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रोटी से अधिक महत्वपूर्ण है स्वाभिमान

रोटी से अधिक महत्वपूर्ण है स्वाभिमान

-डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर

18 मार्च, 1956 के दिन आगरा में डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर का भाषण आयोजित किया गया था। सभा की अध्यक्षता उत्तर प्रदेश शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के अध्यक्ष मान्यवर तिलकचंद कुरील कर रहे थे, मंच पर मान्यवर श्रीकृष्णदत्त पालीवाल और उत्तर प्रदेश के कई मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता और नेता भी उपस्थित थे। सभा में करीब दो लाख का जनसमुदाय उपस्थित था।

ठीक साढ़े छह बजे समारोह के आयोजन स्थल, रामलीला मैदान में डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर का आगमन हुआ। रामलीला मैदान में प्रवेश करते ही 'अम्बेडकर की जय हो' के नारों से आसमान गूंज उठा। केवल आगरा ही नहीं वरन् आसपास के गांव-शहरों से उनका भाषण सुनने के लिए हजारों की संख्या में अस्पृश्य जनसमुदाय के लोग वहां इकट्ठा हुये थे। मोटर से उतरने के बाद लाठी के सहारे लोगों का सहारा लेकर डा. बाबा साहब अंबेडकर को मंच तक जाना पड़ा, भाषण देते वक्त वे एक स्टूल के सहारे खड़े रहे। इस अवसर पर उन्हें पांच हजार रुपयों की और एक हजार रुपयों की दो थैलियां भेंट की गईं।

उन्होंने अपने संबोधन में कहा "25 साल पहले राजनीति में प्रवेश करते समय मेरे जीवन के तीन उद्देश्य थे। पहला, अस्पृश्यों के हर घर में ज्ञान की ज्योति जलाना। इस उद्देश्य में मुझे काफी हद तक सफलता मिली है। कहा जा सकता है कि शिक्षा के क्षेत्र में आज अस्पृश्य लोग आगे भले न हों, मुझे पूरा विश्वास है कि कुछ ही दिनों में वे अच्छी प्रगति हासिल कर लेंगे। मेरे कार्य का दूसरा महत्वपूर्ण उद्देश्य था सरकारी नौकरियों में अस्पृश्यों को व्यापक प्रतिनिधित्व दिलाना। मेरी कोशिश से प्राप्त सफलता आज आपके सामने है। इन दोनों उद्देश्यों में आज मुझे सफलता प्राप्त हुई है। लेकिन दूरदराज के गांवों में रहने वाले मेरे अनगिनत दलित बंधुओं और बहिनों की स्थिति में सुधार लाने के मेरे तीसरे उद्देश्य में मुझे अभी बहुत कम सफलता मिली है। इसीलिए मेरी बची हुई जिंदगी और मेरा पूरा सामर्थ्य मैं इन अस्पृश्य भाइयों के सर्वांगीण विकास के लिए लगाना चाहता हूं। जब तक वे गांव से खेती छोड़ कर शहरों में रहने नहीं आते तब तक उनके जीवन की स्थितियों में सुधार नहीं होने वाला। हमारे गांवों में रहने वाले इन अस्पृश्यों का अपने पुरखों के गांवों में रहने का मोह अभी खत्म नहीं हुआ है। उन्हें लगता है, यहीं अपनी रोजी-रोटी है। लेकिन, रोटी से अधिक महत्व सम्मान का होता है। जिन गांवों में उनके साथ कुत्तों जैसा व्यवहार किया जाता है, पग-पग पर उन्हें अपमानित किया जाता है जहां उन्हें अपमानित होकर स्वाभिमान शून्य जीवन जीना पड़ता है ऐसे गांव किस काम के; गांवों के अस्पृश्य अपने गांवों से निकल कर वहां चले जाएं जहां परती जमीन हो। उस पर कब्जा कर अपनी मालिकियत कायम करें। जमीन पर कब्जा करते समय अगर किसी ने टोका तो उनसे साफ-साफ कहें कि हम जमीन छोड़ेंगे नहीं। हम सरकार को सही लगान देने के लिए तैयार हैं। नए गांव बसा कर स्वाभिमान से परिपूर्ण इंसानियत भरा जीवन जिएं। नए समाज का निर्माण करें। वहां के सभी काम करें। ऐसे गांवों में कोई उन्हें अस्पृश्य कह कर उनके साथ बुरा व्यवहार नहीं कर सकेगा। मेरा स्वास्थ्य ठीक होते ही मैं अस्पृश्यों द्वारा परती जमीन पर कब्जा करने की मुहीम चलाने वाला हूं।

अपने गरीब और अज्ञानी बंधुओं की सेवा करना पढ़े-लिखों का पहला कर्तव्य होता है। बड़े ओहदों पर जाने के बाद अक्सर पढ़े-लिखे अशिक्षित बंधुओं को भूल जाते हैं। अपने समाज के बारे में अपनत्व का भाव न होने के कारण ऐसा होता है। उनके मन में अपने बंधुओं के दर्द के प्रति तिलमिलाहट नहीं होती, यही इसकी वजह है। धर्म भावना का अभाव भी एक और कारण है। वे अगर अपने अनगिनत बांधवों की ओर ध्यान नहीं देंगे तो समाज का ह्रास हो जायेगा।"

अन्य किसी भी धर्म से बौद्ध धर्म श्रेष्ठ है। मेरी इच्छा है कि आप सभी मेरे साथ इस वर्ष बौद्ध धर्म को स्वीकार करें। इस बारे में मैं आप पर जबरदस्ती नहीं करूंगा। यह आपकी मर्जी का सवाल है। लेकिन मेरे बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बाद मैं अस्पृश्य नहीं रहूंगा। आप सब जब बौद्ध बनेंगे तब आपके पास आरक्षित जगहों का अधिकार नहीं रहेगा। साथ ही हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि विधानसभा और लोकसभा में आरक्षित जगहों की मियाद संविधान के अनुसार केवल दस सालों की है। जल्द ही यह मियाद पूरी हो जाएगी। जिंदगी भर आरक्षित जगहें थोड़े ही रहने वाली हैं? आखिर हमें अपने सामर्थ्य के सहारे आगे बढ़ना होगा। आखिर हमें अपने ही पैरों पर खड़े रहना होगा। आरक्षित जगहों के सहारे हम प्रगति हासिल नहीं कर सकते।

बौद्ध बनने के बाद, मैं आपका नेतृत्व नहीं कर पाऊंगा और मैं फेडरेशन में भी नहीं रह पाऊंगा। इसीलिए मेरी इच्छा है कि दलित वर्ग में से ही किसी ऐसे व्यक्ति को आगे आकर मेरी जगह और नेतृत्व की कमान सम्हालनी चाहिये जो योग्य हो। वरना एक खंभे के सहारे टिके तंबू की तरह अपना संगठन बिखर जाएगा।

लेकिन बौद्ध बनने के बाद, मैं राजनीति से अलग नहीं होऊंगा। केवल शेड्यूल्ड कास्टस् फेडरेशन के टिकट पर उम्मीदवार बन कर मैं चुनाव नहीं लडूंगा। मैं अपने बलबूते चुनाव लडूंगा। भले फिर मेरी विजय हो या मुझे हार का सामना करना पड़े। मुझे उसकी फिकर नहीं। मैं आप लोगों को हक और अधिकार दिलवाने के लिये जीवन की अंतिम सांस तक लडूंगा।

अर्थ मंत्री के पास तो नोन-तेल बेचने तक की अकल नहीं है। ऐसे कुछ लोग जो मिट्टी से जुड़ा काम तक करने की योग्यता नहीं रखते वे आज एम. पी. और एम. एल. ए. बन कर महीने की 400 रुपयों की तनख्वाह और 21 रुपयों का भत्ता ले रहे हैं।

(उक्त भाषण 24 मार्च 1956 के जनता में प्रकाशित हुआ था।)

प्रस्तुत भाषण से प्रेरणा लेकर मान्यवर कांशीराम जी ने पढ़े लिखे कर्मचारियों द्वारा सोसाईटी को पे बैक करने के लिए बामसेफ नामक संगठन बनाया। जिसका विवरण 1980 में कांशीराम जी द्वारा प्रकाशित निम्नलिखित पुस्तक बामसेफ एक परिचय में दिया गया है :

 

बामसेफ एक परिचय

-लेखक कांशी राम

चण्डीगढ़ में आयोजित तृतीय राष्ट्रीय अधिवेशन के अवसर पर 14 अक्तूबर, 1981 को चण्डीगढ़ में प्रकाशित

मूल्य: 1 रुपया 50 पैसे

प्रस्तावना

'बामसेफ' का निर्माण पिछड़े वर्गों (अनु० जाति, अनु० जन जाति, अन्य पिछड़े वर्ग) एवं अल्पसंख्यक समुदायों के शिक्षित कर्मचारियों द्वारा उस दलित शोषित समाज को जिसमें वे पैदा हुए हैं, दासता से मुक्ति दिलाने के लिए किया गया है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए संगठन का ढांचा एवं बनावट को भी परिकल्पित और निर्मित किया गया है।इस लक्ष्य की ओर बामसेफ शिक्षित कर्मचारियों का एवं उस दलित, शोषित समाज के लिए जिसमें वे पैदा हुए हैं एक प्रथम प्रयास जान पड़ती है। बामसेफ हमारी तीव्र अभिलाषा, श्रमसाध्य विवेचन, परखे हुए प्रयोग एवं उत्सर्जित धारणा की उपज है।प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बामसेफ लगभग एक दशाब्दी के लम्बे प्रयास का परिणाम है। जिसका पूरा और ब्यौरेवार उल्लेख पुस्तक के रूप में बहुत ही शीघ्र आप के सामने आ जाएगा। पुस्तक लगभग 250 पृष्ठों की होगी। विगत वर्ष के दौरान ही में पुस्तक को निकालना आवश्यक समझ रहा था परन्तु व्यापक पैमाने पर क्षेत्र कार्य और संगठनात्मक प्रयासों में व्यस्त रहने के कारण मैं उसे पूरा नहीं कर सका। अन्यथा ऐसी पुस्तक निकालने का परिपक्व और उपयुक्त अवसर 14 अक्तूबर, 1981 को चण्डीगढ़ में आयोजित बामसेफ का तृतीय राष्ट्रीय अधिवेशन ही था।मैंने उक्त क्षति को पूरा करने के लिए उस विस्तृत उल्लेख का जिसे आप पूरी पुस्तक के रूप में देखेंगे यह संक्षिप्त रूप शीघ्रता में लिखा है। आशा है कि इससे विस्तृत रूप में नहीं तो ऐसे अवसर पर जब पूरे भारत के प्रतिनिधिगण चण्डीगढ़ में एकत्र हो रहे हैं, बामसेफ की संक्षिप्त वास्तविक जानकारी अवश्य प्राप्त होगी।मेरे कीमती समय को बचाने में इस बामसेफ परिचय के अंग्रेजी लेखन के लिए श्री नानावटे नागपुर, इसके हिन्दी अनुवाद के लिए श्री रामराज राम जबलपुर एवं पंजाबी अनुवाद के लिए श्री फतेहजंग सिंह चण्डीगढ़ को जिन्होंने चण्डीगढ़ में आयोजित बामसेफ के तृतीय राष्ट्रीय अधिवेशन के अवसर पर इस संक्षिप्त परिचय को तीन भाषाओं में शीघ्र प्रकाशित करने में हमें योगदान किया है, उन्हें हार्दिक धन्यवाद देता हूं ।

- कांशी राम

14 अक्तूबर, 1981, चण्डीगढ़

पुस्तक की विषय सूची

1. पूरा नाम एवं उद्देश्य।     

2. केवल पिछड़े वर्ग एवं अल्पसंख्यक समुदाय ही क्यों?   

