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बहुजन-मुस्लिम भाईचारा: उत्पीड़न से मुक्ति का उचित रास्ता- के.सी. पिप्पल

हजारों सालों से जातिवाद का दंश झेल रही शूद्र या बहुजन (एससी, एसटी, ओबीसी एवं धार्मिक अल्पसंख्यक) जातियों के सामने आज भी सम्मान प्राप्त करने की समस्या बनी हुई है। महात्मा फुले, संत कबीर, संत रैदास, चोखामेला, गुरुचंद, हरिचंद ठाकुर, संत गाडगे महाराज, नारायणा गुरू, पेरियार रामास्वामी नायकर, अय्यन काली, स्वामी अछूतानंद, बिरसा मुंडा, गुरू घासीदास, छत्रपति शाहू जी महाराज, सेठ पूरन चंद, बाबा साहब आंबेडकर, दीनबंधु छोटू राम एवं मान्यवर कांशी राम इत्यादि संतों, गुरुओं और महापुरुषों ने समय समय पर शूद्र, बंचित, आदिवासी और अछूत जातियों के उत्थान हेतु आत्मसम्मान को बहाल करने का आंदोलन चलाया। उनके आंदोलन से इन जातियों के सम्मान में निरंतर सुधार हुआ है। अंग्रेजों के समय में बाबा साहब का आंदोलन सबसे बड़ा और कारगर साबित हुआ है। उनके संघर्ष के परिणाम स्वरूप तो वंचित जातियों के साथ औरतों को भी सम्मान पूर्वक जीवन यापन करने के संवैधानिक अधिकार तक मिल गए।

गांधी का दर्शन भारत के पारंपरिक ग्रामीण जीवन के प्रति अधिक सकारात्मक, लेकिन रूमानी था और उनका दृष्टिकोण अस्पृश्यों के प्रति भावनात्मक तथा दिखावटी था। उन्होने उन्हें हरिजन कह कर पुकारा परंतु अम्बेडकर ने इस विशेषण को सिरे से ख़ारिज कर दिया। उन्होंने अपने अनुयायियों को गांव छोड़ कर शहर जाकर बसने और शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। बाबासाहेब का दर्शन भारत के हर शोषित गरीब एवं दलित व्यक्ति ने स्वीकार करके उनके बाताए हुए रास्ते पर चलकर ही सफलता की सीढ़ियां चढ़ी हैं।

ब्राह्मण प्रभुत्व से मुक्ति हेतु बौद्ध धर्म में परिवर्तन

अम्बेडकर ने कहा की उस हिन्दु तीर्थ मे जहाँ उनको अछूत माना जाता है, वहां जाने का कोई औचित्य नहीं है इसके बजाय उन्होने उनके लिये एक नया पंढरपुर बनाने की बात कही। भले ही अस्पृश्यता के खिलाफ उनकी लडा़ई को भारत भर से समर्थन हासिल हो रहा था पर उन्होने अपना रवैया और अपने विचारों को रूढ़िवादी हिंदुओं के प्रति और कठोर कर लिया। उनकी रूढ़िवादी हिंदुओं की आलोचना का उत्तर बडी़ संख्या मे हिंदू कार्यकर्ताओं द्वारा की गयी उनकी आलोचना से मिला। 13 अक्टूबर को नासिक के निकट येओला में एक सम्मेलन में बोलते हुए अम्बेडकर ने धर्म परिवर्तन करने की अपनी इच्छा प्रकट की। उन्होने अपने अनुयायियों से भी हिंदू धर्म छोड़ कोई और धर्म अपनाने का आह्वान किया। उन्होने अपनी इस बात को भारत भर में कई सार्वजनिक सभाओं मे दोहराया भी।

सन् 1950 के दशक में अम्बेडकर बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित हुए और बौद्ध भिक्षुओं व विद्वानों के एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए श्रीलंका (तब सीलोन) गये। पुणे के पास एक नया बौद्ध विहार को समर्पित करते हुए, अम्बेडकर ने घोषणा की कि वे बौद्ध धर्म पर एक पुस्तक लिख रहे हैं, और जैसे ही यह समाप्त होगी वो औपचारिक रूप से बौद्ध धर्म अपना लेंगे। 1954 में अम्बेडकर ने म्यांमार(वर्मा) का दो बार दौरा किया; दूसरी बार वो रंगून मे तीसरे विश्व बौद्ध फैलोशिप के सम्मेलन में भाग लेने के लिए गये।1955 में उन्होने भारतीय बुद्ध महासभा या बौद्धिष्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया की स्थापना की। उन्होंने अपने अंतिम लेख, "द बुद्ध एंड हिज़ धम्म" को 1956 में पूरा किया। यह उनकी मृत्यु के पश्चात प्रकाशित हुआ। 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में अम्बेडकर ने खुद और उनके समर्थकों के लिए एक औपचारिक सार्वजनिक समारोह का आयोजन किया। अम्बेडकर ने श्रीलंका के एक महान बौद्ध भिक्षु महत्थवीर चंद्रमणी से पारंपरिक तरीके से त्रिरत्न ग्रहण और पंचशील को अपनाते हुये बौद्ध धर्म ग्रहण किया। इसके बाद उन्होने एक अनुमान के अनुसार पहले दिन लगभग 500000 समर्थको को बौद्ध धर्म मे परिवर्तित किया। नवयान लेकर अम्बेडकर और उनके समर्थकों ने हिंदू धर्म और हिंदू दर्शन की स्पष्ट निंदा की और उसे त्याग दिया। उन्होंने दुसरे दिन 200000 लोगों को और तीसरे दिन चंद्रपुर में 300000 समर्थकों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी। इसके बाद वे नेपाल में चौथे विश्व बौद्ध सम्मेलन मे भाग लेने के लिए काठमांडू गये। उन्होंने अपनी अंतिम पांडुलिपि "बुद्ध या कार्ल मार्क्स" को 2 दिसंबर 1956 को पूरा किया।

डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर ने दीक्षाभूमि, नागपुर, भारत में ऐतिहासिक बौद्ध धर्मं में परिवर्तन के अवसर पर, 14 अक्टूबर 1956 को अपने अनुयायियों के लिए 22 प्रतिज्ञाएँ निर्धारित कीं जो बौद्ध धर्म का एक सार या दर्शन है। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा 1000000 लोगों का बौद्ध धर्म में रूपांतरण ऐतिहासिक था क्योंकि यह विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक रूपांतरण था। उन्होंने इन शपथों को निर्धारित किया ताकि हिंदू धर्म के बंधनों को पूरी तरह पृथक किया जा सके। बाबासाहेब की ये 22 प्रतिज्ञाएँ हिंदू मान्यताओं और पद्धतियों की जड़ों पर गहरा आघात करती हैं। ये एक सेतु के रूप में बौद्ध धर्मं की हिन्दू धर्म में व्याप्त भ्रम और विरोधाभासों से रक्षा करने में सहायक हो सकती हैं। इन प्रतिज्ञाओं से हिन्दू धर्म, जिसमें केवल हिंदुओं की ऊंची जातियों के संवर्धन के लिए मार्ग प्रशस्त किया गया, में व्याप्त अंधविश्वासों, व्यर्थ और अर्थहीन रस्मों, से धर्मान्तरित होते समय स्वतंत्र रहा जा सकता है। ये प्रतिज्ञाऐं बौद्ध धर्म का एक अंग हैं जिसमें पंचशील, मध्यममार्ग, अनीश्वरवाद, दस पारमिता, बुद्ध-धम्म-संघ ये त्रिरत्न, प्रज्ञा-शील-करूणा-समता आदि बौद्ध तत्व, मानवी मूल्य (मानवता) एवं विज्ञानवाद है।

विभिन्न धार्मिक पद्धतियों में भिन्नताएं

ईश्वर के रूप के बारे में सभी धर्मों के विचार एक जैसे नहीं है। कुछ धर्मों के अनुसार ईश्वर का अस्तित्व है। कुछ धर्मों के अनुसार विश्वास नहीं है कि ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं है। यह दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकती हैं। इसी तरह एक धार्मिक मान्यता यह है कि ईश्वर निर्गुण है, और दूसरी यह है कि ईश्वर सगुण है। इस तरह की परस्पर विरोधी मान्यताओं के बीच तार्किक संगति का आभाव है। संभव है कि किसी एक धर्म के दायरे में इन परस्पर विरोधी मान्यताओं का सह अस्तित्व हो। लेकिन इसे किसी भी दृष्टि से तार्किक समन्वय नहीं कहा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर हिंदू धर्म में वेद को, ईसाई धर्म में बाइबिल और इस्लाम में कुरान को प्रमाणिक और अंतिम सत्य माना जाता है। सिख धर्म में गुरु ग्रंथ साहब को सर्वोच्च स्थान देते हुए उसकी पूजा की जाती है। इसी तरह जैन और बौद्ध अपने-अपने धार्मिक समालखा और त्रिपिटक को सर्वोच्च महत्व देते हैं, हालांकि इनको ईश्वरीकृत नहीं मानते हैं।

हिंदू धर्म में वेदों की प्रमाणिकता के अतिरिक्त वर्ण व्यवस्था को केंद्रीय महत्व दिया गया है। जबकि, जैन और बौद्ध धर्म में वर्ण व्यवस्था को अस्वीकार किया जाता है। इसी तरह ईसाई धर्म में मोहम्मद साहब को रसूल के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है। जबकि, इस्लाम में जीसस को पैगंबर माना जाता है, लेकिन उन्हें ईश्वर पुत्र के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है, और ना ही इस मान्यता को स्वीकार किया जाता है कि उन्हें सूली पर चढ़ाया गया था। धर्मों की बुनियादी मान्यताएं और अलग अलग धर्मों के रूप में इनका अस्तित्व ही इन मान्यताओं पर आधारित है। वर्ण व्यवस्था में विश्वास हिंदू धर्म के लिए उतना ही बुनियादी है जितना इसाई धर्म के लिए जीसस और बाइबिल में या इस्लाम के दिए मोहम्मद और क़ुरान में। अल्लाह को छोड़कर कोई दूसरा ऐसा नहीं है और मोहम्मद उसके पैगंबर रसूल हैं। इस मान्यता को इस्लाम में इतना अधिक महत्व दिया जाता है कि नए जन्मे पुरुष शिशु के कान में सबसे पहले यही बात कही जाती है। इसके अलावा कलिमा पढ़ने को हर मुसलमान का धार्मिक कर्तव्य माना जाता है।

ईसाई धर्म में सेंट पॉल ने बार-बार कहा है कि ईशा मसीह और उसकी क्रुसीय मौत में उद्धार के मार्ग के रूप में विश्वास करने पर ही पापों का नाश हो सकता है, और मुक्ति मिल सकती है। ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास तो सभी धर्मों में नहीं पाया जाता है, लेकिन मृत्यु के बाद जीवन में विश्वास हर धर्म में किसी न किसी रूप में पाया जाता है, मगर मृत्यु के बाद के जीवन के स्वरुप और मानव की अंतिम नियति के बारे में अलग अलग धर्मों में अलग अलग विचार पाए जाते हैं। ईसाई और इस्लाम धर्म के पैगंबरी धर्मों में पुनर्जन्म में विश्वास नहीं पाया जाता है। इनमें कर्मों के अनुसार क़यामत के दिन सभी मृत व्यक्ति फिर से जीवित होंगे और उन्हें उनके कर्मों के आधार पर स्वर्ग या नरक भेज दिया जाएगा। ईसाई धर्म के अनुसार जो जीसस और उनकी क्रुसीय मौत में विश्वास रखते हैं, उन्हें स्वर्ग में भेजा जाएगा और बाकी नरक की अग्नि में जलते रहेंगे। दूसरी ओर इस्लाम के अनुसार जो मोहम्मद में विश्वास रखते हैं उन्हें जन्नत (स्वर्ग) भेजा जाएगा।

