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पत्रकारिता ध्येय से धंधे की ओर- नवल किशोर 

 यह तथ्य कष्टकारक है कि वाणी की विश्वसनीयता को उपभोक्ता संस्कृति की आंधी ने क्षत-विक्षत कर दिया है। आदर्श का भाव खिसककर  रसातल में चला गया है। व्यवसायिक प्रदूषण में आकंठ डूबे लोग भी आदर्श की ऊँची आवाज में पुकारने लगे हैं। केवल राजनीति के प्रति ही  नहीं, राजनीति के सनकीपन की मुद्रा की स्थित में, टोक-टाक करने वाले मंच, विभाग, साहित्य, इलेक्ट्रॉनिक एवं सोशल मीडिया,पत्रकारिता  और शिक्षा संसथान के प्रति अनास्थाशील और निष्क्रिय होना ही आज का सांस्कृतिक संकट है। संस्कारी लोग भी आदर्शवाद के उच्चारण में  संकोच करने लगे है, फिर भी मुठ्ठीभर लोग मूल्यों की पहरेदारी करने में आग्रह पर जुटे रहते हैं। यदि दिये में तेल और बाती हो तो एक दिया  भी अंधकार को न केवल पराजित कर देता है बल्कि मूल्यों के पहरेदार को हताश होने से बचाता है।

वास्तविक तथ्य है कि जातीय और धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक लालच की गतिमान उर्जा ने पत्रकार के चरित्र को और अधिक मजबूती प्रदान करने के स्थान पर इन्हीं के कारण उसे अधिकतम कमजोर किया। ब्रिटेन की साम्राज्यवादी व्यवस्था के प्रतिरोध में भारतीय पत्रकारिता ने अग्रिम भूमिका निभाई  ब्रिटिश काल में पत्रकारों की साधना का एक ही लक्ष्य था  कि साम्राज्यवादी अभिशाप से मुक्ति। तब बे बड़ी से बड़ी यातना झेलने को न केवल तैयार रहते थे बल्कि तत्कालीन साजिस  रचने वाले और बड़े से बड़े प्रलोभन उनके आदर्श को भंग करने में विफल रहे थे, लेकिन आज ऐसा नहीं है। पहले पत्रकार की  भूमिका लोकनायक की होती थी। परतंत्रता के समय सभी कार्य कृत्रिम हुआ करते थे और बाध्यकारी भी। पहले अभाव का अनुभव हो फिर जब आवश्यकता उत्पन्न हो जाय तब उस आवश्यकता की पूर्ति की जाय इस हेतु किसी संस्था का निर्माण हो। इसी आधार पर पत्रकारिता का उद्भव हुआ था।

ब्रिटेन में इसका विकास धीरे- धीरे हुआ। लन्दन से दूर रहने वाले अमीर उमरा शाही ने दरबार के समाचार जानने के लिए अपने संवाददाता रखे थे। ये उन्हें प्रति सप्ताह या प्रति माह समाचार लिखकर भेजते थे। इसी प्रकार के संवाददाताओं में से कुछ लेखक पैदा हुए, जिन्हें संपादकों का आदिपुरुष माना जा सकता हैं। यही लेखक कुछ सरदारों को इसी प्रकार के पत्र लिखने लगे जिससे सरदारों को एक से अधिक समाचार मिलने लगे। पत्र-लेखक किसी एक सरदार की नौकरी न करके कई-कई सरदारों को लेख, समाचार भेजकर अधिक से अधिक जीविकोपार्जन हेतु अधिकतम आय का स्त्रोत बना लिया। मुद्रायंत्र की खोज के बाद ये समाचार छपने लगे और अधिक समाचार छापकर भेजने लगे फिर तो जैसे-जैसे आविष्कार होते गए। रेल, हवाई जहाज जैसे संसाधनों का उपयोग होने लगा। स्वाभाविक रूप से समाचार पत्रों की भी उन्नति होती गयी। लेकिन भारत की कहानी इससे अलग प्रतीत होती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में पत्रकारिता पहले मौखिक हुआ करती थी जिसका प्रतिनिधित्व महिलाए खुले में शौच के समय सायंकाल समाचारों का आदान-प्रदान किया करती थी, आदमी अलाव पर बैठ कर लाइव समाचार सुनाते थे जो आजकल इलेक्ट्रोनिक मीडिया कर रहा है। समाचारों को बाहर भेजने के लिए पक्षी भी प्रयोग में लाये जाते थे। महाभारतकाल में द्रोपदी के साथ दुर्योधन के द्वारा किया गया व्यवहार और उसका प्रसारण भी इसी श्रेणी का समाचार था। संजय द्वारा महाभारत का आँखों देखा वर्णन भी मीडिया की हकीकत का समाचार ही था।

