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एक अधूरी सी आजादी- आर विक्रम सिंह

भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर  महात्मा गांधी का नेतृत्व काल 1917 में चंपारण से शुरू होता है। असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा, दांडी यात्रा और ‘भारत छोड़ो' के पड़ावों से गुजरते हुए तीस वर्ष के संघर्ष के बाद 1947 में आजादी का मुकाम हासिल हुआ। आजादी के आंदोलन में सामाजिक मुद्दों को उतनी अहमियत शायद इसलिए नहीं दी गई कि यह मान लिया गया कि आजादी के बाद मिल-बैठकर यह सब सुगमता से सुलझा लिया जाएगा। आजादी मिले सत्तर साल बीत चुके हैं, तो क्या सामाजिक आजादी के मुद्दों पर अब भी सवाल न पूछे जाएंगे? सामाजिक समस्याएं आज भी हमारा रास्ता रोके खड़ी हैं। इससे पहले कि हम जातियों को भूलने की सोचते, हम जातियों को और मजबूती में पकड़े रहने वाले बन गए।

बापू को इतिहास ने 1932 में ऐसा एक अवसर दिया था। उसे पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है। द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के बाद अंग्रेजों ने दलितों के लिए अलग वोटिंग अधिकार की व्यवस्था स्वीकार कर ली। अंबेडकर अपने तरीके से दलित उत्थान का आंदोलन चला रहे थे। उसे दलितों को हिंदू समाज से काटने के षड्यंत्र के रूप में देखा गया।

महात्मा गांधी ने राजनीतिक विषमता के विरुद्ध असहयोग आंदोलन किया, स्वदेशी की बात कहकर अंग्रेजों को आर्थिक चोट पहुंचाई, पर सामाजिक मोर्चे पर वह शोषकों के बहिष्कार की बात नहीं कह पाए। उन्होंने यह नहीं कहा कि मृत जानवरों का चमड़ा उतारना और मैला ढोना बंद कर दो। महात्मा गांधी को तो आजादी के बाद समय ही नहीं मिला, पर क्या सत्ताधारी गांधीवादियों ने सामाजिक आंदोलन खड़ा करने का कोई प्रयास किया? गांधी जी की प्राणरक्षा के लिए बाबा साहब ने पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर किए। उससे दलितों का प्रतिनिधित्व तो बढ़ा, पर दुर्भावनाओं में कमी नहीं आई।

सामाजिक आजादी की मुहिम के बगैर राजनीतिक आजादी का दलितों के लिए इसलिए कोई अर्थ नहीं था, क्योंकि अंग्रेजों के जाने के बाद भी उनकी गुलामी पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। सामाजिक आजादी राजनीतिक आजादी के मुकाबले कहीं बड़ा लक्ष्य था। अगर यह कहा गया होता कि जब तक देश के प्रत्येक मंदिर में दलित समाज के सदस्यों का प्रवेश स्वीकार नहीं हो जाता, तब तक के लिए आजादी का आंदोलन स्थगित रहेगा, तो भी फर्क पड़ता। लेकिन नेता सामाजिक आजादी के सवाल को पहले जिंदा नहीं होने देना चाहते थे कि कहीं सत्ता व अधिकार का रास्ता बहुत लंबा न हो जाए।

गांधी को अपना उत्तराधिकार गैरजिम्मेदार हाथों में नहीं देना चाहिए था। उन्हें जानना चाहिए था कि 1932 के पूना पैक्ट के बाद ये लोग दलितों से धोखा करने वाले हैं। 1932 के बाद दो वर्षों तक चले अपने अभियान में गांधी ने कहा था कि दलितों को सामाजिक रूप से कोढ़ी बना दिया गया है। इसके बावजूद उनके द्वारा दलित आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में सत्याग्रह, बहिष्कार अथवा असहयोग जैसा निर्णयात्मक अभियान न चलाने के कारण इस प्रयास का लाभ दलित समाज को नहीं मिल सका। दूसरी परेशानी खुद गांधी के वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक होने के कारण थी। इसीलिए जाति व्यवस्था की समाप्ति के प्रति भी उनका कोई आग्रह नहीं था। गांधी की उम्मीदों के विपरीत एक अधूरी-सी आजादी हमारे हिस्से में आई। अपने को आजाद समझ कर सामाजिक एकीकरण की जिस मुहिम को हमने बंद कर दिया है, उसे बदस्तूर चलते रहना है।

-लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के सदस्य हैं