 3. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि   

4. बामसेफ - सामाजिक उपयोगिता के लिए प्रयास     

5. संगठन का का ढां चा     

6. संरचना का संचालन कैसे होगा?   

7. बामसेफ अनिवार्यतः धार्मिक, संघर्षात्मक एवं राजनैतिक गतिविधियों में भाग नहीं लेगा     

8. बामसेफ अंत:प्रेरणा   

9. अपमान और क्षतियों को सहने के लिए तैयार रहें   

 

I. पूरा नाम एवं उद्देश्य

नाम:  "बामसेफ" इसके पूरे नाम 'दी ऑल इण्डिया बैकवर्ड (एस.सी. एस.टी. ओ.बी.सी.) एण्ड मायनारिटी, कम्युनिटीज एम्प्लाईज फेडरेशन' दिल्ली का संक्षिप्त रूप है। शब्द "पिछड़ा वर्ग" तीन मुख्य वर्गों (1) अनुसूचित जाति (2) अनुसूचित जन जाति एवं (3) अन्य पिछड़े वर्ग को समाहित किये हुए एक व्यापक नाम है। बामसेफ में प्रयुक्त शब्द "अल्पसंख्यक" को केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों यथा- मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध एवं पारसी आदि के सीमित अर्थ में लिया गया है ।

उद्देश्य: पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक समुदाय के शिक्षित कर्मचारियों को संगठित करने के पीछे जो उद्देश्य है वह है- उस पद दलित एवं शोषित समाज, जिस में वे पैदा हुए हैं, को दासता से समग्र रूप से मुक्त करना। बामसेफ में कर्मचारियों का तात्पर्य केवल शिक्षित कर्मचारियों से है। इन पिछड़े वर्गों एवं अल्पसंख्यक समुदाय के केवल कर्मचारियों को ही संठित करने का निर्णय लिया गया। क्योंकि हमारे ज्ञानार्जन एवम् अनुभव के आधार पर तथा सर्वोत्तम निर्णय की दृष्टि से इन समुदायों के शिक्षित कर्मचारी अपने शोषित पीड़ित समाज में पर्याप्त लाभान्वित होने वाले दिखाई पड़ते हैं। अतएव, हमारे निर्णयानुसार, उनके अपने ही अभागे भाइयों, जिनके बीच उन्होंने जन्म लिया है, के प्रति अपने सामाजिक दायित्व का निर्वाह करने के लिए दलित शोषित समाज की मुक्ति हेतु यथाशक्ति त्याग करना अनिवार्य होना चाहिए।

II. पिछड़े वर्ग एवं अल्पसंख्यक समुदाय के ही कर्मचारी क्यों?

बामसेफ के झण्ड़े के नीचे दलित, शोषित समाज को दासता से मुक्ति दिलाने के लिए अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग एवम् अल्पसंख्यक समुदाय के शिक्षित कर्मचारियों को संगठित करने का निर्णय लिया गया। केवल ऐसे ही कर्मचारियों को संगठित करने की धारणा हमारे इस दृढ़ विश्वास से पैदा होती है कि “स्वावलम्बन सर्वश्रेष्ठ अवलम्व होता है और स्वाभिमान का आन्दोलन स्वावलम्बन से नहीं चलाया जा सकता" भारत की सामाजिक व्यवस्था में पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय इसका पूर्णतः शिकार बना हुआ दिखाई देता है। अतएव जो इस व्यवस्था का शिकार बन चुके हैं, उन्हें अपनी गिरी हुई दशा में आवश्यक सुधार लाने और उनके साथ होने वाले अन्यायों को समूल नष्ट करने के लिए अपने आपको एक सूत्र में बांधना होगा।हमारा संविधान भी इस तथ्य को स्वीकृति प्रदान करता है कि पिछड़े वर्गों एवं अल्पसंख्यक समुदायों पर सदियों से अन्याय होता आया है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए हमारे संविधान में इन समुदायों के अधिकारों और हितों की सुरक्षा का प्रावधान किया गया है। सविधान में ऐसे प्रावधानों को रखे होने के बावजूद सरकार इन समुदायों के अधिकारों और हितों की रक्षा करें या न करें यह उस पर निर्भर करता है। अतएव इन समुदायों को अपने अधिकार और हितों की रक्षा के लिए अपने आप को संगठित करना अनिवार्य हो जाता है और इन दलित शोषित वर्गों के शिक्षित कर्मचारी इस कार्य को पूरा करने के लिए अत्यन्त ही उपयुक्त दिखाई पड़ते हैं।सन् 1950 में संविधान अंगीकरण के उपरान्त उसमें विहित स्तुत्य प्रावधानों के बावजूद लगभग 25 वर्षों के अन्तराल में कुछ भी ठोस कार्य नहीं किया गया। यही कारण है कि इन समुदायों में एक मुखर मनोमालिन्य व्याप्त रहता आया है। इस मनोमालिन्य, को ध्यान में रखते हुए लगभग सभी राजनैतिक पार्टियों ने 1977 के आम चुनावों के समय अपने चुनाव घोषणा पत्रों में समाज के इन दलित शोषित वर्गों के हित साधन हेतु अलग-अलग तीन आयोग गठित करने का निश्चय किया। इन्हीं निश्चयों के परिणामस्वरूप 1977 में, 1. अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, 2. अन्य पिछड़ा वर्ग 3. अल्पसंख्यक, अलग-अलग आयोगों का गठन किया गया। परन्तु देश का दुर्भाग्य है कि इन तीन कमीशनों के गठन का कुछ भी लाभ अर्जित नहीं हो पाया। अतएव, समाज एवं शासक वर्ग के उदासीन रवैये की ओर दृष्टिपात करते हुए यह आवश्यक समझा गया है कि जो इस सामाजिक व्यवस्था के शिकार हैं, वे अपने सामाजिक हितों और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए अपने आप को संगठित करें। यदि ये अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति, अन्य पिछड़े वर्ग एवं अल्पसंख्यक समुदाय एक-एक करके या अलग अलग संगठित होते हैं, तो वे अपने हितों को सुरक्षित रखने के योग्य नहीं हो सकते और न ही अपने दुखों का निदान कर सकते हैं। इसलिए यह आवश्यक समझा गया है कि सभी सह दुख भोगी लोग अपने दुखों के समुचित निदान के लिए संगठित हो जायें। यही कारण है कि केवल अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति, पिछडे वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय के शिक्षित कर्मचारियों को ही वामसेफ के झण्डे के नीचे संगठित करने का निर्णय लिया है।

III. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

बींसवीं शताब्दी के आरम्भ से ही पूरे भारत में बिखरे हुए दलित शोषित वर्गों के लोगों ने उस व्यवस्था के खिलाफ आन्दोलन छेड़ा है जिसके वे सदियों से शिकार रहे हैं। उत्तर पश्चिम से उत्तर पूर्व और पुनः दक्षिण तक भारत के नक्शे पर दृष्टिपात करने से देश के प्रत्येक कौने में उनके द्वारा चलाए गए छिट-पुट आन्दोलनों का स्पष्ट संकेत प्राप्त होता है। उत्तर पूर्व से चलकर उत्तर पश्चिम की ओर पहुंचने पर आदि धर्मों, जाटवों, कुरीलों आदि हिन्दुओं, नमोशूद्रों जैसे आन्दोलनों का उभार हमें देखने को मिलता है। दक्षिण की ओर ध्यान दें तो हमें सतनामियों, रामनामियों, आदि आन्ध्रा, आदि द्रविड़ जैसे आन्दोलनों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। इसके बाद पोलाया, थिया, इज्वा का केरला में, आदि कर्नाटक आदि का पश्चिमी प्रकोष्ठ में आन्दोलन हुआ है। और इन सबसे बढ़ चढ़ कर पश्चिम और मध्य भारत में डॉ० भीम राव अम्बेडकर के नेतृत्व में महारों द्वारा चलाया गया आन्दोलन प्रथम स्थान पर आता है। सन् 1919 में प्रथम भारतीय अधिनियम ने जैसे पहली चिनगारी पैदा कर दी। इसके प्रदर्शन के उपरान्त ही हम समाज के दलित वर्गों को स्वावलम्बन के आधार पर पूरे भारत में संघर्ष करते हुए देखते हैं। समाज के दलित शोषित वर्गों के इन तमाम आन्दोलनों में से डॉ० अम्बेडकर के नेतृत्व में अछूतों द्वारा चलाया गया आन्दोलन ही व्यापक पैमाने पर सफल हुआ। इस प्रकार हम देखते हैं कि 1930 और 1931 में लन्दन में हुए प्रथम और द्वितीय गोलमेज परिषद में अछूतों का सफलतापूर्वक प्रतिनिधित्व करते हुए उनके लिए डा० अम्बेडकर" "सामु दायिक अधिनिर्णय" हासिल करते हैं जो उच्च हिन्दू जातियों को बरदाश्त नहीं होने वाला था। इसलिए इनके नेता गांधी जी ने अछूतों को मिले हुए अधिकारों के विरोध में अनशन आरम्भ कर दिया और परिणाम स्वरूप अंततः हम देखते हैं कि 1932 में अछूतों के प्रतिनिधि डॉ० अम्बेडकर को पूना-पैक्ट के रूप में समझोते के लिए बाध्य होना पड़ा। परन्तु पुनः 1935 के द्वितीय भारतीय अधिनियम के अन्तर्गत अछूतों को एक अनुसूची के रूप में प्रदत्त किए गये अधिनिर्णय के लिए डॉ० अम्बेडकर के प्रयासों को हम चरम बिन्दु पर पाते हैं।दलित विशिष्ट वर्ग का उदय 1935 में डां० भीम राव अम्बेडकर के अनवरत प्रयासों के फलस्वरूप द्वितीय भारतीय अधिनियम को अंगीकार करने के उपरान्त तब तक के अछूत कानूनी रूप से "अनुसूचित जाति" कहलाये जाने लगे। इसके बाद जातियों की दशा सुधारने के लिए डॉ० अम्बेडकर ने एक वास्तविक चिन्तन प्रदान किया और देश की सामाजिक व्यवस्था में उनके लिए एक सम्मान पूर्ण स्तर सुरक्षित कर दिया। उन्होंने अपना ज्यादा से ज्यादा बल उनकी शिक्षा और विशेष रूप से उच्च शिक्षा या कहा जाय कि विशेष उच्चतम और विदेशी शिक्षा के लिए लगाया। उस समय उन्होंने पश्चिम के विकसित विदेशी राज्यों में अनुसूचित जाति के प्रतिभाशाली व्यक्तियों के लिए शिक्षा दिलाना अनिवार्य समझा। यह इसलिए कि पश्चिमी और विकसित शिक्षा प्राप्त करना तो उद्देश्य था ही परन्तु इससे भी ज्यादा जो अनिवार्यता थी वह यह कि पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति के समक्ष भारत की सामाजिक व्यवस्था के शिकार हुए लोगों की सही स्थिति का विदेशी शिक्षा के माध्यम से प्रतिपादन किया जाये। साथ ही इसके पीछे जो विशेष उद्देश्य था वह उच्च और विदेशी शिक्षा प्राप्त करने वालों की दशा में सुधार करने का नहीं बल्कि उन्हें भारत में व्याप्त ब्राह्मणी व्यवस्था और संस्कृति के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ने के लिए तैयार करना था। परिणामस्वरूप विदेशी उच्चतम शिक्षा प्राप्त करने वालों का बड़ा दल हमारी दृष्टि के सामने है। सन् 1942 में वायसराय की कौंसिल का सदस्य बनने के उपरान्त बाबा साहब ने अनु० जातियों के लिए बहुत सारी सुविधाएँ और लाभ हासिल किए। सन् 1943 में डॉ० भीम राव अम्बेडकर ने प्रथम बार सरकारी नियुक्तियों में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण का अधिकार प्राप्त किया। दलितों और शोषितों में उच्च और पूर्ण विकसित शिक्षा को विशेष रूप से भरने के लिए 1945 में उन्होंने स्वयं के अथक प्रयासों से "पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी" की स्थापना की और 1946 में बम्बई में इसके झण्डे के नीचे प्रथम महाविद्यालय का संचालन किया। आज पश्चिमी भारत में 1946 का संचालित किया गया सिद्धार्थ महाविद्यालय घर-घर में चर्चित शब्द हो चुका है ।अंग्रेजों के चले जाने के बाद जब डॉ० अम्बेडकर को भारत का संविधान तैयार करने का अवसर प्राप्त हुआ तो उन्होंने अनु० जाति, अनु० जन जाति, अन्य पिछड़े वर्ग एवं अल्पसंख्यक समुदाय के लिए बहुत से प्रावधान उसमें रखे। आप देखें कि अनुच्छेद और धाराओं के रूप में इन लाभों का छिटफुट स्पष्ट उल्लेख किया गया है। इस दिशा में अनुच्छेद 15 की उप धारा और अनुच्छेद 16 की उप धारा 4 बाबा साहब के बहुत ही महत्वपूर्ण प्रयास है। अनुच्छेद 15 की उप धारा 4 नागरिकों के सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों और अनु० जाति तथा अनु० जन जाति के लिए राज्य को किसी भी विशेष प्रावधान बनाने की अनुमति प्रदान करती है। इसके अन्तर्गत शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़े वर्गों के लिए जगह आरक्षित करने की अनुमति होगी। संविधान के अनुच्छेद 16 की उपधारा 4 नागरिकों के पिछड़े वर्गों के लिए पदों की नियुक्तियों में आरक्षण प्रदान करने की अनुमति देती है। जिसमें अनु० जाति, अनु० जन जाति एवं अन्य पिछड़े वर्ग भी सम्मिलित है। इस प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में और नौकरियों में आरक्षण के रूप में इन -प्रावधानों के फलस्वरूप हम देखते हैं कि भारत में दलितों के एक विशिष्ट वर्ग का उदय हुआ है।

IV बामसेफ-सामाजिक उपयोगिता के लिए प्रयास

हमारे नेताओं, विशेष रूप से डॉ० भीम राव अम्बेडकर द्वारा किए गये अनवरत प्रयासों के फलस्वरूप पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय को उनके अधिकारों और हितों के संरक्षण हेतु भारतीय संविधान के अन्तर्गत बहुत से प्रावधान प्राप्त हो चुके हैं। इस थोड़े से प्रावधानों के फलस्वरूप शिक्षण के क्षेत्र में नौकरियों में आरक्षण और राज्यों की विधान सभाओं में एवं संसद में आरक्षण के बल पर समाज के इन दलितों शोषितों में विशिष्ट वर्ग की एक विशाल सेना तैयार हो चुकी है। राज्यों की विधान सभाओं एवं संसद में आरक्षण में लगभग सम्पूर्ण भारत में एवं सभी राजनैतिक दलों में इन समुदायों के तथा कथित नेताओं का बहुत बड़ा वर्ग पैदा कर दिया है। नौकरियों में दिये गए आरक्षण के बल पर लगभग हर जगह के संस्थानों में पाये जाने वाले शिक्षित कर्मचारियों का एक विशाल वर्ग पैदा हुआ है। इस दलित विशिष्ट वर्ग के जनक डॉ० भीम राव अम्बेडकर ने इस वेतन भोगी वर्ग से आशा और आकांक्षा की थी कि जिस दलित समाज में वे पैदा हुए हैं उसके हितों को संरक्षण प्रदान करेंगे।आज की वास्तविक स्थिति में हम पाते हैं कि एक और दलित शोषित समाज के तथाकथित नेतागण और विधायक देश के राजनीतिक तंत्र के व्यवस्थापक उच्च हिन्दुओं के यहां बंधुआ और चमचे बने हुये हैं और दूसरी तरफ शिक्षित कर्मचारियों का एक विशाल वर्ग समान रूप से स्वार्थी और अपने आप में ही केंद्रित बना हुआ है। अपने जीवन काल में डा० बी० आर० अम्बेडकर ने इस वर्ग के व्यवहार को देखकर इसके प्रति अत्याधिक घृणा का अनुभव किया था। 18 मार्च 1956 को आगरा के रामलीला मैदान में दलितों, शोषितों के विशाल जन समुदाय को सम्बोधित करते हुए शिक्षित कर्मचारियों के अपने उन भाइयों के प्रति, जिनके बीच वे पैदा हुए हैं, उपेक्षापूर्ण रवैये को देखकर उनकी निन्दा ही नहीं, बल्कि भर्त्सना की थी। आज 20 लाख से ज्यादा शिक्षित कर्मचारियों के एक वर्ग ने अपने स्वार्थपूर्ण हितों के लिए लगभग 10,000 संगठनों के झण्डे के नीचे अपने आप को अलग अलग संगठित कर लिया हैं।इस वर्ग के जनक के उपर्युक्त मनोभावों को ध्यान में रखते हुए और इस वर्ग की सामाजिक जिम्मेवारी को देखते हुए पूना में हम कुछ लोगों ने इन शिक्षित कर्मचारियों को संगठित करने का निर्णय किया जिसका ध्येय था समाज को दासता से मुक्ति दिलाना। उसी समय शिक्षित कर्मचारियों को अखिल भारतीय स्तर पर और पक्के तौर पर संगठित करने का भी निर्णय लिया गया कि ऐसे संगठन के माध्यम से अपने विचार को एक मूर्तरूप प्रदान किया जाए। इस प्रकार सन 1973 के आस-पास सामाजिक उपयोगिता की धारणा के रूप में बामसेफ का विचार पैदा हुआ। इसको ज्यादा यथार्थ सिद्धि के लिए 6 दिसम्बर 1973 को बामसेफ की योजना तैयार की गई और हम मुट्ठी भर लोग पूना और दिल्ली से पांच दिन के लिए दिल्ली में एकत्र हुए और पांच वर्ष के बाद बामसेफ को जन्म देने का निर्णय लिया। इस प्रकार ठीक पांच वर्ष बाद 6 दिसम्बर 1978 को दिल्ली के बोटक्लब मैदान में बामसेफ को जन्म दिया गया। आज अपने मिशन को आगे बड़ाने और उसे उन्नत बनाने के लिए संकल्पित 'बामसेफ' दलित, शोषित समाज का बुद्धि बैंक माना जा रहा है।

V. संगठन का ढांचा

समझदार और परिपक्व लोग अपनी शर्त के अनुरूप संगठन का निर्माण करते हैं। जहाँ तक बामसेफ का सम्बन्ध है, वह दलित, शोषित समाज की आवश्यकताओं और शर्तों के अनुरूप है। और उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए है जिसके लिए संगठन का निर्माण किया गया है। ठीक किसी अन्य मिश्रित संगठन की तरह बामसेफ के अंगों का भी गठन किया गया है और पुनः इन्हें एक प्रभावशाली और कल्याणकारी संगठन का रूप देने के लिए अच्छी प्रकार से जड़ दिया गया है। यहाँ नीचे बामसेफ के 10 मुख्य और अत्यन्त अनिवार्य अंगों का संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है ताकि बामसेफ नाम के संगठन का वास्तविक चित्र लोगों के समक्ष उपस्थित हो सके। ये 10 प्रमुख अंग इतने महत्वपूर्ण है कि इनके बिना संगठन समुचित ढंग से काम नहीं कर सकता । संगठन को अत्यन्त आधुनिक और परिष्कृत रूप देने के लिए उसमें नये-नये विकल्पों और अन्य छोटे-छोटे अंगों को समय-समय पर जोड़ा जा सकता है।"बामसेफ" नाम के संगठन को निर्मित करने वाले 10 प्रमुख अंगों की सूची निम्नलिखित हैं।

अंग:

(1) ढाँचा बहुजन आधारित (Mass Based), वृहदाकार (Broad Based) कैडरों पर आधारित (Cadre Based), (2) सचिवालय (Secretariat), (3) संगठनात्मक व्यवस्था (Organizational setup), (4) दिल्ली में नियंत्रणालय सहित लगभग एक सौ कार्यालयों का जाल (Network of about one hundred offices including the control room in Delhi), (5) बामसेफ भ्रातृ संघ (Brotherhood),(6) बामसेफ दत्तक ग्रहण (Adoption),(7) चिकित्सा सहयोग एवं सलाह (Medical Aid & Advice),(8) साहित्यिक स्कंध (Literary wing)(9) परीक्षण स्कंध (Trial Wing) (10) बामसेफ स्वयं सेवक बल (BAMCEF Volunteer Force) इन 10 प्रमुख अंगों से सम्बद्ध जानकारी संक्षेप में नीचे दी जा रही है :