पत्रकारिता के चहरे, चाल, चरित्र में आजादी के बाद के पिछले दशकों में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए है। पूंजी का वर्चस्व बढ़ गया है। साधन सुविधाओं में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। पद की गरिमा के अनुकूल आज का पत्रकार न केवल उदासीन नजर आता है बल्कि देश के दुर्भाग्य को अपना दुर्भाग्य मानने और अपनी विरासत के उज्जवल अध्याय को अपना आदर्श मानने के लिए तैयार नहीं है। समाज के अन्य लोगों की तरह अपनी समृद्धि और भोग बिलास वैभव में जीने की ब्याकुलता से आंदोलित होकर रंगीन राहों, और घाटों पर दौड़ता नजर आता है। पत्रकारिता की विकसित सुविधाओं और अनुकूल साधनों का उचित दिशाओं में नियोजित होने में विफल हो रहा है। पीड़क यथार्थ यह है कि समाज संस्कार की सजातीय और विशिष्ठ भूमिका से मौजूदा पत्रकारिता काफी विरत हो चुकी है। जिससे इस धारणा की पुष्टि होती है कि पत्रकार के चेहरा, चाल चरित्र में स्खलन हुआ है और पत्रकारिता का धवल धरातल बड़ी तेजी से प्रदूषित हो रहा है। इस प्रदूषण के प्रति वर्तमान लक्षणों को लक्ष्य करके पुराने पत्रकार आसन्न अन्धकार के प्रति चिंतित थे। इस सन्दर्भ में गणेश शंकर विद्यार्थी, शिवपूजन सहाय, बाबूराम वी. पराड़कर ने पत्रकार कुल की धवलता को बनाए रखने के लिए बार-बार तीव्र आग्रह प्रकट किया था परन्तु पूंजी प्रताप ने पत्रकारिता की मूल्य-मर्यादा को बुरी तरह क्षत-विक्षत कर दिया है। व्यवसायवाद ही एक मात्र आदर्श और लक्ष्य बन गया है। स्खलन के नए मुहावरे से महिमामंडित करते हुए गर्वपूर्वक कहा जाने लगा है कि पत्रकारिता आज ध्येय नहीं, एक धंधा बन चुका है। आदर्श का सवाल उठाना अप्रासंगिक राग आलापना है। आत्मश्लाघा के साथ ऐसी घोषणा करने वाले निरापद जिंदगी के कायल, आज के सुविधाजीवी लोग यह भूल जाते हैं कि प्रत्येक व्यवसाय की स्वतंत्र प्रकृति और एक आचार संहिता अवश्य होती है। अन्य व्यवसाय से भिन्न प्रकृति पत्रकारिता की होती है। इस भिन्नता में ही उसकी विशिष्टता और महत्ता है। मगर समाज के अर्थ संपन्न लोगों की तरह उपभोक्ता संस्कृति को ही अपने विलासोन्मुख आचरण द्वारा अपना धर्म मानने वाले आज के पत्रकारवृत्ति-विशिष्ठता के बोध और उससे जुड़े गुरुत्तर दायित्व से उदासीन हो चुके हैं। परिणामस्वरूप राजनीतिक, व्यावसायिक, प्रलोभनों की रंगीन माया में भटकना और अपनी विपथगामी यात्रा से अपने कुल-गोत्र के प्रति अन्यथा धारणा को जन्म देना उनकी लाचारी बन गयी हैं।

