.

वर्ण व्यवस्था (जात पाँत) को बनाये रखने के आर्यसमाजी तर्क

 

प्रचलित वर्ण-व्यवस्था से क्या-क्या विध्वंस (हानियाँ) हुई हैं, उनका दिग्दर्शन अब यहाँ संक्षेप से कराया जाता है। वैसे अनेक विध्वंस हुवे हैं-परन्तु निम्नलिखित हानियाँ बिलकुल प्रत्यक्ष हैं। जिनके विषय में एक साधारण समझ का सज्जन भी सहमति प्रदान करेगा।

 

(1) प्रचलित वर्ण व्यवस्था (जात पाँत) से मनुष्य समाज में ऊँचनीच के भाव पैदा हो गए हैं। वैदिक वर्ग-व्यवस्था (वर्ण व्यवस्था नहीं) में ब्राह्मण क्षत्रिय आदि में ऊँच-नीच के भेद की कल्पना भी नहीं है। वेदों में तो मनुष्यों के लिए यही आदेश है कि तुम्हारी पानी पीने की जगह (प्रपा) अर्थात् कूप आदि सबके लिए समान रूप से खुले रहें और तुम्हारी भोजन-शाला में सबको समान भाव से भोजन कराया जावे; कोई पंक्ति-भेद या छुआछूत न रक्खी जावे। साथ ही तुम सब मिलकर अर्थात् ब्राह्मण से शूद्र तक सब लोग मिलकर यज्ञशाला में बैठकर हवन किया करो। फिर उपमा भी कितनी सुन्दर-देखो! जैसे गाड़ी के पहिये में आरे अपनी नाभि में समानभाव से जुड़े रहते हैं ठीक उसी प्रकार तुम लोग गाड़ी के चक्र की तरह संसार चक्र में भी अपनी बुद्धि और योग्यतानुसार सब कार्य करते हुवे समानभाव से अपनी शक्ति को केन्द्र में संगठित करके जीवन बिताओ। इस भाव को पूर्ण रूप से प्रकट करने वाला निम्न वेद मन्त्र सबको कंठस्थ कर लेना चाहिए।

समानी प्रपा सहवोऽन्नभागः समाने योक्त्रे सह वोयुनज्मि।  सम्यञ्चोऽग्निं सपर्यत-आरा नामिं इव अमितः॥

 

(2) प्रचलित वर्ण व्यवस्था (जात पाँत) के ही कारण अनेकों नये सम्प्रदाय हिन्दू धर्म में बन गए। हिन्दुओं में जो सुधार या उन्नति करना चाहते हैं वे वर्ण व्यवस्था के बखेड़ों में पड़कर लाचार हो जाते हैं। विधवाविवाह, बालविवाह, वृद्धविवाह, शुद्धि, अछूतोद्धार, आदि सभी में सुधारकों के सामने वर्ण-व्यवस्था की कठिनाई पड़ जाती है। गौतम बुद्ध, कबीर, नानक, स्वामी दयानन्द और राधास्वामी आदि सभी सुधारकों ने वर्ण-व्यवस्था से तंग आकर अपने-अपने सम्प्रदाय खड़े किए। परन्तु वर्ण-व्यवस्था की सत्ता अभी तक बनी ही हुई है।

 

(3) प्रचलित वर्ण व्यवस्था के ही कारण सब लोग उच्च वर्णों में अपनी गणना कराने की भरपूर चेष्टा कर रहे हैं। जैसे कलाल और कायस्थ पहिले शूद्र माने जाते थे परन्तु वर्ण-व्यवस्था से तंग आकर अब क्रमशः वैश्य और क्षत्रिय बन कर अपने को गुप्त और वर्मा उपाधि से विभूषित कर रहे हैं। क्या दफ़्तरों में क्लर्की करना ही वर्मा (क्षत्रियों) का कर्म है? इधर कलाल भाइओं ने भी सन् 1927 में मिर्जापुर की अपनी सभा में अपने को ‘हैहय’ क्षत्रिय घोषित कर दिया, क्योंकि वैश्य बनने से भी कलालों का पीछा प्रचलित वर्ण व्यवस्था ने नहीं छोड़ा। इस मामले में नाइयों ने बड़ी चतुराई से काम लिया। प्रारम्भ से ही इन्होंने न्यायी ब्राह्मण अपने को सिद्ध कर लिया है। इसी प्रकार बढ़ई, लोहार और तम्बोली भी अब ब्राह्मण माने जाने लगे हैं। इस प्रकार प्रतिदिन परस्पर ईर्ष्या और द्वेष हिन्दुओं में बढ़ता जा रहा है। अभी कुछ दिन हुवे सीकर के राजपूतों ने जाटों को इसीलिए मारा-पीटा और सताया; क्योंकि जाटों ने अपने को सच्चा क्षत्रिय सिद्ध करके बता दिया है।

