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सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक मुक्ति जरूरी- के.सी. पिप्पल

भीम राव रामजी का जन्म मध्य प्रदेश के नगर मऊ छावनी में 14 अप्रेल, 1891 में हुआ था। वे रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई मुरबादकर की 14वीं व अंतिम संतान थे। उनका महार  परिवार मराठी था और वो अंबावडे नगर जो आधुनिक महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले  में है, से संबंधित था। महार जाति से संबंध होने के कारण वे अछूतपन के शिकार थे, उनके साथ सामाजिक और आर्थिक रूप से गहरा भेदभाव किया जाता था। अम्बेडकर के पूर्वज लंबे समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्यरत थे, और उनके पिता, भारतीय सेना की मऊ छावनी में सेवा में थे और यहां काम करते हुये वो सूबेदार के पद तक पहुँचे थे। उन्होंने मराठी और अंग्रेजी में औपचारिक शिक्षा की डिग्री प्राप्त की थी। उन्होने अपने बच्चों को स्कूल में पढने और कड़ी मेंहनत करने के लिये हमेशा प्रोत्साहित किया। कबीर पंथ से संबंधित इस परिवार के रामजी सकपाल ने अपने बच्चों को कबीर पंथी पुस्तकों को पढ़ने के लिए भी प्रोत्साहित किया। उन्होने सेना में अपनी हैसियत का उपयोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूल से शिक्षा दिलाने  में किया, क्योंकि अपनी जाति के कारण उन्हें इसके लिये सामाजिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा था।

स्कूली पढ़ाई में सक्षम होने के बावजूद आंबेडकर और अन्य अस्पृश्य बच्चों को विद्यालय  में अलग बिठाया जाता था और अध्यापकों द्वारा न तो ध्यान ही दिया जाता था, न ही कोई सहायता दी जाती थी। उनको कक्षा के अन्दर बैठने की अनुमति नहीं थी, साथ ही प्यास लगने पर कोई ऊँची जाति का व्यक्ति ऊँचाई से पानी उनके हाथों पर पानी डालता था, क्योंकि उनको न तो पानी, न ही पानी के पात्र को स्पर्श करने की अनुमति थी। लोगों के मुताबिक ऐसा करने से पात्र और पानी दोनों अपवित्र हो जाते थे। आमतौर पर यह काम स्कूल के चपरासी द्वारा किया जाता था जिसकी अनुपस्थिति में बालक आंबेडकर को बिना पानी के ही रहना पड़ता था।

1894 में रामजी सकपाल सेवानिवृत्त हो जाने के बाद सपरिवार सतारा चले गए और इसके दो साल बाद, अम्बेडकर की मां की मृत्यु हो गई। बच्चों की देखभाल उनकी चाची ने कठिन परिस्थितियों में रहते हुये की। रामजी सकपाल के केवल तीन बेटे, बलराम, आनंदराव और भीमराव और दो बेटियाँ मंजुला और तुलासा ही इन कठिन हालातों में जीवित बच पाये। अपने भाइयों और बहनों में केवल अम्बेडकर ही स्कूल की परीक्षा में सफल हुए और इसके बाद बड़े स्कूल में जाने में सफल हुये। अपने एक देशस्त ब्राह्मण शिक्षक महादेव अम्बेडकर जो उनसे विशेष स्नेह रखते थे के कहने पर अम्बेडकर ने अपने नाम से सकपाल हटाकर अम्बेडकर जोड़ लिया जो उनके गांव के नाम "अंबावडे" पर आधारित था।

बाबा साहब के पिता श्री रामजी सकपाल ने 1898  में पुनर्विवाह कर लिया और परिवार के साथ मुंबई चले आये। यहाँ अम्बेडकर एल्फिंस्टोन रोड पर स्थित गवर्न्मेंट हाई स्कूल के पहले अछूत छात्र बने। पढा़ई में अपने उत्कृष्ट प्रदर्शन के बावजूद, अम्बेडकर लगातार अपने विरुद्ध हो रहे इस अलगाव और, भेदभाव से व्यथित रहे। 1907 में मैट्रिक परीक्षा पास करने के बाद अम्बेडकर ने बंबई विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और इस तरह वो भारत में कॉलेज में प्रवेश लेने वाले पहले अस्पृश्य छात्र बन गये। उनकी इस सफलता से उनके पूरे समाज  में एक खुशी की लहर दौड़ गयी। 1908 में, उन्होंने एलिफिंस्टोन कॉलेज में प्रवेश लिया और बड़ौदा के गायकवाड़ शासक सहयाजी राव तृतीय से संयुक्त राज्य अमेरिका  में उच्च अध्धयन के लिये एक पच्चीस रुपये प्रति माह का वजीफा़ प्राप्त किया। 1912 में उन्होंने राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र में अपनी डिग्री प्राप्त की, और बड़ौदा राज्य सरकार की नौकरी को तैयार हो गये। उनकी पत्नी ने अपने पहले बेटे यशवंत को इसी वर्ष जन्म दिया । अम्बेडकर अपने परिवार के साथ बड़ौदा चले आये पर जल्द ही उन्हें अपने पिता की बीमारी के चलते बंबई वापस लौटना पडा़, जिनकी मृत्यु 2 फरवरी 1913 को हो गयी।

