अभी आपने विभिन्न अख़बारों में पड़ा होगा कि चुनावो के खर्चे को पूरा करने के लिए राजनीतिक दल किस -किस तरीके से चंदा जुटाते हैं। जनता को गुमराह करने के लिए आपस में एक दूसरे के उपर छींटा-कसी करते रहते हैं। सवाल यह है कि चुनाव में राजनीतिक दलों को अनाप सनाप खर्च करने की इजाजत ही न दी जाय। यह तभी संभव हो सकता है की चुनाव खर्च के लिए एक सरकारी फंड बनाया जाय। इस सम्बन्ध में दिनांक 6-2-2014 के अख़बारों में छपी एसोचेम की एक रिपोर्ट नीचे देखिये।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों का खर्च होगा 200 करोड़ रूपए!: एसोचैम
दिल्ली विधानसभा के सात फरवरी को होने वाले चुनाव में राजनीतिक दलों द्वारा 150 से 200 करोड रूपये खर्च किए जाने का अनुमान है। उद्योग मंडल एसोचैम ने गुरूवार को कहा कि इसमें से अधिकांश धन राजनीतिक दल खर्च करेंगे जबकि उनके उम्मीदवारों का निजी खर्च कम रहेगा। नवम्बर 2013 में हुए विधानसभा चुनाव की तुलना में यह खर्च 30 से 40 प्रतिशत अधिक होगा।
एसोचैम ने कहा कि चुनाव पर होने वाले खर्च में बढ़ोतरी की मुख्य वजह प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में राजनीतिक दलों द्वारा दिये जा रहे विज्ञापनों की लागत बढ़ना है। मुख्य खर्च रैली, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विज्ञापनों पर हो रहा है। यह कुल खर्च का 60 प्रतिशत तक होगा। उद्योग मंडल के महासचिव डी.एस. रावत की तरफ से जारी नवीनतम आंकलन में कहा गया कि उम्मीदवारों के निजी तौर पर खर्च करने की सीमा तय है। जबकि राजनीतिक दलों के लिए ऎसी कोई सीमा नहीं है। यह ऎसी खामी है जिसे दुरूस्त करने की जरूरत है।
साथ ही रावत ने कहा कि टीवी चैनल, अखबार, शहरों में लगाये जाने वाले होर्डिंग्स, प्रिंटर्स, सोशल मीडिया, परिवहन और बस, टैक्सी, तंबू, टेंट, खानपान, हवाई-उडान आदि महंगे होने के कारण चुनाव बजट बढ़ गया हैं। चुनाव में सोशल मीडिया के बढ़ते चलन से टि्वटर और फेसबुक जैसी सोशल मीडिया साइटों की आय में इस वर्ष खासा इजाफा होने की उम्मीद है क्योंकि राजनीतिक दल डिजिटल मीडिया पर पहले की तुलना में कहीं अधिक खर्च कर रहे हैं। अधिकांश राजनीतिक दल युवा पीढ़ी के इंटरनेट के प्रति लगाव को देखते हुये उन्हें आकर्षित करने के लिए इस पर अधिक धन खर्च कर रहे हैं। मतदाता तक पहुंचने के लिए इंटरनेट बहुत सशक्त साधन बन गया है।
बहुत बड़ा है चुनावी चंदे का खेल
चुनावों के खर्चे को पूरा करने के लिए राजनीतिक दल किस - किस तरीके से चंदा जुटाते हैं। जनता को गुमराह करने के लिए आपस में एक दूसरे के उपर छींटा-कसी करते रहते हैं। सवाल यह है आर. टी. आई. कानून के अंतर्गत पूंछे गए प्रश्नों का उत्तर अभी तक किसी भी राजनितिक दाल ने क्यों नहीं दिया? इस सम्बन्ध में हिंदुस्तान हिंदी दैनिक के माध्यम से एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के सदस्य जगदीप एस छोकर ने सारगर्भित लेख लिखा है जो जिसकी प्रस्तुति आपके विचार हेतु कर रहे हैं।
हाल ही में दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के चंदा लेने पर जो विवाद खड़ा हुआ है, पूरी जानकारी के बिना अभी उसके बारे में कुछ कहना ठीक भी नहीं है और संभव भी नहीं है। पार्टी चंदे का जिस पैमाने पर लेन-देन होता है, उसे देखते हुए कुछ लोगों को वह रकम बहुत मामूली भी लग सकती है, जिसका जिक्र इस विवाद में हो रहा है। लेकिन यह विवाद एक बहुत पुराने और महत्वपूर्ण बुनियादी मुद्दे पर फिर से हम सबका ध्यान खींचता है। वह मुद्दा है- राजनीतिक पार्टियों के पास संगठन चलाने और चुनाव लड़ने के लिए पैसा कहां से आता है। इसी के साथ एक सवाल यह भी है कि आखिर यह धन कहां से आना चाहिए?