पूंजीपति घरानों के हाथ में समाचारपत्रों के प्रकाशन का कार्य उद्योग के रूप में स्थापित हुआ है और स्वस्फूर्त ढंग से विकसित पत्रकारी मानसिकता उन मीडिया घरानों में चाकरी करने लगे, तभी से निश्चितरूप से स्वतंत्र पत्रकारिता से निर्भीकता गायब हो चली है। अब पत्रकार को अपने मालिक समूहों के चहरों को हर क्षण ताकना पड़ता है और मालिक को खुश रखना उनकी बाध्यता है। अब पत्रकार ने भी अपनी चाकरी को बरकरार रखने के लिए मिलकर चलने की ठान ली और एक एसा वर्ग तैयार हो गया जो अभावों का जीवन जीने की बजाय, मीडिया घरानों के स्वभाव के अनुरूप पूंजी का उत्पादन करते हुए, उनके प्रभाव में आकर अपने मूल चरित्र को खो बैठा है और पीत पत्रकारिता करने लगा। पेड न्यूज़, सरकारी विज्ञापन, उद्योगपतियों के उद्योग सम्बन्धी विज्ञापनों, निहित स्वार्थी तत्वों के सत्य से परे और अनैतिक विज्ञापनों आदि के बन्दर बाँट में सहयोग करते हुए समाचारों की निष्पक्षता खो बैठा है जिससे समाचारों की विश्वसनीयता और प्रासंगिकता ही प्रश्नचिन्ह के घेरे में आ खड़ी हुई है यदि इस पर मंथन करते हुए रोक नहीं लगायी गयी तो वह दिन दूर न होगा जब पत्रकारिता की विश्वसनीयता का न केवल संकट उत्पन्न हो जायेगा बल्कि अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा।

इलेक्ट्रॉनिक्स मीडिया के चैनलों पर जब बहस को सुनते हैं तो स्तरहीन बहस सुनकर लगता है कि बहस के लिए जो विषय वस्तु विशेषज्ञ बुलाये जाते हैं वे उस विषय के अतिरिक्त सब कुछ जानते हैं जिससे बहस भटकती नजर आती है। एंकरिंग करने वाले पत्रकार बंधू तो एसा लगता है कि स्वयभू आल राउंडर विशेषज्ञ हैं और वह आगंतुकों को इस प्रकार से डांटते है जैसे वह आज उनके दास हैं। वक्ताओं की वेशर्मी का नमूना देखिये कि वे भी न तो मैदान छोडकर भागते है बल्कि जमकर चीख-चीखकर विषय के अतिरिक्त अपनी निष्ठाओं के प्रति जमकर भड़ास निकलते हैं। यह देखकर श्रोता उलटी करने लगते हैं और घरवाले उनके स्वास्थ्य की कामना करते हुए टीवी को बंद करने में ही भलाई समझते हैं।

चिन्ताशील जगत को यह स्थित ब्यथित करती रहती है कि जो भाषा सामाजिक, राजनैतिक दुष्कर्मों पर बेलाग टिप्पणी करती रहती थी। पत्रकारों की जो भूमिका मूल्यों के संरक्षण का  आश्वासन देती थी, वह आज के राजनीतिज्ञों के आचरण की तरह संदिग्ध हो गयी है। भाषा की विश्वसनीयता का टूट जाना सांस्कृतिक संकट का संकेत है। पत्रकारिता राजनीतिज्ञों के मुहावरों की प्रति ध्वनि सी लगाती है पहले पत्रकार अपने सम्रध्द ब्यक्तित्व और विवेक का प्रयोग करके राजनीती को दिशा निर्देश देते थे। एक बार स्वतंत्रता दिवस पर भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू लाल किले पर ध्वजारोहण के समय सीढ़ियों पर लड़ खड़ा कर गिरने लगे तो पीछे चल रहे रामधारी सिंह दिनकर ने उनको सहारा देकर गिरने से बचा लिया था, शुक्रिया अदा करते हुआ नेहरु ने कहा था कि आज दिनकर जी आप सहारा न देते तो मैं  संकट में पड़ जाता, इसका तपाक से उत्तर देते हुए दिनकर ने कहा कि नेहरु देश की राजनीति जब भी लडखडाई है तो साहित्य ने सहारा दिया। पत्रकारिता राज सत्ता के प्रतिपक्ष की भूमिका निभाने में अग्रणी थी, है, और आगे भी रहनी चाहिए। तभी इनको चतुर्थ स्तम्भ की संज्ञा दी जानी चाहिए। संविधान में चतुर्थ स्तम्भ जैसे कोई ब्यवस्था नहीं है । साम्राज्यवादी न्रशंसता और कठोर मुद्रा में पत्रकार मुकाबला करते थे उसी जागरूकता और औचित्य के आग्रह स्वदेशी राजनेताओं पर टिप्पड़ी करते उन्हें संकोच नहीं होता था। आज का पत्रकार राजनीति और राजसत्ता की अनुकूलता उपलब्ध करने के लिए उनके मुहाबरे में बोलने लगा है। उपभोक्ता संस्कृति ही पत्रकारों की संस्कृति बन चुकी है। पत्रकार बुध्दिजीवी वर्ग की उस श्रेणी के यात्री है, समाज के लिए जिनकी भूमिका प्रत्यक्ष प्रभावी होती है। इसलिए इस पथ के यात्री के लिए अपेक्षाकृत अधिक जागरूकता की जरुरत होती है। किसी पत्रकार की स्वार्थ परक पत्रकारिता कहीं लोक के अमंगल का कारण न बन जाय इसका ध्यान सदेव पत्रकार को रखना ही चाहिए।