शिक्षा

गायकवाड शासक ने संयुक्त राज्य अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में जाकर अध्ययन के लिये अम्बेडकर का चयन किया गया, इसके लिये एक 11.5 डॉलर प्रति मास की छात्रवृत्ति भी प्रदान की। न्यूयॉर्क शहर में आने के बाद, अम्बेडकर को राजनीति विज्ञान विभाग के स्नातक अध्ययन कार्यक्रम में प्रवेश दे दिया गया। शयनशाला  में कुछ दिन रहने के बाद, वे भारतीय छात्रों द्वारा चलाये जा रहे एक आवास क्लब  में रहने चले गए और उन्होने अपने एक पारसी मित्र नवल भातेना के साथ एक कमरा ले लिया। 1916 में, उन्हे उनके एक शोध के लिए पी.एच.डी. से सम्मानित किया गया । इस शोध को अंततः उन्होंने पुस्तक "इवोल्युशन ओफ प्रोविन्शिअल फिनान्स इन ब्रिटिश इंडिया" के रूप में प्रकाशित किया। हालाँकि उनका पहला प्रकाशित लेख जिसका शीर्षक, “भारत में जाति: उनकी प्रणाली, उत्पत्ति और विकास है”।

अपनी डाक्टरेट की डिग्री लेकर अम्बेडकर लंदन चले गये जहाँ उन्होने ग्रे'स इन और लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में कानून का अध्ययन और अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट शोध की तैयारी के लिये अपना नाम लिखवा लिया। अगले वर्ष छात्रवृत्ति की समाप्ति के चलते मजबूरन उन्हें अपना अध्ययन अस्थायी तौर पर बीच में ही छोड़ कर भारत वापस लौटना पडा़ ये विश्व युद्ध प्रथम का काल था। बड़ौदा राज्य के सेना सचिव के रूप में काम करते हुये अपने जीवन  में अचानक फिर से आये भेदभाव से अम्बेडकर उदास हो गये, और अपनी नौकरी छोड़ एक निजी ट्यूटर और लेखाकार के रूप में काम करने लगे। यहाँ तक कि अपनी परामर्श व्यवसाय भी आरंभ किया जो उनकी सामाजिक स्थिति के कारण विफल रहा।अपने एक अंग्रेज जानकार बंबई के पूर्व राज्यपाल लॉर्ड सिडनेम, के कारण उन्हें बंबई के सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर के रूप में नौकरी मिल गयी।

1920 में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति शाहू जी महाराज द्वारा दी गई छात्र वृत्ति, अपनी बचत तथा अपने पारसी मित्र के सहयोग के कारण वो एक बार फिर से इंग्लैंड वापस जाने में सक्षम हो गये।1923 में उन्होंने अपना शोध ग्रन्थ “प्रोब्लेम्स ऑफ द रुपी” (रुपये की समस्यायें) पूरा कर लिया। उन्हें लंदन विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टर ऑफ साईंस की उपाधि प्रदान की गयी। उनका  कानून का अध्ययन पूरा होने के साथ-साथ उन्हें ब्रिटिश बार  में बैरिस्टर के रूप में प्रवेश मिल गया। भारत वापस लौटते हुये अम्बेडकर तीन महीने जर्मनी में रुके, जहाँ उन्होने अपना अर्थशास्त्र का अध्ययन, बॉन विश्वविद्यालय में जारी रखा। उन्हे औपचारिक रूप से 8 जून 1927 को कोलंबिया विश्वविद्यालय द्वारा पी. एच. डी. की उपाधि प्रदान की गयी।

छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष

भारत सरकार अधिनियम 1919, तैयार कर रही साउथ बरोह समिति के समक्ष, भारत के एक प्रमुख विद्वान के तौर पर अम्बेडकर को गवाही देने के लिये आमंत्रित किया गया। इस सुनवाई के दौरान, अम्बेडकर ने दलितों और अन्य धार्मिक समुदायों के लिये पृथक निर्वाचिका (separate electorates) और आरक्षण देने की वकालत की। 1920 में, बंबई में, उन्होंने “साप्ताहिक मूकनायक” के प्रकाशन की शुरूआत की। यह प्रकाशन जल्द ही पाठकों  में लोकप्रिय हो गया, तब्, अम्बेडकर ने इसका इस्तेमाल रूढ़िवादी हिंदू राजनेताओं व जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति भारतीय राजनैतिक समुदाय की अनिच्छा की आलोचना करने के लिये किया। उनके दलित वर्ग के एक सम्मेलन के दौरान दिये गये भाषण ने कोल्हापुर राज्य के स्थानीय शासक शाहू चतुर्थ (Chhatrapati Shahu Ji Maharaj) को बहुत प्रभावित किया, जिनका अम्बेडकर के साथ भोजन करना रूढ़िवादी समाज में हलचल मचा गया। अम्बेडकर ने अपनी वकालत अच्छी तरह जमा ली, और “बहिष्कृत हितकारिणी सभा” की स्थापना भी की जिसका उद्देश्य दलित वर्गों में शिक्षा का प्रसार और उनके सामाजिक आर्थिक उत्थान के लिये काम करना था। सन् 1926 में, वो बंबई विधान परिषद के एक मनोनीत सदस्य बन गये। सन 1927 में डॉ. अम्बेडकर ने छुआछूत के खिलाफ एक व्यापक आंदोलन शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने सार्वजनिक आंदोलनों और जुलूसों के द्वारा, पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी लोगों के लिये खुलवाने के साथ ही उन्होनें अछूतों को भी हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिये भी संघर्ष किया। उन्होंने महाद में अस्पृश्य समुदाय को भी शहर की पानी की मुख्य टंकी से पानी लेने का अधिकार दिलाने कि लिये सत्याग्रह चलाया।

