आज से 113 साल पहले भारत की आरक्षण व्यवस्था के जनक छत्रपति शाहू जी महाराज ने 26 जुलाई 1902 को कोल्हापुर स्टेट की सरकारी नौकरियों में शूद्र- अतिशूद्र जातियों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण की अधिसूचना जारी की। यह अधिसूचना भारत में शूद्र वर्णीय जातियों के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने वाला पहला सरकारी आदेश है। आज जब 1931 के बाद पूरे देश में जातीय गणना पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह जी के कार्य काल में शुरू हुई थी जो वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के कार्यकाल में पूरी हो चुकी है, जिसकी पूरी रिपोर्ट कब तक जारी होगी? यह बड़ा सवाल बना हुआ है। अभी केवल शूद्र वर्ण ही जाति प्रधान समूह है जिसमें 6743 जातियों की गिनती की गई थी। वाकी के तीनों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जाति प्रधान नहीं बल्कि वर्ण प्रधान हैं वे अपनी पहिचान वर्ण से ही बताते हैं। इस लिए उनको सवर्ण कहा जाता है तथा शूद्रों को हजारों जातियों के नाम से ही संवोधित किया जाता है, इन सभी जातियों में उंच नीच की भावना प्रवल होने के कारण आपस में झगड़ा बना रहता है। इस शूद्र वर्ण की सैकड़ों जातियों ने हिन्दू धर्म छोड़ कर स्लाम, ईसाई, सिक्ख, बौद्ध और जैन धर्म क़बूल कर लिया है वे अपने को शूद्रों से श्रेष्ठ समझते हैं। लेकिन बड़ी हैरानी की बात है कि वे आरक्षण के दायरे में आने के लिए आतुर क्यों रहते हैं। भारत के नवबौद्धों और सिक्खों की ८० प्रतिशत जातियों को अनूसूचित या पिछड़ी जाति का प्रमाणपत्र मिल जाता है तथा मुस्लिम समुदाय की भी ८० प्रतिशत जातियां अन्य पिछड़ी जातियों के दायरे में आ जाती हैं तो धार्मिक आधार पर अलग से आरक्षण का प्रावधान करने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता है। एरिया के नाम पर भी जो सिडूल्ड ट्राइब का प्रावधान है यह भी समाप्त होना चाहिए। इन सब सवालों के जवाब के लिए जातीय जनगणना के आंकड़े जारी होना बहुत जरुरी है, नहीं तो देश के विकास की बात करना बेमानी है।
जहाँ तक जातियों के सूचीकरण का सवाल है तो इसका एक लंबा इतिहास है, मनु के साथ हमारे इतिहास के प्रारंभिक काल से जिसकी शुरुआत होती है। मध्ययुगीन वृतांतों में देश के विभिन्न भागों में स्थित समुदायों के विवरण शामिल हैं। ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान, 1806 के बाद व्यापक पैमाने पर सूचीकरण का काम किया गया था। 1881 से 1931 के बीच जनगणना के समय इस प्रक्रिया में तेजी आई।
मूलभूत सिद्धांत यह है कि अभिज्ञेय समूहों का कम-प्रतिनिधित्व भारतीय जाति व्यवस्था की विरासत है। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के संविधान ने पहले के कुछ समूहों को अनुसूचित जाति (अजा) और अनुसूचित जनजाति (अजजा) के रूप में सूचीबद्ध किया। संविधान निर्माताओं का मानना था कि जाति व्यवस्था के कारण अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ऐतिहासिक रूप से दलित रहे और उन्हें भारतीय समाज में सम्मान तथा समान अवसर नहीं दिया गया और इसीलिए राष्ट्र-निर्माण की गतिविधियों में उनकी हिस्सेदारी कम रही । संविधान ने सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं की खाली सीटों तथा सरकारी/सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में अजा और अजजा के लिए १५ फीसदी और 7.5 फीसदी का आरक्षण रखा था। बाद में, पिछड़े वर्गों के लिए भी 27 फीसदी आरक्षण शुरू किया गया।