 

(4) प्रचलित वर्ण व्यवस्था के ही कारण हमारा व्यापार नष्ट हो रहा है। कपड़े बुनने वाला, शाक बेचने वालों, सुनार बढ़ई, तेली, तम्बोली, नाई, धोबी, कोरी आदि व्यापारी और शिल्प वर्ग को द्विजों ने मनुस्मृति की आज्ञानुसार वर्ण-व्यवस्था में नीचे पटक दिया। फलतः हमारे हाथ से कला और व्यापार निकल गया और बेकारी चढ़ गई। इधर मुसलमानों ने इन सब कामों को अपना कर अपना संगठन सुदृढ़ कर लिया। उधर वर्ण व्यवस्था के कारण भेद इतना बढ़ने लगा कि एक कुम्हार जो छोटे-छोटे बर्तन बनाता है, वह उस कुम्हार से छोटा माना जाने लगा जो बड़े-बड़े भाण्डे बनाता है। इसी प्रकार वह ग्वाला बड़ा माना जाने लगा जो मशीन से मक्खन निकालता है और दही जमा कर मथानी से मक्खन निकालने वाला छोटा समझा गया। वह मछियारा छोटा हो गया जो जाल से मछली पकड़ता है उसकी अपेक्षा जो बाँस के सहारे मछली पकड़े। इस प्रकार प्रचलित वर्ण व्यवस्था के कारण संगठन बिलकुल क्षीण हो रहा है।

 

(5) प्रचलित वर्ण व्यवस्था के ही कारण प्रत्येक जाति वाला अपनी अलग सभा बनाए हैं। यादव क्षत्रिय सभा, पाल-क्षत्रिय सभा, हैहय क्षत्रिय सभा, कान्यकुब्ज ब्राह्मण सभा, गौड़ ब्राह्मण सभा-इत्यादि पृथक् 2 संगठनों के कारण विशाल आर्य जाति का कमनीय कलेवर कलुषित हो रहा है। यदि यह वर्ण-व्यवस्था न होती तो आज एक महान् आर्य जाति ही इस आर्यावर्त में अपना आर्य-राज्य स्थापित करती

 

(6) प्रचलित वर्ण व्यवस्था के ही कारण म्युनिसिपैलिटी (मनुष्य-पालयित्री) डिस्ट्रिक्ट बोर्ड, कौन्सिल, असेम्बली और आर्यसमाज के चुनावों में ख़ूब चहल पहल होती है। पहिले तो दौर्भाग्य से इस देश में हिन्दू और मुसलमान दो बड़े भारी फ़िर्के हैं। फिर ब्राह्मण ब्राह्मण को, कायस्थ कायस्थ को, कलाल कलाल को, और अछूत अछूत को वोट देता है। भला बताइए ऐसी दशा में अछूतपन कैसे मिट सकता है? यदि ब्राह्मण अपना ब्राह्मणत्व नहीं छोड़ना चाहता है, कायस्थ अपना कायस्थपन तो बेचारे अछूतों का अछूतपन कैसे छूटे और वे क्यों कर छोड़ें!!! वे भी अपनी स्थिति सुदृढ़ करेंगे। चाहे हिन्दू रह कर और चाहे सिक्ख वा बुद्ध बनकर। अछूतपन तो तभी दूर होगा जब ब्राह्मण का ब्राह्मणपना पवित्र स्वदेश यज्ञाग्नि में अर्पित कर दिया जावे और कायस्थ का कायस्थपन, नहीं तो ये मनचले स्वार्थी द्विजों के चोचले चलते ही रहेंगे।

 