1 जनवरी 1927 को डॉ अम्बेडकर ने द्वितीय आंग्ल - मराठा युद्ध, की कोरेगाँव की लडा़ई के दौरान मारे गये भारतीय सैनिकों के सम्मान में कोरेगाँव विजय स्मारक में एक समारोह आयोजित किया। यहाँ महार समुदाय से संबंधित सैनिकों के नाम संगमरमर के एक शिलालेख पर खुदवाये। 1927 में, उन्होंने अपनी दूसरी "पत्रिका बहिष्कृत भारत" शुरू की, और उसके बाद "रीक्रिश्टेन्ड जनता" का भी  प्रकाशन किया। उन्हें बाँबे प्रेसीडेंसी समिति में सभी यूरोपीय सदस्यों वाले साइमन आयोग 1928 में काम करने के लिए नियुक्त किया गया। इस आयोग के विरोध  में भारत भर में विरोध प्रदर्शन हुये,और इसकी रिपोर्ट को ज्यादातर भारतीयों द्वारा नजरअंदाज कर दिया गया। इस आयोग के माध्यम से डॉ अम्बेडकर ने भविष्य में निर्मित होने वाले संविधान (IInd India Act 1935) हेतु संवैधानिक सुधारों के लिये सिफारिशों लिखीं।

पूना संधि और आरक्षण

दूसरा गोलमेज सम्मेलन: अब तक डॉ अम्बेडकर आज तक की सबसे बडी़ अछूत राजनीतिक हस्ती बन चुके थे। उन्होंने मुख्यधारा के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों की जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति उनकी कथित उदासीनता की कटु आलोचना की। अम्बेडकर ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके नेता मोहनदास गांधी की आलोचना की, उन्होने उन पर अस्पृश्य समुदाय को एक करुणा की वस्तु के रूप  में प्रस्तुत करने का आरोप लगाया। अम्बेडकर ब्रिटिश शासन की विफलताओं से भी असंतुष्ट थे, उन्होने अस्पृश्य समुदाय के लिये एक ऐसी अलग राजनैतिक पहचान की वकालत की जिसमे कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों का ही कोई दखल ना हो। 8 अगस्त, 1930 को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान अम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा, जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने में है।

हमें अपना रास्ता स्वयँ बनाना होगा और स्वयँ की राजनीतिक शक्ति के विना शोषितों की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती, उनका उद्धार समाज  में उनका उचित स्थान पाने  में निहित है। उनको सबसे पहले तो शिक्षित होना चाहिए इसके अतिरिक्त एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने की है तथा उनके अंदर उस दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है जो सभी उँचाइयों का स्रोत है।

इस भाषण में अम्बेडकर ने कांग्रेस और गांधी द्वारा चलाये गये नमक सत्याग्रह की शुरूआत की आलोचना की। अम्बेडकर की आलोचनाओं और उनके राजनीतिक काम ने उसको रूढ़िवादी हिंदुओं के साथ ही कांग्रेस के कई नेताओं में भी बहुत अलोकप्रिय बना दिया, यह वही नेता थे जो पहले छुआछूत की निंदा करते थे और इसके उन्मूलन के लिये जिन्होने देश भर में काम किया था। इसका मुख्य कारण था कि ये "उदार" राजनेता आमतौर पर अछूतों को पूर्ण समानता देने का मुद्दा पूरी तरह नहीं उठाते थे।अम्बेडकर की अस्पृश्य समुदाय में बढ़ती लोकप्रियता और जन समर्थन के चलते उनको 1931 में लंदन में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में, भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया । यहाँ उनकी अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने के मुद्दे पर तीखी बहस हुई। धर्म और जाति के आधार पर पृथक निर्वाचिका देने के प्रबल विरोधी गांधी ने आशंका जताई, कि अछूतों को दी गयी पृथक निर्वाचिका, हिंदू समाज की भावी पीढी़ को हमेशा के लिये विभाजित कर देगी।

1932  में जब ब्रिटिशों ने अम्बेडकर के साथ सहमति व्यक्त करते हुये अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की, तब गांधी ने इसके विरोध  में पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में आमरण अनशन शुरु कर दिया। गाँधी ने रूढ़िवादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को खत्म करने तथा, हिंदुओं की राजनीतिक और सामाजिक एकता की बात की। गांधी के अनशन को देश भर की जनता से घोर समर्थन मिला और रूढ़िवादी हिंदू नेताओं, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं जैसे पवलंकर बालू और मदन मोहन मालवीय ने अम्बेडकर और उनके समर्थकों के साथ यरवदा  में संयुक्त बैठकें कीं।अनशन के कारण गांधी की मृत्यु होने की स्थिति  में, होने वाले सामाजिक प्रतिशोध के कारण होने वाली अछूतों की हत्याओं के डर से और गाँधी जी के समर्थकों के भारी दवाब के चलते अंबेडकर ने अपनी पृथक निर्वाचिका की माँग वापस ले ली। इसके एवज में अछूतों को सीटों के आरक्षण, मंदिरों में प्रवेश/पूजा के अधिकार एवं छूआ-छूत ख़तम करने की बात स्वीकार कर ली गयी। गाँधी ने इस उम्मीद पर की बाकी सभी सवर्ण भी पूना संधि का आदर कर, सभी शर्ते मान लेंगे अपना अनशन समाप्त कर दिया।

आरक्षण प्रणाली में पहले दलित अपने लिए संभावित उमीदवारों में से चुनाव द्वारा (केवल दलित) चार संभावित उमीदवार चुनते। इन चार उम्मीदवारों में से फिर संयुक्त निर्वाचन चुनाव (सभी धर्म \ जाति) द्वारा एक नेता चुना जाता। इस आधार पर सिर्फ एक बार सन 1937 में चुनाव हुए। आंबेडकर 20-25 साल के लिये आरक्षण चाहते थे लेकिन गाँधी के अड़े रहने के कारण यह आरक्षण मात्र 5 साल के लिए ही लागू हुआ।

