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जोगेंद्र नाथ मंडल- डॉ.अंबेडकर के लायक शिष्य

जोगेंद्र नाथ मंडल- डॉ.अंबेडकर के लायक शिष्य

-के सी पिप्पल

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(29 जनवरी, 1904 - 5 अक्टूबर, 1968)

इतिहास हमें बताता है कि समाज सुधार आंदोलन और सामाजिक न्याय के संघर्ष, एक दूसरे के पूरक नहीं होते बल्कि वे परस्पर-विरोधी और असंगत होते हैं। औपनिवेशिक बंगाल में 19वीं और 20वीं सदी में सामाजिक सुधार और सामाजिक न्याय के आंदोलन एक-दूसरे के समानांतर चले। प्राचीन काल में बंगाल मगध तथा अंग प्रदेश का हिस्सा रहा था। मध्यकाल में दिल्ली सल्तनत के अधीन रहा तथा बाद में नबाबों के हाथ चला गया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बंगाल क्रांतिकारी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र रहा था। जहां सामाजिक सुधार आंदोलन का उद्देश्य ऊँची जातियों के घिसे-पिटे दकियानूसी कर्मकांडों और परंपराओं जैसे सती, बहुपत्नी प्रथा, दहेज़, बाल-विवाह, बच्चों को गंगा सागर में फेंकना, अंतरजली यात्रा इत्यादि को उखाड़ फेंकना था, वहीं सामाजिक न्याय आंदोलन का लक्ष्य अशिक्षा का नाश और समाज के निचले वर्गों में मानवीय गरिमा की अलख जगाना था। जहां सामाजिक सुधार आंदोलनों की भारतीय इतिहासविदों ने भूरी-भूरी प्रशंसा की, वहीं सामाजिक न्याय आंदोलन को इतिहास के अंधेरे में गुम हो जाने दिया। इन सभी में महात्मा जोतीराव फुले का सत्यशोधक आंदोलन शूद्रों का ऐसा आंदोलन हैं जिसे सामाजिक परिवर्तन की आधारशिला कहा जा सकता है। यह बहुजन सशक्तिकरण का पहला आउटस्टेंडिंग मूवमेंट कहा जा सकता है। यहाँ शूद्र और अतिशूद्रों की एकता बनाने की पहली कोशिश है। जिसके परिणाम शिखर हैं डॉ.अंबेडकर और उनके शिष्य जोगेंद्र नाथ मंडल।

जब भी जोगेंद्रनाथ मंडल का नाम आता है, तो मस्तिष्क पटल पर नमोशूद्र नेता, बंगाली अस्मिता के लिए लड़ने वाले नेता, दलित-मुस्लिम और अन्य बंचित वर्गों की एकता के लिए प्रयास करने वाले नेता, सिडूल्ड कास्टस फेडरेशन के नेता, बंगाल विभाजन के विरोधी और पाकिस्तान के विभाजन के विरोधी नेता की छवि सामने आ जाती है। अंत में वे हिन्दू और मुस्लिम सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से उपजे हिन्दोस्तान और पाकिस्तान के चक्रव्यूह में फंसकर अंतिम सांस तक लड़ाई लड़ते हैं। वह मन से कभी नहीं हार मानते पर उनके अनुयायियों को एक सन्देश तो छोड़ते हैं कि लड़ाई कठिन है। हमारे हजारों पुरखों ने आहुति दी है तब यहां तक पहुंचे हैं आगे की मंजिल भी इतनी आसान नहीं है, इसलिए सभी बहुजन इसे मिलकर लड़ें। 

पारिवारिक पृष्ठभूमि

महाप्राण जोगेंद्र नाथ मंडल ने 29 जनवरी 1904 को अविभाजित बंगाल के मस्तारकंडिया गाँव, गौर नादी थाना, जिला बरीशाल के एक गरीब नमोशूद्र परिवार में जन्म लिया। उनके पिता श्री रामदयाल मंडल और माता श्रीमती संध्या रानी मंडल थीं। उनके तीन भाई और दो बहनें थीं। वह उनमें सबसे छोटे भाई थे। उनके दादा नवीन चंद्र एक बहादुर व्यक्ति थे, उनके जीवन का अधिकांश समय दूर के स्थानों की यात्रा में व्यतीत हुआ। उनकी जाति अछूत और चांडाल कैसे बन गई इसका इतिहास भी हमें यहां जानना आवश्यक है। 

मंडल साहब के पूर्वजों का सांस्कृतिक परिचय

"चांडाल" शब्द से मुक्ति पाने के लिए बंगाल में नमो शुद्र के नाम से आत्मसम्मान आंदोलन चलाया गया, जिसके संस्थापक हरिचंद ठाकुर और गुरूचंद ठाकुर ने कहा था "जे जाते राजा नहीं, ते जाते ताजा नहीं; जे जाते दल नहीं, ते जाते बल नहीं।" अर्थात जिस समाज का कोई राजा नहीं होता उस समाज का दुख-दर्द दूर नहीं होता तथा जो समाज संगठित नहीं रहता उसकी कोई ताकत नहीं बन पाती है। इसके अभाव में वह कमजोर और लाचार बन जाता है। इन्हीं सब कमजोरियों का परिणाम हैं अछूत और शूद्र जातियां जो हजारों जातियों में बंटी हुई हैं और एक दूसरे से आपस में “ऊंचा-नीचा” के नाम पर झगड़ती रहती हैं। इनको संगठित करने और नेतृत्व प्रदान करने वाली शख्सियत का नाम था महाप्राण जोगेंद्र नाथ मंडल।

