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विकास और बहुजन की असल तस्वीर- एच एल दुसाध

विकास, विकास और विकास! विगत एक दशक से चुनाव दर चुनाव विकास का खूब शोर मच रहा है। विकास का यह शोर इस बार देश की राजनीति की दिशा तय करनेवाले यूपी में कुछ ज्यादे ही सुनाई पड़ रहा है। यहां भाजपा के मुख्य प्रचारक मोदी अन्य राज्यों  की भांति एक बार यूपी में भी यह सन्देश देने में सर्वशक्ति लगा रहे हैं कि ‘पिछले 70 सालों में यहां कोई विकास नहीं हुआ, भाजपा यदि सत्ता में आती है तो विकास की गंगा बहा देगी और यूपी का दत्तक पुत्र इस राज्य की तकदीर बदल देगा.हालाँकि विकास के शोर के बीच भाजपा यहाँ हिन्दू ध्रुवीकरण लायक माहौल बनाने में अतीत की भांति एक बार फिर पूरी शक्ति से मुस्तैद दिखाई पड़ रही है। किन्तु सपा के अखिलेश यादव तो विकास की बात करने में सबसे आगे निकल गए हैं। दलित-पिछड़े समुदायों में जन्मा कोई भी नेता शायद अबतक उनकी तरह विकास का मुद्दा उठाया ही नहीं। वह अपने कार्यकाल में मेट्रो और सड़कों के निर्माण सहित महिलाओं और आमजन की सुरक्षा के पुलिस व्यवस्था में जो सुधार किये,उसको विकास पैमाना बताते हुए लोगों के बीच अपने काम के आधार एक बार फिर वोट देने का आह्वान कर रहे हैं। उन्हें अपने विकास कार्यों पर इतना भरोसा है कि वे ‘धर्मनिरपेक्षता’ जैसे अतीत के अपने सबसे प्रभावी मुद्दे तक को दरकिनार कर दिए हैं। जब विकास का इतना शोर है तो यूपी के सत्ता की बड़ी दावेदार मायावती ही इसकी कैसे अनदेखी कर देतीं! लिहाजा विकास की प्रतियोगिता में उतरने के लिए वह लोगों को आश्वस्त कर रही हैं कि सत्ता में आने पर अतीत की भांति बहुजन नायकों के नाम पर पार्क और स्मारक इत्यादि न बनवा कर सिर्फ और सिर्फ विकास का कार्य करेंगी।          

काबिलेगौर है कि विकास नई सदी का एक नया फिनॉमिना है, जिसकी शुरुआत  2003 में मध्य प्रदेश से होती है। 1993 से लगातार मध्य प्रदेश की सत्ता पर काबिज दिग्विजय सिंह ने भाजपा के उभार को देखते हुए 2003 के चुनाव के लिए ऐसी चाक चौबंद व्यवस्था की थी कि वहां भाजपा के लिए हिन्दू ध्रुवीकरण लायक मुद्दा खड़ा करने का कोई अवसर ही नहीं बचा। चुनाव प्रबंधन में सबसे कुशल नेता की छवि बना चुके दिग्विजय सिंह ने जनवरी 2002 में दलित बुद्धिजीवियों का ऐतिहासिक सम्मलेन बुला कर डाइवर्सिटी केन्द्रित भोपाल घोषणापत्र जारी करने के साथ, उस पर अमल करते हुए तब 27 अगस्त, 2002 को अपने राज्य के समाज कल्याण विभाग की बस्तुओं की खरीदारी में एससी/एसटी के लिए सप्लाई में 30 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिया था। मध्य प्रदेश में ‘सप्लायर डाइवर्सिटी’लागू कर उन्होंने जो एक नई क्रांति की शुरुआत किया उससे पूरे देश में सन्देश गया था कि अब दलित भी उद्यमिता के जरिये लखपति,  करोड़पति बन सकते हैं। जिस तरह दिग्विजय सिंह ने ‘भोपाल कांफ्रेंस’ के जरिये आरक्षित वर्गों को जोड़ा, कुछ वैसा ही उपक्रम उन साधु-संतों को जोड़ने के लिए किया जो चुनावी अभियान में भाजपा की सबसे बड़ी ताकत हुआ करते हैं। ऐसा करके उन्होंने भाजपा को मुद्दाविहीन कर दिया था। ऐसे में हिंदुत्व के मुद्दे के लिए कोई अवसर न देखकर लाचार होकर भाजपा ने विकास का मुद्दा उठाया। विकास का मतलब बिजली, सड़क और पानी से था। वास्तव में बिजली-सड़क-पानी की स्थिति हर राज्य में ही शोचनीय थी, जिसका अपवाद मध्य प्रदेश भी नहीं था। संघ के तीन दर्जन आनुषांगिक संगठनों के प्रचारकों से लैस भाजपा ने 2003 में विकास (बिजली-सड़क-पानी) का जो मुद्दा उठाया, वह सुपर हिट साबित हुआ। इस मुद्दे के जोर से उसने 230 में से 172 सीटें जीत कर आम जनता सहित राजनीति के पंडितों को भी हैरत में डाल दिया।