पत्रकारिता सामाजिक सरोकारों से दिन प्रतिदिन दुरी बढ़ाती जा रही है जैसे:- दहेज़ प्रथा जाती प्रथा, बल विवाह, कन्या हत्या, भ्रूण हत्या, घरेलु हिंसा, बल अपराध, बाल विवाह, संयुक्त परिवारों का टूटना, माँ एवं बच्चों के स्वास्थ्य की देख-रेख, ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाएँ, भ्रष्टाचार, ब्य्भिचार, यौनरोग, स्वच्छता, जनसँख्या ब्रद्धि पर रोक, वर्ण व्यवस्था आदि पर जनजागरण का कार्य पत्रकारिता के माध्यम से किया ही जाना चाहिए। कोई भी पत्रकार ग्रामिनोंमुखी नहीं नजर आता है। कृषि सम्बन्धी जानकारिय, बाढ़, सुखा, महामारियां और उनका उपचार, खेती से सम्बन्धित जानकारियों के सामजिक सरोकारों से विमुख पत्रकारिता ही नजर आती है। इसी प्रकार से विभिन्न समाचार पत्रों में धार्मिक और नैतिक रूप से धर्मान्धता, ढोंग, आडम्बर, कुरीतियों, रुढियों, अज्ञानता, अन्धकार आदि पर किसी प्रकार की टीका टिप्पणी न करके इनके पक्ष में दुष्प्रचार करने नजर आते हैं। इसी प्रकार से तथाकथित ग्यानी पुरुष टी वी पर अपने ज्ञान को बघारते हुए जन मानस में अपना ज्ञान ठूंस-ठूंस कर भरते रहते हैं जिसमें वर्तमान को नरक बनाते हुए भविष्य और अगले जन्म का उद्धार करने का प्रवाचन तो करते है, लेकिन अपने पास अथाह सम्पात्ति का न केवल संचयन करते है बल्कि अपने आगे की पीढ़ियों की भी ब्यवस्था करते नजर आते है। आज की उद्योगी पत्रकारिता येन, केन, प्रकारेंण स्वर को छोड़कर स्वर्ण, सुरा, सुंदरी में लिप्त नजर आती है।

पत्र बेचने के लोभ में अश्लील समाचार को महत्व देकर तथा दुराचारंमुलक अपराधों का चित्ताकर्षक वर्णन कर पत्रकार परमात्मा की द्रष्टि में अपराधियों से भी बड़े अपराधी बन रहे हैं। इस तत्थ्य को कभी नहीं भुलाना चाहिए। अपराधी किसी एक पर अत्याचार करके दंड पता है और पत्रकार सम्पूर्ण समाज की रूचि बिगाड़कर आदर पाना चाहता है जो उचित नहीं है। यही कारण है कि आज का सुधि पाठक शीर्षक पढकर ही अपनी अरुचि के कारण समाचार पत्र को निष्प्रयोज्य घोषित कर देता हो और कहता हैं कि पढ़ने योग्य कुछ भी तो नहीं है। हिंदी साहित्य से पत्रिकाएं विलुप्त प्रायः हैं। समाचार पत्रों से साहित्यिक कहानियाँ ब्यंग,कविता,बाल कविता,और कहानियां आदि भी विलुप्त हो चुकी है। पत्रकारों का साहित्यिक ज्ञान, ब्याकरणीय ज्ञान, नैतिक मूल्यों का ज्ञान सामाजिक संरचना का ज्ञान नगण्य है । एसा समाज जो अनादिकाल से किन्हीं कारणों से वंचित है, उनके विषय में जन जागरण तो दूर की बात है, वहां तक पहुचने की सोच तक आज की पत्रकारिता विकसित नहीं कर सकी है, जो सोच आजादी से पूर्व और तत्काल बाद की पत्रकारिता में निष्कलंक, निष्कपट नजर आती थी वह आज के पत्रकार समाज से अनंत की दूरी पर न तो विराजमान है बल्कि विलुप्य होती नजर आती है। साहित्य समाज का दर्पण होता है। इस मुहाबरे को भी वार्तमान पत्रकारिता में विलुप्त नजर आती है।