महाप्राण जोगेंद्र नाथ मंडल अपने समय के सामाजिक हालातों को जानते थे कि किस तरह वर्ण व्यवस्था ने समाज में खाई पैदा कर दी है। यह खाई सामाजिक तो थी ही, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक भी थी। उस समय दलित समाज के लोग एक तरफ अस्पृश्यता, गैरबराबरी, असमानता के दंश को झेल रहे थे तो दूसरी तरफ आर्थिक तंगी से उत्पन्न लाचारी को। उन्होंने नमोशुद्र जाति के साथ बंगाल के केवर्त, मोची, पौंड्र, राजबंशी, मेहतर और साहा जाति को भी अपने आंदोलन से जोड़ा, क्योंकि नमोशुद्र के अलावा यह जातियां भी अस्पृश्यता और आर्थिक स्थिति से पूरी तरह पिछड़ी हुई थीं। इसके साथ उन्होंने मुस्लिम संप्रदाय के भी धर्मांतरित समाज को भी अपने आंदोलन के लिए संगठित किया। वजह यह रही कि मुस्लिम समाज की धर्मान्तरित जातियों को भी अपने समाज में वह मान मर्यादा हासिल नहीं थी, जो उन्हें मिलनी चाहिए थी। साथ ही, यह जातियां भी आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ी थीं। उनकी उनकी समानता की सांस्कृतिक दृष्टि (सम्यक दृष्टि) में दलित, आदिवासी, ओबीसी और परिवर्तित धार्मिक अल्पसंख्यक मुस्लिम सभी समान थे। अतः बंगाली दलित समाज में योगेंद्र नाथ की तरह अभी तक कोई अन्य नहीं हुआ है।

सम्राट अशोक के शासनकाल में सामाजिक समानता और सबको प्रतिष्ठा मिलने के कारण, ब्राह्मणों को समाज में सर्वोच्च स्थान नहीं मिलने से उनका राजगुरु जैसी अन्य सुख सुविधाएं भोगने का विशेषाधिकार बरकरार नहीं रहा और ब्राह्मणी-धर्म अवनति की अवस्था में पहुंच गया। फलतः ब्राह्मण हमेशा गुस्से में आगबबूला रहने लगे। किन्तु राजशक्ति के भय से उनमें विरोध करने का साहस नही था। अन्त में सम्राट अशोक के बंशधर सम्राट बृहद्रथ की हत्या करने के बाद ब्राह्मण सेनानायक पुष्यमित्र शुंग द्वारा मगध का सिंहासन हड़प लिया। इसके बाद बहुत दिनों तक ब्राह्मणी-धर्म का झुका सिर पुनः ऊँचा उठने लगा। पुष्यमित्र शुंग ने राज्य हासिल करने के बाद बौद्धधर्म के विरुद्ध प्रचण्ड दमन और उत्पीड़न अभियान चलाया। देश में बौद्ध-धर्म का पालन करने पर रोक लगा दी गई। इसी कड़ी में समस्त बौद्ध भिक्कुओं की हत्या करने का आदेश दिया एवं प्रत्येक बौद्ध भिक्कुओं के सिर के बदले में एक सौ स्वर्णमुद्राओं का पुरस्कार देने की घोषणा की गई। इस कारण से अनेक बौद्ध भिक्कुओं को मरना पड़ा एवं शेष भिक्कुओं ने नेपाल‚ भूटान और दुर्गम पाहाड़ी अंचल की ओर भाग कर जान बचाई। इसके कारण भारत से बौद्धधर्म का पलायन होने लगा था। पुष्यमित्र द्वारा राजगद्दी हथियाने के बाद ब्राह्मणी धर्म फिर से अधिक कठोर अवस्था में लौट आया। इस समय पर पुष्यमित्र शुंग के आदेशानुसार सुमति भार्गव नामक एक ब्राह्मण द्वारा ब्राह्मणी-धर्म में ब्राह्मणों को जन्म पर आधारित श्रेष्ठता का विशेषाधिकार बना रहे इसके लिए “मनुसंहिता” या “मनुस्मृति” के नाम से एक तरह का संविधान लिखा। इसके लागू होने के उपरांत सभी काम धंधे और सेवाओं को जन्म से जोड़ दिया और जातीय गतिशीलता समाप्त हो गयी। इस सबके बाबजूद श्रमण धर्म में किसी जाति का श्रेष्ठता का जन्म पर आधारित एकाधिकार नहीं है। आज भी बौद्ध भिक्खुओं की कोई जाति नहीं होती संघ में शामिल होने पर पिता के दिए हुए नाम की जगह संघ द्वारा नया नाम दिया जाता है। वह अपने नाम कोई संपत्ति नहीं रखेगा तथा अपने परिवार से अलग किसी बुद्ध विहार में रहेगा। परन्तु इसके विपरीत हिन्दू धर्म में ब्राह्मण जन्म पर आधारित हैं, उनकी जातियां और उपजातियां भी हैं। वे अपने पास संपत्ति भी रख सकते हैं। अपने परिवार के साथ रहते हुए भी वह धार्मिक कार्य कर सकते हैं। उन्होंने धार्मिक कार्य में और श्रेष्ठ बने रहने का शत प्रतिशत रिजर्वेशन करा लिया और आगे भी कोई इस विशेषाधिकार का अतिक्रमण न कर सके इसके लिए तमाम ग्रंथों को लिख कर पक्का कर लिया। इसके विपरीत बुद्ध और हरिश्चंद्र ठाकुर जैसे अनेकों गैरब्राह्मण महापुरुषों ने एक श्रमण संत के रूप में धार्मिक पंथों का निर्माण किया जो आज भी मौजूद हैं। इसी चर्चा को प्रामाणिक तरीके से आगे बढ़ाते हैं।

चतुर्वर्ण और जात–पात प्रथा अधिक कठोर अवस्था में लौट आई। एक बार फिर ब्राह्मण सबसे ऊपर रह कर समस्त अधिकारों का उपभोग करने लगे एवं समाज के प्रतिष्ठित बौद्धों को शूद्र और अस्पृश्य की निचली जातियों में धकेल कर अधिकारविहीन अवस्था में  जीवन यापन करने के लिए विवश कर दिया। भारतबर्ष में सर्वत्र बौद्ध धर्म को तबाह होने और ब्राह्मणी-धर्म का विस्तार होने के बाबजूद भी बौद्ध धर्मावलंबी पाल राजाओं का शासन बंगदेश में अटूट और प्रभावशाली बना रहा।

पाल वंश की समय रेखा- प्रथम राजा गोपाल (756-781), धर्मपाल (781-821), देब पाल (821-861), प्रथम बिग्रहपाल, महेन्द्रपाल और प्रथम शूर पाल (861-866), नारायन पाल (866-920), राज्य पाल (920 - 952), द्बितीय गो पाल (952 -969), द्बितीय बिग्रह पाल (969-995), प्रथम मही पाल (995-1043), नया पाल (1043-1058), तृतीय बिग्रह पाल (1058-1075), द्बितीय मही पाल (1075-1080), द्बितीय शूर पाल (1080-1082), रामपाल (1082-1124), कुमारपाल (1124-1129), तृतीय गोपाल (1129-1143) और अंतिम बौद्ध राजा मदनपाल ने 1143 से 1162 तक बंगाल पर शासन किया।   

