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‘बहुजन एकता मंच’ द्वारा बाबासाहब की 126वीं जयंती पर: बहुजन संदेश

बहुजन हिताय                                           जय बहुजन एकता                                                           बहुजन सुखाय

 

देश के विभिन्न संगठनों द्वारा गठित 

‘बहुजन एकता मंच’ के तत्वावधान में

संसद मार्ग पर

 

बाबासाहब डा. बी आर अंबेडकर की 126वीं जयंती

के अवसर पर 

बहुजन संदेश

14 अप्रेल 2017 से पूरा देश डॉ भीम राव अम्बेडकर की 126वीं जयंती लगभग 6 महीने तक मनाएगा। इस अवसर पर उनके विचारों की चर्चा होना स्वाभाविक है। इस चर्चा के बीच उन तमाम वैचारिक पहलुओं पर गौर करना जरुरी होगा जो बाबा साहब अम्बेडकर की विचारधारा की मूल धरोहर हैं।

उन्होंने 26 जनवरी, 1950 को संविधान में प्रदत्त लोकतान्त्रिक अधिकार पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा था "आज से हम दोहरी जिंदगी में प्रवेश करने जा रहे हैं। एक तरफ जहाँ हमारे राजनीतिक क्षेत्र में समानता होगी वहीँ हमारी परम्पराओं के कारण सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता बनी रहेगी। हमें इस अन्तर्विरोध को शीघ्रातिशीघ्र दूर करना होगा अन्यथा इस असमानता के शिकार लोग मुश्किल से बनाये गए इस राजनीतिक लोकतंत्र को ध्वस्त कर देंगे।"

एक देश भक्त के रूप में उनकी सोच बहुत ही उच्च कोटि की थी। अम्बेडकर सम्पूर्ण वांग्मय के खंड 5 में लिखा है, 'डॉ अंबेडकर का दृढ़ मत था कि मैं भारत से प्रेम करता हूँ। मैं जीऊंगा तो भारत के लिए और मरूंगा तो भारत के लिए। मेरे शरीर का प्रत्येक कण और मेरे जीवन का प्रत्येक क्षण मेरे देश के काम आए, इसलिए मेरा जन्म हुआ है’।

डॉ अम्बेडकर को सामान्यतया भारतीय संविधान के निर्माता और दलितों के मसीहा के रूप में ही जाना जाता है परन्तु उनके व्यक्तित्व का एक अति महत्वपूर्ण पहलू अभी तक जन साधारण से छिपा हुआ है। डॉ अम्बेडकर न केवल महान समाज-शास्त्री, राजनीति-शास्त्री और धर्म-शास्त्री थे, बल्कि वे एक महान अर्थशास्त्री भी थे।

डॉ अम्बेडकर द्वारा प्रस्तावित राष्ट्र-निर्माण का आर्थिक स्वरूप राजकीय समाजवादी था। वे राज्य का सकारात्मक हस्तक्षेप सामाजिक-आर्थिक रूपान्तरण के लिए आवश्यक मानते थे। यह प्रारूप गाँधीवादी प्रारूप से सर्वथा भिन्न और नेहरुवादी प्रारूप से अधिक स्पष्ट, विकसित और निर्णायक था। भारत में परम्परागत सामाजिक बंटवारा अन्यापूर्ण है और उस पर आधारित आर्थिक बंटवारा अमानवीय है। हमें इसे समाप्त करना है। यही हमारे लिए बड़ी चुनौती है। इस दिशा में विशेष ध्यान न दिए जाने के कारण ही आज जगह-जगह हिंसात्मक संघर्ष फूट रहे हैं। इन्हें केवल कानून और व्यवस्था की समस्या के रूप में देखना समझदारी नहीं होगी। इसकी आशंका डॉ अम्बेडकर को पहले ही थी। अतः उन्होंने उसी समय अपना राजकीय समाजवाद का नमूना देश के सामने रखा था। यह भारत जैसे पिछड़े देश के लिए आज भी प्रासंगिक है। नेहरु जी इस दिशा में चले थे लेकिन आधे अधूरे मन से। आज हम अपने चिंतकों द्वारा प्रस्तुत राजनीतिक-आर्थिक नमूनों को भूल कर पश्चिमी पूंजीवादी देशों द्वारा लुभावने किन्तु खतरनाक नारों और मुहावरों में फंसते जा रहे हैं। यह बहुत खतरनाक रास्ता है। 

आज भूमंडलीकरण औए निजीकरण के दौर में हम राजकीय नियंत्रण से स्वतंत्रता को वास्तविक स्वतंत्रता मान बैठे हैं। लेकिन डॉ अम्बेडकर ने इसमें व्यक्तिगत मालिकों की तानाशाही देखी थी। लोकतान्त्रिक राज्य को निपट पूंजीवादी राज्य मानना उचित नहीं होगा। डा. अम्बेडकर ने भारत में व्याप्त आर्थिक और सामाजिक अंतर्विरोधों को दूर करने के लिए जिस राज्य की कल्पना की थी वह राजनितिक दृष्टि से लोकतान्त्रिक और आर्थिक दृष्टि से समाजवादी था। उसे उन्होंने राजकीय समाजवाद (State Socialism) कहा था। उसे समाजवादी लोकतंत्र भी कहा जा सकता है। हमारे लिए यह नमूना आज भी प्रासंगिक है। 

डा. अम्बेडकर ने राजशक्ति की सृजनात्मक भूमिका पर जोर दिया। सही मायने में लोकतान्त्रिक राज लोक कल्याणकारी होगा। ऐसे राज का उपयोग ज़मींदारों और पूँजीपतियों जैसे निहित स्वार्थों को अनुशासित करने और उनके सामाजिक-आर्थिक आधार को समाप्त करने के लिए किया जा सकता है। इनके अधिकारों को सीमित किये बगैर आम जन को स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती। अतः डा. अम्बेडकर ने कहा: "एक अर्थव्यवस्था, जिसमे लाखों मजदूर उत्पादनरत हों, उसके सम्बन्ध में समय समय पर किसी न किसी को नियम बनाने पड़ेंगे ताकि मजदूरों को काम मिल सके और उद्योग चलते रहें, अन्यथा मजदूरों का जीवन दूभर हो जायेगा। उद्योग, वाणिज्य और व्यापार को राजकीय नियंत्रण से मुक्त करने का मतलब होगा व्यक्तिगत मालिकों की तानशाही।" डा. अम्बेडकर के मस्तिष्क में समाजवाद की रूप-रेखा बहुत स्पष्ट थी। भारत के सामाजिक रूपान्तरण और आर्थिक विकास के लिए वे इसे अपरिहार्य मानते थे। उन्होंने भारत के भावी संविधान के अपने प्रारूप में इस रूप-रेखा को राष्ट्र के समक्ष प्रस्तुत भी किया था जो कि "राज्य और अल्पसंख्यक" (States and Minorities) नामक पुस्तक के रूप में उपलब्ध है। 

