में बसपा  की हार की समीक्षा की जाए तो एकबारगी समझ में नहीं आता कि चूक कहां हुई, क्योंकि जिस तरह की ग्राउंड रिपोर्ट थी उसमें बसपा की इतनी करारी हार की संभावना बिल्कुल नहीं थी। हां, आपको इस बारे में जरूर जानकारी होगी। इस हार के बाद क्या आपको नहीं लगता कि अब समय आ गया है कि बहुजन समाज पार्टी को भी अपनी चुनावी रणनीति बदलनी चाहिए। सीधी सी बात यह है कि वक्त बदल रहा है। इस बदलते वक्त में वोटर भी बदल रहा है और मुद्दे भी। क्या ऐसे में बसपा को भी चुनाव लड़ने का अपना तरीका नहीं बदलना चाहिए? 

बहुजन समाज पार्टी जिस अम्बेडकरवादी विचारधारा की उपज है, आज भी समाज का एक बड़ा हिस्सा उससे अंजान है। यूपी के वोटरों में भी बहुसंख्यक लोगों को जो अनुसूचित जाति वर्ग से ताल्लुक नहीं रखते हैं इस विचारधारा से बहुत लगाव नहीं है। ऐसे में विचारधारा से इतर किन मुद्दों को सामने रखकर वोटरों को जोड़ा जाए बसपा को इस बारे में सोचना होगा। मीडिया के जिस रूख को लेकर आप और आपकी पार्टी के समर्थक लगातार मीडिया पर आरोप मढ़ते रहते हैं, पार्टी को उस बारे में भी सोचना चाहिए। मसलन यूपी जितने बड़े चुनाव के दौरान भी मीडिया से दूर रहना और अखबारों और चैनलों को इंटरव्यू नहीं देने से पार्टी को कितना नुकसान हुआ, आपको इस बारे में भी सोचना चाहिए। क्योंकि आज के वक्त में मीडिया की ताकत को नकारा नहीं जा सकता। ऐसा क्यों नहीं हो पाता कि आप मीडिया के सवालों का खुलकर सामना करें और अपना पक्ष रखें। एक सहज सवाल जनता के बीच से यह भी उठता है कि कई बार सत्ता में रहने के बावजूद बसपा आखिरकार अपना मीडिया खड़ा क्यों नहीं करती है और उसे किसने रोका है? जबकि बाबासाहेब से लेकर कांशीराम जी ने तमाम अभाव के बावजूद समाचार पत्रों (मीडिया) के महत्व को स्वीकार किया और उसे चलाया भी।

उत्तर प्रदेश में जब सभी पार्टी के नेता लगातार रोड शो कर जनता से ज्यादा से ज्यादा जुड़ने की कोशिश में जुटे थे आखिर आप इससे दूर क्यों रहीं? संभव है कि बहुजन समाज पार्टी में आस्था रखने वाले लोग अपने नेता यानि आपसे भी ऐसी उम्मीद कर रहे होंगे कि आप भी सड़क पर उतरें और ऐसा नहीं होने से उन्हें निराशा हुई होगी। जब यह दिख रहा था कि बाकी तमाम दल और नेता चुनाव में जीत हासिल करने के लिए अपना सबकुछ झोंक रहे हैं तब आप महज परंपरागत चुनावी रैलियों तक ही सीमित क्यों रही? 

पता नहीं आप सोशल मीडिया को कितना देखती हैं, लेकिन आपसे एक बात कहना चाहूंगा कि वहां पर अम्बेडकरवादी विचारधारा में विश्वास रखने वाले लाखों युवा आपके लिए पागल हैं। क्या आपने इन युवाओं के लिए पार्टी में कोई जगह तलाशने की कोशिश की? जब तमाम पार्टियां युवा मोर्चा के बल पर अपनी पार्टी की जीत का आधार और भविष्य का नेता तैयार कर रही हैं, ऐसे में बहुजन समाज पार्टी में इन युवाओं के लिए जगह क्यों नहीं है? मैं इस बात से वाकिफ हूं कि तमाम युवा पार्टी में विभिन्न पदों पर सक्रिय हैं लेकिन 18 साल से 30 साल के वे युवा एक वोटर के अलावा पार्टी से खुद को कैसे जोड़े रखें और संवाद करें आपने इसकी गुंजाइश क्यों नहीं रखी। क्या युवा मोर्चा और इसी तरह के अन्य मोर्चों का सीधे तौर पर गठन करने में देर नहीं हो रही है?

क्या पता आपकी पार्टी को बहुजन बुद्धिजीवियों से क्या दिक्कत है, कोई दिखता ही नहीं है? न राज्यसभा में, न विधान परिषद में और न ही पार्टी संगठन में। न तो बतौर प्रवक्ता, न बतौर संगठनकर्ता और न ही बतौर रणनीतिकार। हालांकि मेरा यह मतलब नहीं है कि बाकी के लोग विद्वान नहीं हैं, लेकिन जिस तरह तमाम दलों ने चुनावी कार्यकर्ताओं से इतर विभिन्न क्षेत्रों मसलन मीडिया, विश्वविद्यालय, रंगकर्मी, लेखन आदि में सक्रिय लोगों को पार्टी से जोड़ कर रखा है, आप ऐसा करने में क्यों हिचकती हैं यह पार्टी से सहानुभूति रखने वाले हर व्यक्ति के लिए अबूझ पहेली बना हुआ है। उत्तर प्रदेश की चुनावी बेला में जब आप लगातार प्रेस रिलीज जारी कर अपनी बात रख रही थीं, कई बार ऐसा हुआ कि आपकी प्रतिक्रिया तब आई जब वो मुद्दा ठंडा हो चुका था। मुख्यमंत्री रहते आपने जो काम किए थे वह बेमिसाल थे, लेकिन आपके नेता और आपकी पार्टी मजबूती से इसे भी जनता को नहीं बता पाएं। अगर आपने कुछ बुद्धिजीवियों को पार्टी से जोड़ा होता तो आपको अपनी बात कहने में जरूर मदद मिली होती।

राजनीति भाषणों का खेल है। आप काम करें ना करें, आप कितना अच्छा बोलते हैं यह राजनीति की पहली शर्त है। इस कसौटी पर बहुजन समाज पार्टी काफी पीछे दिखती है। बसपा के नेता न तो टीवी पर अपनी बात रखते दिखते हैं और न ही समाचार पत्रों में कॉलम लिखते हैं। इस पर काम करने की बहुत जरूरत है। और हां, “मीडिया हमारी बातों को तोड़-मरोड़ कर पेश करता है” ऐसे तर्क अब पुराने हो चुके हैं। इसलिए ये सब कहने से अब काम नहीं चलने वाला है।

एक आखिरी बात। जब मान्यवर कांशीराम थे, एक वक्त ऐसा था जब बसपा दिल्ली, उत्तराखंड, पंजाब, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान आदि राज्यों में भी बढ़ती हुई दिख रही थी और अंदाजा लगाया जा रहा था कि आने वाले एक-दो दशकों में बसपा इन राज्यों में परचम लहरा सकती है। आज इन राज्यों में बसपा बढ़ना तो दूर खत्म होने के कगार पर है। और जिस उत्तर प्रदेश के लिए आपने इन सारे राज्यों को परे धकेल दिया था वह भी आपके हाथ से निकल गया है। क्या आप ईमानदारी से आत्मचिंतन करने और खुद में एवं पार्टी में बदलाव को तैयार हैं या फिर सिर्फ ईवीएम को कोस कर अपना दायित्व पूरा कर लेंगी?