बौद्ध धर्माबलम्बी पाल राजाओं को युद्ध में हराकर कर्णाटक के ब्राह्मण राजा विजय सेन ने बंग देश को जीत लिया। तत्पश्चात् उस जगह पर भी ब्राह्मणी-धर्म का विस्तार आरंभ हुआ। पंचम शताब्दी में ब्राह्मणी-धर्म के पोषक गुप्त बंशीय राजाओं की सहायता से बंग देश में सर्वप्रथम ब्राह्मणों का पुनर्वास आरंभ हुआ। आर्यावर्त के ब्राह्मणों को बंग देश में बसा कर उन्हें भूमि एवं धन देकर मजबूत किया गया, जिससे वे बंगदेश में वैदिक और पौराणिक ब्राह्मणी-धर्म को प्रतिष्ठत कर सके। धीरे-धीरे उनकी चेष्टा से उन्हें सफलता मिलने लगी और राजा विजय सेन के शासनकाल में समग्र बंग देश में ब्राह्मणी-धर्म स्थापित हो गया। प्राचीन काल से बंग देश में “नमःजाति” (नमोशूद्र) लोग बौद्ध धर्मालम्वी थे। वे शौर्य और वीरता के लिए विख्यात थे। राजकीय और सेना वाहिनी आदि में वे महत्वपूर्ण पदों पर आसीन थे।

बौद्ध धर्माबलम्बी पाल राजाओं में भी नमःजाति के लोग थे। जिन्होंने बंगदेश में ब्राह्मणी-धर्म का साथ नहीं दिया उनको शूद्र वर्ण से भी नीचे 'चांडाल' जाति में धकेल दिया। माहिष्य‚ कपालि‚ राजवंशी‚ पौण्ड्र (पोद)‚ कैबर्त‚ तेली‚ माली‚ भुँइमाली‚ कायस्थ‚ कमार‚ कुम्हार एवं ग्वाला जैसी कुछ जातीयों ने ब्राह्मणी वैदिक धर्म को स्वीकार कर लिया। किन्तु अधिकतर नमःजाति के लोगों ने वैदिकधर्म ग्रहण करने से इन्कार कर दिया एवं वन-जंगलों‚ खाल–बिल‚ नदी–नालों‚ दुर्गम अंचल तथा जलाभूमिओं में जाकर आश्रय लिया। वर्तमान कालीन बंगला देश में यशोहर‚ बारिसाल‚ खुलना‚ फरीदपुर‚ ढाका तथा मयमनसिंह आदि जिले उसी अंचल के अन्तर्गत आते हैं। नये पुनर्वासित ब्राह्मणों ने उनको वैदिकीकरण के अन्तर्गत लाने में असफल होने पर नम: जाति को “चण्डाल” बोल कर एक गाली दी और उन्हें अस्पृश्य बना दिया। राजा वल्लाल सेन ने “चण्डाल” नाम को चिरस्थायी बनाए रखने का पक्का बन्दोबस्त किया।

चण्डाल नामकरण के बाद नमःजाति के लोग अन्यान्य सहने और अन्य जातियों की नजरों में अस्पृश्य और घृणित हो गये। वे ब्राह्मणवादी राज शक्तियों के भय से अपने धर्म (बौद्धधर्म) का अनुपालन नहीं कर पाते थे। शिक्षा और धार्मिक अधिकार के साथ साथ समस्त मानवाधिकार से भी वंचित होते हुए वे धर्महीन हो गये एवं पतित जाति के रूप में रहने लगे। बहुत दिनों तक अपने धार्मिक रीतिरिवाज़ों का पालन नहीं कर पाने के कारण वे अपने बौद्धधर्म को भी भूल गए एवं धीरे धीरे खुद को हिन्दु रूप में ढालना आरंभ किया। धीरे-धीरे कुछ पुरुष हिन्दुओं का अनुसरण करते हुए पूजापाठ‚ श्राद्धक्रिया आदि वैदिक क्रिया में भाग लेना आरंभ किया। इसी लिए अन्य हिन्दु सम्प्रदायों की अपेक्षा उनके अधिकांश रीतिरिवाज़ों–अनूष्ठानों आदि में भिन्नता देखने को मिलती है। 

हरिचाँद ठाकुर के जन्म के समय अर्थात उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम भाग में वैदिकधर्म के अनुयायियों ने निम्न वर्णो के‚ विशेष रूप से नमःजाति के लोगों की अवस्था अत्यन्त शोचनीय कर दी थी। जातिगत जनसंख्या के हिसाव से वे सर्वाधिक संख्या में थे। उच्च वर्णो के द्वारा विभिन्न प्रकार से शोषित होकर वे मनुष्य होते हुए भी मनुष्येतर जीवन यापन करते थे। शिक्षा का अधिकार न होने के कारण वे अशिक्षा के अन्धकार में डूबे रहे। व्यावसाय–वाणिज्य और भू-संपत्ति में अल्प हिस्सेदारी होने के कारण उनकी आर्थिक और नैतिक दशा वहुत खराब थी। अनेक कुसंस्कारों में आच्छन्न रहते हुए चिकित्सा के अभाव में उनका जीवन दूभर हो रहा था। धर्म के अधिकार से बंचित होते हुए वे समाज में मर्यादाविहीन पतित श्रेणी में रहते थे।

इसी तरह अन्य निम्न वर्ण के लोगों जैसे - तेली‚ माली‚ कामार‚ कुम्हार‚ जेले एवं कपालि इत्यादि सम्प्रदायों के लोगों की भी आर्थिक, नैतिक दशा और सामाजिक प्रतिष्ठा भी विशेष अच्छी नहीं थी। उनके लोगों के ऊपर जमीदारों द्वारा किया गया शोषण और अत्याचार भी अत्यन्त निर्मम था। उपरोक्त इतिहास से पता चलता है कि नमःजाति के लोग कभी शूद्र नहीं थे‚ क्योंकि वे बौद्धधर्म को छोड़कर ब्राह्मणी-वैदिक धर्म में शामिल नहीं हुए। इसलिए उनके शूद्र होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। ब्राह्मणों की बात न मानने के बदले में उन्हें ‘चांडाल’ नाम दिया।