डा. अम्बेडकर की सबसे बड़ी चिंता थी देश के बंचित और उत्पीड़ित समाज के लोगों का सम्मान जनक विकास कैसे हो? इसके लिए उनहोंने छोटी-छोटी अछूत जातियों को इकट्ठा करके एक अनुसूचित जातियों का वर्ग बनाया जिसका नाम 1942 में "अखिल भारतीय दलित महासंघ" (Scheduled Castes Federation of India) रखा उसके बैनर के नीचे उन्होंने चुनाव लड़ते हुए कहा कि "राजसत्ता वह मास्टर चाबी है जिससे सभी दरवाजे खुल जाते हैं" 1957 तक उक्त पार्टी ने चुनाव लड़े। बाद में इसका नाम भारतीय रिपब्लिकन पार्टी रखा गया। बाबा साहब के चेलों ने 1973 तक उनके मिशन को समाप्त कर दिया।   

1973 से मान्यवर कांशीराम जी और उनके साथियों ने बाबा साहब के ‘दलित वर्ग’ में अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़ी जातियों तथा धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों को जोड़ कर एक बड़ा महासंघ बनाया जिसका नाम 'बहुजन समाज' रखा उसके गार्जियन संगठन का नाम बामसेफ था। कांशी राम जी का लक्ष्य था ‘How to change SC/ST/OBC and minority communities in the class under an umbrella of Bhujan Samaj’. उन्होंने बसपा के नाम से 1984 तक आते आते राजनीतिक पार्टी बना ली जो 1990 तक राष्ट्रीय पार्टी बन गई। 

नब्बे के दशक में यह नारा बड़े जोरों पर लगता था कि "बाबा तेरा मिशन अधूरा, कांशी राम करेंगे पूरा" आज न कांशी राम है न उनके जैसा व्यक्ति सो ऐसे में एक ही नारा लगाया जा सकता है कि "कांशी तेरा मिशन अधूरा, आगे कौन करेगा पूरा?"  आज जयराम सिंह जय के गीत की निम्नलिखित लाइनें आज भी याद आती हैं।…

‘प्यारे एक होलो रे, बहुजन एक होलो रे, अपने दीन को बचालो, ईमान को बचालो, प्यारे एक………’

बहुजन विरोधी जिन ताकतों ने उत्तर प्रदेश की जमीन में जातीय अहंकार रुपी फूट का बीज 1995 में डाला था, जिसकी पहली फसल उन्होंने 2014 में काटी और दूसरी फसल 2017 में काट ली और अब 2019 की तैयारी है। कांशीराम जी ने महात्मा बुद्ध के सिद्धांत को आत्मसात करते हुए नारा दिया था "जो बहुजन की बात करेगा वह दिल्ली से राज करेगा" इस मन्त्र को बहुजन समाज के राज नेता भूल गए और उन्होंने आदि शंकराचार्य के सिद्धांत पर आधारित नारे ‘सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय’ की बात करने लगे परिणाम स्वरूप बहुजन की मूल जातियां बहुजन आंदोलन से अलग होकर वे भी आदि शंकराचार्य की एक बड़ी पार्टी का गुण गान करने लगीं। तभी स्थिति को भांप कर बहुजन विरोधी ताकतों ने अपना नेता, बहुजन समाज की जाति में पैदा होने वाले व्यक्ति को घोषित कर दिया जिसने थोड़े ही समय में बहुजन वर्ग की अति पिछड़ी और अति दलित जातियों को अपना दास बना लिया। इसी कड़ी में कम-पिछड़ी और अति-पिछड़ी जातियों, कम-दलित और महा-दलित जातियों इसी तरह अल्पसंख्यक वर्ग में अशरफ और अजलाफ जातियों के बीच में विभेद पैदा करके स्थाई खाई पैदा कर दी गई। इस नीति का समर्थन जब बहुजन समाज पार्टी को चलाने वाले बड़े नेताओं ने कर दिया, तो उसी दिन से बसपा के राजनीतिक पतन की शरूआत होने लगी थी। जब समाज को दिशा देने वाले राजनेता ही सामाजिक परिवर्तन विरोधी ताकतों की हाँ में हाँ मिलाना शुरू कर देते हैं तो उसी दिन से उनकी राजनीति का पतन होना निश्चित हो जाता है।

बहुजन नेताओं की अदूरदर्शिता के घातक परिणाम का उदाहरण

बसपा सुप्रीमो मायावती ने कहा, 2012 के चुनाव में मुसलमानों ने तथा 2017 के चुनाव में वोटिंग मशीनों ने धोखा दिया। कांशीराम जी कहते थे की धोका देने वाले से धोका खाने वाला बड़ा गुनहगार होता है। वह हमेशा अपनी असफलता का ठीकरा दूसरों पर फोड़ता है। चुनाव आयोग से प्राप्त आंकड़ों को ध्यान से देखा जाये तो लगता है अति विश्वास के कारण बहुजन की घटक पार्टियों को उत्तर प्रदेश में लगातार दो बार करारी हार का सामना करना पड़ा। यदि सपा और बसपा के कुल वोटों को जोड़ दिया जाय तो दोनों के कुल वोट हो जाते हैं 3 करोड़ 81 लाख और दोनों की सीटों की कुल संख्या हो जाती है 66, दोनों का वोट प्रतिशत जोड़ा जाये तो होता है 44 प्रतिशत। जबकि बहुमत के साथ जीतने वाली अकेली भाजपा के वोट होते है 3 करोड़ 44 लाख, उसकी सीटें बनती हैं 312, जबकि वोट प्रतिशत 39.7 बनता है, जो सपा और बसपा  के योग वोटों से 4.3 फीसदी कम है, जबकि, सपा और बसपा के वोटों से भाजपा के वोट 37 लाख कम हैं। लोक सभा के चुनाव में भी भाजपा को इसी तरह की गलती के कारण 73 सीटें और 44 फीसदी वोट मिला, फिर भी दोनों बहुजन समाज वादियों ने सबक नहीं लिया। यदि आगामी 2019 के लोक सभा चुनाव में भी दोनों पार्टियों ने हमेशा की तरह अपने वोटरों का भरोसा तोड़ने की कोशिश की तो जनता अब सबक सिखाने के मूड में आ चुकी है। 