जैन, हिंदू, बौद्ध और सिख धर्म जैसे भारतीय मूल के धर्मों में कयामत के दिन की अवधारणा नहीं पाई जाती है। इन धर्मों में पुनर्जन्म जीवन मरण के चक्र और उस से मुक्ति के विचार को मोटे तौर पर स्वीकार किया जाता है। हिंदू धर्म में जाति बंधन के कारण मुक्ति के उपाय और मुक्ति के बाद की स्थिति के बारे में धर्मों के विचार अलग अलग है। बौद्ध धर्म आदि अनित्यवादी है, इसमें निर्वाण की व्याख्या ईश्वर और आत्मा की सहायता के बिना की गई है। निर्वाण की व्याख्या को लेकर थेरवाद (हीनयान) और महायान के बीच कुछ अंतर भी हैं। मोटे तौर पर निर्वाण की एक इच्छा भी इंसान की एक स्थिति है। दूसरी ओर जैन धर्म भी निरीश्वरवादी है लेकिन इसमें आत्मा में विश्वास पाया जाता है। जैन धर्म के अनुसार मोक्ष की स्थिति में आत्मा फिर से अपने प्रारंभिक पूर्ण स्थिति को प्राप्त कर लेती है।

हिंदू धर्म में शंकर और रामानुज द्वारा मुक्ति के मार्ग की अलग-अलग व्याख्या की गई है। शंकर के अनुसार मुक्ति की स्थिति में आत्मा और ब्रह्म एकाकार हो जाते हैं। जबकि रामानुज के अनुसार मुक्ति के बाद जीव स्वर्ग में जाता है। ईश्वर (विष्णु) के सानिध्य में रहकर अध्यात्मिक प्रगति की ओर बढ़ता रहता है, अंत में जीव में विश्व की सृष्टि की क्षमता के अतिरिक्त विश्व के सभी गुण आ जाते हैं। सांख्य दर्शन में मुक्ति की ईश्वर वादी व्याख्या की गई है।

सिख धर्म में मनुष्य की अंतिम गति के बारे में शंकर और रामानुज दोनों जैसे विचार ईश्वर के स्वरुप के बारे में सभी धर्मों की राय एक जैसी नहीं है। उसी तरह मृत्यु के बाद जीवन और मनुष्य की अंतिम गति के बारे में भी सभी धर्मों के विचार एक जैसे नहीं है। मोटे तौर पर इस बारे में एक ओर ईसाई और इस्लाम धर्म के पैगंबर धर्मों की मान्यता अलग है और दूसरी ओर बौद्ध धर्म के अनुसार आत्मा का अस्तित्व नहीं है। वहीं हिंदू और जैन धर्म के अनुसार आत्मा का अस्तित्व है।

नैतिक मुद्दों पर धर्मों के बीच आपसी मतभेद के कई और भी उदाहरण भी दिए जा सकते हैं। जैन, बौद्ध, हिंदू और ईसाई धर्म में ब्रह्मचर्य और सन्यास को स्थान दिया गया है। उसकी मात्रा (डिग्री) का अंतर सभी धर्मो के सन्यासियों का भिन्न है। लेकिन दूसरी ओर इस्लाम में ब्रम्हचर्य सन्यास को प्रश्रय नहीं दिया गया है। सिख धर्म में भी सन्यास का समर्थन नहीं किया गया है। सच में यह कहा जा सकता है कि नैतिकता के आधार पर भी सभी धर्मों में समन्वय या एकता की स्थापना संभव नहीं है। विभिन्न धर्मों का दार्शनिक दृष्टि से तुलनात्मक अध्ययन करने पर यह तथ्य सामने आता है कि 1. सभी धर्म एक नहीं २. सभी धर्मों को एक साथ सत्य नहीं माना जाता जा सकता है। क्योंकि इनकी बुनियादी मान्यताओं में परस्पर विरोधाभास है। 3. सभी धर्म को एक ही मंजिल तक पहुंचने के अलग-अलग रास्ते के रूप में भी स्वीकार नहीं किया सकता है। क्योंकि सभी धर्मों की मंजिल एक नहीं है।

धर्म परिवर्तन के मायने

जब कोई व्यक्ति किसी एक धर्म को छोड़कर किसी दूसरे धर्म को अपना लेता है तो उसे धर्म परिवर्तन (रिलीजियस कनवर्जन) कहते हैं। भारत के इतिहास में धर्म परिवर्तन के अनेक उदाहरण मिलते हैं। प्राचीन काल में जैन और बौद्ध धर्म की स्थापना के बाद कई वैदिक धर्म को मानने वाले लोगों ने इस्लाम धर्म को क़ुबूल कर लिया। इसी तरह ईसाई मिशनरियों के लोगों ने विशेषकर आदिवासी जनजातियों ने ईसाई धर्म अपना लिया। धर्मपरिवर्तन के सम्बन्ध में नवीनतम और व्यापक उदाहरण है कि डॉ. बी.आर. अंबेडकर की प्रेरणा से कई दलित जातियों के लोगों ने बौद्ध धर्म को अपना लिया। धर्म परिवर्तन के कई अलग-अलग कारण हो सकते हैं। पहला और प्रमुख कारण आंतरिक परिवर्तन है, जब कोई व्यक्ति यह महसूस करने लगता है कि कोई दूसरा धर्म उसके जन्म के धर्म से बेहतर है और वह उस धर्म को अपनाना चाहता है तो वह धर्म को अपना लेता है। इसके अलावा धर्म परिवर्तन के सामाजिक व राजनीतिक कारण भी हो सकते हैं जिनका सम्बन्ध पहले कारण से भी हो सकता है, क्योंकि धर्मों को उसके सामाजिक राजनीतिक पक्ष से अलग करके नहीं देखा जा सकता। इसी तरह हिंसा या किसी अन्य दबाव के द्वारा जबरदस्ती धर्म परिवर्तन भी करवाया जा सकता है।