ब्रिटिश सरकार ने बंचित भारतवासियों को पहली बार शिक्षित बनाने के लिए पढ़ाई लिखाई का अवसर दिया। इनमें से कुछ लोग शिक्षा प्राप्त करने के बाद अपने अधिकारों के प्रति जानकार होकर संगठित होने लगे और आत्मसम्मान के लिए आंदोलनरत हुए और उन्हीं में से कुछ ने उनका नेतृत्व किया। महाप्राण जोगेंद्र नाथ मंडल उनमें से एक सक्षम नेता थे। वह मेधावी छात्र, कुशल वकील, योग्य मार्गदर्शक और सक्षम नेता थे जिन्होंने बाबासाहब डा. अम्बेडकर को संविधान सभा में पहुंचाने में सहयोग किया। अखिल भारतीय अनुसूचित जाति महासंघ (All India Scheduld Castes Federation-AISCF) के बंगाल प्रदेश के वे सर्वेसर्वा थे। वह ऐतिहासिक रूप से न केवल भारतवर्ष में, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी महत्वपूर्ण हैसियत में गिने जाते हैं। भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश की राजनीति में उनकी अहम् भूमिका रही तथा विश्व के तमाम नमोशूद्र समुदाय और बौद्धों में उनकी बड़ी पहचान है। बीसवीं सदी के तीसवें और चालीसवें दशक के दौर में भारतीय राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में उनका अकल्पनीय योगदान रहा।

शिक्षा के लिए संघर्ष 

जोगेंद्र नाथ मंडल की ख़राब पारिवारिक स्थिति के कारण उन्हें बचपन में परिवार के अन्य सदस्यों के साथ सभी तरह के घरेलू काम करने पड़ते थे। वह पढ़ाई में बहुत मेधावी थे। वह हमेशा स्कूल की परीक्षाओं में प्रथम स्थान पर रहते थे। वह घास के मैदान में मवेशियों को चराने के साथ किताबों का एक थैला भी साथ ले जाया करते थे। वे इतना जागरूक थे कि बचपन में ही उन्हें समय की कीमत का अहसास हो गया था।

20 अगस्त, 1924 को उन्होंने बारीशाल शहर के ब्रज मोहन कॉलेज में I.A कक्षा में प्रवेश लिया।  उस समय वह तीव्र आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहे थे। वह "लिटिल ब्रदर ऑफ़ द  पुअर" नाम के एक संगठन के सक्रिय सदस्य बन गये। उन्होंने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ कई देशभक्तिपूर्ण प्रदर्शनों में भी हिस्सा लिया। 1926 में, उन्होंने बारीशाल के अगेलझारहा गाँव में आयोजित किसान सम्मेलन में एक गूढ़ और अत्यधिक ज्ञानवर्धक भाषण देकर सबको चोंका दिया। उन्हें अस्पृश्यता के दंश का स्वानुभव था इस लिए उन्होंने कॉलेज के समय में छुआछूत की घटनाओं के खिलाफ कई प्रदर्शन किये।

I.A. की परीक्षा 1926 में पास करने के बाद, खागड़बी गाँव, गौरांडी थाने के निवासी प्रहलाद चंद्र बरहुई की बेटी कमला बरहुई से उनकी शादी हो गई।

1929 में उन्होंने बी. ए. की परीक्षा ब्रज मोहन कॉलेज, बारीशाल से गणित और संस्कृत विषयों में डिस्टिंक्शन के साथ पास की। वह M A और लॉ डिग्री के लिए ढाका चले गए, लेकिन दुर्भाग्य से वह मलेरिया से पीड़ित हो गए और ढाका छोड़ दिया। आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए वह कोलकाता पहुंचे, 1930 में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय में कानून की डिग्री के लिए दाखिला लिया, इस बार भी उन्हें तीव्र वित्तीय संकटों का सामना करना पड़ा। उन्होंने  प्यारे मोहन दास, 173/1 करावलिश गली (अब बिधान सरानी) के परिवार में होम ट्यूटर की नौकरी की। उन्होंने किताबों आदि को खरीदने के लिए कुछ अतिरिक्त पैसे जुटाने के लिए प्रेस में प्रूफ रीडर के रूप में भी काम किया।

1934 में जोगेंद्र नाथ ने लॉ की परीक्षा सफलतापूर्वक उत्तीर्ण की, 1936 में उन्होंने खुद को वकील के रूप में पंजीकृत करवाया और बारीशाल कोर्ट में वकील के रूप में प्रैक्टिस शुरू की।  एक छोटी अवधि में उन्होंने खुद को एक ईमानदार और परिपक्व वकील के रूप में स्थापित किया। एक वकील के रूप में वे समाज के कमजोर वर्ग की मदद करते थे, वास्तव में उनके काम से सभी वर्ग के लोग खुश थे।  इस समय उन्होंने गौरनादी थाने के स्थानीय बोर्ड चुनाव को भारी अंतर से जीता। 1937 में वे जिला बोर्ड के सदस्य बने। धीरे-धीरे वह पूरी तरह से मजदूरों और पिछड़े समुदाय की मदद करने में लगे।

भारत में राजनीतिक संघर्ष (1937-1947)

इसी बीच देश में आम चुनाव हुए। उन्होंने 1937 में बखरागंज उत्तर (बरिशाल जिला) से विधानसभा सीट से एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा। कांग्रेस के उम्मीदवार श्री सरल कुमार दत्ता उनके प्रतिद्वंद्वी थे। एक और निर्दलीय उम्मीदवार शितांशु रायचौधुरी थे। आश्चर्यजनक रूप से, उन्होंने 53% वोट प्राप्त करते हुए चुनाव जीता। जब वह प्रांतीय असेंबली के सदस्य बने तो वह सिर्फ 33 साल के थे। भारतवर्ष के इतिहास में यह दलितों के लिए एक नया मोड़ था क्योंकि 1937 के आम चुनाव में, जोगेंद्र नाथ मंडल एक सामान्य निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव जीतने वाले अनुसूचित जाति से संबंधित एकमात्र उम्मीदवार थे। 