तालिका-1 देखने से लगता है, यदि सपा और बसपा में चुनावी समझौता हो जाता तो लगभग 350 सीटों दोनों को प्राप्त होतीं। समझौता क्यों नहीं हुआ इस पर बहुजन मतदाता आज हैरान हैं। कुछ दिन पूर्व बिहार में इसी फार्मूले से नितीश-लालू ने मोदी के विजय रथ को रोक कर सिद्ध किया कि भारत में मनुवाद की हार और बहुजनों की विजय गैरभाजपाई पार्टियों के महागठबंधन से ही सम्भव है। लालू यादव जी ने सपा-बसपा और कांग्रेस के बीच चुनावी समझौता कराने की कोशिश की थी परन्तु नेताओं  के अंहकार तथा अकेले दम पर जीतने का अति विश्वास ने समझौता नहीं होने दिया। जनता ने परिवारवाद, भ्रष्टाचार तथा व्यक्ति पूजा को नकार दिया है, जिसका भाजपा को फायदा मिला। 

आगामी चुनावों में बहुजन वोटरों की पार्टियों ने अपनी रणनीति नहीं बदली तो हर चुनाव में मुहकी खाने से कोई नहीं रोक पायेगा। अब तक प्राप्त आंकड़ों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि बसपा को 31 प्रतिशत से अधिक वोट तथा सपा को 29 प्रतिशत से अधिक वोट कभी नहीं मिला, जबकि भाजपा को अकेले दम पर 42 प्रतिशत वोट 2014 में तथा 39.7 फीसदी वोट 2017 में मिल चुका है। अब अकेले दम पर सपा या बसपा भाजपा का मुकाबला कभी भी नहीं कर सकती क्योंकि भाजपा का वोट अभी बटने की उम्मीद बहुत कम लगती है, इस लिए महागठबंधन के आलावा कोई रास्ता नहीं है। नेताओं के अहंकार के चलते दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और अन्य पिछड़े वर्ग का बहुजन मतदाता हर बार ठगा सा महसूस करता है। आखिर ऐसा कब तक चलेगा ?

इस बार उत्तर प्रदेश में 3 करोड़ 81 लाख दलित पिछड़े व् मुस्लिम मतदातों की पराजय हुई है जो कभी भी भुलाई नहीं जा सकती। भाजपा के रणनीतिकारों के सामने सपा-बसपा और कांग्रेस की रणनीति पूरी तरह से फेल साबित हुई है । भाजपा  अपने रणनीतिकार संगठन आरएसएस की सारी बातें मानकर राजनीति करती है जबकि सपा-बसपा जैसी अन्य पार्टियों के पास रणनीतिकार गार्जियन संगठन कोई भी नहीं है यदि है भी तो वह मात्र दिखाने के लिए। जबकि मनुबाद की काट अम्बेडकर साहब और कांशीराम जी के 85% बहुजन के अचूक फॉर्मूले में छिपी है जिसके तहत 1993 में जब ‘मिले मुलायम कांशीराम।। हवा हो गए जय श्रीराम।। का नारा गूंजा था तो मनुबादी ताकतों के होश उड़ गए थे। अब कहाँ गए वे लोग, किसने भगा दिये वे लोग ? 

उत्तर प्रदेश जैसे बड़े सूवे के चुनाव में बहुजन वोटों के विखराव का उदाहरण देकर समझाने की कोशिश की है। कुछ साथियों को ऐसा लग सकता है कि इस पेपर में बहुजन समाज पार्टी, उनके नेताओं तथा उत्तर प्रदेश का जिक्र कुछ ज्यादा ही हो गया है। लेकिन यह सबसे कड़वी सच्चाई का जीता जागता ताजा उदाहरण, बहुजन एकता के लिए अचूक फॉर्मूले के रूप में साबित हो सकता है। इसी तरह के बहुजन वोटों के विखराव के कारण हरियाणा, मध्य पदेश, राजस्थान, झारखण्ड, उत्तराखंड, महाराष्ट्रा और अन्य प्रदेशों में भी बहुजन वोटरों की हार का कारण बहुजन वोटों का विखराव रहा है। 

धर्म से राजनीतिक से शैक्षिक से सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की प्रक्रिया

प्रारम्भ में बौद्धों, जैनों, आजीवकों एवं कुछ वैदिक सम्प्रदायों की आज के बोर्डिंग टाइप की शिक्षापद्धति प्रचिलित थी। उस समय तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, वलभी, ओदंतपुरी, जगद्दल, नदिया, मिथिला, प्रयाग, अयोध्या आदि शिक्षा के केंद्र थे। दक्षिण भारत के एन्नारियम, सलौत्गि, तिरुमुक्कुदल, मलकपुरम् तिरुवोरियूर में प्रसिद्ध विद्यालय थे। अध्यापन विद्यार्थी के योग्यतानुसार होता था। उस समय के सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन में शिक्षित वर्ग का बड़ा हाथ था।  

भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना होते ही इस्लामी शिक्षा का प्रसार होने लगा। फारसी जानने वाले ही सरकारी कार्य के योग्य समझे जाने लगे। उपरोक्त भाषा का ब्राह्मण समाज ने मिलेच्छों की भाषा करार देते हुए पड़ने से इंकार कर दिया। उसी समय किलों में काम करने वाले नीची जाति के परिवारों के बच्चों तथा तलवार की म्यान और घोड़ों की जीन बनाने वाले राज दरबारी मोचियों के बच्चों को अरबी और फारसी पढ़ने के द्वार खुल गए। जिसके कारण ये पढ़े लिखे मोची परिवार आगे चलकर कायस्थ, मुंशी और श्रीवास्तव के नाम से प्रचलित हो गए (The Chamars Book)। हर्वर्ट रिजले ने इस समुदाय का नाम क्लर्क कम्युनिटी के नाम से संबोधित किया जो हमेशा सत्ताधारियों के साथ नौकरपेशा जाति के रूप में उभरकर ब्राह्मणों के प्रतिद्वंदी बन गए। 1930-35 तक उनकी नौकरी में 40 प्रतिशत तक हिस्सेदारी थी। आज के समय में उक्त पढ़ालिखा समुदाय चित्रांश के नाम से भी जाना जाता है जिसमें अनेकों उपजातियां और उपनाम हैं। 

ब्रिटिश काल में शिक्षा में मिशनरियों का प्रवेश हुआ, इस काल में अंग्रेजों की शिक्षा नीति का लक्ष्य था - संस्कृत और फ़ारसी के वर्चस्व को तोड़कर अंग्रेजी को राज भाषा बनाना तथा वंशानुगत पेशों को छोड़ कर सम्मान जनक आधुनिक पेशे अपनाना। इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में ईसाई मिशनरियों ने भी भूमिका निभाई और इसी क्रम में 1813 के आज्ञापत्र में अनुमोदित धन के व्यय को बढ़ाया गया। 1938 में बुनियादी शिक्षा के नाम से नयी योजना प्रस्तुत की गई, जिसके अनुसार  सात से 11 वर्ष के बालक-बालिकाओं की शिक्षा अनिवार्य हो गई। 1945 में इसमें परिवर्तन किए गए और परिवर्तित योजना का नाम रखा गया 'नई तालीम'। इसके चार भाग थे - (1) पूर्व बुनियादी, (2) बुनियादी, (3) उच्च बुनियादी और (4) वयस्क। उस समय बजट का 30% तक शिक्षा पर व्यय किया जाता था। 