पृथक निर्वाचिका में दलित दो वोट देता एक सामान्य वर्ग के उम्मीदवार को ओर दूसरा दलित (पृथक) उम्मीदवार को। ऐसी स्थिति में दलितों द्वारा चुना गया दलित उम्मीदवार दलितों की समस्या को अच्छी तरह से तो रख सकता था किन्तु गैर उम्मीदवार के लिए यह जरूरी नहीं था कि उनकी समस्याओं के समाधान का प्रयास भी करता । बाद  में अम्बेडकर ने गाँधी जी की आलोचना करते हुये उनके इस अनशन को अछूतों को उनके राजनीतिक अधिकारों से वंचित करने और उन्हें उनकी माँग से पीछे हटने के लिये दवाब डालने के लिये गांधी द्वारा खेला गया एक नाटक करार दिया। उनके अनुसार असली महात्मा तो ज्योति राव फुले थे।

राजनीतिक मिशन

13 अक्टूबर 1935 को, अम्बेडकर को सरकारी लॉ कॉलेज का प्रधानचार्य नियुक्त किया गया और इस पद पर उन्होने दो वर्ष तक कार्य किया। इसके चलते अंबेडकर बंबई में बस गये, उन्होने यहाँ एक बडे़ घर का निर्माण कराया, जिसमे उनके निजी पुस्तकालय  में 50000 से अधिक पुस्तकें थीं। इसी वर्ष उनकी पत्नी रमाबाई की एक लंबी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई। रमाबाई अपनी मृत्यु से पहले तीर्थयात्रा के लिये पंढरपुर जाना चाहती थीं पर अंबेडकर ने उन्हे इसकी इजाज़त नहीं दी। अम्बेडकर ने कहा की उस हिन्दु तीर्थ में जहाँ उनको अछूत माना जाता है, जाने का कोई औचित्य नहीं है इसके बजाय उन्होने उनके लिये एक नया पंढरपुर बनाने की बात कही। भले ही अस्पृश्यता के खिलाफ उनकी लड़ाई को भारत भर से समर्थन हासिल हो रहा था, पर उन्होने अपना रवैया और अपने विचारों को रूढ़िवादी हिंदुओं के प्रति और कठोर कर लिया। उनकी रूढ़िवादी हिंदुओं की आलोचना का उत्तर बडी़ संख्या  में हिंदू कार्यकर्ताओं द्वारा की गयी उनकी आलोचना से मिला।13 अक्टूबर को नासिक के निकट येओला  में एक सम्मेलन में बोलते हुए अम्बेडकर ने धर्म परिवर्तन करने की अपनी इच्छा प्रकट की। उन्होने अपने अनुयायियों से भी हिंदू धर्म छोड़ कोई और धर्म अपनाने का आह्वान किया। उन्होने अपनी इस बात को भारत भर में कई सार्वजनिक सभाओं में भी दोहराया।

1936 में, अम्बेडकर ने स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की, जो 1937 में केन्द्रीय विधान सभा चुनावों में 15 सीटें जीती। उन्होंने अपनी पुस्तक "जाति के विनाश" को भी इसी वर्ष में प्रकाशित किया जो न्यूयॉर्क में लिखे उनके एक शोधपत्र पर आधारित थी। इस सफल और लोकप्रिय पुस्तक में अम्बेडकर ने हिंदू धार्मिक नेताओं और जाति व्यवस्था की जोरदार आलोचना की। उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के लोगों को गाँधी द्वारा रचित शब्द हरिजन पुकारने के कांग्रेस के फैसले की कडी़ निंदा की। अम्बेडकर रक्षा सलाहकार समिति और वाइसराय की कार्यकारी परिषद के लिए श्रम मंत्री के रूप में सेवारत रहे।

1941 और 1945 के बीच में उन्होंने बड़ी संख्या में अत्यधिक विवादास्पद पुस्तकें और पर्चे प्रकाशित किये जिन में “थॉट्स ऑन पाकिस्तान” भी शामिल है, जिसमें उन्होने मुस्लिम लीग की मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान की मांग की आलोचना की। वॉट कॉंग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स (काँग्रेस और गान्धी ने अछूतों के लिये क्या किया) के साथ, अम्बेडकर ने गांधी और कांग्रेस दोनो पर अपने हमलों को तीखा कर दिया उन्होने उन पर ढोंग करने का आरोप लगाया। उन्होने अपनी पुस्तक ‘हू वर द शुद्राज़?’(शुद्र कौन थे?) के द्वारा हिंदू जाति व्यवस्था के पदानुक्रम में सबसे नीची जाति यानी शुद्रों के अस्तित्व  में आने की व्याख्या की। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि किस तरह से अछूत, शुद्रों से अलग हैं। अम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक पार्टी को “अखिल भारतीय अनुसूचित जाति फेडरेशन” में बदलते देखा, हालांकि 1946 में आयोजित भारत के संविधान सभा के लिए हुये चुनाव में इसने खराब प्रदर्शन किया। 1948 में हू वर द शुद्राज़? की उत्तरकथा “द अनटचेबलस: ए थीसिस ऑन द ओरिजन ऑफ अनटचेबिलिटी” (अस्पृश्य: अस्पृश्यता के मूल पर एक शोध) में अम्बेडकर ने हिंदू धर्म को लताड़ा।

हिंदू सभ्यता: जो मानवता को दास बनाने और उसका दमन करने की एक क्रूर युक्ति है और इसका उचित नाम बदनामी होगा। एक सभ्यता के बारे में और क्या कहा जा सकता है जिसने लोगों के एक बहुत बड़े वर्ग को विकसित किया जिसे एक मानव से हीन समझा गया और जिसका स्पर्श मात्र प्रदूषण फैलाने का पर्याप्त कारण है?