इसी चुनाव में फजीलूल हक की कृषक प्रजा पार्टी 40 सीटें जीती। मुस्लिम लीग ने 39 सीटों और स्वतंत्र मुस्लिम पार्टी ने 42 सीटों पर जीत प्राप्त किया। अंत मे फजीलूल हक के नेतृत्व में बंगाल में पहली बार 1 अप्रैल, 1937 को मिलीजुली सरकार का गठन हुआ। वर्ष 1938 के आरंभ में जोगेंद्रनाथ मंडल ने 20 दलित विधायकों को लेकर “इंडीपेंडेंट शेड्यूल कास्ट पार्टी” का गठन किया। इस राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष हेमचंद्र नस्कर थे और जोगेंद्र नाथ मंडल महासचिव बने। हेमचंद्र नस्कर और श्री जोगेंद्र नाथ मंडल ने अपने सर्वोत्तम प्रयासों से बंगाल में एससी छात्रों के लिए विशेष वजीफा (छात्रवृत्ति) शुरू किया। पहले अनुसूचित जाति के छात्रों के लिए कोई छात्रावास नहीं था। जोगेंद्र नाथ मंडल ने उनके लिए छात्रावास सुविधाओं का विस्तार करने के लिए पूरे प्रयास किए।

पार्टी ने दलितों के हितों में कुछ शर्तें रखी थीं, जैसे – 1. कृषकों के कर्ज को सरकार खत्म करे, 2. शराब पर पूरी तरह पाबंदी लगे और 3. सरकारी नौकरियों में दलितों के लिए आरक्षण दिया जय।

जिनकी अवमानना करने पर वह फजीजुल हक के पार्टी से 29 जुलाई, 1938 को अलग होकर विधानसभा में विपक्ष में चले गए थे। लेकिन फजीजुल हक सरकार बरकरार रही।

1941 में, जोगेंद्र नाथ मंडल श्री फजलुल हक की अगुवाई वाली बंगाल सरकार में शामिल हुए, जिसमें उन्हें सहकारिता मंत्री की जिम्मेदारी दी गई।

18 और 19 जुलाई, 1942 को श्री एन. शिवराज की अध्यक्षता में अखिल भारतीय अनुसूचित जाति सम्मेलन का आयोजन नागपुर में हुआ था। इस सम्मेलन में लगभग 75000 SC/ST प्रतिनिधियों ने भाग लिया, जिनमें से 20000 महिलाएँ थीं। सम्मेलन के अंत में, अखिल भारतीय अनुसूचित जाति फेडरेशन पार्टी (AISCFP) का गठन किया गया। इसी सम्मेलन में डॉ. बी. आर. अंबेडकर को सर्वसम्मति से पार्टी का संरक्षक चुना गया।

28 मार्च, 1943 श्यामा प्रसाद मुखर्जी और फजीजुल हक ने अपनी सरकार बचाने के लिए जोगेंद्रनाथ मंडल से सहयोग मांगा। उस समय जोगेंद्रनाथ मंडल ने तीन प्रस्ताव दिये और कहा कि अगर इसको लागू किया जाता है तो वह समर्थन करेंगे। यह तीन प्रस्तावों थे–

1. मंत्रिपरिषद में तीन अनुसूचित जाति के लोगों को कैबिनेट मंत्री और तीन को सचिव का पद देना होगा।

2. अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों के लिए छात्रावास का निर्माण और प्रोत्साहन राशि के रूप में प्रत्येक वर्ष 5 लाख रुपए खर्च करने होंगे।

3. सरकारी नौकरियों में आबादी के अनुसार अनुसूचित जाति को आरक्षण दिया जाय।

लेकिन उनके इन प्रस्तावों को श्यामा प्रसाद मुखर्जी और फजीजुल हक की पार्टी ने नहीं माना। यही कारण रहा कि उन्होंने मुस्लिम लीग को अपना समर्थन दिया।

मुस्लिम लीग के निजामुद्दीन की सरकार जो 24 अप्रैल, 1943 को बनी और उन्होंने जोगेंद्रनाथ मंडल के उक्त प्रस्तावों को मान लिया। उनके प्रस्ताव के अनुसार अनुसूचित जाति के तीन कैविनेट मंत्री जोगेंद्रनाथ मंडल, प्रेम हरि बर्मन, पुलिन बिहारी मल्लिक हुए और 3 सचिव के पद पर अनुकूलचंद्र नस्कर, बनकुबिहारी मंडल और रशिकलाल बिस्वास हुए। अनुसूचित जाति के लोगों को नौकरी में आरक्षण देने के लिए पहल की गई। साथ ही छात्रावास के निर्माण और छात्रवृति को भी लागू किया। कलकत्ता के बहु बाजार के करीब निर्मल चंद्र स्ट्रीट के समीप उदार छात्रावास का निर्माण जोगेंद्रनाथ मंडल के माध्यम से ही उस समय हुआ था।

इधर 1943 में बंगाल में राजनीतिक संकट खड़ा हो गया जिसके कारण फज़लुल हक़ को अपनी सरकार को भंग करने के लिए विवश होना पड़ा और मोहम्मद नज़ीमुद्दीन के नेतृत्व में एक नई सरकार बनाई गई। जोगेंद्र नाथ मंडल इस सरकार में भी सहकारिता मंत्री बने रहे। इस बार स्वार्थी जमींदारों और व्यापारी वर्ग द्वारा अनाज की जमाखोरी करने के कारण बंगाल में कुख्यात भयंकर अकाल पड़ गया। इस अकाल में बंगाल की आबादी के 5 फीसदी (लगभग 40 लाख) लोगों की मृत्यु हो गई और लगभग एक करोड़ लोग बेसहारा हो गए। अकाल से निपटने के लिए जोगेंद्र नाथ मंडल की देखरेख में बड़ी संख्या में रसोईघर खोले गए और उनकी टीमों ने भूखे लोगों की जान बचाने के लिए दिन-रात काम किया।

इसी समय मई, 1943 में "अखिल भारतीय अनुसूचित जाति महासंघ" की बंगाल शाखा का गठन किया गया जिसके प्रदेश अध्यक्ष श्री जोगेंद्र नाथ को बनाया गया तथा दो संयुक्त सचिव श्री मदन मोहन दास और श्री श्यामा प्रसाद बर्मन बनाए गए। AISCF का प्रदेश हेड ऑफिस "जागरण पत्रिका" कार्यालय, 1/2 सीताराम घोष स्ट्रीट, कोलकाता में बनाया गया था।