सरकारी सेवाओं और संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं रखने वाले पिछड़े समुदायों तथा अनुसूचित जातियों और जनजातियों से सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए भारत सरकार ने अब भारतीय कानून के जरिये सरकारी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों की इकाइयों और धार्मिक/भाषाई अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर सभी सार्वजनिक तथा निजी शैक्षिक संस्थानों में पदों तथा सीटों के प्रतिशत को आरक्षित करने की कोटा प्रणाली प्रदान की है। भारत के संसद में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व के लिए भी आरक्षण नीति को विस्तारित किया गया है। भारत की केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षा में २७ फीसदी आरक्षण दे रखा है और विभिन्न राज्य आरक्षणों में वृद्धि के लिए क़ानून बना सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार ५० फीसदी से अधिक आरक्षण नहीं किया जा सकता, लेकिन राजस्थान जैसे कुछ राज्यों ने ६८ फीसदी आरक्षण का प्रस्ताव रखा है, जिसमें अगड़ी जातियों के लिए १४ फीसदी आरक्षण भी शामिल है। हालांकि, राज्य कानूनों ने इस ५० फीसदी की सीमा को पार कर लिया है और सर्वोच्च न्यायलय में इन पर मुकदमे चल रहे हैं। उदाहरण के तमिलनाडु में जाति-आधारित आरक्षण का भाग ६९ फीसदी है और करीब ८७ फीसदी जनसंख्या पर यह लागू होता है।
आरक्षण का इतिहास
1882 में हंटर आयोग की नियुक्ति हुई। महात्मा ज्योतिराव फुले ने नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ सरकारी नौकरियों में सभी के लिए आनुपातिक आरक्षण/प्रतिनिधित्व की मांग की।
1891 में त्रावणकोर के सामंती रियासत में 1891 के आरंभ में सार्वजनिक सेवा में योग्य मूल निवासियों की अनदेखी करके विदेशियों को भर्ती करने के खिलाफ प्रदर्शन के साथ सरकारी नौकरियों में आरक्षण के लिए मांग की गयी।
1902 में महाराष्ट्र के सामंती रियासत कोल्हापुर में शाहू महाराज द्वारा आरक्षण शुरू किया गया। सामंती बड़ौदा और मैसूर की रियासतों में आरक्षण पहले से लागू थे।
1908 में अंग्रेजों द्वारा बहुत सारी जातियों और समुदायों के पक्ष में, प्रशासन में जिनका थोड़ा-बहुत हिस्सा था, के लिए आरक्षण शुरू किया गया।
1909 में भारत सरकार अधिनियम 1909 में आरक्षण का प्रावधान किया गया।
1919 में मोंटागु-चेम्सफोर्ड सुधारों को शुरु किया गया।
1919 में भारत सरकार अधिनियम 1919 में आरक्षण का प्रावधान किया गया।
1921 में मद्रास प्रेसीडेंसी ने जातिगत सरकारी आज्ञापत्र जारी किया, जिसमें गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, भारतीय-एंग्लो/ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए आठ प्रतिशत आरक्षण दिया गया था।
1935 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रस्ताव पास किया, जो पूना समझौता कहलाता है, जिसमें अनुसूचित जातियों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए।
1935 में भारत सरकार अधिनियम 1935 में आरक्षण का प्रावधान किया गया।
1942 में डा बी आर अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के समर्थन के लिए अखिल भारतीय दलित वर्ग महासंघ की स्थापना की। उन्होंने सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की।
1946 में भारत में कैबिनेट मिशन ने अन्य कई सिफारिशों के साथ आनुपातिक प्रतिनिधित्व का प्रस्ताव दिया।
1947 में भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त करली तथा संविधान सभा ने भारतीय संविधान बनाने के लिए डॉ॰ बी आर अम्बेडकर को मसौदा समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया। भारतीय संविधान न केवल धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है, बल्कि सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करते हुए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएं रखी गयी हैं।10 सालों के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए हैं। (हर दस साल के बाद सांविधानिक संशोधन के जरिए इन्हें बढ़ा दिया जाता है) । 1947-1950 तक संविधान सभा में बहस के बाद 26 जनवरी,1950 को भारत का संविधान लागू हुआ।
1953 में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए काकासाहेब कालेलकर आयोग को स्थापित किया गया। रिपोर्ट की अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से संबंधित सिफारिशों को स्वीकार कर लिया गया तथा अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) वर्ग से संबंधित सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया गया।
1956 में काकासाहब कालेलकर की रिपोर्ट के अनुसार अनुसूचियों में संशोधन किया गया।
1976 में अनुसूचियों