अम्बेडकर इस्लाम और दक्षिण एशिया में उसकी रीतियों के भी आलोचक थे। उन्होने भारत विभाजन का तो पक्ष लिया पर मुस्लिम समाज में व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की घोर निंदा की। उन्होंने कहा, बहुविवाह और रखैल रखने के दुष्परिणाम शब्दों में व्यक्त नहीं किये जा सकते जो विशेष रूप से एक मुस्लिम महिला के दुःख के स्रोत हैं। जाति व्यवस्था को ही लें, हर कोई कहता है कि इस्लाम गुलामी और जाति से मुक्त होना चाहिए, जबकि गुलामी अस्तित्व में है और इसे इस्लाम और इस्लामी देशों से समर्थन मिला है। हालाँकि कुरान में वर्णित ग़ुलामों के साथ उचित और मानवीय व्यवहार के बारे में पैगंबर के विचार प्रशंसायोग्य हैं लेकिन, इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है जो इस अभिशाप के उन्मूलन का समर्थन करता हो।अगर गुलामी खत्म भी हो जाये पर फिर भी मुसलमानों के बीच जाति व्यवस्था रह जायेगी।

उन्होंने लिखा कि मुस्लिम समाज में तो हिंदू समाज से भी अधिक सामाजिक बुराइयाँ हैं और मुसलमान उन्हें "भाईचारे" जैसे नरम शब्दों के प्रयोग से छुपाते हैं। उन्होंने मुसलमानो द्वारा अर्ज़ल वर्गों के खिलाफ भेदभाव जिन्हें "निचले दर्जे का" माना जाता था के साथ ही मुस्लिम समाज में महिलाओं के उत्पीड़न की दमनकारी पर्दा प्रथा की भी आलोचना की। उन्होंने कहा हालाँकि पर्दा हिंदुओं में भी होता है पर उसे धर्मिक मान्यता केवल मुसलमानों ने दी है। उन्होंने इस्लाम में कट्टरता की आलोचना की जिसके कारण इस्लाम की नातियों का अक्षरश: अनुपालन की बद्धता के कारण समाज बहुत कट्टर हो गया है और उसको बदलना बहुत मुश्किल हो गया है। उन्होंने आगे लिखा कि भारतीय मुसलमान अपने समाज का सुधार करने में विफल रहे हैं जबकि इसके विपरीत तुर्की जैसे देशों ने अपने आपको बहुत बदल लिया है।

"सांप्रदायिकता" से पीड़ित हिंदुओं और मुसलमानों दोनों समूहों ने सामाजिक न्याय की माँग की उपेक्षा की है।

हालांकि वे मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग की विभाजनकारी सांप्रदायिक रणनीति के घोर आलोचक थे पर उन्होने तर्क दिया कि हिंदुओं और मुसलमानों को पृथक कर देना चाहिए और पाकिस्तान का गठन हो जाना चाहिये क्योकि एक ही देश का नेतृत्व करने के लिए, जातीय राष्ट्रवाद के चलते देश के भीतर और अधिक हिंसा पनपेगी। उन्होंने हिंदू और मुसलमानों के सांप्रदायिक विभाजन के बारे में अपने विचार के पक्ष में ऑटोमोन साम्राज्य और चेकोस्लोवाकिया के विघटन जैसी ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख किया।

उन्होंने पूछा कि क्या पाकिस्तान की स्थापना के लिये पर्याप्त कारण मौजूद थे? और सुझाव दिया कि हिंदू और मुसलमानों के बीच के मतभेद एक कम कठोर कदम से भी मिटाना संभव हो सकता था। उन्होंने लिखा है कि पाकिस्तान को अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करना चाहिये। कनाडा जैसे देशों में भी सांप्रदायिक मुद्दे हमेशा से रहे हैं पर आज भी अंग्रेज और फ्रांसीसी एक साथ रहते हैं, तो क्या हिंदु और मुसलमान भी साथ नहीं रह सकते। उन्होंने चेताया कि दो देश बनाने के समाधान का वास्तविक क्रियान्वयन अत्यंत कठिनाई भरा होगा। विशाल जनसंख्या के स्थानान्तरण के साथ सीमा विवाद की समस्या भी रहेगी। भारत की स्वतंत्रता के बाद होने वाली हिंसा को ध्यान में रख कर यह भविष्यवाणी कितनी सही थी।

संविधान निर्माण

अपने विवादास्पद विचारों और गांधी व कांग्रेस की कटु आलोचना के बावजूद अम्बेडकर की प्रतिष्ठा एक अद्वितीय विद्वान और विधिवेत्ता की थी जिसके कारण जब, 15 अगस्त, 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व में आई तो उसने अम्बेडकर को देश का पहले कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। 29 अगस्त 1947 को, अम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। अम्बेडकर ने मसौदा तैयार करने के इस काम में अपने सहयोगियों और समकालीन प्रेक्षकों की प्रशंसा अर्जित की। इस कार्य में अम्बेडकर का शुरुआती बौद्ध संघ रीतियों और अन्य बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन बहुत काम आया।

संघ रीति में मतपत्र द्वारा मतदान, बहस के नियम, पूर्ववर्तिता और कार्यसूची के प्रयोग, समितियाँ और काम करने के लिए प्रस्ताव लाना शामिल है। संघ रीतियाँ स्वयं प्राचीन गणराज्यों जैसे शाक्य और लिच्छवि की शासन प्रणाली के निदर्श (मॉडल) पर आधारित थीं। डॉ.अम्बेडकर ने हालांकि भारतीय संविधान को आकार देने के लिए पश्चिमी मॉडल इस्तेमाल किया है पर उसकी भावना भारतीय है।