इस मुद्दे को लेकर राजनीतिक पार्टियों का रवैया शुरू से ही बहुत गोपनीयता बरतने का रहा है। राजनीतिक पार्टी हमेशा यह बताने से कन्नी काटती रही हैं कि उनके पास पैसे कहां से आते हैं। इसका एक मामला साल 2006 में शुरू हुआ, जब एक शैक्षणिक संस्था ने राजनीतिक पार्टियों की इनकम टैक्स रिटर्न की कॉपी मांगने के लिए सूचना के अधिकार के अंतर्गत एक याचिका दी। उस याचिका के नामंजूर होने और प्रथम अपील रद्द होने पर केंद्रीय सूचना आयोग में दूसरी अपील की गई। इस दूसरी याचिका की सुनवाई के दौरान राजनीतिक दलों की तरफ से दस वरिष्ठ वकीलों ने दलीलें पेश कीं, जिनमें यह कहा गया था कि राजनीतिक दलों की इनकम टैक्स रिटर्न निजी और गोपनीय दस्तावेज हैं, जिसे किसी तीसरे व्यक्ति को दिखाना न्यायसंगत नहीं होगा। लेकिन केंद्रीय सूचना आयोग ने सब पक्षों की दलीलें सुनने के बाद फैसला दिया कि राजनीतिक दल सामाजिक क्षेत्र में काम करते हैं और सरकार बनाते हैं, इसलिए अगर सूचना के अधिकार कानून के अंतर्गत सरकार को पारदर्शी होना जरूरी है, तो सरकार बनाने वालों, यानी कि राजनीतिक दलों का भी पारदर्शी होना जरूरी है। इस वजह से केंद्रीय सूचना आयोग ने राजनीतिक दलों की इनकम टैक्स रिटर्न को सार्वजनिक करने का निर्णय 29 अप्रैल, 2008 को लिया।
राजनीतिक दलों की इनकम टैक्स रिटर्न को देखा गया, तो पता चला कि उन्होंने सैकड़ों और हजारों करोड़ की आय को अपने इनकम टैक्स रिटर्न में दिखाई थी, पर आयकर नहीं दिया गया था। जांच-पड़ताल करने के पता चला कि आयकर कानून की धारा-13 (ए) के अंतर्गत राजनीतिक दलों की आय को आयकर से शत-प्रतिशत छूट मिली हुई है। लेकिन इसी धारा में यह भी लिखा है कि आयकर से शत-प्रतिशत छूट तब मिलेगी, जब राजनीतिक दल अपने चंदे का ब्योरा चुनाव आयोग को देंगे। इसी कानून में यह भी लिखा हुआ है कि चंदे के ब्योरे की सूची में वही चंदा चुनाव आयोग को दिखाने की जरूरत है, जहां राशि 20,000 रुपये से ज्यादा है। इस चंदे की सूची से यह जानकारी मिली कि हर राजनीतिक दल को 20,000 रुपये से ज्यादा की किस्तों को जोड़कर कुलजमा चंदा कितना हासिल हुआ। इससे चंदे की कुल रकम उनकी पूरी आमदनी की सिर्फ 20-25 फीसदी निकली। इसका मतलब यह हुआ कि औसतन हर राजनीतिक दल की 75-80 फीसदी आय के स्रोत मालूम नहीं हैं।
गौरतलब है कि इस 75-80 फीसदी आमदनी का स्रोत जानने के लिए राजनीतिक दलों को सूचना का अधिकार कानून के अंतर्गत याचिकाएं भेजी गईं। सब राजनीतिक दलों ने यह कहकर इसे लौटा दिया कि वे सूचना का अधिकार कानून के अंतर्गत सार्वजनिक प्राधिकरण नहीं हैं। इस मुद्दे को लेकर फिर एक अपील केंद्रीय सूचना आयोग को दी गई। उस अपील में यह मांग की गई कि देश के छह राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को सूचना का अधिकार कानून के अंतर्गत सार्वजनिक प्राधिकरण घोषित किया जाए। इस मांग के सबूत में चार मुख्य दलीलें पेश की गईं। पहली, राजनीतिक दलों पर बहुत सारा खर्च सार्वजनिक और सरकारी स्रोतों से होता है। दूसरी दलील यह थी कि राजनीतिक दल तभी बन पाते हैं, जब उनका पंजीकरण जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 29 (ए) के अंतर्गत चुनाव आयोग करता है। तीसरी, राजनीतिक दल-बदल निरोधक कानून (संविधान की दसवीं अनुसूची) के अंतर्गत चुने हुए जन-प्रतिनिधियों को हटाने का सांविधानिक अधिकार इस्तेमाल करने की हैसियत रखता है। और चौथी दलील यह रही कि राजनीतिक दल स्वयं कहते हैं कि वे सामाजिक क्षेत्र में और सामाजिक मुद्दों के काम करते हैं।