लेकिन कोई व्यक्ति जो स्वेच्छा से आत्मपरिवर्तन करके धर्म परिवर्तन करेगा वह व्यवहारिक होगा। उदाहरण के लिए हिंदू धर्म में वर्ण व्यवस्था को प्रमुख स्थान दिया गया है। जिसके अंतर्गत समाज में शूद्रों की स्थिति ब्राह्मणों के गुलाम जैसी है। जबकि, तथाकथित कुछ जातियों को आज तक भाई नहीं माना गया है। दूसरी और बौद्ध और जैन धर्म में वर्ण व्यवस्था को पूरी तरह अस्वीकार किया गया है। ब्राहमणेतर जातियों द्वारा बौद्ध धर्म को अपनाने का एक महत्व पूर्ण कारण हिन्दू धर्म में ब्राह्मणों का अधिपत्य हो सकता है। डा. आंबेडकर ने हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म को अपनाने के जो कारण बतलाइए हैं उनमें उन्होंने वर्ण व्यवस्था को प्रमुख स्थान दिया है। डॉक्टर अंबेडकर के अनुसार वर्णव्यवस्था के कारण हिंदू धर्म के दायरे में छुआछूत को मिटा पाना संभव नहीं है। ब्राह्मणों के अधिपत्य से छुटकारा पाने के लिए अपने सम्मान की सुरक्षा के लिए असंख्य लोगों ने धर्म परिवर्तन किया था। भारत में खासकर हिंदुओं के बीच एक प्रचार किया गया है, कि भारत में इस्लाम का प्रसार तलवार के जोर पर हुआ है। संभव है कुछ हिंदुओं के मुसलमान बनने के पीछे आत्मसम्मान प्राप्त करना धर्मपरिवर्तन का कारण रहा हो।

आज भारत के संविधान में नागरिकों को किसी भी धर्म को मानने और ना मानने की स्वतंत्रता मिली हुई है। किसी नागरिक को एक धर्म छोड़कर, दूसरा धर्म अपनाने से या अपने जन्म के धर्म का त्याग कर, धर्मनिरपेक्ष मानवतावाद के दर्शन को अपनाने से कैसे रोका जा सकता है ? अगर किसी व्यक्ति को बलपूर्वक धर्म बदलने के लिए बाध्य किया जाए तो यह जरूर अवैध और अनुचित है। लेकिन स्वेच्छा से धर्म परिवर्तन या धर्मत्याग करना हर नागरिक का मौलिक अधिकार है। अगर कोई राज्य धर्मनिरपेक्ष हो मगर लोकतांत्रिक ना हो तो भी वहां पर धर्म परिवर्तन पर रोक क्यों लगाया जाए? बल्कि ऐसे देश में तो सभी धर्मों पर रोक लगा दी जाएगी जैसाकि1990 में अल्बानिया में किया गया था। लोकतांत्रिक दृष्टि से इसेभी उचित नहीं माना जा सकता है । निरीश्वरवाद का समर्थन करने वाले मानवतावादी लोग भी इस किस्म के अलोकतांत्रिक प्रतिबंध का समर्थन नहीं करते हैं।

राजनीतिक मुक्ति का सही रास्ता

राजनीतिक ताकत ऐसी चाबी है, जिससे सभी ताले खुल सकते हैं- डा. अम्बेडकर 1936 में, अम्बेडकर ने “स्वतंत्र लेबर पार्टी” की स्थापना की, जो 1937 में केन्द्रीय विधान सभा चुनावों मे 15 सीटें जीती। उन्होंने अपनी पुस्तक "जाति के विनाश" को भी इसी वर्ष प्रकाशित किया जो उनके न्यूयॉर्क मे लिखे एक शोधपत्र पर आधारित थी। इस सफल और लोकप्रिय पुस्तक में अम्बेडकर ने हिंदू धार्मिक नेताओं और जाति व्यवस्था की जोरदार आलोचना की। उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के लोगों को गाँधी द्वारा रचित शब्द हरिजन पुकारने के कांग्रेस के फैसले की कडी़ निंदा की। अम्बेडकर रक्षा सलाहकार समिति और वाइसराय की कार्यकारी परिषद में श्रम मंत्री के रूप में सेवारत रहे।

1941 और 1945 के बीच में उन्होंने बड़ी संख्या में अत्यधिक विवादास्पद पुस्तकें और पर्चे प्रकाशित किये जिनमे ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’भी शामिल है, जिसमें उन्होने मुस्लिम लीग की मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान की मांग की आलोचना की। "वॉट काँग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स" (काँग्रेस और गान्धी ने अछूतों के लिये क्या किया) के साथ, अम्बेडकर ने गांधी और कांग्रेस दोनों पर अपने हमलों को तीखा कर दिया। उन्होने उन पर ढोंग करने का आरोप लगाया। उन्होने अपनी पुस्तक ‘हू वर द शुद्राज़?’( शुद्र कौन थे?) के द्वारा हिंदू जाति व्यवस्था के पदानुक्रम में सबसे नीची जाति यानी शुद्रों के अस्तित्व में आने की व्याख्या की। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि किस तरह से अछूत, शुद्रों से अलग हैं।

अम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक पार्टी को "अखिल भारतीय अनुसूचित जाति फेडरेशन" में बदलते देखा, हालांकि 1946 में आयोजित भारत के संविधान सभा के लिए हुये चुनाव में इसने खराब प्रदर्शन किया। 1948 में ‘हू वर द शुद्राज़?’ की उत्तरकथा ‘द अनटचेबलस: ए थीसिस ऑन द ओरिजन ऑफ अनटचेबिलिटी’ (अस्पृश्य: अस्पृश्यता के मूल पर एक शोध) में अम्बेडकर ने हिंदू धर्म को लताड़ा। हिंदू सभ्यता जो मानवता को दास बनाने और उसका दमन करने की एक क्रूर युक्ति है और इसका उचित नाम बदनामी होगा। एक सभ्यता के बारे में और क्या कहा जा सकता है, जिसने लोगों के एक बहुत बड़े वर्ग को विकसित किया, जिसे एक मानव से हीन समझा गया, और जिसका स्पर्श मात्र प्रदूषण फैलाने का पर्याप्त कारण बताया गया?