डॉ.अम्बेडकर द्वारा तैयार किया गया संविधान पाठ में संवैधानिक गारंटी के साथ व्यक्तिगत नागरिकों को एक व्यापक श्रेणी की नागरिक स्वतंत्रताओं की सुरक्षा प्रदान की । जिनमें, धार्मिक स्वतंत्रता, अस्पृश्यता का अंत और सभी प्रकार के भेदभावों को गैर कानूनी करार दिया गया । डॉ. अम्बेडकर ने महिलाओं के लिए व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की वकालत की ।  अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए सिविल सेवाओं, स्कूलों और कॉलेजों की नौकरियों में आरक्षण प्रणाली शुरू करवाने के लिए सभा का समर्थन भी हासिल किया । भारत के विधि निर्माताओं ने इस सकारात्मक कार्यवाही के द्वारा दलित वर्गों के लिए सामाजिक और आर्थिक असमानताओं के उन्मूलन और उन्हे हर क्षेत्र में अवसर प्रदान कराने की चेष्टा की । 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपना लिया। अपने काम को पूरा करने के बाद, बोलते हुए, डॉ. अम्बेडकर ने कहा:

मैं महसूस करता हूं कि संविधान, साध्य (काम करने लायक) है, यह लचीला है पर साथ ही यह इतना मज़बूत भी है कि देश को शांति और युद्ध दोनों के समय जोड़ कर रख सके। वास्तव में, मैं कह सकता हूँ कि अगर कभी कुछ गलत हुआ तो इसका कारण यह नही होगा कि हमारा संविधान खराब था बल्कि इसका उपयोग करने वाले व्यक्ति की अक्षमता ही कारण होगी।

1951 में संसद में अपने हिन्दू कोड बिल के मसौदे को रोके जाने के बाद डॉ.अम्बेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया इस मसौदे में उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की मांग की गयी थी। हालांकि प्रधानमंत्री नेहरू, कैबिनेट और कई अन्य कांग्रेसी नेताओं ने इसका समर्थन किया पर संसद सदस्यों की एक बड़ी संख्या इसके खिलाफ़ थी। डॉ.अम्बेडकर ने 1952 में लोक सभा का चुनाव एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़ा पर हार गये। मार्च 1952 में उन्हें संसद के ऊपरी सदन यानि राज्य सभा के लिए नियुक्त किया गया और वे 6 दिसंबर 1956 तक तक इस सदन के सदस्य रहे।

बौद्ध धर्म में परिवर्तन

सन् 1950 के दशक में अम्बेडकर बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित हुए और बौद्ध भिक्षुओं व विद्वानों के एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए श्रीलंका गये। पुणे के पास एक नया बौद्ध विहार समर्पित करते हुए, अम्बेडकर ने घोषणा की कि वे बौद्ध धर्म पर एक पुस्तक लिख रहे हैं, और जैसे ही यह समाप्त होगी वो औपचारिक रूप से बौद्ध धर्म अपना लेंगे। 1954 में अम्बेडकर ने बर्मा का दो बार दौरा किया; दूसरी बार वो रंगून में तीसरे विश्व बौद्ध फैलोशिप के सम्मेलन में भाग लेने के लिए गये। 1955 में उन्होने भारतीय बुद्ध महासभा या बौद्ध सोसाइटी ऑफ इंडिया की स्थापना की। उन्होंने अपने अंतिम लेख, “द बुद्ध एंड हिज़ धम्म” को 1956 में पूरा किया जो उनके परिनिर्वाण के बाद प्रकाशित प्रकाशित हुआ। 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में अम्बेडकर ने खुद और उनके समर्थकों के लिए एक औपचारिक सार्वजनिक समारोह का आयोजन किया। डा.बी.आर. अम्बेडकर ने एक बौद्ध भिक्षु से पारंपरिक तरीके से तीन रत्न ग्रहण और पंचशील को अपनाते हुये बौद्ध धर्म ग्रहण किया। इसके बाद उन्होने एक अनुमान के अनुसार लगभग आठ-नौ लाख अनुआइयों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित किया। इसके बाद वे नेपाल में चौथे विश्व बौद्ध सम्मेलन में भाग लेने के लिए काठमांडू गये। उन्होंने अपनी अंतिम पांडुलिपि “बुद्ध या कार्ल मार्क्स” को 2 दिसंबर 1956 को पूरा किया।

आलोचना और विरासत

अम्बेडकर की सामाजिक और राजनैतिक सुधारक की विरासत का आधुनिक भारत पर गहरा प्रभाव पड़ा है। स्वतंत्रता के बाद के भारत में उनकी सामाजिक और राजनीतिक सोच को सारे राजनीतिक हलके का सम्मान हासिल हुआ। उनकी इस पहल ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में आज के भारत की सोच को प्रभावित किया। उनकी यह सोच आज की सामाजिक, आर्थिक नीतियों, शिक्षा, कानून और सकारात्मक कार्रवाई के माध्यम से प्रदर्शित होती है। एक विद्वान के रूप में उनकी ख्याति उनकी नियुक्ति स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री और संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष के रूप में कराने में सहायक सिद्ध हुयी। उन्हें व्यक्ति की स्वतंत्रता में अटूट विश्वास था और उन्होने समान रूप से रूढ़िवादी और जातिवादी हिंदू समाज और इस्लाम की संकीर्ण और कट्टर नीतियों की आलोचना की। हिंदू और इस्लाम की निंदा ने उनको संत कबीर क़ी तरह विवादास्पद बनाया है, हालांकि उनके बौद्ध धर्म में परिवर्तित होने के बाद भारत के लोगों में बौद्ध दर्शन में रुचि बढ़ी है।