आज के समय में भारत प्राईमरी शिक्षा पर व्यय करने की दर में दुनिया में सबसे नीचे आता है। प्राईवेट शिक्षा भारत का सबसे बड़ा व्यवसाय बना हुआ है। सामाजिक विभाजन आज जातीय के साथ-साथ शैक्षिय भी हो गया है। लोकतांत्रिक समानता की अवधारणा इन दोनों असमानताओं की शिकार है। सन् 2007-2008 में भारत सरकार ने प्राईमरी शिक्षा के बजट में 6 प्रतिशत कटौती की थी। प्राईमरी शिक्षा का बजट 17,128 करोड़ से कम करके 16,026 करोड़ कर दिया था। पिछले चार पांच सालों से प्राईवेट शिक्षा पर व्यय लगभग 13-15 प्रतिशत बढ़ रहा है। सन् 2012-13 में इस व्यवसाय में लगभग 100,000 करोड़ रुपये निवेश किये गए थे जबकि सन् 2000-01 में यह राशि मात्र 26,883 करोड़ थी। इन प्राईवेट संस्थानों में मुख्यतः मिडिल क्लास, अपर मिडिल क्लास और धनिकों के बच्चे पढ़ते हैं। प्राईमरी शिक्षा हमारे लोकतन्त्र के भावी स्वरूप की आधारशिला है। बच्चों को शुरु से ही आत्महीनता के अन्धेरे में धकेल कर हम किस उज्जवल लोकतन्त्र की बात सोच सकते हैं?

धार्मिक कट्टरता शासन चलाने में और उसे बनाने में कितनी मदद करती है यह मैं नहीं जानता, पर में यह अवश्य जानता हूं कि मध्यपूर्व और कुछ देशों में धार्मिक अधिनायकवाद था जिसके कारण दो विश्व युद्ध हुए। लेटिन अमेरिका जैसे महाद्वीप अपने गृहयुद्धों से त्रस्त हो गए। इसलिए लोकतंत्र की शासन प्रणाली अभी पूरी तरह से कहीं पर भी परिपक्व नहीं हुई है। कहा जाए तो विश्व अभी लोकतन्त्र की प्रयोगशाला ही बना हुआ है, कार्यशाला नहीं बना है। ऐसे में भारत का लोकतंत्र विविधिताओं से भरा देश है, धर्मनिरपेक्षता हमारे लोकतंत्र का आभूषण है। यदि इस संवैधानिक ताने-बाने को तोड़ने की कोशिश की गई तो लोकतान्त्रिक व्यवस्था भारत में ध्वस्त हो सकती है। राजनीति में धर्म के प्रयोग पर बिलकुल रोक लगनी चाहिए। समाजशास्त्र की किताब में लिखा है की साधु, सन्यासियों और डाकुओं की जगह समाज में नहीं जंगल में होती है। हमारे देश में इन दोनों ही वर्गों के लोग संसद और विधान सभाओं में चुनकर जाने लगे हैं, यह एक भयानक राजनीतिक परिद्रश्य की ओर संकेत है। हमें अपने लोकतंत्र को धूमिल होने से बचाकर डॉ. अंबेडकर के लोकतान्त्रिक सपने को साकार करना होगा।

सामाजिक परिवर्तन और आरक्षण की अवधारणा में बदलाव  

विंध्य के दक्षिण में प्रेसीडेंसी क्षेत्रों और रियासतों के एक बड़े क्षेत्र में पिछड़े वर्गो (बीसी) के लिए आजादी से बहुत पहले आरक्षण की शुरुआत हुई थी। महाराष्ट्र में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति साहूजी महाराज ने 1902 में पिछड़े वर्ग से गरीबी दूर करने और राज्य प्रशासन में उन्हें उनकी हिस्सेदारी देने के लिए आरक्षण का प्रारम्भ किया था। कोल्हापुर राज्य में पिछड़े वर्गों/समुदायों को नौकरियों में आरक्षण देने के लिए 1902 की अधिसूचना जारी की गयी थी। यह अधिसूचना भारत में दलित वर्गों के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने वाला पहला सरकारी आदेश है।

देश भर में समान रूप से अस्पृश्यता की अवधारणा का अभ्यास नहीं हुआ करता था, इसलिए दलित वर्गों की पहचान कोई आसान काम नहीं था। इसके अलावा, अलगाव और अस्पृश्यता की प्रथा भारत के दक्षिणी भागों में अधिक प्रचलित रही और उत्तरी भारत में अधिक फैली हुई थी। एक अतिरिक्त जटिलता यह थी कि कुछ समुदाय जो एक प्रांत में अछूत माने जाते थे लेकिन अन्य प्रांतों में नहीं। परंपरागत व्यवसायों के आधार पर कुछ जातियों को हिंदू और गैर-हिंदू दोनों समुदायों में स्थान प्राप्त था। जातियों के सूचीकरण का एक लंबा इतिहास है, मनु के साथ हमारे इतिहास के प्रारंभिक काल से जिसकी शुरुआत होती है। मध्ययुगीन वृतांतों में देश के विभिन्न भागों में स्थित समुदायों के विवरण शामिल हैं। ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान, 1806 के बाद व्यापक पैमाने पर सूचीकरण का काम किया गया था। 1881 से 1931 के बीच जनगणना के समय इस प्रक्रिया में तेजी आई। 

पिछड़े वर्गों का आंदोलन भी सबसे पहले दक्षिण भारत, विशेषकर तमिलनाडु में जोर पकड़ा। देश के कुछ समाज सुधारकों के सतत प्रयासों से अगड़े वर्ग द्वारा अपने और अछूतों के बीच बनायी गयी दीवार पूरी तरह से ढह गयी; उन सुधारकों में शामिल हैं पेरियार ई वी रामासामी नायकर, नारायण गुरु, महात्मा ज्योतिबा फुले, छत्रपति साहूजी महाराज और बाबा साहेब अम्बेडकर इत्यादि।

जाति व्यवस्था नामक सामाजिक वर्गीकरण के एक रूप के सदियों से चले आ रहे अभ्यास के परिणामस्वरूप भारत अनेक अंतर्विवाही समूहों, या जातियों और उपजातियों में विभाजित है। आरक्षण नीति के समर्थकों का कहना है कि परंपरागत रूप से चली आ रही जाति व्यवस्था में निचली जातियों के लिए घोर उत्पीड़न और अलगाव था और शिक्षा समेत उनकी विभिन्न तरह की आजादी सीमित थी। "मनु स्मृति" जैसे प्राचीन ग्रंथों के अनुसार जाति एक "वर्णाश्रम धर्म" है, जिसका अर्थ हुआ "वर्ग या उपजीविका के अनुसार पदों का दिया जाना"। वर्णाश्रम (वर्ण+आश्रम) के "वर्ण" शब्द के समानार्थक शब्द 'रंग' से भ्रमित नहीं होना चाहिए। भारत में जाति प्रथा ने इस नियम का पालन किया।