(1) ठीक किसी दूसरे बड़े संगठन की तरह बामसेफ का भी ढांचा (फ्रेम-वर्क) इसका अत्यन्त ही प्रमुख अंग है। बामसेफ का यह अंग तीन अनिवार्य तत्वों को मिलाकर गठित किया गया है। ये तीन तत्व है: (क) जनाधारित, (ख) बृहदाकार (ग) कैडरों पर आधारित। इन तीन अनिवार्य तत्वों का संक्षिप्त स्पष्टीकरण नीचे दिया जा रहा है।

(क) बहुजन आधारित (Mass Based):आवश्यकताओं के अनुरूप संगठन को भी रूप और आकार में अति विशाल होना चाहिए। हमारी अपनी आवश्यकताओं और क्षमता को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय लिया गया है कि बामसेफ के पास सदस्यों के रूप में कम से कम एक लाख शिक्षित कर्मचारियों का होना अनिवार्य है। इन लोगों की ही सदस्य संख्या हमारी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त हो सकती है। परन्तु इसके बावजूद पूरे भारत में फैले हुए 20 लाख शिक्षित कर्मचारियों में से एक लाख को संगठित करना हमारी क्षमता के अन्दर होना चाहिए। इस विषय में और इसके परे कहा जाये तो कम से कम कार्यकर्त्ता ज्यादा से ज्यादा संख्या तक पहुंचने के लिए हमेशा प्रयासरत रह सकते हैं।

(ख) वृहद आकार (Broad Based):आज ये एक लाख कर्मचारी भारत के 40 प्रमुख शहरों में आसानी से संगठित किये जा सकते हैं परन्तु इस प्रकार की संख्या हमारी व्यापक आवश्यकताओं के लिए उपयोगी नहीं होगी। अतएव यह नितान्त अनिवार्य है कि इन एक लाख कर्मचारियों की संख्या और आगे जितनी भी बढ़ती जाती है। समान रूप से पूरे भारत में फैली हुई होनी चाहिए। हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि हम देश के हर कोने में छा जायें। परन्तु 50% से ज्यादा राज्यों और संघ शासित क्षेत्रों के 50% से ज्यादा जिलों में छा जाना ही संगठन के वास्तविक वृहद आकार का लघुतम रूप जाना जाना चाहिए।

(ग) कैडरों पर आधारित (Cadre Based):सगठन को बहुजन आधारित और वृहद आकार का बना लेने के उपरान्त भी हमारा संगठन समुचित और प्रभावशाली ढंग से काम नहीं कर सकता। अतएव यह अत्यधिक अनिवार्य हो जाता है कि अच्छे से अच्छे ऐसे जानकर कर्मचारियों का एक शिष्ट मण्डल तैयार किया जाये जो इस मिश्रित संगठन की यंत्र रचना के विषय में स्पष्ट ज्ञान रखते हों और जिनमें संगठन को उन्नति की ओर बढ़ाने की क्षमता हो ताकि वह ज्यादा से ज्यादा फलदायी हो सके। कैडरों की संख्यात्मक शक्ति जितनी ही ज्यादा हो उतनी ही ज्यादा खुशी की बात है। परन्तु हमारी आवश्यकताओं के अनुरूप कुल सदस्य संख्या से 5% कैडर होना बामसेफ की अनिवार्यता होगी। यह कैडर केवल कुछ जगहों पर केन्द्रित नहीं होने चाहिए बल्कि पूरे भारत में समान रूप से फैले हुए रहना चाहिए। अब इन तीन तत्वों यथा— जन-आधारित, वृद्धाकार एवं कैडरों पर आधारित के समुच्चय से संगठन के लिए सुव्यवस्थित और मजबूत ढांचा तैयार करना चाहिए।

2. सचिवालय

बामसेफ का मुख्य कार्य (क) नियमों, विनियमों एवं कानूनों को क्रियान्वित कराना (ब) पिछड़े और अल्पसंख्यकों के हितार्थ विभिन्न प्राधिकरणों द्वारा तैयार की गई योजनाओं, कार्यक्रमों, परियोजनाओं और बजटों को पूर्णत और ईमानदारी पूर्वक निष्पादित कराने का होगा। अतः हमारी आवश्यकताओं के अनुरूप उक्त सभी कार्यों को कराने के लिए अनिवार्य हो जाता है कि बामसेफ का अपना सचिवालय हो। इस सचिवालय का आकार पूरे भारत में फैले हुए हमारे विपुल जब-समुदाय के कार्यों को कराने के लिए जिस प्रकार की अपेक्षायें हो सकती हैं, उन्हीं के अनुरूप होगा। सचिवालय के रूप का जहां तक सम्बन्ध है हमें उन संस्थापनों के समानान्तर चलना आवश्यक है जिनके नियमों, विनियमों और कानूनों को क्रियान्वित कराने की हम अपेक्षा रखते हैं और जिनकी योजनाओं, कार्यक्रमों, परियोजनाओं और बजट प्रावधानों को हम पूर्णतः और ईमानदारी पूर्वक निष्पादित कराना चाहेंगे। इसके बावजूद सचिवालय से यह भी अपेक्षा की जायेगी कि वह कर्मचारियों, विद्धाथियों, युवकों, महिलाओं, श्रमिकों और वास्तविक रूप में दलित और शोषित समाज के सभी वर्गों की सेवा करे। अतएव सचिवालय का रूप और आकार इन सारी आवश्यकताओं के अनुरूप ही तैयार किया जायेगा।

3. संगठनात्मक व्यवस्था

संगठन का सचिवालय केन्द्र से राज्य और फिर राज्य से जिला तक संचालित होगा। परन्तु संगठनात्मक व्यवस्था इसके विपरीत होगी। अर्थात् इसे जिले से राज्य और पुनः राज्य केन्द्र तक पहुंचना होगा जहां वामसेफ संगठनात्मक व्यवस्था की प्रारम्भिक ईकाई जिला यूनिट होगी। इसलिए बामसेफ में सदस्यता केवल जिला स्तर तक ही बनाई जायेगी और इस सदस्यता के आधार पर ही जिला, राज्य और केन्द्र तक की समस्त व्यवस्था निर्मित की जायेगी। दूसरे शब्दों में निधि और कार्यकर्ता दोनों को जिला स्तर पर ही तैयार किये जायेंगे और फिर उन्हें मिशन की आवश्यकताओं के अनुरूप राज्य और फिर केन्द्र स्तर पर विभाजित किया जायेगा। यद्यपि संगठन की व्यवस्था तो जिला, राज्य और केन्द्र होगी परन्तु संगठन को अत्यधिक कार्यकुशलता और प्रभावशाली ढंग से चलाने के लिए बामसेफ की संगठनात्मक व्यवस्था में हाल ही परिकल्पित सम्भाग जैसे अन्य तत्वों को भी प्रवेश दिया गया है। जिले की बुनियादी इकाई से निचले स्तर पर पहुंचते हुए यह तालुका/ तहसील तक, फिर प्रखण्ड (ब्लाक) तक और अन्तिम रूप में गांव स्तर तक का हो जायेगा।

4. दिल्ली में नियंत्रण कक्ष सहित लगभग 100 कार्यालयों का जाल:

यद्यपि बामसेफ की व्यवस्था जिला, राज्य एवं केन्द्र की तरह है परन्तु इसे पूरी कार्यकुशलता पूर्वक और प्रभावशाली ढंग से संचालित करने के लिए विशेष अभिकल्पित ढंग से पूरे भारत में फैले हुए लगभग 100 कार्यालयों का जाल बिछाना अत्यन्त अनिवार्य है। 100 या लगभग इतने कार्यालयों को स्थापित करने और फैलाने की विशेष रूप रेखा तैयार करते समय निम्नलिखित चार पहलुओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए—

(क)     सभी राज्यों, केन्द्र शासित क्षेत्रों की राजधानियों में पूर्ण विकसित कार्यालयों का होना अनिवार्य है ।

(ख)     भारत के नगर निगम वाले शहरों में पूर्ण विकसित कार्यालयों का होना अनिवार्य है ।

(ग)     इस जाल को अत्यन्त सार्थक और प्रभावी बनाने के लिए कुछ छोटे योजक शहरों में भी पूर्ण विकसित कार्यालय होने चाहिए।

(घ)     भारत के औद्योगीकरण को ध्यान में रखते हुए प्रमुख औद्योगिक संस्थान वाले शहरों में भी पूर्ण विकसित कार्यालय होने चाहिए। ये सभी 100 या लगभग कार्यालयों को प्रभावी ढंग से नियंत्रित करने के लिए दिल्ली में एक सशक्त नियंत्रण कक्ष का होना अनिवार्य है।

VI. बामसेफ भ्रातृ संघ एवं  VII. बामसेफ दत्तक ग्रहण 

बामसेफ भ्रातृ संघ एवं बामसेफ दत्तक ग्रहण बामसेफ नाम के संगठन के दो प्रमुख अंग है। बामसेफ भ्रातृ संघ का सम्बन्ध भारत की सम्पूर्ण शहरी जनसंख्या से है जब कि बामसेफ दत्तक ग्रहण का सम्बन्ध भारत की सम्पूर्ण ग्रामीण जनसंख्या से है। यद्यपि हमारे बामसेफ सगठन के ये दो प्रमुख और अलग-अलग अग हैं परन्तु उन्हें अच्छे ढंग से समझने के लिए यह अनिवार्य है कि उन पर एक साथ प्रकाश डाला जाए। यह इसलिए अनिवार्य है क्यों कि ग्रामीण जनसंख्या का शहरी केन्द्रों में बड़े व्यापक पैमाने पर प्रवसन हुआ है और भविष्य में अभी और जोरो से प्रवसन की सम्भावना दिखाई दे रही है। बामसेफ के इन दो प्रमुख अंगों पर प्रकाश डालने के पहले निम्नलिखित तीन पहलुओं को समझ लेना अत्यन्त आवश्यक है यथा- (क) पृथक अधिवास (Separate domicile) (ख) दुखद प्रवसन (Tragic migration) एवं (ग) सुखद प्रवसन (Pleasant migration)

(क) पृथक अधिवास (Separate domicile):

बामसेफ 40 वर्ष पहले जब बाबा साहब डा० भीम राव अम्बेडकर दलित शोषित समाज के इन दलित वर्गों विशेष कर अनुसूचित जातियों की बहुमुखी समस्याओं को सुलझाने में गम्भीरतापूर्वक व्यस्त थे उन्होंने उनके लिए एक योजना तैयार की जिसे पृथक अधिवास के रूप में जाना जाता है। एक लम्बे और गम्भीर चिन्तन एवं प्रयासों के उपरान्त बाबासाहब ने नागपुर में जुलाई 1942 में इस योजना का विवरण प्रकाश में लाया।जो लोग इस योजना का पूरा विवरण जानना चाहते हैं उन्हें सम्बन्धित पत्रों और बाबा साहब के ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए। मैं अपने तात्कालिक उद्देश्य के लिए इस योजना से सम्बन्धित दो मुख्य पहलुओं की जानकारी देना चाहूंगा। ये दो पहलू इस प्रकार से दिखाई पड़ते हैं।