राजनीतिक दलों ने इस मांग की भरपूर मुखालफत की। तीन सुनवाइयों के बाद तीन जून, 2013 को सूचना आयोग के पूर्ण पीठ ने छह राष्ट्रीय राजनीतिक दलों (कांग्रेस, भाजपा, एनसीपी, बीएसपी, सीपीएम और सीपीआई) को सूचना का अधिकार कानून के अंतर्गत सार्वजनिक प्राधिकरण घोषित किया। इस बात को अब डेढ़ साल हो चुके हैं। लेकिन छह में से किसी भी राजनीतिक दल ने सूचना आयोग के इस निर्णय का पालन नहीं किया है। इसकी शिकायत जब केंद्रीय सूचना आयोग से की गई, तो केंद्रीय सूचना आयोग ने इन दलों को कारण बताओ नोटिस भेजकर यह पूछा कि उन्होंने आदेश का पालन क्यों नहीं किया है? छह में से कोई भी राष्ट्रीय राजनीतिक दल सूचना आयोग की तारीख के दिन उपस्थित नहीं हुआ। केंद्रीय सूचना आयोग ने उसके बाद चार और नोटिस भेजे हैं, लेकिन किसी भी राजनीतिक दल ने उन नोटिसों के बारे में भी कुछ भी कार्रवाई करने की जरूरत महसूस नहीं की।
ये छह राष्ट्रीय राजनीतिक दल एक ऐसी कानूनी संस्था के आदेश की अनदेखी और अवहेलना कर रहे हैं, जिसको संसद ने बहुमत के साथ स्थापित किया था। इससे यह साफ जाहिर हो जाता है कि हमारे राजनीतिक दल यही समझते हैं कि उन पर कोई भी कानून लागू नहीं हो सकता है। आलम यह है कि एक तरफ तो 75 से 80 प्रतिशत आमदनी के स्रोतों के बारे में कोई जानकारी नहीं दी जाती, दूसरी तरफ कानूनी संस्थाओं के आदेशों की खुल्लमखुल्ला अवहेलना की जाती है। ऐसे में, इन राजनीतिक दलों से पारदर्शिता की उम्मीद करना या उनमें पारदर्शिता की मांग करना कितना जायज है।
राष्ट्रीय समग्र विकास संघ (RSVS) इस सम्बन्ध में चिंतित है । 18 जनवरी 2015 को RSVS के स्थापना दिवस समारोह के अवसर पर एक रिपोर्ट जारी करते हुए इस विषय पर समाधान प्रस्तुत किये थे जो निम्नलिखित हैं।
रिपोर्ट जारी करते हुए बताया अधिकतर लोग भ्रष्टाचार का उन्नमूलन करना चाहते हैं पर अभी तक इसका कोई समुचित हल नहीं निकल सका है, इस लिये सरकारों के प्रति जनता का असंतोष बढ़ता ही जा रहा है। उन्होंने कहा कि वर्तमान चुनाव प्रणाली के कारण ही भ्रष्टाचार को बल मिल रहा है। चुनाव में होने वाले भारी खर्च को वहन करने के लिए राजनेता नैतिक-अनैतिक सभी प्रकार कर कार्यों के द्वारा अधिक से अधिक धन जुटाने का प्रयास करते हैं, जिससे काले धन को बढ़ावा मिलता है। यदि चुनाव का सभी खर्च सरकार उठाए तो राजनेता धन जुटाने में अनैतिक तरीकों का स्तेमाल करने से परहेज करेंगे। यदि सरकार एक ही दिन में सस्ता और सरल चुनाव करने की व्यवस्था करदे तो भ्रष्टाचार को दूर करने में बड़ी सफलता मिल सकती है । यदि सरकार की इक्षा-शक्ति और योजना हो तो यह कोई असंभव काम नहीं है।
जहाँ तक इन योजनाओं को पूरा करने के लिए सरकार द्वारा धन की कमी का बहाना बनाने की बात है, तो हम स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि धन की कोई कमी नहीं है। देश का वार्षिक बजट लग भाग १४ लाख करोड़ का होता है जबकि २८ लाख करोड़ रुपया कला धन विदेशी बैंकों के पास भारतियों का पड़ा है, लग-भग ५० लाख करोड़ का सोना और अन्य कीमती सामान धार्मिक पूजाग्रहों के पास पड़ा है, लग-भग ५० लाख का अवैध धन घरेलु अर्थ व्यवस्था में भी चक्कर लगा रहा है।इसमें सांसदों को मिलने वाली वार्षिक विकास निधि को भी जोड़ दिया जाय तो लग-भग १३० लाख करोड़ रुपयों की व्यवस्था सरकारी कोष के लिए हो सकती है। इस सरकारी कोष के माध्यम से भारतीय सविधान द्वारा प्रदत्त सामान शिक्षा के अधिकार का सपना पूरा किया जा सकता है तथा इसी कोष से सरकारी खर्चे पर इलेक्सन संचालित किये जा सकते हैं। इसी फंड से हर घर को एक व्यक्ति के लिए रोजगार की व्यवस्था की जा सकती है।
उन्होंने कहा कि हमारा लक्ष्य एक आदमी की एक कीमत हो इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रयास जारी रहेगा।
लेखक सामाजिक आर्थिक विषयों के जानकर हैं तथा भारत सरकार के आर्थिक सलाहकार भी रह चुके हैं, वर्तमान में राष्ट्रीय समग्र विकास संघ (RSVS) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।
प्रस्तुति : K C Pippal (IES Retd)