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निशुल्क शिक्षा-चिकित्सा का फॉर्मूला

 कुबेरों के काले धन से निशुल्क शिक्षा-चिकित्सा हेतु कोष बने

-के सी पिप्पल
डॉ मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार के समय अन्ना हजारे, बाबा रामदेव और रविशंकर के चेहरे भ्रष्टाचार मुक्त भारत के मुद्दे पर आंदोलित थे। नागरिक समूहों और समाजसेवियों का भारी जन समर्थन उनके साथ था। इस समय गैर सरकारी और गैर राजनीतिक लोगों को जेड सुरक्षा मिली हुई है उनमें मोहन भागवत और अन्ना हजारे प्रमुख हस्तियां हैं, इसका क्या अर्थ लगाया जा सकता है?। 1996 से देश में चल रही गठबंधन की सरकारों से जनता तंग आ चुकी थी। लोगों को लग रहा था विदेश में काला धन जमा करने वालों और घरेलू काले धन के कुबेरों पर यूपीए सरकार मेहरबान है इस लिए भ्रष्टाचार चरम पर है सरकार का नियंत्रण सिथिल हो गया है। इस लिए जनता ने भाजपा के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनाने का जनादेश दिया था। फलत: श्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार किया गया। इस सरकार आठवीं साल में चल रही है, लेकिन काला धन लाने की बात तो दूर, उसके ऊपर कोई विचार भी नहीं किया जा रहा है। लोकपाल, भ्रटाचार और एनपीए (बैंक घोटाले) इत्यादि मुद्दे जिन पर सरकार बनी थी उन पर आज मीडिया में बिल्कुल चर्चा नहीं है। विपक्ष भी इन मुद्दों पर बिल्कुल शांत है। आज नए मुद्दे राजनीति के लिए गढ़ लिए गए हैं जिनकी कोई सार्थकता नहीं है सरकार चाहे तो इनको तुरंत हल कर सकती है। इन मुद्दों में हिंदू बनाम मुसलमान, किसान बनाम सरकार और जातीय जनगणना पर ओबीसी बनाम सरकार प्रमुख हैं, धार्मिक और जातीय तनाव को बरकरार रखने के लिए तीनों मुद्दों को सरकार गरम रखना चाहती है। सरकार की हठधर्मता से आज जनता फिर से परेशान है, बेहतर विकल्प की तलाश में जुट गई है। अब तक विपक्ष के बिखराव का भाजपा को लाभ मिला है परंतु जाति जनगणना के मुद्दे पर एनडीए में फूट नजर आने लगी है। अगला कामयाब विकल्प कांग्रेस और भाजपा को छोड़ कर क्षेत्रीय दलों की परिषद के रूप में उभर सकता है। इस दिशा में गंभीर प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, इस मुहिम में पंजाब, दिल्ली, बंगाल, महाराष्ट्र, उड़ीसा, बिहार, उत्तरप्रदेश, तेलांगना, आंध्रा, कर्नाटक, तमिनाडु और केरला इत्यादि के प्रमुख क्षेत्रीय दल शामिल हैं। उत्तरप्रदेश के चुनाव के बाद यह मुहिम जोरों शोरों से नजर आएगी।  
 
डूबा हुआ कर्ज आज भी बड़ा मुद्दा
 
अर्थव्यवस्था की धड़कन हैं बैंक, जो एक मध्‍यस्‍थता चैनल स्‍थापित करते हुए अर्थव्‍यवस्‍था में चलनिधि-बहुल घटकों के साथ-साथ चलनिधि-न्‍यून घटकों को एक साथ लाते हैं, जिससे अर्थव्‍यवस्‍था में निवेश के प्रति बचत का प्रवाह होने में मदद मिलती है। बैंकिंग  संस्‍थाएं मांग जमाराशियों के रूप में जनता से असंपार्श्विकीकृत निधि जुटाती हैं। मुख्‍य रूप से इन्‍हीं जमाराशियों से बैंक उधारकर्ताओं को ऋण देते हैं।
 