अम्बेडकर के राजनीतिक दर्शन के कारण बड़ी संख्या में दलित राजनीतिक दल, प्रकाशन और कार्यकर्ता संघ अस्तित्व में आये है जो पूरे भारत में सक्रिय रहते हैं, विशेष रूप से महाराष्ट्र में। उनके दलित बौद्ध आंदोलन को बढ़ावा देने से बौद्ध दर्शन भारत के कई भागों में पुनर्जागरित हुआ है। दलित कार्यकर्ता समय समय पर सामूहिक धर्म परिवर्तन के समारोह आयोजित उसी तरह करते रहते हैं जिस तरह अम्बेडकर ने 1956 में नागपुर में आयोजित किया था।आधुनिक भारत में कुछ यथास्थितवादी लोग, डा. बी. आर. अम्बेडकर के द्वारा शुरू किए गए आरक्षण को अप्रासांगिक और प्रतिभा विरोधी मानते हैं।

बाबा साहब के संघर्ष का असर

डॉ॰ भीमराव रामजी आंबेडकर एक भारतीय विधिवेत्ता, बहुजन नायक, बौद्ध पुनरुत्थानवादी होने के नाते दूसरे बोधिसत्व, भारतीय संविधान के मुख्य शिल्पी, महान अर्थशास्त्री, महान समाज शास्त्री, नारी के जीवनदाता, दलितों के भाग्य विधाता थे जिनको बाबासाहेब के लोकप्रिय नाम से भी जाना जाता है। बाबासाहेब अम्बेडकर को भारत रत्न से भी 1990 में सम्मानित किया गया, जो भारत का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार है।

सबसे पहले उन्होंने मूकनायक के माध्यम से 1920 में अपनी महार जाति को आधार बनाया, 1927 में बहिष्कृत भारत के माध्यम से तमाम अछूत और बहिष्कृत जातियों को उसके साथ जोड़ा और सभी दलित वर्गों में  शिक्षा का प्रसार करने हेतु आंदोलन चलाए। अगस्त 1930 में शोषित वर्ग का सम्मलेन करके अपनी बात को दुनिया के सामने रखा। 1932 में उनके आंदोलनो का असर आया, द्वितीय गोलमेज सम्मलेन के बाद दलितों को कम्युनल अवार्ड मिला जिसके कारण गांधी जी को आमरण अनसन पर जाना पड़ा। अन्तत: बाबा साहब को विवश होकर गांधी जी के साथ पूना समझोते पर हस्ताक्षर करने पड़े। परिणामस्वरूप राजनीतिक और सामाजिक उत्थान हेतु आरक्षण का सेफगार्ड मिल गया। यह राजनीतिक आरक्षण दलित वर्ग के लिए ज्यादा कारगर सावित नहीं हुआ क्यों कि उच्च जातियों की राजनीतिक पार्टियों के चमचे (नेता) समाज का उत्थान करने की अपेक्षा अपनी सीट पक्की करने में ही रूचि रखने लगे । शिक्षा के माध्यम से जो पड़े लिखे लोग तैयार हुए वह आई.ए.एस. या उच्च पदों पर आसीन डाक्टर, इंजीनियर इत्यादि तो बन गए लेकिन उन्होंने समाज के उपेक्षित वर्ग की ऒर पीछे मुड़ कर नहीं देखा जिसके कारण समाज का एक बड़ा भाग गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी, भुकमरी और  अशिक्षा का शिकार हो गया । दुखी होकर बाबा साहब ने कहा था "मैंने सोचा था जिस दिन मेरे समाज में 10 बैरिस्टर, 20 डाक्टर और 30 इंजीनियर पैदा हो जाएंगे उस दिन इन पर कोई ऊँगली उठाने की हिम्मत नहीं कर सकता है, लेकिन बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि आज हजारों की संख्या में ऐसे लोग मौजूद हैं, जो सिर्फ अपना पेट भरने में लगे हुए हैं और समाज की तरफ मुड़ कर देखने की कोशिश भी नहीं करते हैं।"

कांशीराम ने पीड़ित जातियों को बहुजन वर्ग में बदला 

बाबा साहब डॉ आंबेडकर ने कमजोर और अछूत जातियों को मजबूत और असरदार बनाने के लिए कार्लमार्क्स के फार्मूले को सामाजिक वर्ग के निर्माण हेतु इस्तेमाल किया था। उनकी चिंता थी कि जातियां वर्ग में कैसे परिवर्तित हों (How to change Castes in the Class), जब पिद्दी जातियों का बड़ा वर्ग बन जाएगा तो उनकी भौतिक कमजोरी दूर हो जाएगी और लोक तांत्रिक तरीके से वे अपनी बात सरकार से दवाव बना कर मनवाने में सक्षम हो जाएंगे। कार्ल मार्क्स ने भी अपनी पुस्तक "दास कैपिटल" में कमजोर मजदूरों को मजबूत बनाने के लिए कहा था "दुनियां के मजदूरो एक हो जाओ, तुम्हारे पास खोने के लिए सिवाय जंजीरों के कुछ नहीं है, लेकिन जीतने के लिए समस्त संसार पड़ा है।"  

भारत के मजदूर असंगठित तो है ही लेकिन वे जातियों में बटे होने के कारण कभी भी इकठ्ठे नहीं हो सकते। इनको मनुबाद एवं पूंजीबाद मिलकर शिकार बनाते हैं, उंच-नीच कि भावना भरकर शुद्र या पिछड़ी जातियों को तोड़ कर रखना ब्राह्मणबादी हथियार है, दूसरी ऒर पैसे के बल पर मजदूरों के नेताओं को खरीद कर उनकी मागों को कमजोर कर देना बनियांबादी हथियार है। भूमाफिया या सामंत लोग खेत मजदूरों से डरा धमका कर बेगार ताथा बंधुआ मजदूरी जैसी अमानवीय प्रथा को भी भारत में अभी तक बरक़रार रखे हुए हैं।