(7) प्रचलित वर्ण व्यवस्था के ही कारण स्वामी अछूतानन्द आदि चमारों को आदि-हिन्दू बनाने का भरसक प्रयत्न करते रहे। और अब भी (आदि हिन्दू सभा) जड़ पकड़ रही है, क्योंकि हिन्दुओं का वर्ण व्यवस्था रूपी अजगर इन बेचारे चमारों के लिए तो बड़ा ख़तरनाक है। इसी प्रकार बंगाल में नव शूद्र, पंजाब में मेघ और युक्तप्रान्त में नवमुस्लिम अछूत समझे जाते हैं। सबसे अधिक विकट दशा मद्रास की है। वहाँ तो वर्ण व्यवस्था का नग्न-रूप सब हिन्दुओं को नष्ट करने के लिए नाच रहा है।

 

(8) प्रचलित वर्ण व्यवस्था के ही कारण ब्राह्मणों की शोचनीय अवस्था हो रही है। कहाँ ये लोग विद्या के ठेकेदार बन बैठै थे और कहाँ आज पीर बबर्ची भिश्ती खर बने हुवे हैं। इन लोगों ने विद्या और सदाचार को तो धता बता दी है। क्योंकि जब बिना विद्या पढ़े ही मोटी चोटी और मैले जनेऊ के जोर पर ये लोग सब के गुरु बन सकते हैं तो फिर पुस्तकों के पन्ने पलटने की इनको जरूरत क्यों रह जावे!!! परिणाम यह हुवा कि 100 में 90 ब्राह्मण कहलाने वाले देवता निरक्षर भट्टाचार्य और फोकट-शर्मा हैं। स्टेशनों पर पानी पाण्डे पुकारे जाते हैं। दफ़्तरों में चौकीदारी करते हैं। और बाजारों में कुलीगीरी करते हैं। तिस पर तुर्रा यह कि माथे का तिलक बढ़ता ही जाता है और चुटिया चौड़ी ही होती जाती हैं। है कोई माई का लाल जो इन्हें शूद्र बना दे। इन्होंने तो ब्राह्मण पानी, ब्राह्मण चाय और ब्राह्मण सिगरेट भी बना डाला। अब क्या होगा?

 

(9) प्रचलित वर्ण व्यवस्था के ही कारण इस देश से संस्कृत विद्या सात समुद्र पार चली गई। ब्राह्मणों ने तो प्रमादवश स्वयं संस्कृत पढ़ी नहीं और दूसरों को भी पढ़ने से रोक दिया। मनमानी स्मृतियाँ बना कर लोगों को संस्कृत विद्या से शून्य कर दिया। स्त्री और शूद्रों को तो इन लोगों ने मनुष्य ही नहीं समझा। ‘स्त्री शूद्रौनाधीयाताम्’ को तो वेद वाक्य ही बना दिया था। वेचारा शम्बूक नामक शूद्र कहीं पढ़ गया और ईश्वर भक्ति करते-करते समाधिस्थ हो गया, तो ब्राह्मणों ने षडयन्त्र करके मर्यादापुरुषोत्तम राम जैसे आदर्श राजा के हाथों उसका सिर कटवा दिया। अब रामराज्य को भी लेकर हम क्या करें!!! उत्तररामचरित में श्लोक आया है-

 

शम्बूको नाम वृषलः पृथिव्यां तप्यते तपः।     शीर्षच्छेदयः स ते राम! तं हत्वा जींवय द्विजम्॥

 

इसी प्रकार शंकराचार्य जैसे अद्वितीय विद्वान् ने भी स्मृतियों का गुलाम बन कर लिख मारा कि-

 

अथास्य वेद मुपशृण्वतः त्रपुजतुभ्यांश्रोत्र प्रतिपूरणं,     उच्चारणे जिह्वाच्छेदः, धारणे शरीरभेदः।

 

अर्थात् यदि शूद्र वेद मंत्रों को सुने तो उसके कानों में सीसा पिघला कर डाल दे। पढ़े तो जीभ काट ले, और यदि वैदिक आज्ञाओं के अनुसार अपना जीवन बितावे तो फाँसी लगा दे। क्या संसार के इतिहास में कहीं ऐसे अन्धेरगर्दी क़ानून का नमूना है? यह हैं वर्ण-व्यवस्था से विध्वंस। यदि अब भी किसी भी समझ में न आवे तो हमारे पास उसका इलाज नहीं है।

हम तो सदैव यही कहेंगे कि-

 

तिनका कबहूँ न निन्दिये जो पावन तर होय।    कबहूँ उड़ि आंखिन परै, पीर घनेरी होय॥