वित्त वर्ष 2014-15 में डूबा कर्ज 2,79,016 करोड़ रुपये था। वित्त वर्ष 2017-18 में यह बढ़कर 8,95,601 करोड़ रुपये पर पहुंच गया। बीते छह साल में सरकार ने इन बैंकों में 3.8 लाख करोड़ रुपये की पूंजी डाली है, जबकि बैंकों ने निजी क्षमता के आधार पर 2.8 लाख करोड़ रुपये जुटाए है। इसके अलावा बैंकों ने नॉन-कोर एसेट्स की बिक्री के जरिए 36,226 करोड़ रुपये जुटाए।
 
भारतीय रिजर्व बैंक के अनुमान के अनुसार, सितंबर 2021 तक बैंकों का एनपीए 13.5 फीसदी तक पहुंच सकता है। इस वित्त वर्ष की पहली तीन तिमाही में एनपीए 6,78,317 करोड़ रुपये से घटकर 5,77,137 करोड़ रुपये पर आ गया। सरकार ने एक सवाल के जवाब में संसद में यह जानकारी दी है।
 
लावारिश जमा राशि
 
देश के बैंकों और बीमा कंपनियों के पास पड़ी करीब ₹32455 करोड़ की राशि का कोई दावेदार नहीं है। वित्त मंत्री ने लोकसभा में बताया कि दावारहित जमा राशि में पिछले साल 26. 8 फीसदी का इजाफा हुआ है, जो लगभग 14578 करोड़ रुपये है। इसके अलावा जीवन बीमा कंपनियों के पास सितंबर 2018 तक करीब 16,887 करोड़ रुपये की जमा राशि पर दावा करने वाला कोई नहीं है। 
 
अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर
 
बड़े हुए एनपीए के कारण पहले से ही भारतीय उद्योगपतियों की साख खराब होने के कारण घरेलू उत्पादन क्षमता पर बुरा असर पड़ा है। सरकारी बैंकों की कुल गैरनिष्पादित परिसंपत्तियां (एनपीए) दिसंबर 2015 तक 7.30% तक पहुंच चुकी थीं। यह बात वित्तमंत्री ने CII के वार्षिक अधिवेशन में स्वीकार की थी। सार्वजनिक बैंकों का जिन बड़े पूंजीपतियों ने पैसा मार लिया है उनको विलफुल डिफाल्टर (दिवालिया) घोषित किया गया है, उनकी संख्या दिसंबर 2015 में 7600 थी, उनके ऊपर 66190 करोड़ रुपया बकाया था, जिनमें से 6818 लोगों पर केस फाइल हो चुके हैं और 1669 लोगों के  खिलाप FIR भी दर्ज हो चुकी हैं। उस समय तक लगभग  900000 करोड़ की ऋण अदायगी बाकी थी। यहां पर यह ध्यान देना होगा कि इस देश के धनकुबेर कैसे जनता का पैसा लूट रहे हैं। देश के 77 करोड़ लोगों के बराबर संपत्ति, केवल 15 घरानों के पास केंद्रित हो गई है। पूरे देश की अर्थव्यवस्था को सौ पूंजीपति घराने चला रहे हैं। यही कारपोरेट घराने देश की सरकार को भी अप्रत्यक्ष रुप से चलाते हैं। इसलिए उनके ऊपर कोई कानून लागू नहीं होता है।
 
धनकुबेरों के काले का सच 
 
1. मंदिरों में 50 लाख करोड़ का सोना दबा पड़ा है। 
 
2. देश में 50 लाख करोड़ का काला धन कुछ परिवारों के पास दबा पड़ा है। 
 
3. अपना पैसा सरकार की नजरों से बचाकर लगभग 28 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा विदेशी बैंकों में जमा कर रखे थे। जिनके नाम आज तक उजागर नहीं किए गए हैं। सरकार ने उनकी साख को बट्टा लगने से बचाया हुआ है। जबकि कुछ समय पहले पनामा अखबार द्वारा बड़ा खुलासा हुआ था।
 