इस वर्ष के दौरान अक्टूबर, 1943 में जोगेंद्र नाथ मंडल पहली बार पार्टी के अखिल भारतीय प्रतिनिधि सम्मेलन में भाग लेने के लिए बंबई गए थे। इसी दौरान डॉ बी. आर. अंबेडकर से उनकी पहली मुलाकात सेंट्रल रेलवे स्टेशन के सेलून में हुई। उन्होंने तेजी से बदलती भारत की राजनीतिक स्थिति के बारे में अम्बेडकर से विचारों का आदान-प्रदान किया।

वर्ष 1944 में डॉ. बी.आर. अंबेडकर बंगाल में आए थे इस अवसर पर AISCF की बंगाल शाखा की ओर से सियालदाह रेलवे मैनसन हॉल में उनका जोरदार स्वागत किया। इस दौरान श्री जोगेंद्र नाथ मंडल प्रदेश अध्यक्ष के साथ उपस्थित रहने वाले पार्टी की बंगाल इकाई  के प्रमुख नेताओं में श्री प्रेम बर्मन, श्री खेत मोहन सिंहा, श्री अनुकुल चंद्र नास्कर, श्री रसिक लाल विश्वास, श्री हेम चंद्र नास्कर, श्री बिराट मंडल, श्री मुकुंद  बिहारी मल्लिक और कई अन्य नाम उल्लेखनीय हैं। इस बैठक में जोगेंद्र नाथ मंडल ने मनु संहिता (मनु स्मृति ग्रन्थ) की खुलकर आलोचना की, और इसके खिलाफ जन आंदोलन की घोषणा कर दी। 30 मार्च 1945 को मौ. नज़ीमुद्दीन के नेतृत्व वाली बंगाल की सरकार को भंग कर दिया गया।

24 अप्रैल, 1945 को AISCF की बंगाल शाखा द्वारा गोपालगंज शहर में एक विशाल रैली का आयोजन किया गया। जिसमें डॉ. बी. आर. अम्बेडकर को अतिथि वक्ता बनाने की घोषणा की गयी थी इस लिए अपने प्रिय नेता को देखने और सुनने के लिए एक विशाल जन सैलाव उनका बेसब्री से इंतजार कर रहा था लेकिन वह अचानक एक राजनीतिक कार्य में व्यस्तता के कारण इस रैली में नहीं पहुंच पा रह थे। इस सम्बन्ध में उन्होंने रैली से ठीक एक दिन पहले श्री मंडल को एक पत्र लिखा था।

के मसौदे में लिखा-

भीम राव आर अंबेडकर

एमए, पीएचडी, डीएससी, बैरिस्टर-एट-लॉ सदस्य, गवर्नर जनरल

आधिकारिक परिषद।

पृथ्वीराज रोड नई दिल्ली 

23 अप्रैल, 1945

प्रिय मंडल,

मैं आपको और अपने गोपालगंज के लोगों को शायद यह किसी तरह बता सकूं कि मुझे गोपालगंज में होने वाले अखिल भारतीय अनुसूचित जाति महासंघ के सम्मेलन में मेरे उपस्थित न हो सकने से कितना अफ़सोस है और किन जरुरी कारणों ने यह दौरा रद्द करना पड़ा है। मुझे उम्मीद थी कि लॉर्ड वेवेल 29 तारीख तक वापस आ जायेंगे और इस तरह मुझे सम्मेलन में उपस्थित होने के लिए कलकत्ता की यात्रा प्रारम्भ करने में कोई अड़चन नहीं होगी। संयोग से, ऐसा नहीं हो सका। वह कब लौटेंगे, इसका कोई पता नहीं, हांलाकि, उनके  किसी भी दिन वापस आने की उम्मीद की जा सकती है। सभी रिपोर्टों के अनुसार वह कुछ महत्वपूर्ण कार्य से गए हैं, इसमें भारत का भावी संविधान भी शामिल है, और यह उम्मीद की जाती है कि वह लौटते ही अपने मिशन के बारे में एक बयान जारी सकते हैं। अत: यह हमारे लोगों के हित में है कि मैं उनसे यह जानने के लिए यहां रहूं कि हमारा भविष्य क्या होने जा रहा है। यह हमारे लिए एक ऐसा अवसर है जिसे आप नहीं चाहेंगे कि मैं को दूं। इन परिस्थितियों में, आशा है कि आप और जो लोग इस सम्मेलन में आएंगे, उन्हें मेरे न आने से गहरी निराशा जरूर होगी लेकिन मेरी अनुपस्थिति का कुछ कारण हो सकता है। हालांकि मैं इस सम्मेलन में शारीरिक रूप से भले ही मौजूद न रहूं परन्तु मेरी भावनाएं जरूर आपके साथ होगीं। मुझे यह कहते हुए खुशी है कि बंगाल में महासंघ की ताकत दर ताकत कैसे बढ़ी है। हालांकि यहां इसे अस्तित्व आये एक साल से अधिक समय नहीं हुआ है, लेकिन बंगाल की सभी अनुसूचित जातियों का दृढ़ संकल्प होगा कि वे निश्चित रूप से फेडरेशन के झंडे को रैली में हर तरफ लहराते नजर आएंगे। इसमें कोई शक नहीं है कि यदि हम खुद को नहीं पहचान पाए हैं। ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि हमारे पास कोई संख्या नहीं है, और न ही इसलिए क्योंकि हमारा उद्देश्य ठीक नहीं है, बल्कि इस लिए क्योंकि हमारी धारणा हमारे विरोधियों द्वारा तैयार होती है। यह पूरी तरह से हमारी आंतरिक  फूट के कारण है जो अब तक व्याप्त है। मुझे उम्मीद है कि सम्मेलन हमारे लोगों के बीच एकता की गहरी और ठोस भावना पैदा करेगा। हमारे लोग जो हमारे विरोधियों के उपकरण के रूप में काम करके रोड़ा बने हुए हैं और हमारे लोगों के सच्चे हितों के खिलाफ काम कर रहे हैं, उन्हें अपने कर्मों पर शर्म महसूस होगी, और पश्चाताप करते हुए संघ की में शामिल होंगे। हम संक्रमण काल में रह रहे हैं और अगर हम अपनी आपसी फूट और झगड़ों की बजह से अपनी मांग को पूरा करने में विफल रहते हैं तो हम यह अवसर हमेशा के लिए खो देंगे।