इस्लाम में व्याप्त जातिवाद

अम्बेडकर इस्लाम और दक्षिण एशिया में उसकी रीतियों के भी बड़े आलोचक थे। उन्होने भारत विभाजन का तो पक्ष लिया पर मुस्लिमों में व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की घोर निंदा की। उन्होंने कहा, बहुविवाह और रखैल रखने के दुष्परिणाम शब्दों में व्यक्त नहीं किये जा सकते, जो विशेष रूप से एक मुस्लिम महिला के दुःख के स्रोत हैं। जाति व्यवस्था को ही लें, हर कोई कहता है कि इस्लाम गुलामी और जाति से मुक्त होना चाहिए, जबकि गुलामी अस्तित्व में है, इसे इस्लाम और इस्लामी देशों से समर्थन मिला है। इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है जो इस अभिशाप के उन्मूलन का समर्थन करता हो। अगर गुलामी खत्म भी हो जाये पर फिर भी मुसलमानों के बीच जाति व्यवस्था रह जायेगी।

उन्होंने लिखा कि मुस्लिम समाज में तो हिंदू समाज से भी कही अधिक सामाजिक बुराइयां हैं और मुसलमान उन्हें "भाईचारे" जैसे नरम शब्दों के प्रयोग से छुपाते हैं। उन्होंने मुसलमानों द्वारा अर्ज़ल वर्गों के खिलाफ भेदभाव जिन्हें "निचले दर्जे का" माना जाता है, उसके साथ ही मुस्लिम समाज में महिलाओं के उत्पीड़न की दमनकारी पर्दा प्रथा की भी आलोचना की थी। उन्होंने कहा हालाँकि पर्दा हिंदुओं मे भी होता है पर उसे धर्मिक मान्यता केवल मुसलमानों ने दी है। उन्होंने इस्लाम में कट्टरता की आलोचना की जिसके कारण इस्लाम की नीतियों का अक्षरक्ष अनुपालन की बाध्यता के कारण समाज बहुत कट्टर हो गया है, और उसको बदलना बहुत मुश्किल हो गया है। उन्होंने आगे लिखा कि भारतीय मुसलमान अपने समाज का सुधार करने में विफल रहे हैं, जबकि इसके विपरीत तुर्की जैसे देशों ने अपने आपको बहुत बदल लिया है। "सांप्रदायिकता" से पीड़ित हिंदुओं और मुसलमानों दोनों समूहों ने सामाजिक न्याय की माँग की उपेक्षा की है।

हालांकि वे मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग की विभाजनकारी सांप्रदायिक रणनीति के घोर आलोचक थे पर उन्होने तर्क दिया कि हिंदुओं और मुसलमानों को पृथक कर देना चाहिए और पाकिस्तान का गठन हो जाना चाहिये क्योकि एक ही देश का नेतृत्व करने के लिए, जातीय राष्ट्रवाद के चलते देश के भीतर और अधिक हिंसा पनपेगी। उन्होंने हिंदू और मुसलमानों के सांप्रदायिक विभाजन के बारे में अपने विचार के पक्ष मे ऑटोमोन साम्राज्य और चेकोस्लोवाकिया के विघटन जैसी ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख किया।

क्या पाकिस्तान की स्थापना के लिये पर्याप्त कारण मौजूद थे? इस सम्बन्ध में उनका कहना था, कि हिंदू और मुसलमानों के बीच के मतभेद एक नरम कदम से भी मिट सकते थे। उन्होंने लिखा है कि पाकिस्तान को अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करना चाहिये। कनाडा जैसे देशों मे भी सांप्रदायिक मुद्दे हमेशा से रहे हैं पर आज भी अंग्रेज और फ्रांसीसी एक साथ रहते हैं, तो क्या हिंदु और मुसलमान भी साथ नहीं रह सकते? उन्होंने चेताया कि दो देश बनाने के समाधान का वास्तविक क्रियान्वयन अत्यंत कठिनाई भरा होगा। विशाल जनसंख्या के स्थानान्तरण के साथ सीमा विवाद की समस्या भी रहेगी। भारत की स्वतंत्रता के बाद होने वाली हिंसा को ध्यान में रख कर यह भविष्यवाणी कितनी सही थी, इसके बारे में भुक्त भोगी ही सही बता सकते हैं।

दूसरा गोलमेज सम्मेलन- पूना संधि

अब तक डॉ अम्बेडकर आज तक की सबसे बडी़ अछूत राजनीतिक हस्ती बन चुके थे। उन्होंने मुख्यधारा के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों की जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति उनकी कथित उदासीनता की कटु आलोचना की। अम्बेडकर ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके नेता मोहनदास गांधी की आलोचना की, उन्होने उन पर अस्पृश्य समुदाय को एक करुणा की वस्तु के रूप मे प्रस्तुत करने का आरोप लगाया। अम्बेडकर ब्रिटिश शासन की विफलताओं से भी असंतुष्ट थे, उन्होने अस्पृश्य समुदाय के लिये एक ऐसी अलग राजनैतिक पहचान की वकालत की जिसमे कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों का ही कोई दखल ना हो। 8 अगस्त, 1930 को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान अम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा, जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने मे है।