2003 में विकास के मुद्दे के हिट होने के बाद भाजपा, 2004 में शाइनिंग इंडिया के मार खाने के बावजूद, इससे पीछे नहीं हटी और चुनाव दर यह मुद्दा उठाकर सफलता की सीढियां चढ़ती गयी। इस क्रम में मोदी का गुजरात विकास का सबसे बड़ा मॉडल बना, जिसके बूते ही वह पीएम की कुर्सी तक पहुँच गए। हालांकि भाजपा की चुनावी सफलता में विकास मात्र मुखौटा रहा, जिसकी आड़ में उसने ध्रुवीकरण का सफल गेम प्लान किया। किन्तु उसने सवर्णवादी मीडिया के सौजन्य से इस मुद्दे को इतना हवा दिया कि पिछले एक दशक से सारे के सारे चुनाव विकास पर केन्द्रित होते चले गए। हाँ इस क्रम में देश के विभिन्न अंचलों में ढेरों फ्लाई ओवर उग आये और सड़कें भी कुछ-कुछ चमकने लगीं। साथ ही विभिन्न राज्यों की राजधानियों में मेट्रो के पिलर और छोटे–छोटे कस्बों तक में शॉपिंग मॉल भी दिखने लगे। धीरे-धीरे भाजपा में ही सवर्ण समुदाय का भविष्य देखते हुए मीडिया ने इस चमकदार बदलाव से अभिभूत होकर नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार, नवीन पट्टनायक, शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह जैसों को भूमंडलीकरण के दौर का महानायक तथा लालू-मुलायम, माया-पासवान जैसे सामाजिक न्यायवादियों को खलनायक बना दिया। शायद सामाजिक न्यायवादियों का यह कलंक धोने के लिए ही अखिलेश यादव इस बार पूरी तरह विकास के मुद्दे पर केन्द्रित हो गए हैं, और भूले से भी सामाजिक न्याय को स्पर्श नहीं कर रहे हैं। बहरहाल आज मीडिया जिस विकास को हवा दे रही उस विकास का मतलब प्रधानतः बिजली, सड़क और पानी की स्थिति में सुधार और चमकते शॉपिंग माल्स से है जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को ध्यान में रखकर डिजायन किया जा रहा है एवं जिसका लाभ मुख्यतः देश के उस सुविधासंपन्न व विशेषाधिकार तबके को मिला है, जिसका शक्ति के स्रोतों पर लगभग एकाधिकार है। इसका सबसे स्याह पक्ष है इसकी रोशनी से दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यकों प्रायः पूरी तरह ही वंचित हैं। इस स्थिति ने एक दशक पूर्व ही देश के पीएम, राष्ट्रपति, अर्थशास्त्रियों और बुद्धिजीवियों को चिंतित कर दिया था।

वंचितों के जीवन में बदलाव लाने में इस विकास की व्यर्थता को देखते हुए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक दशक पूर्व कई बार अर्थशास्त्रियों से रचनात्मक सोच की अपील करते हुए कहा था कि इसका लाभ दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यकों नहीं मिला है। (हिन्दुस्तान, 16 दिसंबर, 2007)। विकास की इन खामियों से निपटने के लिए पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने बदलाव की एक नई क्रांति के आगाज का आह्वान कर डाला था। (पंजाब केशरी, 18 दिसंबर, 2007)। नोबल विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य ने कहा था, गरीबी कम करने के लिए आर्थिक विकास पर्याप्त नहीं है। सामाजिक न्याय का लक्ष्य पाने और आर्थिक असमानता दूर करने के सरकार की भूमिका और बड़ी व कुशल करने की जरुरत। (हिन्दुस्तान, 19 दिसंबर, 2007)। दस साल पहले निरंकार सिंह ने ‘एक हिस्से का विकास ‘नामक आलेख में कहा था’ हमारी समस्याएं जितनी गंभीर हैं, उसके सामने यह तरक्की बहुत छोटी है। हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती तो यह है कि इस तरक्की के लाभ को अपनी बहुसंख्य आबादी तक कैसे पहुंचायें। (दैनिक जागरण, 16 मई, 2007)। ’अब भी भयावह है गरीबी का चेहरा’ में आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ डॉ. जयंतीलाल भंडारी ने लिखा था, यह स्वीकार करना ही होगा कि विकास का मौजूदा रोडमैप लोगों के जीवन की पीड़ा नहीं मिटा पा रहा, इसमें संशोधन का समय आ गया है। यदि देश के गरीबों की व्यथा को नहीं सुना गया तो हमारे वर्तमान विकास के परिदृश्य में आर्थिक-सामाजिक खतरे और चुनौतियों का ढेर लग जायेगा’। (हिन्दुस्तान, 26 मार्च, 2007)।