जाति आधारित आरक्षण की अवधारणा का क्रमिक विकास

1882-

हंटर आयोग की नियुक्ति हुई। महात्मा ज्योतिराव फुले ने नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ सरकारी नौकरियों में सभी के लिए आनुपातिक आरक्षण/प्रतिनिधित्व की मांग की।

1891-

त्रावणकोर के सामंती रियासत में 1891 के आरंभ में सार्वजनिक सेवा में योग्य मूल निवासियों की अनदेखी करके विदेशियों को भर्ती करने के खिलाफ प्रदर्शन के साथ सरकारी नौकरियों में आरक्षण के लिए मांग की गयी।

1902-

महाराष्ट्र के सामंती रियासत कोल्हापुर में शाहू महाराज द्वारा आरक्षण शुरू किया गया। सामंती बड़ौदा और मैसूर की रियासतों में आरक्षण पहले से लागू थे।

1908-

अंग्रेजों द्वारा बहुत सारी जातियों और समुदायों के पक्ष में, प्रशासन में जिनका थोड़ा-बहुत हिस्सा था, के लिए आरक्षण शुरू किया गया।

1909-

भारत सरकार अधिनियम 1909 में आरक्षण का प्रावधान किया गया।

1919-

मोंटागु-चेम्सफोर्ड सुधारों को शुरु किया गया।

1919-

भारत सरकार अधिनियम 1919 में आरक्षण का प्रावधान किया गया।

1921-

मद्रास प्रेसीडेंसी ने जातिगत सरकारी आज्ञापत्र जारी किया, जिसमें गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, भारतीय-एंग्लो/ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए आठ प्रतिशत आरक्षण दिया गया था।

1935-

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रस्ताव पास किया, जो पूना समझौता कहलाता है, जिसमें दलित वर्ग के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए।

1935-

भारत सरकार अधिनियम 1935 में आरक्षण का प्रावधान किया गया।

1942-

बी आर अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के समर्थन के लिए अखिल भारतीय दलित वर्ग महासंघ की स्थापना की। उन्होंने सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की।

1946-

1946 भारत में कैबिनेट मिशन अन्य कई सिफारिशों के साथ आनुपातिक प्रतिनिधित्व का प्रस्ताव दिया।

1947-

में भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की, डॉ॰ अम्बेडकर को भारतीय संविधान मसौदा समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। भारतीय संविधान न केवल धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है। बल्कि सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करते हुए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएं रखी गयी हैं। 10 सालों के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए हैं (हर दस साल के बाद सांविधानिक संशोधन के जरिए इन्हें बढ़ा दिया जाता है)।

1953-

सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए कालेलकर आयोग को स्थापित किया गया। जहां तक अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का संबंध है रिपोर्ट को स्वीकार किया गया। अन्य पिछड़ी जाति (ओबीसी (OBC)) वर्ग के लिए की गयी सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया गया।

1956-

काका कालेलकर की रिपोर्ट के अनुसार अनुसूचियों में संशोधन किया गया।

1976-

अनुसूचियों में संशोधन किया गया।

1979-

सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ेपन की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए मंडल आयोग को स्थापित किया गया। आयोग के पास उपजाति, जो अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) कहलाती है, का कोई सटीक आंकड़ा नहीं था और ओबीसी की 52% आबादी का मूल्यांकन करने के लिए 1930 की जनगणना के आंकड़े का इस्तेमाल करते हुए पिछड़े वर्ग के रूप में 1,257 समुदायों का वर्गीकरण किया।

1980-

आयोग ने एक रिपोर्ट पेश की और मौजूदा कोटा में बदलाव करते हुए 22% से 49.5% वृद्धि करने की सिफारिश की 2006 तक पिछड़ी जातियों की सूची में जातियों की संख्या 2297 तक पहुंच गयी, जो मंडल आयोग द्वारा तैयार समुदाय सूची में 60% की वृद्धि है।

1990-

मंडल आयोग की सिफारिशें विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा सरकारी नौकरियों में लागू किया गया। सवर्ण छात्र संगठनों ने राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन शुरू किया। 

1991-

नरसिम्हा राव सरकार ने अलग से अगड़ी जातियों में गरीबों के लिए 10% आरक्षण शुरू किया।

1992-

इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को सही ठहराया। 

1995-

संसद ने 77वें सांविधानिक संशोधन द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की तरक्की के लिए आरक्षण का समर्थन करते हुए अनुच्छेद 16(4)(ए) डाला। बाद में आगे भी 85वें संशोधन द्वारा इसमें अनुवर्ती वरिष्ठता को शामिल किया गया था।

2005-

निजी शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिए आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए 93वां सांविधानिक संशोधन लाया गया। इसने अगस्त 2005 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को प्रभावी रूप से उलट दिया।

2006-

सर्वोच्च न्यायालय के सांविधानिक पीठ में एम. नागराज और अन्य बनाम यूनियन बैंक और अन्य के मामले में सांविधानिक वैधता की धारा 16(4) (ए), 16(4) (बी) और धारा 335 के प्रावधान को सही ठहराया गया।

2006-

केंद्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण शुरू हुआ। कुल आरक्षण 49.5% तक चला गया। 

2007-

केंद्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में ओबीसी (OBC) आरक्षण पर सर्वोच्च न्यायालय ने स्थगन दे दिया।

2008-

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 10 अप्रैल 2008 को सरकारी धन से पोषित संस्थानों में 27% ओबीसी (OBC) कोटा शुरू करने के लिए सरकारी कदम को सही ठहराया। न्यायालय ने स्पष्ट रूप से अपनी पूर्व स्थिति को दोहराते हुए कहा कि "मलाईदार परत" को आरक्षण नीति के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए। क्या आरक्षण के निजी संस्थानों आरक्षण की गुंजाइश बनायी जा सकती है, सर्वोच्च न्यायालय इस सवाल का जवाब देने में यह कहते हुए कतरा गया कि निजी संस्थानों में आरक्षण कानून बनने पर ही इस मुद्दे पर निर्णय तभी लिया जा सकता है। समर्थन करने वालों की ओर से इस निर्णय पर मिश्रित प्रतिक्रियाएं आयीं और तीन-चौथाई ने इसका विरोध किया।