(1) भारत के गांवों में अनुसूचित जातियों की अत्यन्त निराशापूर्ण, पराश्रयी और शोचनीय दशा।

(2) भारत के लगभग सभी गांवों में अनुसूचित जाति के लोगों का अल्पसंख्यक स्वरूप।

इन दो पहलुओं को ध्यान में रखते हुए अनुसुचित जाति की दशा को सुधारने के लिए और पृथक अधिवास में बहुसंख्यक प्रतिनिधित्व प्राप्त करने के लिए जो कि प्रजातांत्रिक व्यवस्था में पर्याप्त अनिवार्य है, इस योजना को अमल में लाना निहायत रूप से अनिवार्य था। यद्यपि यह योजना भारत की अनुसूचित जातियों के लिए अनिवार्य और लाभदायक थी, परन्तु दुर्भाग्य वश बहुत से सुप्रसिद्ध कारणों से इसे मूर्त रूप नहीं दिया जा सका जिसमें से एक विशेष कारण था-  15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों का भारत की धरती से बहिर्गमन।

(ख) दुखद प्रवसन (Tragic migration):

पृथक अधिवास हुआ या नहीं परन्तु सच यह है कि गरीब और समस्त अनुसूचित जाति के लोगों ने भारी संख्या में गांवों को छोड़ना शुरू कर दिया । ये गरीब लोग महानगरों में रहने के लिये भागने लगे ताकि भूख की ज्वाला से अपने को बचा सकें और कुछ हद तक अपने भविष्य को सुधार सकें। ये अतिगरीब और उत्पीड़ित प्रवासी भारत के गांवों से महा नगरों अथवा शहरी केन्द्रों और औद्योगिक संस्थानों की गंदी जगहों, गंदे नदी नालों, ऊबड़-खाबड़ पत्थरों को हटाकर बसना आरम्भ कर दिया। गरीब और पीड़ित भारतीयों का इस प्रकार का प्रवसन दुःखद प्रवसन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।

(ग) सुखद प्रवसन (Pleasant migration):

संवैधानिक प्रावधानों, विशेष कर अनुच्छेद सं० 15 (4) एवं 16 (4) का लाभ लेकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति के लोगों ने भारी संख्या में शिक्षा के क्षेत्र में अपना मुख्य स्थान बना लिया और भारी संख्या में नौकरशाही व्यवस्था में प्रवेश पा लिया। संवैधानिक प्रावधानों के इन लाभ भोगी लोगों की मांग शहरी केन्द्रों और औद्योगिक प्रतिष्ठानों में भी कर्मचारियों की पूर्ति के लिए और वहां के कार्यों की व्यवस्था के लिए बहुता यत्त रूप से होने लगी। इस प्रकार के प्रवसन को सुखद प्रवसन के रूप में पारिभाषित किया जा सकता है। यद्यपि दुखद प्रवसन की संख्या करोड़ों की थी परन्तु सुखद मन भी पर्याप्त मात्रा में हुए जो मोटे रूप से ताल मेल करने पर 20 लाख व्यक्तियों से ज्यादा निकल सकते हैं।

अब हम बामसेफ भ्रातृत्व और बामसेफ दत्तक ग्रहण की ओर मुड़े अर्थात भारत की शहरी और ग्रामीण जन संख्या पर विचार करें तो उपयुक्त तीनों पहलुओं की जानकारी बामसेफ के दो प्रमुख अंगों के अध्ययन में काफी सहायक सिद्ध होगी। भ्रातृत्व का सम्बन्ध दलित समाज के शहरी खण्ड से है। इस अंग की पहली आवश्यकता उन दलित भारतीयों को एक जगह लाने की है जो दुखद और सुखद दोनों ही प्रकार के प्रवसनों के परिणामस्व रूप शहरी केन्द्रों में आधार प्राप्त कर चुके हैं। इन दो प्रकार के प्रवासियों को एक दूसरे के नजदीक लाने पर और भ्रातृत्व केन्द्र स्थापित कर लेने पर हमारा प्रारम्भिक कार्य पूरा हो जाता है। परन्तु हमारा प्रमुख कार्य यदि पूरा हो सकता है तो केवल (1) नियमों, विनियमों और कानूनों के क्रियान्वयन कराने और (2) समाज के गरीबों के लिए योजनाओं, कार्यक्रमों और बजट प्रावधानों को पूर्णत: और ईमानदारी पूर्वक निष्पादित कराने से ही हो सकता है। सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त करने के लिए हमें नियमों, विनियमों, कानूनों, योजनाओं, कार्यक्रमों परियोजनाओं और विभिन्न सम्बन्धित प्राधिकरणों द्वारा तैयार किये गये बजट प्रावधानों के प्रविवरण एवं सार संग्रह तैयार करना है। इस प्रकार का मिला-जुला और पेंचीदा कार्य केवल शिक्षित कर्मचारियों द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। अन्यथा हमारे समाज के उन दलित-शोषित लोगों जो करोड़ों की संख्या में शहरी क्षेत्रों की गन्दी और दमघोटू बस्तियों में निवास कर रहे हैं, को बिना स्पर्श किए हमारी सभी योजनाएं केवल कागज पर ही रह जाएंगी। 

अब बामसेफ दत्तक ग्रहण की ओर लौटें तो पायेंगे कि यह भारत की ग्रामीण और गरीब जनता से सम्बंधित है। हम भारत के कुछ एक हजार शहरी केन्द्रों में ही शिक्षित कर्मचारियों को प्रचुर मात्रा में उपलब्धि को ध्यान में रखते हुए महसूस करते हैं कि बामसेफ भ्रातत्व के कार्य तुलनात्मक दृष्टि से काफी सरल हैं परन्तु जब हम अपने विशाल देश के आर पार फैले हुए 5,76,000 गांवों की ओर दृष्टिपात करते हैं तो ज्ञात होता है कि बामसेफ एडाप्पशन का कार्य कठिन ही नहीं बल्कि दूभर है। इसके बावजूद भारत के गांवों में शिक्षित कर्मचारियों की अभाव पूर्ण उपलब्धि के कारण यह कार्य और भी दुरुह हो जाता है। अतएव हमारे पास एक जिले में कुछ एक ग्रामीण केन्द्रों को गोद लेने का ही विकल्प शेष रहता है और इसी कारण इस अंग का नाम दत्तक ग्रहण (एडाप्शन रखा गया। दत्तक ग्रहण के संचालक के तौर तरीके लगभग बामसेफ भातृ संघ के तौर-तरीकों के समान ही होंगे। यहां भी हमारे समक्ष कार्य (1) नियमों विनिनियमों और कानूनों को क्रियान्वित कराने (2) गरीब ग्रामीणों के लिए तैयार किये गये योजनाओं, कार्यक्रमों परियोजनाओं और विभिन्न अधिकरणों के बजट प्रावधानों को पूर्णतः और ईमानदारी पूर्वक निष्पादित कराने का है। बामसेफ भ्रातृत्व के समान ही प्रविवरण और सार संग्रह तैयार करना एडाप्शन का एक अनिवार्य तत्व होगा ।

VIII. चिकित्सा सहयोग एवं सलाह

शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण के क्षेत्र में कमजोर वर्गों को दिए गये संवैधानिक प्रावधानों का लाभ लेकर दलित भारतीय विशेषकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग नौकरशाही तंत्र की विभिन्न शाखाओं उप शाखाओं में काफी बढ़ चुके हैं। हमारे लिए खुशी की बात है कि चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में प्रचुर विकास हुआ है। परिणामस्वरूप आज हम हजारों की संख्या में अपने लगभग सभी डाक्टरों को विभिन्न अधिकरणों के अस्पतालों में नौकरी करते हुए देख रहे हैं और उनमें से कुछ अपने स्वतंत्र धंधे में लगे हैं । अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति के छात्रों का चिकित्सा महाविद्यालयों में अध्ययनरत होना भविष्य के लिए सुखद स्थिति का सूचक है। इस प्रकार के विशिष्ट क्षेत्रों में हुई प्रगति को ध्यान में रखते हुए चिकित्सा विज्ञान के उन विशेषज्ञों, जो अपने दलित, शोषित भाइयों के लिए काम कर सकें, की सेवायें फलित करने के लिए एक अलग ही अंग को निर्मित करना अनिवार्य समझा गया ।इसी मूल आधार पर बामसेफ के चिकित्सा सहयोग के एवं सलाह अग" को भी विचार में लाया गया और जहां-जहां बामसेफ छापा मारती जा रही है, यह अंग भी निर्मित होता जा रहा है। हमारे विशेषज्ञ डाक्टरों की सहा यता एवं सलाह से बामसेफ समाज के गरीब वर्गों की बखूबी सेवा कर सकती है और विशेष रूप से चिकित्सा सेवायें दिलाकर उनकी सहायता कर सकती है। इससे भी अधिक, हमारे डाक्टरों और चिकित्सा विशेषज्ञों की इस प्रकार की सामाजिक सेवायें दलित शोषित समाज के सभी वर्गों के बीच खाईचारा निर्मित करने एवं हार्दिक एकता स्थापित करने में पर्याप्त सहायक होगी । ओर खासकर प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जिसे हम अपने लिए अंगीकृत कर चुके हैं, यह निहायत आवश्यक है।

IX. साहित्यिक स्कंध

दलित-शोषित समाज के शिक्षित कर्मचारी लगभग सभी क्षेत्रों में मानव सुलभ प्रयासों के साथ अपनी सहभागिता प्रदर्शित करते रहे हैं। साहित्य के क्षेत्र में भी इन कर्मचारियों का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहयोग भरपुर रूप से दृष्टिगोचर होता है। काफी संख्या में हमारे शिक्षित कर्मचारी साहित्यिक गतिविधियों में लगभग सभी भाषायी समुदायों के बीच अपना अग्रणीय स्थान निर्मित कर चुके हैं। यहां तक कि लगभग सभी भाषायी समुदायों में दलित साहित्यकारों द्वारा रचित दलित साहित्य विपुल मात्रा में देखा जा सकता है। साहित्य के क्षेत्र में दलित कर्मचारियों की रुझान और उनकी गतिविधियों ने लगभग सभी भाषायी को में एक प्रकार की प्रभावी लहरी पैदा कर दी है। ऐसी स्थिति का लाभ लेते हुए यह आशा की जाती है कि दलित लेखकों द्वारा रचित दलित साहित्य से एक अनवरत साहित्यिक लहर प्रसूत की जा सकती है. अपना साहित्य जगत निर्मित किया जा सकता है बशर्ते कि लगभग सभी भाषायी समुदायों की प्रभाव लहरिया उपस्थित ढंग से एक संसक्तिशील सम्पूर्णता के बीच लय हो जायें। इस उद्देय से साहित्यिक स्कंध के नाम से एक पृथक अंग का निर्माण किया गया है और पूरे देश में बड़े पैमाने पर इसका विकास होता जा रहा है ।