हमें अपना रास्ता स्वयँ बनाना होगा और स्वयँ राजनीतिक शक्ति शोषितो की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती, उनका उद्धार समाज मे उनका उचित स्थान पाने मे निहित है। उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा, उनको शिक्षित होना चाहिए, एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने और उनके अंदर उस दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है जो सभी उँचाइयों का स्रोत है।

इस भाषण में अम्बेडकर ने कांग्रेस और गांधी द्वारा चलाये गये नमक सत्याग्रह की शुरूआत की आलोचना की। अम्बेडकर की आलोचनाओं और उनके राजनीतिक काम ने उसको रूढ़िवादी हिंदुओं के साथ ही कांग्रेस के कई नेताओं मे भी बहुत अलोकप्रिय बना दिया, यह वही नेता थे जो पहले छुआछूत की निंदा करते थे और इसके उन्मूलन के लिये जिन्होने देश भर में काम किया था। इसका मुख्य कारण था कि ये "उदार" राजनेता आमतौर पर अछूतों को पूर्ण समानता देने का मुद्दा पूरी तरह नहीं उठाते थे। अम्बेडकर की अस्पृश्य समुदाय मे बढ़ती लोकप्रियता और जन समर्थन के चलते उनको 1931 मे लंदन में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में, भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। यहाँ उनकी अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने के मुद्दे पर तीखी बहस हुई। धर्म और जाति के आधार पर पृथक निर्वाचिका देने के प्रबल विरोधी गांधी ने आशंका जताई, कि अछूतों को दी गयी पृथक निर्वाचिका, हिंदू समाज की भावी पीढी़ को हमेशा के लिये विभाजित कर देगी।

1932 मे जब ब्रिटिशों ने अम्बेडकर के साथ सहमति व्यक्त करते हुये अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की, तब गांधी ने इसके विरोध मे पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में आमरण अनशन शुरु कर दिया। गाँधी ने रूढ़िवादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को खत्म करने तथा, हिंदुओं की राजनीतिक और सामाजिक एकता की बात की। गांधी के अनशन को देश भर की जनता से घोर समर्थन मिला और रूढ़िवादी हिंदू नेताओं, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं जैसे पवलंकर बालू और मदन मोहन मालवीय ने अम्बेडकर और उनके समर्थकों के साथ यरवदा मे संयुक्त बैठकें कीं। अनशन के कारण गांधी की मृत्यु होने की स्थिति मे, होने वाले सामाजिक प्रतिशोध के कारण होने वाली अछूतों की हत्याओं के डर से और गाँधी जी के समर्थकों के भारी दवाब के चलते अंबेडकर ने अपनी पृथक निर्वाचिका की माँग वापस ले ली। इसके एवज मे अछूतों को सीटों के आरक्षण, मंदिरों में प्रवेश/पूजा के अधिकार एवं छूआ-छूत ख़तम करने की बात स्वीकार कर ली गयी। गाँधी ने इस उम्मीद पर की बाकी सभी सवर्ण भी पूना संधि का आदर कर, सभी शर्ते मान लेंगे अपना अनशन समाप्त कर दिया।

आरक्षण प्रणाली में पहले दलित अपने लिए संभावित उम्मीदवारों में से चुनाव द्वारा (केवल दलित) चार संभावित उम्मीदवार चुनते। इन चार उम्मीदवारों में से फिर संयुक्त निर्वाचन चुनाव (सभी धर्म \ जाति) द्वारा एक नेता चुना जाता। इस आधार पर सिर्फ एक बार सन 1937 में चुनाव हुए। आंबेडकर 20-25 साल के लिये आरक्षण चाहते थे लेकिन गाँधी के अड़े रहने के कारण यह आरक्षण मात्र 5 साल के लिए ही लागू हुआ।

पृथक निर्वाचिका में दलित दो वोट देता एक सामान्य वर्ग के उम्मीदवार को ओर दूसरा दलित (पृथक) उम्मीदवार को। ऐसी स्थिति में दलितों द्वारा चुना गया दलित उम्मीदवार दलितों की समस्या को अच्छी तरह से तो रख सकता था किन्तु गैर उम्मीदवार के लिए यह जरूरी नहीं था कि उनकी समस्याओं के समाधान का प्रयास भी करता। बाद मे अम्बेडकर ने गाँधी जी की आलोचना करते हुये उनके इस अनशन को अछूतों को उनके राजनीतिक अधिकारों से वंचित करने और उन्हें उनकी माँग से पीछे हटने के लिये दवाब डालने के लिये गांधी द्वारा खेला गया एक नाटक करार दिया। उनके अनुसार असली महात्मा तो ज्योति राव फुले थे।

हिंसा के पीछे की राजनीति

साम्प्रदायिक हिंसा : भारत में बहुसंख्यक धार्मिक समुदायों द्वारा अल्पसंख्यक धार्मिक समूहों पर साम्प्रदायिक हिंसा होती रहती है। इसमें समय-समय पर मुस्लिम, सिक्ख और ईसाई शिकार बनते रहे हैं। मुख्यतः इन्हीं साम्प्रदायिक भावनाओं को आधार बनाकर प्रमुख तौर पर भाजपा और शिवसेना सरीखे दल अस्तित्त्व में आए और शासकीय दल बनते रहे हैं। ऐसा करके अपने लिए राजनीतिक गोलबंदी करना तुलनात्मक रूप से आसान है।