2011-

जातीय गणना में किसी व्यक्ति की जाति से संबंधित सूचना का समावेश, सत्तारूढ़ गठबंधन के कई बड़े नेताओं जैसे कि लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, मुलायम सिंह यादव और मायावती जैसे नेताओं की जोरदार मांग पर किया गया। इसी मांग का समर्थन विपक्षी पार्टियों जैसे कि भारतीय जनता पार्टी, अकाली दल, शिवसेना और अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम दलों द्वारा भी किया गया। जाति संबंधी सूचना का समावेश पिछली बार ब्रिटिश राज के दौरान हुई 1931 की जनगणना में किया गया था। शुरुआती जनगणनाओं के दौरान, लोग अक्सर समाज में खुद को ऊँचे तबके का दिखाने के लिए अपनी जाति को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया करते थे, पर इस बार लगता है कि लोगों ने  सरकारी लाभ पाने के उम्मीद में अपनी जाति को निम्न बताने की चेष्टा की होगी। स्वतंत्र भारत में जाति-गणना का सिर्फ एक उदाहरण मिलता है। केरल में 1968 में ई.एम.एस. नंबूदिरीपाद की कम्युनिस्ट सरकार के द्वारा विभिन्न निचली जातियों के सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन के आकलन के लिए जाति-गणना की गयी थी। इस जनगणना को 1968 का सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण कहा गया था और इसके परिणाम केरल के 1971 के राजपत्र में प्रकाशित किए गए थे। २2011 की जातीय गणना की रिपोर्ट को सर्कार ने आज तक प्रकाशित नहीं किया है। पिछड़े वर्ग इस बात से काफी चिंतित हैं कि उनके अधिकारों और हिस्सेदारी को निर्धारित करने वाली रिपोर्ट आखिर सरकार ने क्यों दबाई है?

2015-

गुजरात के पाटीदार-पटेल, आंध्र प्रदेश के कापू, हरियाणा के जाट, और महाराष्ट्र के मराठा पिछड़े वर्ग में शामिल होने के लिए 2015 से लगातार आरक्षण की लड़ाई लड़ रहे हैं। बर्चस्ववादी अधिकार संपन्न वर्ग उक्त चारों जातियों को किसी भी कीमत पर ओबीसी में शामिल करके हिंदुत्व की सामाजिक फोर्सिस को हमेशा के लिए खोना नहीं चाहता। इस लिए उनके आरक्षण की मांग की कीमत पर सवर्ण पार्टियां इन वर्गों को सत्ता देने को तैयार हो सकती हैं। अंतत: उन्हें बहुत दिनों तक आरक्षण देने से रोका नहीं जा सकता, यदि उन्हें आरक्षण मिल जाता है तो बहुजन जातियों के मित्र बन कर वे सत्ता के स्थाई दावेदार हो सकते हैं।

वंचित वर्गों के विकास हेतु अनुपातिक प्रतिनिधित्व का सिद्धांत 

सामाजिक न्याय की अवधारणा हिस्सेदारी पर आधारित है न कि दया पर। दूसरी ओर आरक्षण की अवधारणा हिस्सेदारी पर आधारित न होकर दया पर अधिक निर्भर है। आरक्षण का शब्दिक अर्थ इस रूप में भी देखा जाना चाहिए कि वर्चस्ववादी वर्ग दाता के रूप में दिखने की कोशिश कर रहा है। शासक जातियों के वर्चस्व वाले मीडिया ने भी सामाजिक न्याय के संघर्ष में आरक्षण प्रणाली के महत्व को न केवल नजरंदाज किया है, बल्कि  आरक्षण से संबन्धित मुददों को भी जनता के सामने तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया है। हरियाणा के जाट समुदाय के आरक्षण आंदोलन के मामले में भी मीडिया का रोल ऐसा ही रहा है। हरियाणा में जाट समुदाय का आरक्षण आंदोलन आरक्षण की मांग को लेकर किसी जाति द्वारा किया गया पहला आंदोलन नहीं था। इससे पहले गुजरात में पाटीदार(पटेल) समाज, महाराष्ट्र में मराठा समाज, आंध्र में कापू समाज और इसी प्रकार अनेक जातिय समुदायों द्वारा आरक्षण के प्रश्न पर आंदोलन किए गए, लेकिन उनके आंदोलन सदैव सत्ता के विरुद्ध अपनी मांगों को लेकर थे, हरियाणा में जाट समुदाय का आंदोलन भी अपनी मांगों को लेकर सत्ता के विरूद्ध था परंतु एक षड्यंत्र के तहत इस आंदोलन के दौरान जाट समुदाय के विरुद्ध दूसरी पिछड़ी जातियों को खड़ा करके लड़वाने का प्रयास किया गया। फरवरी 2016 में जब आंदोलन ने हिंसात्मक रूप ले लिया, उस समय भी मीडिया ने उसे उसी रूप में प्रचारित किया और जाट समुदाय को खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया। आज तक उनकी आरक्षण की मांग को बट्टे खाते में डाल कर रखा है।  

आज मीडिया जिस विकास को हवा दे रही है उसका सीधा मतलब बिजली, सड़क और पानी की स्थिति में सुधार और चमकते शॉपिंग माल्स से है जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को ध्यान में रखकर डिजायन किया गया है, जिसका लाभ मुख्यतः देश के उस विशेषाधिकार प्राप्त तबके को मिलाता है, जिसका शासन-प्रशासन तथा शक्ति के अन्य स्रोतों पर लगभग एकाधिकार है। जबकि, इसकी चमक दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यकों के द्वार तक बहुत कम पहुची है। इस स्थिति ने बंचित वर्ग को खुशहाल देखने वाले बहुजन एकता के विचारकों, पत्रकारों, राजनेताओं, अर्थशास्त्रियों, विधिवेत्ताओं और अन्य बुद्धिजीवियों को चिंतित कर दिया है।

आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ डॉ. जयंतीलाल भंडारी ने लिखा था, यह स्वीकार करना ही होगा कि विकास का मौजूदा रोडमैप लोगों के जीवन की पीड़ा नहीं मिटा पा रहा, इसमें संशोधन का समय आ गया है। यदि देश के गरीबों की व्यथा को नहीं सुना गया तो हमारे वर्तमान विकास के परिदृश्य में आर्थिक-सामाजिक खतरे और चुनौतियों का ढेर लग जायेगा।

आजाद भारत से विषमता मिटाने का सबसे बलिष्ठ आह्वान संविधान निर्माता डॉ.आंबेडकर ने 25 नवम्बर, 1949 को  किया था। पिछले एक दो सालों में विषमता पर देश-विदेश की जितनी भी रिपोर्टें आई हैं, उनमें पाया गया कि भारत जैसी सामाजिक-आर्थिक विषमता दुनिया के किसी देश में नहीं है। इस मामले में वैश्विक धन बंटवारे पर क्रेडिट सुइसे की 2015 की रिपोर्ट काफी चौकाने वाली है, जिसमें बताया गया था कि सामाजिक आर्थिक न्याय की  सरकारों के तमाम दावों के बावजूद भारत में तेजी से आर्थिक गैर-बराबरी बढ़ी है। 2000-15 के बीच जो कुल राष्ट्रीय धन पैदा हुआ, उसका 81 प्रतिशत हिस्सा टॉप की दस फ़ीसदी आबादी के पास गया। जाहिर है शेष निचली 90 प्रतिशत आबादी के हिस्से में मात्र 19 प्रतिशत धन आया। रिपोर्ट के मुताबिक़ 19 प्रतिशत धन की मालिक 90 प्रतिशत आबादी में भी नीचे की 50 प्रतिशत आबादी के पास 4.1 प्रतिशत ही आया।’