X. परीक्षण स्कंध

इस आधुनिक और जटिल सामाजिक स्थिति में और भविष्य के सभी काल चक्रों के परिवेश में निश्चयपूर्वक कुछ भी कहना सम्भव नहीं है जो इस जटिल और द्रुतगामी समाज के सम्मुख अपना अस्तित्व कायम रखना चाहते हैं उन्हें समस्याओं का विभिन्न दृष्टिकोणों से अध्ययन करने और उनका उपयुक्ल समाधान ढूंढने की आवश्यकता है। अतएव इस जटिल और अति आधुनिक विश्व में हमें ऐसी सक्षम मशीनरी तैयार करना आवश्यक है जो लाभप्रद परीक्षणों को संचालित कर सके और हमारी समास्याओं के लाभप्रद समाधानों को सुझा सके। दूसरे शब्दों में हमारे लिए एक सक्षम अनुसंधान एवं विकास संयंत्र तैयार करना आवश्यक है। इस प्रकार बामसेफ के एक महत्वपूर्ण अंग के रूप में जिस संयंत्र की रूपरेखा हमने तैयार किया है उसे परीक्षण स्कंध का नाम दिया गया है। इस अंग का संचालन एवं तौर-तरीका स्थिति या समस्या का वैज्ञानिक और व्यवस्थित विश्लेषण किया जा सके, इसके लिए समुचित सर्वेक्षण, परिचर्चा और विचार गोष्ठी प्रवतिति करना होगा। इस उद्देश्य सिद्धि के लिए परीक्षण स्कंध में उपलब्ध बहुत ही बुद्धिमान और समर्पित व्यक्तियों को ही लगाया जायेगा। अतएव अंगर बामसेफ हमारे समाज का बुद्धि बैंक माना जाता है तो इस परीक्षण स्कंध को 'बुद्धि बैंक का मस्तिष्क' नाम देना उपयुक्त होगा।

XI. बीवीएफ- बामसेफ वालन्टिर फोर्स 

"बी०वी०एफ०" बामसेफ बालन्टिर फोर्स का संक्षिप्त रूप है। हमारे संगठन की विशालता को ध्यान में रखते हुए और इसके कार्यों और कार्यक्रमों को प्रभावी ढंग से और सफलतापूर्वक संचालित तथा नियंत्रित करने की दृष्टि से हमें बामसेफ स्वयं सेवक बल की आवश्यकता का अनुभव अवश्य होना चाहिए। हमारे संगठन की भावी प्रगति और भविष्य में हमारे कार्यों का सफल संचालन तथा नियंत्रण ऐसे अंग के महत्व का स्पष्ट संकेत करता है। हम पहले से अनुमान करते हैं कि ज्यों ही बामसेफ पूर्णतः विकसित होती है, हमें वर्ष भर में उपलब्ध प्रायः 365 दिनों में लगभग 6000 समारोह आयोजित करने पड़ेंगे। प्रतिवर्ष के सभी 52 रविवारों को भारत के सभी 100 कार्यालयों द्वारा आयोजित “रविवार श्रृंखला" के नाम से छोटे से छोटे समारोहों से लेकर और फिर जिले से आगे की ओर राज्य के सम्भागीय सम्मेलनों और वर्ष में एक बार आयोजित होने वाले राष्ट्रीय अधिवेशनों में बामसेफ स्वयं सेवक बल की आवश्यकता को अच्छी तरह समझा जा सकता है। इन - सामान्य समारोह के बावजूद विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण शिवरों और ऐसे ही अन्य समारोहों के संचालन का उत्तरदायित्व भी इसी स्वयं सेवक बल का होगा। अतएव बामसेफ का यह अंग भी हमारे विशाल और पेचीदे संगठन के विभिन्न प्रकार के सफल आयोजनों और नियंत्रण प्रणालियों की विशेषता वाले विशेष कैडरों का दल पारिभाषित किया जा सकता है। बामसेफ स्वयं सेवक बल की उपयोगिता को संभीरता से देखते हुए यह निर्णय लिया गया है कि स्वयंसेवकों को बरदी में तैयार किया जाये और चण्डीगढ़ के तृतीय राष्ट्रीय अधिवेशन के संचालन और नियंत्रण में उन्हें सक्रिय रखा जाये। संगठन के विकास के साथ-साथ पर्याप्त संस्था में स्वयं सेवक बल वाला यह अंग भी यथा अनुपात विकसित होता जायेगा, ऐसी सम्भावना है।

XII. संरचना का संचालन कैसे हो? 

बामसेफ की सरचना मिश्रित या काफी जटिल है। अतएव कार्यकर्त्ताओं को इनके बारे में गहन जानकारी होना आवश्यक है। बामसेफ की संरचना का अध्ययन करते समय हमने देखा कि इसके लगभग दस प्रमुख अंग पहले विकसित हुए और उसके बाद पूरे संगठन "बामसेफ" के निर्माण में सही रूप से सक्षम हुए। इसलिए यह अत्यन्त अनिवार्य है कि इसके सभी अगों तथा संगठन में उनके आपसी सम्बन्धों के विषय में स्पष्ट जानकारी दी जाये। इसी बात को ध्यान में रखते हुए कार्यकर्ताओं के लिए विभिन्न प्रकार के कंडर कैम्पों की योजना तैयार की गई है। छोटे स्तर के कार्यकर्ताओं को दस प्रमुख अगों और संगठन के अन्दर उनके आपसी सम्बन्धों का स्पष्ट बोध होना चाहिए और उनके लिए पर्याप्त होगा। परन्तु उच्च स्तर के कार्यकर्ताओं को पूरे संगठन का गठन और सर्वतोमुखी ज्ञान होना अनिवार्य है। इस तथ्य को ध्यान में रख कर कार्यकर्त्ताओं को विभिन्न पदों का भार सम्भालने के पहले कार्य को आवश्यकताओं का सही मूल्यांकन करने के लिए सम्बन्धित कैडर कैम्पों में भाग लेना अनिवार्य शर्त होगी। बामसेफ की संरचना संगठन के सम्मुख उद्देश्यों को साकार करने के लिए की गई है। अतएव कार्यकर्ताओं को संगठन के क्या उद्देश्य है इसकी जानकारी रखना अनिवार्य है। जैसा हमने पहले ही अध्ययन किया कि बामसेफ के संचालन की पद्धति ऐसी होगी कि उससे (क) सारे नियमों, विनियमों और कानूनों का क्रियान्वयन कराया जायेगा और (ख) पिछड़े वर्गों एवं अल्प संख्यक समुदायों के हित के लिए विभिन्न प्राधिकरणों द्वारा तैयार की गई योजनाओं, कार्यक्रमों,, परियोजनाओं और बजट प्रावधानों को पूर्ण रूपेण और ईमानदारी पूर्वक निष्पादित कराया जायेगा। अतएव कार्यकर्ताओं को नियमों, विनियमों और कानूनों का परिपूर्ण ज्ञान होना चाहिए, उनसे इन्हें क्रियान्तित कराने की आशा की जाती है और साथ ही योजनाओं कार्यक्रमों एवं परियोजनाओं का परिपूर्ण ज्ञान होना अनिवार्य है, उनसे इन्हें अमल कराने की अपेक्षा की जाती है। अतएव अब हम समझ सकते हैं कि बामसेफ के कार्यकर्ताओं को उनके सामने जो उद्देश्य हैं, उन्हें साकार करने के लिए बहुत से अन्तग्रस्त पहलुओं के विषय में अत्यन्त सूझ-बूझ वाला व्यक्ति होना अनिवार्य है। इस प्रकार के सुविज्ञ और समर्पित कार्यकर्ता ही अपेक्षित पैमाने पर बामसेफ के सभी सम्बन्धित अंगों के माध्यम से विभिन्न सम्बन्धित प्राधिकणों तक पहुंचने के लिए अपने स्वयं के निर्णय को कारगर करने के योग्य माने जायेंगे। संरचना को संचालित करने के विषय में विस्तृत जानकारी विभिन्न प्रकार के कार्यकर्ताओं के प्रयोजनार्थ आयोजित विभिन्न कैडर कैम्पों में दी जाती है ।

XIII. बामसेफ को अनिवार्यतः किसी धार्मिक, संघर्षों एवं राजनैतिक गतिविधियों में भाग नहीं लेना चाहिए 

जैसा हम जानते हैं कि बामसेफ दलित-पीड़ित समुदायों के शिक्षित कर्मचारियों का संगठन उस समाज का ऋण चुकाने के लिए निर्मित किया गया है जिसमें वे पैदा हुए हैं। इसके अतिरिक्त शिक्षित कर्मचारियों का यह वर्ग नये वंश की उपज है और कुल मिला कर सरकारी नौकरियों में फंस गया है। अतः इन कर्मचारियों के पास इनके व्यवसायों के कारण समाज की सेवा करने का प्रचुर अवसर उपलब्ध है और अपने ज्ञानार्जन, शिक्षा, अनुभव एवं विभिन्न प्रकार के कार्यों की व्यवस्थापन प्रतिभा के कारण अपने लोगों की सेवा करने के लिए पर्याप्त सक्षम हैं। परन्तु दूसरी ओर सरकारी सेवा आचरण अधिनिय (सिविल सर्विस कण्डक्ट रूल्स) की उन पर लगाये गए प्रतिबन्धों के कारण उनके प्रयास भी सीमित हैं। सरकारी सेवा आचरण अधिनियम के इन प्रतिबन्धों के कारण वे कोई आन्दोलन या नहीं छेड़ सकते क्योंकि उन्हें गिरफ्तार भी होना पड़ सकता है या 48 घण्टे से ज्यादा का कारावास भी हो सकता है। संघर्षात्मक प्रकृति के इस प्रतिबन्ध के बावजूद वे किसी प्रकार की राजनीतिक गतिविधि में भी आसक्त नहीं हो सकते। अतएव हमारे लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि हम बामसेफ की गतिविधियों को सरकारी सेवा आचरण अधिनियमों द्वारा लगाई गई पावन्दियों की चारदीवारी के बहुत ज्यादा अन्दर रखें और इस तरह बामसेफ को स्वभावतः संघर्षात्मक और राजनैतिक गतिविधियों से अवश्य दूर रहना चाहिए।अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति, अन्य पिछड़ा वर्ग एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों को शामिल करके बामसेफ के नामकरण को देखना आप ही व्यंजित करता है कि बामसेफ को दृष्टिकोण और गतिविधियों दोनों में ही धर्म निरपेक्ष रहना आवश्यक है। परन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि बामसेफ के सदस्यों और कार्यकर्ताओं को धर्म में विश्वास एवं आस्था नहीं रखना चाहिए। वास्तव में बामसेफ के सभी सदस्य तथा कार्यकर्ता या तो उनके जन्मजात या उनकी व्यक्तिगत पसन्द के चयन किये हुए, किसी भी धर्म में अपनी आस्था रख सकते हैं। केवल यही नहीं, वे उनके जन्म जात या पसन्द के किसी भी अन्य धार्मिक संगठन के सक्रिय कार्यकर्ता भी हो सकते हैं। परन्तु एक बात निःसन्देह है कि उनका धार्मिक विश्वास या आस्था संगठन के किसी अन्य सदस्य पर थोपा नहीं जाना चाहिए। बामसेफ के सदस्यों के लिये इस प्रकार की धार्मिक स्वतन्त्रता का आशय यह है कि वे ब्राह्मणवाद-विषमता की जड़ के माध्यम से प्रभावित किये जाएं या दूसरों को प्रभावित करने का प्रयास करें। वास्तविक तथ्य यह है कि बामसेफ के सभी सदस्यों और कार्यकर्ताओं का यह प्रयास होना चाहिए कि वे विषमता की जड़ ब्राह्मणवाद को समूल उखाड़ फेंकें।अब हम सबको यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि बामसेफ को हमारे नीतिक कारणों से अधार्मिक एवं वैधिक कारणों से अपपत्मिक और अ जैतिक रखना आवश्यक है।