राजनीति में काले धन का होता है दुरुपयोग
 
इलेक्शन के समय में राजनीतिक दल अवैध धन का इस्तेमाल मतदाताओं को लुभाने के लिए करते हैं ताकि उनका मतदान अपने पक्ष के कराया जा सके। विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देकर जब सरकार किसी विशेष राजनीतिक दल की बन जाती है तो उसकी भरपाई भ्रष्टाचार के द्वारा करते हैं, ऐसे बहुत से मामले जनता के सामने हैं। इस प्रकार अवैध संसाधनों के बल पर बनी सरकारों से देश के समग्र विकास की कैसे उम्मीद की जा सकती है।
 
इस संबंध में हमारे सामने चार प्रश्न खड़े होते हैं-
 
1.  16 वर्ष तक के बच्चों को निशुल्क यूनिफॉर्म शिक्षा कैसे मुहिया हो। क्या निजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने का खर्च दिहाड़ी मजदूर, किसान, रेहड़ी पटरी वाले, रिक्शा चालक, आउटसोर्सिंग कर्मचारी और दस्तकार लोग स्वयं वहन कर सकते हैं? यदि नहीं तो उनकी जिम्मेदारी क्या सरकार को नहीं लेनी चाहिए?
 
2.  भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाने के लिए क्या चुनाव सरकारी खर्चे पर नहीं होने चाहिए? ताकि ईमानदार और सच्चे समाज सेवक पार्लियामेंट में पहुंच कर भारतीय संविधान के मुताबिक कानून बना कर जनसेवक सरकार चला सकें।
 
3. तीसरा महत्वपूर्ण प्रश्न रिजर्वेशन से संबंधित है। क्या आज उपलब्ध प्रशासनिक सेवाओं में समाज के सभी वर्गों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व की आवश्यकता नहीं है? यदि हां तो विभिन्न वर्गों द्वारा अब तक हासिल की गई प्रशासनिक सेवाओं में हिस्सेदारी और उनकी जनसंख्या की गणना सेंसस द्वारा नहीं होनी चाहिए? आज देश में सभी समुदाय सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसलिए क्या नियमित रोजगार में सभी सामाजिक वर्गों एससी, एसटी, ओबीसी और सवर्ण समाज के पुरुष (गरीब और अमीर) और महिलाओं (गरीब और अमीर) को प्रतिनिधित्व नहीं मिलना चाहिए? यदि हां तो सरकार जातीय जनगणना कराके चारों वर्गों के आयोगों को समन्वित फार्मूला बनाने की पहल करे और उस पर संसदीय बहस के बाद कानून बनाए।  
 
4. देश में आजादी के 70 वर्ष बाद भी स्वास्थ्य सेवाएं समन्वित रूप से गरीब और अमीर, ग्रामीण और शहरी सभी को निशुल्क रूप से उपलब्ध नहीं हो सकी हैं। प्राइवेट अस्पताल सेवा के लिए नहीं बल्कि लाभ कमाने के लिए बनाए जाते हैं। बीमा कवर देने से भी सभी लोगों तक सुविधा नहीं मिल सकी अभी कोराना काल में बीमा कम्पनियां और निजी अस्पतालों ने अपनी जिम्मदारियों को नहीं निभाया। इस लिए स्वास्थ्य सेवाओं पर औसतन खर्च से एक सामान्य परिवार की आय आधी रह जाती है। अगर शिक्षा और स्वास्थ्य की देखभाल सरकार अपने हाथ में ले ले तो आम आदमी की आमदनी अपने आप दोगुनी हो जाएगी। अत: शिक्षा और स्वास्थ्य का राष्ट्रीयकरण जरूरी है।
 
यदि हमारी सरकार उपरोक्त चारों सवालों पर गंभीरता से अमल करती है तो देश का समग्र और संतुलित विकास होना निश्चित है। इन प्रश्नों को हल करने के लिए कुछ धन की अतिरिक्त जरूरत पड़ेगी उसके लिए राष्ट्रीय कोष निर्मित किया जा सकता है। देश और विदेश का काला धन और मंदिरों में जमा सोना, सरकारी बैंको और बीमा कम्पनियों की लावारिश जमा राशि, बैंक डिफाल्टरों की संपत्ति से अर्जित धनराशि, एमपी और एमएलए लेड इत्यादि राष्ट्रीय कोष के स्रोत हो सकते हैं।