नई सदी में विकास की जो बात चल रही है उसमें  दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यकों को नहीं के बराबर हिस्सेदारी मिली है। बहुजनों की विकास में नगण्य भागीदारी जो आज का सबसे बड़ा मुद्दा है उस पर देश के विभिन्न टीवी चैनल चुप रहते हैं जबकि चुनावी मुद्दों पर जनता दरबार लागाते रहते हैं। आज की तारीख में 81 फीसदी धन-संपदा पर दस प्रतिशत अति संपन्न वर्ग का कब्ज़ा है। चुनाव के समय पर मोदी-योगी तथा अन्य नेताओं ने विकास का जो शोर मचाया था उसका परिणाम 2019 तक देखना होगा। क्योंकि इस विकास में दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यकों से युक्त बहुजन समाज की बर्बादी का षड्यंत्र छिपा है। बहुजनों के लिए विकास का वही एजेंडा स्वीकार्य होना चाहिए जिससे शासन प्रशासन तथा शक्ति के सभी स्रोतों में सभी वर्गों की जनसंख्यानुपात में भागीदारी सुनिश्चित हो।

भारत का संविधान एक ऐसा दस्तावेज है कि इसके माध्यम से इस देश में रक्त विहीन क्रांति होना तय है। इसके आंशिक अमल के कारण देश में जो सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन आया है उसको आगे बढ़ाने की अभी और जरूरत है। हालांकि अभी इस परिवर्तन की झलक कम दिखाई देती है परन्तु इस क्रांति के जो बीज बोये गए थे उनका पौधा दिखाई देने लगा है। मनुवादी ताकतों को इसका अंदाजा लग चुका है, जिससे भयभीत होकर संविधान के ढांचे को तहस नहस करने की जुगत में लगे हुए हैं। उक्त दस्तावेज समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और सामाजिक न्याय की बात करता है लेकिन सरकारें संविधान में मनमाफिक संशोधन करती रहती हैं। आज सबको मुफ्त, एकरूप तथा सामान शिक्षा के संविधानिक प्रावधान के बावजूद भी प्रत्येक बच्चे तक शिक्षा नहीं पहुंच सकी है। सरकार वोट के समय तो ‘सबका साथ-सबका विकास’ की बात करती रही है, परन्तु यह वायदा निभाने में नाकामयाब रही है। 

यदि सरकार देश के समग्र विकास के पांच सूत्र जिनमें 1. आरक्षण की समग्र सामाजिक प्रतिनिधित्व प्रणाली, 2. भ्रष्टाचार मुक्त समग्र चुनाव प्रणाली, 3. समान स्तरीय एकरूप शिक्षा प्रणाली, 4. समग्र रोजगार और उपयुक्त वेतन प्रणाली, एवं 5. मुफ्त एवं समग्र स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को अमल में लाने की दिलचस्पी दिखाए तो देश का विकास ही नहीं काया कल्प हो जायेगा। बाबा साहब डा. बी. आर. अम्बेडकर  ने कहा था "संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो यदि उसको चलाने वाले बुरे हैं तो वह अंतत: बुरा ही सावित होगा, इसके विपरीत संविधान कितना भी बुरा क्यों न हो यदि उसको चलाने वाले अच्छे हैं तो वह अंतत: अच्छा ही सावित होगा।" उक्त कथन का अभिप्राय है कि यदि सरकार को सुझाए गए राष्ट्र विकास  के कार्यक्रमों को अमल में लाना चाहे तो इन योजनाओं को पूरा करने के लिए आज सरकार के पास लगभग 130 लाख करोड़ रूपये का राष्ट्रीय कोष आसानी से निर्मित हो सकता है। इसके निर्माण में 28 लाख करोड़ का विदेशी काला धन, लगभग 50 लाख करोड़ का घरेलू काला धन, लगभग 50 लाख करोड़ मंदिरों में जमा सोने के रूप में धन, जन प्रतिनिधियों को मिलने वाली विकास निधि का पैसा, बैंक के दीवालियों से बसूला गया जुर्माने के रूप में धन इत्यादि सहायक सिद्ध हो सकते हैं। यदि सरकार उक्त योजनाओं को पूरा करना नहीं चाहती है, तो अनेक आकर्षक बहाने भी मिल सकते हैं। 

सामूहिक नेतृत्व तथा आंतरिक लोकतंत्र

किसानों मजदूरों तथा अन्य बंचित वर्गों की अनदेखी  करके कोई भी सरकार चाहे कितने भी बहुमत की क्यों न हो लंबे समय तक नहीं चल सकती। अगर फिर भी चलती है तो दोष वंचित और पिछड़े तबकों के नेतृत्व का होगा, क्योंकि उनकी आपसी लड़ाई और निर्णय लेने की क्षमता के आभाव के कारण ही आत्मघाती परिणाम आते रहे हैं। आज समय आ गया है की बहुजन वर्गों का नेतृत्व कर रहे अपरिपक़्व लोगों के निर्देश में काम करने की बजाय परिपक़्व बुद्धिजीवी वर्ग के सामूहिक नेतृत्व को विकिसत करना होगा जिसमें आंतरिक लोकतंत्र के साथ ही समाज के सभी वर्गों की हिस्सेदारी भी सुनिश्चित हो।

सामाजिक न्याय के आदोलन की चेतना इस स्तर पर पहुंची है कि वर्चस्व की स्थिति को खत्म किया जाना चाहिए और राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्तर पर बराबर की हिस्सेदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए। हिस्सेदारी ही इस चरण की गति है। वह हिस्सेदारी समग्रता पर जोर दे रही है क्योंकि वर्चस्ववादी वर्ग राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक के रूप में अलग-अलग रणनीतियां अपनाकर सामाजिक न्याय के आंदोलन को व्यापक होने से रोकने में लगा हुआ है। सामाजिक न्याय के आंदोलनों की नई धारा देश के विभिन्न हिस्सों में दिख रही है। वह धारा एक मुख्य धारा बनने की पृष्ठभूमि है और सामूहिक नेतृत्व तथा आंतरिक लोकतंत्र के सामने इसके लिए अपनी भूमिका निश्चित करने की चुनौती है। सामाजिक न्याय का यह चरण वास्तव में देश की मुख्यधारा के दर्शन को स्पष्ट करने का चरण है।