XIV. बामसेफ अन्तःप्रेरणा

पिछले अध्याय में हमने देखा कि बामसेफ को इसकी प्रकृति और गति विधियों दोनों ही दृष्टियों से संघर्ष और राजनीति से दूर रखना आवश्य है। तब इसका अर्थ यह निकलता है कि सामाजिक प्रगति के लिए इसका बड़े सुन्दर ढंग से प्रयोग किया जा सकता है। बामसेफ की जो प्रेरणा है वह बाबा साहब डा० भीम राव अम्बेडकर के जीवन और मिशन से प्राप्त होता है। परन्तु बाबा साहब डा० भीम राव अम्बेडकर ने कहा है कि सभी प्रकार के सामाजिक प्रगति की कुंजी राजनैतिक शक्ति है। एक सर्व सामान्य जानकारी यह भी है कि किसी भी सफलता को और विशेषकर राजनैतिक सफलता को अर्जित करने के लिए आन्दोलनात्मक प्रकृति का संघर्ष अनिवार्य होता है। अतः दलित शोषित समुदायों के सभी सदस्यों के लिए यह सर्वचा अनिवार्य है कि सामाजिक प्रगति के लिए संघर्षात्मक और राजनैतिक गति विधियों के लिए भी वे अपने आप को तैयार रखें जैसा बाबा साहब ने संकेत किया है। दूसरी तरफ हम इसके प्रति भी सहमत है कि शिक्षित कर्मचारियों के संगठन "बामसेफ" को किसी संपत्मिक एवं राजनैतिक गतिविधियों में भाग लेने या उसमें प्रवेश करने से कानूनन निषिद्ध किया गया है ।

तो आखिर मार्ग कौन सा है? मार्ग बड़ी आसानी पूर्वक इस तथ्य से ढूंढ़ा जा सकता है कि दलित शोषित समुदायों के शिक्षित कर्मचारी उनकी कुल जनसंख्या केवल 1.5% है। अतएव ये शिक्षित कर्मचारी संघर्षात्मक और राजनैतिक गतिविधियों एवं राजनीति में प्रवेश का कार्य उनके समाज के शेष 98.5% लोगों के लिए आसानी से छोड़ सकते हैं। संघर्ष और राजनीति के क्षेत्र में सफलता की देवी दलित शोषित समुदायों के नेताओं को अभी तक संकेत करती रही है। पर इन दलित शोषित समुदाय के नेतागण अपने बल पर संगठित नहीं होंगे और न वो लाभ दे सकेंगे। अतएव वे भिन्न भिन्न राजनैतिक दलों के झण्ड़ों के नीचे हिन्दू उच्च जाति के नेताओं के चमचे बने हुए हैं।

समग्र मामले का गहन विश्लेषण से ज्ञात होता है कि केवल ऐसे समु दायों, जिनकी गैर राजनैतिक जड़ें मजबूत हैं, का ही आन्दोलनात्मक संघर्ष और राजनीति सफल हो सकेगी। दुर्भाग्यवश, दलित, शोषित समुदायों के नेतागण जीवन के इस कटु सत्य से बिल्कुल अनभिज्ञ रहे हैं। यही कारण है कि वे जिस दलित, शोषित समाज के अंग हैं और जिनको वे सही नेतृत्व सकते हैं, उसको गैर राजनैतिक जड़ों को मजबूत करने का कभी कोई प्रय नहीं किया। इसीलिए वे या तो उनकी अनभिज्ञता के कारण या उनके समाज की गैर-राजनैतिक जड़ों को मजबूत करने में कठिन और श्रमसाध्य प्रकृति के उलझनपूर्ण कार्य के कारण उच्च जाति के हिन्दुओं द्वारा संचालित और और व्यवस्थापित भिन्न-भिन्न राजनैतिक पार्टियों में चमचे बन जाने के सरलतम विकल्प का आश्रय ढूंढ लिया।

यहां पर अब हम दलित शोषित समाज के लिए बामसेफ की उपयोगिता पर दृष्टि डालते है। बामसेफ इसके विभिन्न अंगों के माध्यम से अपने ओजस्वी कार्यकर्ताओं द्वारा जिस समाज के वेअकाट्य अंग हैं, उस दलित और शोषित समाज की गैर राजनैतिक जड़ों को मजबूत करने में व्यापक स्तर पर सहायता कर सकती है और एक बार यदि बामसेफ जड़विहीन समाज की जड़ों को लगाने में सफल होती है और फिर समाज की गैर राज नैतिक जड़ों को मजबूत करने में सहायता पहुंचाती है तो उसके बाद राजनैतिक और संघर्षात्मक सफलता उसका स्वाभाविक परिणाम होगा। दलित और शोषित समाज की गैर राजनैतिक जड़ों को लगाने और उसे मजबूत करने में उपलब्ध सफलता सम्पूर्ण दलित और शोषित समाज में उमंग की एक लहर उद्वेलित कर देगी। इस प्रकार बामसेफ से उत्साहित और प्रेरित दलित शोषित समाज का 98.5% भाग सफलतापूर्ण संघर्षात्मक और राजनैतिक उद्देश्यों के लिए अपने आप संगठित हो सकता है।

हमारा यह भाराक्रांत मूल्याकन आज हमें कुछ-कुछ दृष्टिगोचर हो रहा है। बामसेफ की गतिविधियों के विकास के साथ ही यह लगभग हम सभी को अधिकाधिक दृष्टिगोचर होने लगेगा। सच कहा जाए तो संघर्ष की प्रक्रिया बहुत पहले से ही प्रारम्भ की जा चुकी है। दलित, शोषित समाज के लिए सफलतापूर्ण संघर्ष छेड़ने वाला संगठन किसी भी समय प्रकट हो सकता है। वास्तव में बामसेफ की अन्तःप्रेरणा के अन्तर्गत ऐसे संगठन के बहुत अंग बहुत पहले ही विकसित हो चुके हैं।

बामसेफ की अन्तःप्रेरणा से ओत-प्रोत दलित शोषित समाज के कुछ उत्साही व्यक्ति जो सरकारी कर्मचारियों के लिए सरकारी सेवा आचरण शर्तों द्वारा लगाए प्रतिबन्धों से मुक्त हैं, स्वयमेव पहले से ही अपने अन्दर ऐसे संगठन की योजना संजो चुके हैं और यह योजना उनके संघर्ष के लिए पर्याप्त लाभदायक हो सकती है। यहां संगठन के कुछ अंगों और संघर्ष के परिचालन में उननी भूमिका का संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है:-

अभी तक गुमनाम और सामाजिक आन्दोलन के लिए अभिप्रेत 10 अंगों की सूची निम्नलिखित है:

अंग: (1) जागृति (2) बामसेफ सहकारिता (3) प्रेस एवं प्रकाशन (4) संसदीय सम्पर्क शाखा (5) विधिक सहयोग एवं सलाह (6) विद्यार्थी (7) युवक (8) महिलाएं (9) औद्योगिक श्रमिक (10) खेतिहर श्रमिक सामाजिक आन्दोलन के लिए अभिप्रेत संगठन के उक्त 10 अंगों के विषय में कुछ जानकारी नीचे दी गई है।

(1) जागृति जत्था:

अनु० जाति, अनु० जनजाति, अन्य पिछड़े वर्ग के लोग आज प्रचलित ब्राह्मणी व्यवस्था के शिकार हैं। ब्राह्मणी माया के शिकार ये लोग इस कुख्यात सामाजिक व्यवस्था के प्रभाव और बोझ के मारे सदियों से यातनायें भुगतने चले आ रहे हैं। उनकी सदियों पुरानी यातनाओं ने उनमें मानसिक गुलामी भर दिया है। अतएव इस पुरातन मानसिक गुलामी से छुटकारा दिलाना अनिवार्य है बशर्ते कि विद्यमान व्यवस्था के शिकार बने लोगों को सामाजिक कारवाई और सामाजिक परिवर्तन के लिए उद्यत किया जाये। बाबासाहब डॉ भीम राव अम्बेडकर ने क्या ठीक कहा है कि गुलाम से कह दो कि वह गुलाम हैं, वह उठ पड़ेगा और विद्रोह कर देगा।

'बामसेफ जागृति जत्था की परिकल्पना ठीक वही करने के लिए है। जागृति जत्था के प्रचालन से दलित जन-समूहों का मन बहलाते हुए उन्हें शिक्षित और जागत किया जायेगा। इस उद्देश्य के लिए दलित और शोषित जन-समूहों को शिक्षित करने, जागृत करने, प्रबोधित करने तथा सचेत करने के लिए प्रेरणास्रोत सभी उपलब्ध साधनों को अभिलेखित किया जायेगा और उनका भरपूर लाभ उठाया जायेगा।

(2) बामसेफ सहकारिता

अनु० जाति०, अनु जन जाति, अन्य पिछड़े वर्ग के लोग अत्यधिक रूप से बेदखल किये गए लोग हैं। मितव्ययिता की अंतिम सीमा तक निम्नतम जीवन यापन करने वाले भारत की कुल आबादी के 20% लोगों की पूंजी अकेले बिड़ला परिवार की अपेक्षा काफी कम है। अमीर और गरीब के बीच की यह खाई विशेष रूप से अंग्रेजों के जाने के बाद जब से देश का शासन सूत्र ब्राह्मण, बनियों और जमींदारों ने संभाल रखा है, सदैव चौड़ी होती गयी। दुर्भाग्यवश गरीब और अमीर के बीच की यह खाई आज भी बड़ी तेज गति से बढ़ती जा रही है और गरीबों का भविष्य अत्यधिक गर्तमय दिखाई पड़ रहा है। आज की प्रजातांत्रिक व्यवस्था में, जहां अमीरों के नोट से गरीबों का वोट खरीद कर सारा काम चलाया जा रहा है, इस प्रकार की असमानता बहुत ही खतरनाक दिखायी दे रही है।