पत्रकारिता की भाषा मुद्ण लोक हितेइशी भूमिका नहीं मानी जा सकती। समाज का भाषा संस्कार पत्रकारिता का महत्वपूर्ण प्रयोजन है। परवर्ती काल में भाषा धरातल की धवलता के प्रश्न को लेकर पत्रकारों ने इतहास प्रसिध्द विवाद की रचना की थी जिसका परिणाम भाषा सम्रध्दी की उपलब्धि थी। ऐतिहासिक तथ्य यह है कि प्राचीन पत्रकार अनेकमुखी प्रतिकूलता के बाबजूद अपनी निष्ठां से अपने समय की चुनौती का सामना करते थे जिस समाज को बे संबोधित करते थे उनकी लड़ाई में सहयोगी बनने को तैयार थे। उस समाज का राजनैतिक संस्कार विकसित न था अज्ञान की कठोर जमीं से आस्था की लड़ाई थी। मगर वे उस ऊँचे जातीय आदर्श से प्रेरणा स्फूर्ति लेते थे। राजनीती और समाजनीति का विश्लेषण जैसा समाचार पत्रों में होता था। परन्तु आज स्थिति पूर्णतः बदली हुई नजर आती है। पत्रकारिता के विकसित सुविधाओं के आकर्षण में इस विद्या से निरापद और विलासपूर्ण जीवन की आकांक्षा जुडी रही है। इसलिए अपने धर्म की बुनियादी आचार संहिता का भी उन्हें ध्यान नहीं रहता। विलास की अमर्यादित भूख और ब्यवसाय बाद की प्रभुता के सामने निष्ठां की रक्षा कर पाना उनके सामने एक बहुत बड़ी चुनौती है। आज इस चुनौती का सही द्रष्टिकोण से सामना करने वाले पत्रकार  बिरले ही हैं।

पीडक तथ्य वर्तमान इतिहास का सत्तासीन स्वदेशी राजनीती ने बुध्दिजीवियों के सामने आपात्त्कल के रूप में जो चुनौती खड़ी की थी जो स्वतंत्र भारत की पत्रकारिता के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी तो बड़े-बड़े लोगों की गुमानी मुद्रा घ्रणित हो चुकी थी। स्वदेशी सरकार के कुशासन,स्वेच्छाचारित, और दाम्भिकता के प्रतिरोध में जयप्रकाश नारायण का आन्दोलन था इस आन्दोलन के पक्ष में इंडियन एक्सप्रेस रंग्भेरी, चौरंगी बारता आदि की भूमिका राष्ट्रीय निष्ठां और चरित्र प्रेरित भूमिका थी। पहले संपादक की लेखनी स्वतंत और निष्पक्ष होती थे पत्रकारिता आजीविका का साधन तो होती थी परन्तु विलासिता से दूर:-