बहुजन एकता का मिशन भाईचारा 

ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि आदिवासी, मूलनिवासी, बहुजन समाज (शूद्र), सिंधु घाटी के सौदरियों (सौ किलों या दरबारों के मालिक) के वंशज हैं कोई और नहीं (The book of ancient culture)। सौदरियों का अपभ्रंश ही शूद्र शब्द है, जिसे आज 6743 जातियों में बांटा गया है। जिनका, इतिहास में नेताओं की गलतियों के कारण कई बार पतन होता रहा है। तो हर बार गुरुओं और महापुरुषों के आंदोलन के कारण उत्थान भी हुआ है। इस लिए निराश न होकर उत्थान करने वाले महापुरुषों के विचारों को संकलित करके समाज के सभी वर्गों तक उनके सन्देश को पहुंचाने के लिए फिर से सामूहिक नेतृत्व के द्वारा एक नई और कारगर मुहिम चलानी होगी। सभी गुरु और महापुरुषों के विचारों को फिर से आत्मसात करके सत्ता के मोह को त्याग कर निस्वार्थ भावना से कांशीराम जी की तरह फिर से समाज में मिशन भाईचारा के अंतर्गत सम्मान, स्वाभिमान और हिस्सेदारी के विषयों पर चर्चा चलने हेतु कार्यक्रम बनाने होंगे, जिसमें राजनेताओं को दूर रखना होगा।

नयी मुहिम की शुरुआत मान्यवर कांशी राम साहब के जन्म दिन 15 मार्च 2017 से विभिन्न सामाजिक संगठनों ने नोएडा के दलित प्रेरणा केंद्र से की थी। इसकी आगे की कड़ी बाबा साहब की 126वीं जयंती पर पार्लियामेंट में लगी उनकी मूर्ती के सामने जुड़ेगी। विभिन्न सामाजिक संगठनों द्वारा गठित ‘बहुजन एकता मंच’ के सभी घटकों की 15 सदस्यी प्रतिनिधि समिति महापुरुषों के लक्ष्य को प्राप्त करने का संकल्प लेगी। सामूहिक नेतृत्व कैसे विकसित किया जाये? संगठनों के अंतर्गत आंतरिक लोकतंत्र कैसे विकिसित किया जाये? परिवारवाद की राजनीति करने वालों को कैसे सबक सिखाया जाये? महापुरुषों की विचारधारा को कैसे विकिसित किया जाये? भ्रष्टाचार की जगह सदाचार को कैसे विकिसित किया जाये? व्यक्ति पूजा के नेतृत्व की परिपाटी को कैसे हतोत्साहित किया जाये? इत्यादि प्रश्नों का हल खोजने और समाधान की चाहत रखने वाले सभी संगठनों को एक साथ आने के लिए उक्त कोर्डिनेशन समिति आह्वान करती है। आईये, 14 अप्रैल 2017 से ‘अहम् तोड़ो समाज जोड़ो के नारे के साथ’ सभी को भागीदार बनाने की भी शुरूआत हम और आप मिलकर करते हैं। बाबा साहब या अपने किसी भी महापुरुष की मूर्ती की नहीं बल्कि उसके विचारों को आंदोलित करने का काम ही सच्ची पूजा हो सकती है। ‘Without non-political roots, Bahujan cannot get the political fruits’. आज के माहौल को देखते हुए सामाजिक संगठनों के आंदोलन द्वारा बहुजन वर्गों की राजनीति करने वाले सभी दलों को एक साथ आने के लिए विवश करना होगा।

संसार में जो भी व्यक्ति पैदा होता है वह अवश्य मरता है यह पूर्णता: सत्य है। मारने के बाद व्यक्ति की आत्मा होती है या नहीं इस सम्बन्ध में कुछ भी स्पष्ट नहीं है परन्तु "विचार" के कारण व्यक्ति की मारने के बाद भी पहिचान बनी रहती है यह मई जानता हूँ। जो व्यक्ति अपने ऐश-आराम और सभी तरह के लालच को छोड़ कर बंचित और पीड़ित जनों के अधिकारों लिए संघर्ष करते हैं वे ही समाज में उच्च स्थान प्राप्त करते है अर्थात उनके विचार हमेशा अमर रहते हैं, मरने के बाद उसके विचार दर्शन के रूप में प्रचलित होते हैं। डा अम्बेडकर भी ऐसे ही एक व्यक्तित्व थे जो अपने लिए कभी जिये ही नहीं इसी लिए बहुजन समाज उनके विचार-दर्शन में उनके आकर के दर्शन करता है और उन्हें मसीहा के रूप में देखता है। हम सभी को उनका अनुसरण करना चाहिए तभी उनकी जयंती मनाना सार्थक होगा।

बहुजन एकता जिंदाबाद!

आवश्यक सूचना: 

बहुजन एकता मंच के द्वारा अंतराष्ट्रीय निबंध प्रतियोगिता

भाषा: हिंदी - अंग्रेजी 

देश के विभिन्न संगठनों द्वारा गठित बहुजन एकता मंच के तत्वावधान में बाबासाहब डा. बी आर अंबेडकर की 126वीं जयंती के अवसर पर एक अखिल भारतीय निबंध एवं वाद विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया गया है जिसका विवरण निम्नाकित है:

विषय: “संविधान की अस्मिता पर खतरे के बादल”

भाषा:                  निवंध प्रतियोगिता की भाषा अंग्रेजी या हिंदी 

नामांकन:             नामांकन शुरू होगा 14 अप्रैल 2017 से 

अंतिम तिथि:          निबंध प्रस्तुत करने की आखिरी तारीख: 17 मई 2017

आयु:                   कोई आयु सीमा नहीं, भारत के नागरिक बिना किसी प्रतिबंध के भाग ले सकते हैं।

मूल्यांकन पैनल:      न्यायाधीश/ अधिवक्ता/ प्रशासनिक अधिकारी/

प्रथम पुरस्कार:       प्रमाण पत्र, शॉल और नकद धनराशि रु. 22000/-

द्वतीय पुरस्कार:       प्रमाण पत्र, शॉल और नकद धनराशि रु.11000/-

तृतीय पुरस्कार:       प्रमाण पत्र, शॉल और नकद धनराशि रु.5500/-

प्रवेश शुल्क:           प्रत्येक प्रतिभागी को रु.500/- प्रतियोगिता शुल्क के रूप में नकद या डिमांड ड्राफ्ट के माध्यम से दिल्ली में निबंध के साथ देय होंगे।

सम्पूर्ण जानकारी लेने के लिए www.rsvsindia.com वेबसाइट से नामांकन प्रारूप या अन्य विवरण कॉपी करके, निर्धारित तिथि तक This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it. पर हिंदी या अंग्रेजी भाषा के निर्धारित फार्म को भर कर ईमेल से भेज कर प्रतिभागी बनें।