ऐसी स्थिति में भारत के दलित शोषित समुदायों के लोग अपने शोषण को समाप्त करना चाहते हैं तो उन्हें स्वयं की अर्थ व्यवस्था बनानी पड़ेगी। परन्तु उनकी अपनी अर्थव्यवस्था का निर्माण अपवाद स्वरुप बड़ा जटिल है। इसके बावजूद भी आशा का निर्माण इस तथ्य से होता है कि 85% दलित शोषित भारतीय सबसे बड़ा उपभोक्ता वर्ग है जो वे अर्जित करते हैं सब का सब उपयोग कर जाते हैं, उनके पास नाम मात्र की पूंजी नहीं अतएव वे अपनी अर्थ व्यवस्था का निर्माण बिना पूजी के केवल उनकी खपत के बल पर कर सकते हैं। आमसेफ सहकारिता की परिकल्पना ठीक यही करने के लिए की गई है ।

(3) प्रेस एवं प्रकाशन:

ठीक सभी अन्य शक्ति स्रोतों की तरह समाचार पत्र की शक्ति भी उच्च जाति के हिन्दुओं विशेषकर ब्राह्मण और बनियों के हाथ में है। वे इस प्रेस की शक्ति का प्रयोग पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों को नीचे की ओर धकेलने तथा वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए कर रहे है। पिछले समय में हम प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं कि यह ब्राह्मण बनियाँ का प्रेस दलित भारतीयों के किसी भी प्रकार के स्वतंत्र संघर्ष की खबरों को विलो पित करने के लिए कुख्यात रहा है। इतना ही नहीं, यह संघर्ष जब बड़ा रूप धारण करता है तो यह ब्राह्मण चनियाँ प्रेस हमारे भयादोहन में आनन्द लेता है। अतएव हमारी खबरों को उछाल कर उन्हें व्यापक स्तर पर प्रचारित करने के लिए तथा संवाद विलोपन एवं दुश्मन के प्रेस द्वारा भयादोहन का सामना करने के लिए दलित भारतियों का उन्हें स्वयं को प्रेस एवम् प्रकाशन शक्ति को निर्मित करना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है। और प्रेस एवं प्रकाशन की योजना इसी उद्देश्य से तैयार की गई है। विगत एक वर्ष के दौरान बहुत पहले ही इससे कुछ प्रगति देखने को मिली है और आने वाली शताब्दी तक इस प्रोस एवं प्रकाशन शाखा के पूर्ण परिपक्व हो जाने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।

(4) संसदीय सम्पर्क शाखा:

जब हम भारत की वर्तमान संसदीय प्रणाली में अपनी आस्था रखने का निर्णय करते हैं। तो देश की संसद और हर राज्यों की विधान सभाओं में हमारे अपने सांसद और विधायकों का होना आवश्यक है। परन्तु आज की स्थिति में यह होना कठिन है। अतएव दलित भारतीयों के आन्दोलन को चलाने के लिए हमें वर्तमान विधायकों और संसद सदस्यों से कुछ सम्बन्ध बनाए रखना आवश्यक है। यह एक कठोर सत्य है कि विधायक और सांसद अपनी राजनैतिक पार्टियों के अनुशासन से बंधे हुए हैं, अतः जो भी सहयोग हमें उनसे चाहेंगे यह उन अनुशासन सीमाओं के अन्दर ही होना आवश्यक है। ठीक जिस प्रकार सरकारी सेवा आचरण अधिनियम की सीमाओं के भीतर अपने पूरे कार्य संचालन में शिक्षित कर्मचारियों का सहयोग प्राप्त कर सकते हैं, उसी प्रकार संसद सदस्य और विधायक भी पूर्ण कार्य संचालन में उनके दलीय अनुशासन को बिना भंग किए समाज के दलित, शोषित भाइयों के लिए कुछ लाभ दे सकते हैं। संसदीय सम्पर्क शाखा से ठीक वही करने की उम्मीद की जा सकती है ।

(5) कानूनी सहयोग एवं सलाह:

आज हम देखते हैं कि समाज के गरीव वर्गों के लिए अच्छे नियमों, विनियमों और कानूनों की कोई कमी नहीं है। हमारा संविधान ऐसे अच्छे और सहायक प्रावधानों से भरा पड़ा है। संविधाल को अंगीकार करने के बाद भी बहुत से अच्छे कानून और अधिनियम पास हुए हैं। परन्तु दुर्भाग्य है कि वे केवल कागजों पर दिखाई दे रहे हैं। अच्छे कानूनों, नियमों और उपनियमों के साथ ही संवैधानिक प्रावधानों की प्रचुरता होते हुए भी गरीब वर्ग यथावत यातनायें भुगतते चले आ रहे हैं। इन अच्छे से अच्छे नियमों, उपनियमों के क्रियान्वयन के लिए तथा अच्छे नियमों, उपनियमों, विनियमों के क्रियान्वयन के लिए तथा अच्छे कानूनों और संवैधा निक प्रावधानों को लागू कराने के लिए समाज के दुर्बल वर्गों को कानूनी सहायता उपलब्ध कराना अत्यधिक आवश्यक है। कानूनी सहायता एवं सलाह शाखा से इन्हीं कार्यों के पूरा होने की आशा है।

(6) विद्यार्थी (7) युवक (8) महिलायें

इस सूची में दिये गए अंग अर्थात् विद्यार्थी, युवक और महिला शाखा का अध्ययन स्थान के अभाव में एक साथ किया जा सकता है। शिक्षित कर्मचारियों के परिवार में विद्यार्थी, युवक और महिलायें तीनों ही उपलब्ध होने वाले हैं। शिक्षित कर्मचारी सरकारी सेवा आचरण अधिनियमों के अन्दर बंधे हुए हैं परन्तु परिवार के सम्बन्ध में ऐसा कोई बन्धन नहीं है। अतः यदि "बामसेफ" नाम के शिक्षित कर्मचारियों के संगठन को समाज को प्रेरित करना पड़े तो इसे शिक्षित कर्मचारियों के परिजनों को प्रेरित करना आवश्यक है। इस प्रकार शिक्षित कर्मचारियों के परिवार में विद्यार्थी, युवक एवं महिलायें सरकारी सेवा आचरण अधिनियम की सीमा के परे कार्य करने के लिए पूरे हकदार हैं और वे किसी भी प्रकार का सामाजिक आन्दोलन, एवं संघर्ष आरम्भ करने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र भी हैं। इन तीन अंगों के माध्यम से यह कार्य पूरा होने की आशा की जा सकती है ।

(9) औद्योगिक श्रमिक (10) खेतिहर श्रमिक

ये दो अंग सरकारी सेवा आचरण अधिनियय के बन्धनों से सर्वथा स्वतंत्र हैं। अतः यदि औद्योगिक श्रमिकों और खेतिहर श्रमिकों के दोनों बहुसंख्यक वर्ग बामसेफ की गतिविधियों से प्रेरित किये जाएं तो सामाजिक कार्यों और संघर्ष के लिए अत्यधिक उपयोगी हो सकते हैं। आशा की जाती है कि भविष्य में ये दोनों ही अंग बामसेफ की अन्तः प्रेरणा संगठित हो जायेंगे और उनके समाज के हित संघर्ष में योगदान करेंगे।

XV अपमान और क्षतियों को सहने के लिए तैयार रहें 

पिछला अनुभव बताता है कि जो लोग अपने दलित और शोषित समाज की भलाई और उसकी सेवा करना चाहते हैं उन्हें बहुत प्रकार के अपमान सहने पड़ते हैं क्षतियां उठानी पड़ती है। महात्मा ज्योतिराव फूले एवं बाबा साहब डा० भीमराव अम्बेडकर का अनवरत अपमान और उन्हें पहुंचाई गई क्षतियाँ हम सब को भली भाँति ज्ञात हैं। इनसे हमें यह सबक सीखना आवश्यक है कि जब महात्मा फुले और बाबा साहब डॉ० अम्बेडकर जैसे महापुरुषों को इतने अपमान सहने पड़े और क्षतियाँ उठानी पड़ी तो छोटे लोगों के लिए कौन सी स्थिति देखनी पड़ेगी। इसकी सहज कल्पना की जा सकती है, अन्दाज लगाया जा सकता है। पिछले हाल के वर्षों में हमारे खुद अनुभव से भी इस दिशा में पर्याप्त संकेत प्राप्त होता है।

निःसन्देह यही कारण है कि हमने बाबा साहब डॉ० भीम राव अम्बेडकर के एक प्रबोधन को जो अत्यधिक पसन्द का है सामाजिक कार्यकर्ताओं में कई बार उभारा है। यह प्रबोधन बामसेफ के कैलेण्डरों में हमेशा दिखाई देता है और उन कार्यकर्ताओं के लाभार्थ उसे यहाँ पुन: प्रस्तुत किया जा रहा है जिन्हें अपमान सहने और क्षति उठाने के लिए तैयार रहना आवश्यक है।

“आपको अपने अभीष्ट की पवित्रता में अडिंग विश्वास रखना चाहिए। आप का लक्ष्य उत्तम है और आप का ध्येय (मिशन) सर्वोच्च एवं गौरवशाली है। वे धन्य हैं जो अपने उन समाज बान्धवों के प्रति, जिनके बीच उन्होंने जन्म लिया है, अपने कर्तव्यपालन हेतु पूर्णतः सजग हैं। उनकी महिमा को धन्य है जो अपना समय, अपनी विद्वत्ता एवं अपना सर्वस्त दासता से विमुक्ति के लिए अर्पित करते हैं। गौरवशाली हैं, वे जो दासता में जकड़े हुए लोगों की स्वतंत्रता के लिए महान संकटों, हृदय विदारकअपमानों, कालझंझावातों और जोखिमों के होते हुए भी तब तक अपना संघर्ष जारी रखते हैं जब तक कि पददलित जन अपने मानवीय अधिकारों को प्राप्त नहीं कर लेते।" - बाबा साहब डा० भीम राव अम्बेडकर

अंत में मैं दलित शोषित भारतीयों के दुश्मनों द्वारा संगठन के सम्भावित तोड़-फोड़ और विघटन के प्रति सतर्क करना चाहूंगा कि इस प्रकार की शरारतें कार्यकर्ताओं के बीच घुसपैठ करने या संभवतया उन्हें खरीद कर की जा सकती हैं। मुझे भय है कि बामसेफ की स्थिति आज बड़ी नाजुक दौर पर है। अतएव मैं बामसेफ के उन सभी सदस्यों कार्यकर्ताओं, शुभचिन्तकों और निर्माताओं, जिन्होंने बामसेफ को बनाने में इतने लम्बे समय तक कष्ट उठाया है, को चेतावनी देता हूं कि उन्हें इसकी सुरक्षा और दीर्घ जीवन की व्यवस्था करना आवश्यक है।

-कांशी राम