साईं इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय।

मैं भी भूखा न रहूँ साधू न भूखा जाय।    

सम्पादक के कुछ सिध्दांत होते थे। लेखनी स्वतंत्र होती थी किसी का मुहँ ताकने की जरूरत न थी संपादक नामधारी ब्यक्ति पर बड़ा उत्तरदायित्व रहता है उसके चारों और विशेष अलंघ्य रेखा विद्यमान रहती है जिसके बाहर जाकर सांस लेने की भी आज्ञा उसे नहीं  होती। नियत समय पर पत्र प्रकाशन का दायित्व होता है। भोजन करना न करना, निद्रा का त्याग करना, पानी पड़े या पत्थर पड़े, लू चले या आग वरसे, बीमार हो, मरता हो, हँसता हो आदि किसी भी परिस्थति में भूकंप, जल प्लावन, बीमारी आदि अनेक समस्याओं का सम्पादक के जीवन से कोई सरोकार नहीं होता। सब आवश्यक वस्तुओं का संकलन करना ही है। प्रति दिन लिखना ही है, विषय मिले या न मिले। मस्तिष्क यंत्रवत हो जाने, बुध्दी कुंठित होने आदि का कोई मतलब नहीं है। बाध्यकारी लेखन, प्रकाशन स्वामी, पाठक जन साधारण के सम्मुख लेकर उपस्थित होना ही है। यदि आप पत्रकार है तो आपको उन विषयों से रूबरू होकर कार्य करना ही है जिनको आप पसंद नहीं करते हैं। फिर भी वर्तमान में इन्टरनेट के आने से कट, कॉपी, पेस्ट की पत्रकारिता प्रारम्भ हो चुकी है। साहित्यिक भाषा पत्रिकाए, ब्याकरण से पत्रकारिता दूर हो रही हैं फिर भी जैसे साधक के लिए साधना का, त्याग के लिए उत्सर्ग का, तपस्वी के लिए अनासक्ति का, योध्दा के लिए रण का, कवी के लिए अनुभूति की अभिब्यक्ति का, आलोचक के लिए जीवन की स्थूल और सुक्ष्म धारा  के विवेचन का, साहित्य के लिए लौकिक और अलौकिक, यथार्थ और भावुक जगत को प्रकाश में लाने का पथ एक साथ ही उपस्थित करने में पत्रकारिता के अतिरिक्त आज कौन समर्थ है? ज्ञान और विज्ञानं, दर्शन, और साहित्य, कला और कारीगरी, राजनीति और अर्थनीति, समाजशास्त्र और इतिहास, संघर्ष और क्रांति, उत्थान और पतन, निर्माण और विनाश, प्रगति और दुर्गति के छोटे-बड़े प्रवाहों को प्रतिबिंबित करने में पत्रकारिता के समान दूसरा कौन सफल हो सकता है? जीवन, समाज, संस्कृति, और विश्व का उत्कृष्ठ दर्पण बनाने में पत्रकार कला के समान और कौन आज दूसरा है? अन्याय का प्रतिरोध करने में नए विचारों और कल्पना का वाहक बनने में, आम जन के सन्देश का अग्रदूत होने में तथा अंततः जीवन सागर में उठने वाली हिलोरे, तरंगो और तूफानों का प्रतिनिधित्व करने में पत्रकार कला की सजीव प्रतिमा के रूपमें आधुनिक पत्र अपना सानी नहीं रखते। इसी कारण से ब्यापक मानव समाज पर उसका अभूतपूर्व प्रभाव है।         

प्रभावी मीडिया में वह ताकत होती है कि वह सत्तसीन को सत्ताविहीन करदे, या सत्ताविहीन को सत्ता की कमान सौप दे। भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय आपातकाल इसी सच का प्रतिनिधित्व करता है। भीड़तंत्र को नियंत्रित करने की क्षमता भी रखता है और शांत भीड़ को अनियंत्रित करके ज्वाला भड़काने का कार्य करने की क्षमता इस तंत्र में सदैव से विद्यमान है। मीडिया कार्मिको को चापलूसी छोड़कर अपने संगठनों का सहारा लेकर प्रकाशक समूहों से सामंजस्य स्थापित करते हुए धंधे के साथ ध्येय को आगे बढ़ाना चाहिए। साथ ही समाज के लिए प्रखर प्रहरी का कार्य भी करना चाहिए। राष्ट्र नियंताओं को भी दिशा दिखाने का काम मीडिया ही कर सकता है। मुझे कवी हरिओम पवार की निम्न पंक्तियाँ याद आती है :-

          जमींन बेच देंगे, गगन बेच देंगे,  चमन बेच देंगे, सुमन बेच  देंगे।

                कलम के सिपाही ग़र चुप रहे, तो वतन के मसीहा वतन बेच देंगे ।।

लेखक: आई० सी० सी० एम० आर० टी० के पूर्व निदेशक रहे हैं।