जाति आधारित हिंसा: जहां तक जाति आधारित उत्पीड़न का सवाल है, यह भारत भर की विशेषता है। इसके पीछे के कारणों को टटोला जाए तो यह साफ है कि परंपरा से अछूत और वर्तमान में दलित कही जाने वाली जातियां इसकी सबसे बड़ी शिकार होती रही हैं। पहले की अपेक्षा आज के समय में यह उत्पीड़न की घटनाऐं अधिक स्पष्ट नज़र आती हैं। उत्पीड़न का आज लोग प्रभवी तरीके से प्रतिरोध करते है तथा उसको सोशल मीडिया के द्वारा पूरे देश में फैला देते हैं। पहले के समय में ये प्रकाश में नहीं आता था क्यों कि मीडिया सूचना को दबा देता था और उत्पीड़ित जातियों के लोग मुकाबला नहीं कर पते थे। उत्पीड़ित समाज के लोगों की आज पढ़ाई लिखाई और नौकरशाही में हिस्से दारी के कारन प्रतिरोधक छमता बढ़ने लगी है। अब एक ओर यह प्रतिरोध की बदौलत अधिक हिंसक हुआ है तो दूसरी ओर साफ़-साफ़ दिखाई देने लगा है। ऊपरवर्णित हिंसा अत्यंत निंदनीय ही नहीं, आधुनिक समाज की ओर जाने की दिशा में बहुत बड़ी बाधा हैं। साथ ही ये वास्तविक संघर्ष को ओझल करके न केवल रोड़ा बनती हैं बल्कि ऊपरी वर्ग को बल भी प्रदान करती हैं।

अब इस वास्तविक कटु सच्चाई के खिलाफ क्या किया जाए? ये सोचने का विषय है। क्या सचेतन प्रयासों के आधार पर तस्वीर को बदलने में विचारों की कोई भूमिका होती है? इसका जवाब न में देने पर हम चेतना के महत्त्व को खारिज कर देंगे जो न तो उचित है और न ही सच। इस संदर्भ में देखने की बात यह है कि निम्न वर्गों में वस्तुगत स्तर पर तरक्की-पसंद संभावना मौजूद है। यदि इसको शिक्षा, आंदोलन और गतिविधियों के आधार पर बढ़ाया जाए तो असली संघर्षों (आर्थिक) को मुख्य संघर्ष बनाया जा सकता है। ऐसा होने पर धर्म, क्षेत्रा, भाषा, नस्ल और जाति आधारित उत्पीड़न न केवल समाप्त हो सकता है बल्कि उच्च वर्गों के लिए बड़ा आघात हो सकता है।

दलित उत्पीड़न पर राजनीति

दलित-उत्पीड़न पर विभिन्न राजनीतिक समूहों की प्रतिक्रिया अपने चुनावी नफे-नुकसान से तय होती है, किसी वैचारिक संजीदगी की वजह से नहीं। उदाहरण के लिए गांधी विचार की हामी कांग्रेस अपने भरपूर दलित हितैषी होने की घोषणाओं के बावजूद दलितों के पक्ष में खड़ी होने से कतराती है। दूसरी और भाजपा की महान राष्ट्र की अवधारणा में दलित समाहित ही नहीं हो पाते। उनके लिए भी वोट आधारित राजनीति में ये घाटे का सौदा साबित हो सकता है। फायदे के सौदे में वे कदापि पीछे नहीं रहते। मुसलमानों के खिलाफ और हिन्दुओं के पक्ष में वे खुलकर आती है और वोट भी पाती है। राष्ट्रवाद यहां प्रश्नांकित होता है। वामपंथी दल वंचितों-शोषितों की राजनीति के हामी हैं। इसके लिए वे किसानों और खेत मजदूरों की यूनियन का निर्माण करते हैं। किन्तु दलित उत्पीड़न को लेकर स्पष्ट पहलकदमी लेने में ये भी अक्सर पीछे ही रहते हैं। आखिर घोषित तौर पर दलित और तरक्की पसंद बुद्धिजीवियों की पहलकदमी पर ही दलितों पर हो रहे जोर-जुल्म के खिलाफ आवाजें सुनाई देती हैं। हां बाद में हमदर्दी जताने या नैतिकता के दबाव में कांग्रेस से लेकर वामपंथी दलों तक के नुमाइंदे अपनी हाजि़री लगा जाते हैं। वास्तविकता में इन मुद्दों को उठाने का यह कार्यभार वामदलों और उनके जनसंगठनों का बनता है। अपनी घोषित निम्न वर्गीय राजनीति के बावजूद वे ऐसा क्यों नहीं करते? आखिर कौन इस सवाल को उठाए और इस हद तक उठाए की फिर ऐसी घटनाओं की पुनरावृति न हो?

जोर-जुल्म की घटनाओं में नुक्सान सर्वाधिक गरीब दलितों का होता है। दरअसल आरक्षण के चलते किसी गांव में गिनती के कुछ लोग सरकारी सेवा में आ पाते हैं। ये लोग ही स्वर्ण समाज की किरकरी बने रहते हैं। इनकी किंचित बेहतर स्थिति उच्च जातीय अहम् को नागवार गुजरती है। कभी किसी तात्कालिक घटना की आड़ में यह कुंठित अहम दलित समूह पर टूट पड़ता है। यहां इसका शिकार सर्वाधिक गरीब दलित ही होते हैं। इस स्थिति में मध्य वर्गीय रेखा छूने वाला वर्ग अपने दलित भाई-बहनों की लड़ाई में नहीं कूदता। आवश्यकता, जातीय आधार पर एकता स्थापित करने और सामूहिक जिम्मेवारी लेने की बनती है। उच्चजातीय प्रतिक्रियावादी समूह कभी एक दलित जाति के खिलाफ आएंगे तो दूसरी दलित जाति मौन रहेगी। कभी वे किसी अति पिछड़ी जाति के खिलाफ जुल्म करेंगे तो दूसरी दलित जाति अलग-थलग रहेंगी और जुल्मी को बल मिलेगा। निम्न जातियों को उच्च जातीय जुल्म से मुक्ति की दिशा में बढ़ने के लिए दलित जातियों की एकता के साथ-साथ उच्च जाति के आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के साथ एकता बनानी जरूरी है। दरसल यह तबका उच्च जातीय अहं से ग्रस्त होता है। लेकिन उसे समझाना नामुमकिन नहीं है। जातिवादी मानसिकता से मुक्ति की जरुरत तो स्वयं दलितों को भी है, केवल गैरदलितों पर ऊँगली उठाना काफी नहीं है। सूझ बूझ और विवेक के आधार पर संघर्ष और निर्माण की राह पर चलकर ही मुक्ति की राह निकलेगी, लेकिन यह भी ठीक है कि मुक्ति के रास्ते अकेले नहीं मिलते, यह जुल्म के विभिन्न रूपों के प्रति हमलावर होने से ही निकलेंगे।