अमानवीय प्रथाओं को समाप्त करने के लिए संविधान में बाबा साहब ने क़ानूनी सुरक्षा का प्रावधान किया है तथा अपना लोकतान्त्रिक प्रतिनिधि चुनने के लिए सामान वोट का अधिकार दिया है। राजा और फ़क़ीर वोट के मावले में बराबर है। निम्न जातियां वर्ग बना कर मजबूत जातियों का मुकाबला करने के लिए अपना राजनीतिक दल बना सकते हैं। इस दिशा में बाबा साहब ने 1935 में पहली अनुसूची बनाई तथा दूसरी अनुसूची जनजातियों हेतु 1951 में लागू हो गई, तीसरी अनुसूची हेतु बाबा साहब ने संविधान में अनुच्छेद 340 का प्रावधान किया था जिसके तहत काका साहब कालेलकर आयोग का गठन 1953 में किया गया उसने जो रिपोर्ट दी थी वह अस्वीकार कर दी गई तत्पश्चात 1977 में नया आयोग श्री विन्देश्वरी प्रसाद मंडल की अध्यक्षता में गठित किया गया। जिसकी रिपोर्ट 1980 में पार्लियामेंट के पटल पर रखी गई जिसमें अन्य पिछड़े वर्ग की जनसँख्या 52.1% आंकी गई। 52.1% आरक्षण अन्य पिछड़ी जातियों को देने की संस्तुति मंडल कमीशन ने की जिसको 1980 में इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार ने रद्दी की टोकरी में डाल दिया।

बाबा के मिशन को आगे बढ़ाने का बीड़ा मान्यवर कांशी राम जी ने 1980 में उठा लिया। बामसेफ के माध्यम से उन्होंने पूरे देश में हजारों कैडर कैम्प लगाए, सायकल यात्रा कीं, संगोष्ठियों तथा बड़े सेमिनारों के माध्यम से बड़ी तादात में समाज को  मानसिक रूप से तैयार किया। 1990 तक आते-आते अन्य पिछड़े वर्गों को भी आरक्षण मिल गया जो 1993 से अधिसूचित हो गया। इस प्रकार 1990 तक बाबा साहब का बड़ा वर्ग बनाने का सपना कारगर हो गया, "बाबा तेरा मिशन अधूरा कांशी राम करेंगे पूरा" नारे को कांशी राम जी ने मंजिले मकसूद तक पहुंचा दिया। भारत में आरक्षण क़ी तीन अनुसूचियां बन चुकी हैं, जिनके अनुसार 76.3% आबादी आरक्षण के दायरे में आ चुकी है सिर्फ 22.7% ही जनसंख्या शेष है जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, कायस्थ एव कुछ धार्मिक अल्पसंख्यक शामिल हैं। कांशीराम जी ने कहा था "जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी।" कांशीराम जी के आंदोलन का ही असर है कि आज हर जाति-वर्ग जनसँख्या के अनुपात में राजनीति, नौकरशाही, न्यायिक सेवा के अतिरिक्त शक्ति के अन्य स्रोतों में भी अपने समाज की हिस्सेदारी मांग रहा है। आज हर पार्टी के एजेंडे में धर्म और अर्थ के स्थान पर सामाजिक न्याय का बोलबाला है। छत्रपति शाहू जी ने कहा था "बूचड़ कभी भी भेड़-बकरियों  का रहनुमा नहीं हो सकता" इस लिए पीड़ित वर्ग को अपना नेता अपने वर्ग से ही चुनना होगा जो उनकी पीड़ा को अच्छी तरह से समझता ही नहीं बल्कि महसूस करता हो। कांशीराम जी ने पीड़ित वर्ग में नेतृत्व की क्षमता पैदा करके सामाजिक परिवर्तन की दिशा में नया आयाम जोड़ा। हिन्दू-मुस्लिम, गरीबी-अमीरी जैसे वर्गों का स्थान आरक्षण समर्थक बनाम आरक्षण विरोधियों ने ले लिया। इस लड़ाई में सामाजिक अधिकारों से वंचित बहुजन समाज (शूद्र-वर्ण) की जातियों की संख्या बहुत अधिक होने के कारण राजनीतिक संघर्ष में बहुजन सर्वहारा की लोकतान्त्रिक जीत होना निश्चित है। भाग्य, भगवान, तलवार और कानून के भय तथा धन के लालच से बहुत समय तक इस बहुसंख्यक समाज को गुलाम या गुमराही नहीं बना सकते। वह अंतत: वोट की लोकतांत्रिक ताकत के बल पर रक्तहीन क्रांति के माध्यम से सारी शक्तियां हासिल कर ही लेगा।

भारत में राष्ट्रीय समग्र विकास संघ चाहता है कि 22.7% वर्ग को भी आरक्षण के दायरे में लाकर शत प्रतिशत आरक्षण का सिद्धान्त देश मै लागू करके, सामाजिक न्याय की अवधारणा की नीव जो बाबा साहब ने रखी थी उसकी इतिश्री कर देना चाहिए। चौथी अनुसूची अगड़े एव सवर्ण समाज के लिए बनाना बाकी है। तदोपरांत चारों अनुसूचियों में शामिल जातिय वर्गों को आर्थिक रूप से संपन्न तथा आर्थिक रूप से विपन्न जैसे दो भागों में बाँट कर आरक्षण का सभी वर्गों हेतु प्रावधान किया जाना उचित रहेगा, जो सामाजिक न्य़ाय के अनुकूल तथा सर्व स्वीकार्य हो सकता है।

(यह लेखक के अपने विचार हैं, वे भारत सरकार में अपर आर्थिक सलाहकार रहे हैं)