बहरहाल आजाद भारत विषमता मिटाने का सबसे बलिष्ठ आह्वान संविधान निर्माता डॉ.आंबेडकर ने 25 नवम्बर, 1949 को  किया था, जिसकी अनदेखी पंडित नेहरु, इंदिरा गांधी, जय प्रकाश नारायण, राजीव गाँधी, नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी इत्यादि राजनीति के सुपर स्टार कर गए। बाद में जब नई सदी में विकास का नया दौर शुरू हुआ, उसके खतरों से निपटने के लिए एक दशक पूर्व देश के अर्थशास्त्रियों और बुद्धिजीवियों ने जो अपील किया, उसकी अनदेखी मोदी की भाजपा सहित दूसरे दल भी करते गए। फलतः पिछले एक दो सालों में विषमता पर देश-विदेश की जितनी भी रिपोर्टें आई हैं, उनमें पाया गया कि भारत जैसी विषमता दुनिया में कहीं नहीं है। इस मामले में वैश्विक धन बंटवारे पर क्रेडिट सुइसे की 2015 रिपोर्ट काफी चौकाने वाली रही, जिसमें बताया गया था कि सामाजिक आर्थिक न्याय के सरकारों के तमाम दावों के बावजूद भारत में तेजी से आर्थिक गैर-बराबरी बधी है। 2000-15 के बीच जो कुल राष्ट्रीय धन पैदा हुआ, उसका 81 प्रतिशत हिस्सा टॉप की दस फ़ीसदी आबादी के पास गया। जाहिर है शेष नीचली 90 प्रतिशत आबादी के हिस्से में मात्र 19 प्रतिशत धन आया। रिपोर्ट के मुताबिक़ 19 प्रतिशत धन की मालिक 90 प्रतिशत आबादी में भी नीचे की 50 प्रतिशत आबादी के पास 4.1 प्रतिशत ही आया।’

जाहिर है कि नई सदी में विकास की जो गंगा बही है उसमें  दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यकों को नहीं के बराबर हिस्सेदारी मिली। तेज विकास में बहुजनों की नगण्य भागीदारी आज सबसे बड़ा मुद्दा है, जिससे राजनीतिक दलों सहित मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग आँखे मूंदे हुए है। इसलिए विभिन्न चैनल चुनावी मुद्दों पर जो जनता दरबार लागा रहे हैं, वहां विकास में बहुजनों की नगण्य भागीदारी कोई मुद्दा ही नहीं है। अब जहां आज की तारीख में धन-संपदा इत्यादि पर दस प्रतिशत टॉप की आबादी का 81 प्रतिशत कब्ज़ा है, वहां यदि अमेरिका को म्लान करने वाली चमकीली सड़कें और कदम-कदम पर मेट्रो का जाल बिछ भी जाए तो इससे दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यकों को क्या मिल जायेगा? इस विकास का प्रायः 80 प्रतिशत से अधिक लाभ टॉप की दस प्रतिशत आबादी के हिस्से में ही जायेगा। ऐसे में मोदी और अखिलेश यादव यूपी में जिस विकास का शोर मचा रहे हैं, उसका बहिष्कार होना चाहिए। क्योंकि इस विकास में दलित-पिछड़ों और अल्पसंख्यकों से युक्त बहुजन समाज की बर्बादी का षड्यंत्र छिपा है। बहुजनों के लिए विकास का वही एजेंडा स्वीकार्य होना चाहिए जिससे धन-संपदा में उनकी संख्यानुपात में भागीदारी का रास्ता साफ़ होता हो। ऐसे में उन्हें ऐसे दल को चुनना चाहिए जिसकी नीति सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, फिल्म–मीडिया इत्यादि सहित विकास की तमाम योजनाओं में सभी सामाजिक समूहों की भागीदारी के अनुकूल हो।

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