कांशीराम वर्तमान राजनीति के चाणक्य

कांशी राम जी ने जीरो लेवल से अपने राजनीतिक दर्शन की 1984 से शुरुआत करके १९९९ तक बहुजन आंदोलन से उपजी राजनीतिक पार्टी 'बसपा' को राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बना कर बहुजन एकता की विचारधारा को पंख लगा दिए। हालांकि, उनकी विचारधारा को जातिवाद को बढ़ावा देने वाली नई राजनीति के रूप में आरोपित किया जाने लगा। कोई कुछ भी कहे पर आज हर राजनीतिक पार्टी उनकी विचारधारा से प्रभावित होकर ही टिकटों का बटबारा करती है। जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी का फार्मूला भारत की शूद्र राजनीति को फलदायी सावित हुआ है। जो जातियां हिन्दू धुवीकरण को बढ़ावा देने में सहायक होती थीं वह आज अपनी हिस्सेदारी राजनीति में सुनिश्चित करने के लिए तयारी कर रही हैं। लंबे समय तक देश की एक बढ़ी राजनीतिक पार्टी सुरक्षा के नाम पर मुसलमानों का वोट लेती थी और आरक्षण के नाम पर दलित जातियों का वोट लेती थी वह आज फेल हो चुकी है। आज आदिवासी, दलित, पिछड़े और मुस्लिम तीनों मिलकर बहुजन समाज की ताकत बढ़ाने में सफल हुए हैं। बहुजन समाज के 90% वोटों के विखराव के कारण अभी कुछ समय तक सम्प्रदायक पार्टियां फायदा उठा सकती है, परंतु लंबे समय तक 'फूट डालो और राज करो' की राजनीति नहीं चल पायेगी। आज बुद्धिजीवी लोगों के द्वारा निर्मित अनेक नीतिनिर्धारक संगठनों के निरंतर प्रयास से बहुजन समाज का वोटर जागरूक हुआ है, अब वह राजनेताओं के बहकावे में भी बहुत कम आता है। इस लिए यदि यह प्रयास जारी रहा तो आगे आने वाले समय में बहुजन समाज के किसी भी अंग का उत्पीड़न तो होगा ही नहीं बल्कि उक्त समाज सत्ताधारी बनकर उभरेगा।

एकता का पैगाम

भारत के सबसे बड़े नेताओं में से एक और दलितों के सबसे बड़े नेता डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने कहा था "छुआछूत गुलामी से भी बदतर है"। भारत में दलित (जिन्हें पहले अछूत कहा जाता था) सबसे ख़राब स्थितियों में जीते हैं क्योंकि हिंदुओं की जाति व्यवस्था उन्हें समाज में सबसे निचले स्थान पर रखती है। हालांकि हिंदुओं में छुआछूत के बहुत सारे प्रमाण हैं और इस पर बहुत चर्चा भी हुई है लेकिन भारत के मुसलमानों के बीच छुआछूत पर बमुश्किल ही बात की गई है। इसकी एक वजह तो यह है कि इस्लाम में जाति नहीं है और यह समानता और समतावाद को बढ़ावा देता है। भारत के 14 करोड़ मुसलमानों में से ज़्यादातर स्थानीय हैं जिन्होंने धर्मपरिवर्तन किया है. अधिकतर ने हिंदू उच्च-जातियों के उत्पीड़न से बचने के लिए इस्लाम ग्रहण किया। सामाजिक रूप से पिछड़े मुसलमानों के एक संगठन के प्रतिनिधि एजाज़ अली के अनुसार वर्तमान भारतीय मुसलमान की 75 फ़ीसदी दलित आबादी इन्हीं की है जिन्हें दलित मुसलमान कहा जाता है।

ब्राह्मण के प्रभुत्व में हिन्दू की चादर ओढ़ कर सवर्ण जातियां जिनके पास धन, विद्या और शक्ति की मात्रा भरपूर है। शूद्र जातियों की बहुसंख्यक आबादी का शोषण करती हैं। 6743 मंडल कमीशन की जातियां समय समय पर इन अल्पजन सवर्णों के उत्पीडन का शिकार होती रहती हैं। अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़ा वर्ग के अन्तर्गत आने वाली जातियां जिनमें मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख, बौद्ध धर्मों के अन्तर्गत आने वाली जातियां भी शामिल हैं। इन सभी जातियों की एकता के लिए कांशी राम जी ने एक पहिचान ‘बहुजन समाज’ के रूप में दी थी। इस बहुजन समाज की एकता के बिना न तो उत्पीडन बंद होगा और न ही राजनितिक ताकत प्राप्त होगी। इस वर्ग में आज अनेकों राजनीतिक नेता तो पैदा हो चुके हैं परंतु वे अपने निजी स्वार्थों के आलावा समाज का भला नहीं करते। बल्कि बहुत से इस समाज के नेता अपने विरोधियों के चंगुल में फंस कर अपने समाज का अहित करने में भी नहीं चूकते। सामाजिक संगठनों के नेताओं का दायित्व ऐसे में और बढ़ जाता है। राजनेताओं पर दबाव बनाये बिना समस्या का हल होना मुमकिन नहीं है। अत: समझदार सामाजिक नेताओं के बीच आपसी सहमति और भाईचारा बनना बहुत जरूरी है।

प्रस्तुति: के. सी. पिप्पल (IES Retd.)