मैं वादा करता हूं कि वर्ष के अंत में मैं बंगाल के अनुसूचित जाति के सम्मेलन में भाग लेने के लिए हर संभव प्रयास करूंगा, यदि कोई आयोन किया जायेगा। इस बीच, मैं वर्तमान सम्मेलन की सफलता की कामना करता हूं।

जे. एन. मंडल,

एस्क्वायर 3, कूपर स्ट्रीट, कलकत्ता                                                                                                                     सादर,

                                                           Sd/ बी आर अम्बेडकर

2-4 अक्टूबर, 1945 को पुणे में ऑल इंडिया शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन वर्किंग कमेटी की एक महत्वपूर्ण बैठक बुलाई गई थी। बंगाल से श्री जोगेंद्र नाथ मंडल और श्री रसिक लाल विश्वास बैठक में शामिल हुए। बैठक में श्री मंडल और डॉ. अंबेडकर AISCF के फ्रंट रैंक लीडर के रूप में सामने आए। 3 अक्टूबर, 1945 को श्री जोगेंद्र नाथ मंडल ने पुणे में "अंबेडकर स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स" का उद्घाटन किया, श्री आर.आर. भोले उद्घाटन समिति के अध्यक्ष थे।

1945-46 में, प्रांतीय सदस्यों (एमएलए) चुनाव हेतु आम चुनाव की घोषणा की गयी। इस चुनाव में, अखिल भारतीय अनुसूचित जाति महासंघ (AISCF) पार्टी ने कुल तीस उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के उतारा। जोगेंद्र नाथ मंडल ने बंगाल के बाकरगंज-दक्षिण (रिजर्व) से चुनाव लड़ा। और उन्होंने भारी अंतर से चुनाव जीता। दुर्भाग्य से वे AISCF पार्टी के टिकिट पर पूरे भारत में एकमात्र उम्मीदवार जीत दर्ज कर सके। जिसमें मुस्लिम लीग ने 115 सीटें जीतीं। कांग्रेस के टिकट पर अनुसूचित जाति के 26 उम्मीदवार और 3 निर्दलीय विजयी हुए। 24 अप्रैल, 1946 को ब्रिटिश काल में अंतिम बंगाल सरकार का गठन हुआ, जिसमें जोगेंद्रनाथ मंडल विधि और गृह निर्माण विभाग मिला।

1946 में संविधान सभा के चुनाव की भी घोषणा की गयी। इस चुनाव में केवल प्रांतीय सभाओं के सदस्य (विधायक) ही मतदाता के रूप में हिस्सा लेकर संविधान सभा के लिए सदस्य का चुनाव कर सकते थे।

2 अप्रैल, 1946 को, एआईएससीएफ सम्मेलन नई दिल्ली में आयोजित किया गया था। जोगेंद्र नाथ भी सम्मेलन में शामिल हुए। AISCF पार्टी की ओर से डॉ. अंबेडकर को संविधान सभा में भेजने और भेजने के लिए सभी तरह के प्रयास किए गए थे। डॉ अंबेडकर के लिए महाराष्ट्र, पंजाब और उत्तर प्रदेश से जीतना बहुत मुश्किल था। अन्त में उन्होंने बंगाल से प्रयास किया।  इस उद्देश्य के लिए कोलकाता में एक बैठक आयोजित की गई और डॉ.अम्बेडकर को बंगाल से प्रत्याशी बनने के लिए आमंत्रित किया गया। डॉ अंबेडकर 28 जून, 1946 को कोलकाता पहुंचे और लगभग एक सप्ताह वे कोलकाता में रहे थे। संविधान सभा में चुने जाने के लिए उन्हें कम से कम 5 विधायकों के समर्थन की आवश्यकता थी। लेकिन एआईएससीएफ पार्टी के एकमात्र एमएलए जोगेंद्र नाथ मंडल ही समर्थन के लिए उपलब्ध थे। 18 जुलाई 1946 को चुनाव हुआ और 19 जुलाई को परिणाम निकला था। डॉ. बीआर अंबेडकर को संविधान सभा में अधिकतम 6 मतों से निर्वाचित घोषित किया गया।  डॉ. बी आर अंबेडकर को वोट देने वाले उन विधायकों के नाम थे। 1. श्री जे. एन. मंडल-बरिशाल, 2. श्री मुकुंद बिहारी मल्लिक-खुलना, 3. श्री द्वारिका नाथ बरहुरी-फरीदपुर, 4. श्री गया नाथ विश्वास-तंगेल, 5. श्री नागेन्द्र नारायण रे-रंगपुर और 6. श्री खेत्र नाथ सिन्हा-रंगपुर।

सन 1946 में डॉ. बीआर आंबेडकर का संविधानसभा के सदस्य के रूप में बंगाल से चुनाव, बंगाली अछूतों के प्रतिनिधियों को ये सभी लोग फरीदपुर, जैसोर, खुलना और बारीसाल जिलों से थे। बंगाली दलितों को यह संदेह है कि डॉ. आंबेडकर को संविधानसभा के सदस्य के रूप में निर्वाचित करने की सज़ा स्वरूप ही नामशूद्रों की बड़ी आबादी वाले इन जिलों को पाकिस्तान का हिस्सा बना दिया गया। इन अछूतों की पर्दे के पीछे से संविधान निर्माण में भूमिका को मान्यता मिलना बाकी है।

बंगाल में राजनीतिक उथल पुथल

1946 में प्रांतीय चुनाव के बाद, बंगाल में एक नई सरकार का गठन मो. सुरावर्दी के नेतृत्व में किया गया था। 15-17 और 22 अक्टूबर, 1946 को नोयाखाली, कुमिला और  त्रिपुरा में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक दंगे भड़के थे।  जोगेंद्र नाथ मंडल ने दंगा प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया। जुलाई से अक्टूबर 1946 तक के चार महीनों में कुल 18,338 लोग सांप्रदायिक दंगों में मारे गए। इस दौरान वे AISCF की साप्ताहिक "जागरण पत्रिका"- बंगाल शाखा के संपादक थे।

जोगेंद्र नाथ मंडल 4 नवंबर 1946 को जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व वाली केंद्र की अंतरिम सरकार में शामिल हो गए। उन्हें मुस्लिम लीग ने अपने प्रतिनिधि के रूप में नामांकित किया गया था। भारत की पहली अंतरिम केंद्र सरकार के मंत्रिमंडल की सूची इस प्रकार थी:

 1. श्री जवाहरलाल नेहरू - प्रधानमंत्री और विदेश मंत्रालय 2. श्री लियाकत अली खान - वित्त 3. श्री जोगेंद्र नाथ मंडल - कानून 4. सरदार वल्लभ भाई पटेल - गृह और प्रसारण 5. डॉ राजेंद्र प्रसाद - खाद्य और कृषि 6. श्री आई आई चुंदरीगढ़ - वाणिज्य 7. श्री अब्दुर आर निसार - पद और विमानन 8. श्री गज़नफ़र अली खान - स्वास्थ्य 9. डॉ. मथाई - परिवहन और उद्योग 10. श्री राजा गोपालचारी - शिक्षा और कला 11. श्री बलदेव सिंह - रक्षा 12. श्री आसफ अली - रेलवे 13. श्री हरमुनि भाव - खान और पीडब्ल्यूडी और 14. श्री जगजीवन राम - श्रम।

इस दौरान डॉ. बीआर अंबेडकर 15 नवंबर 1946 को लंदन से भारत वापस आए तो जोगेंद्र नाथ मंडल उनसे बॉम्बे में मिले। उन्होंने देश में राजनीतिक स्थिति की प्रवृत्ति पर चर्चा और विश्लेषण किया। 25 से 26 दिसंबर, 1946 को AISCF छात्र सम्मेलन नागपुर में आयोजित किया गया था। जोगेंद्र नाथ मंडल ने उस सम्मेलन में भाग लिया, ट्रेन से नागपुर जाते समय, रात में आगरा स्टेशन पर एक विशाल सभा इकट्ठी हुई और अपने प्रिय नेता जोगेंद्र नाथ मंडल को माला पहनाने के उद्देश्य से ट्रेन को रोक दिया। उन्होंने 1 और 2 जनवरी, 1947 को AISCF की असम शाखा के द्वितीय वार्षिक सम्मेलन में भाग लिया। वहां उन्होंने अपनी योजनाओं और गतिविधियों के लिए महात्मा गांधी की कटु आलोचना की। 2 मार्च 1947 को, उन्होंने AISCF की उत्तर प्रदेश शाखा के चौथे वार्षिक सम्मेलन में भी भाग लिया।

जोगेंद्रनाथ मंडल, रायबहादुर अनुकुल चंद्र नस्कर, खेत्र नाथ सिंहा, और कृष्ण चंद्र गढ़ई जैसे नेता बंगाल के विभाजन के सख्त खिलाफ थे। इस सम्बन्ध में उन्होंने मई 1947 में जिला स्तर पर कई सार्वजनिक सभाएं भी की थीं। बंगाल के विभाजन के सवाल पर बंगाल की प्रांतीय विधान सभा के विधायक दो समूहों में बंट गए थे- जिस एक समूह में हिंदू बहुसंख्यक जिलों के सदस्य शामिल थे उसकी अध्यक्षता उदय चंद महताब ने की और दूसरा समूह मुस्लिम बाहुल्य वाले जिलों के सदस्यों का था उसकी अध्यक्षता नूरुल अमीन ने की थी। "यस पार्टिशन" (विभाजन हो) के प्रस्ताव के पक्ष और खिलाफ में मतदान 20 जून, 1947 को हुआ। दुर्भाग्य से परिणाम चौंकाने वाला था। हिंदू बहुसंख्यक जिलों के अधिकांश (58-21) सदस्यों ने "यस पार्टिशन" के पक्ष में मतदान किया।

पाकिस्तान में राजनीतिक संघर्ष (1947-1950)

15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश भारत को सांप्रदायिक आधार पर तीन भागों में विभाजित किया गया। विभाजन के बाद, मंडल पाकिस्तान के संविधान सभा के सदस्य और अस्थायी अध्यक्ष बने, और पहले कानून और श्रम मंत्री के रूप में सेवा करने पर सहमत हो गए। सरकार के उच्चतम स्थान पर आसीन मंडल 1947 से 1950 तक पाकिस्तान की तत्कालीन राजधानी कराची के बंदरगाह शहर में रहते थे।

जोगेंद्रनाथ मंडल पाकिस्तान की सरकार में कानून और श्रम मंत्री के रूप में शामिल हो गए। पाकिस्तान का संविधान लिखने में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। 1950 में पुर्वी पाकिस्तान में एक भयंकर सांप्रदायिक दंगा हुआ। इसका खामयाजा गरीब दलित लोगों को भुगतना पड़ा। मंत्री जोगेंद्रनाथ मंडल ने खुलना, ढाका, फरीदपुर और बारीसाल में दंगा विरोधी रैलियों के आयोजनों की अध्यक्षता की। वे  पूर्वी पाकिस्तान के दलित और कमजोर लोगों के साथ खड़े रहे थे और विशेष रूप से सत्तालोलुप मुसलमानों के बुरे तत्वों की आलोचना की। दुर्भाग्य से, पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधान मंत्री लियाकत अली खान जोगेंद्रनाथ मंडल की गतिविधियों को पसंद नहीं करते थे।

यह रहस्य आज तक बना हुआ है कि उपरोक्त सभी अछूतों के प्रतिनिधि जिन्होंने डॉ. बी आर अंबेडकर को बंगाल से चुनाव जिता कर संविधान सभा के सदस्य के रूप में भेजा था वे लोग फरीदपुर, जैसोर, खुलना और बारीसाल जिलों से थे। क्या इसी लिए सज़ा स्वरूप ही नामशूद्रों की बड़ी आबादी वाले इन जिलों को पाकिस्तान का हिस्सा बना दिया गया। परन्तु डा अम्बेडकर ने पाकिस्तान का हिस्सा बनना पसंद नहीं किया बल्कि उन्होंने सवाल उठाया कि हिन्दू बाहुल्य क्षेत्रों को भारत का हिस्सा होना चाहिए। और मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए। उस समय जल्दवाजी में मो. अली जिन्ना और लियाकत अली पर विश्वास करके कि भारत में अल्पसंख्यकों के रूप में मुसमानों ने जिल्लत झेली है तो पाकिस्तान की सरकार अल्पसंख्यकों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करेगी। परन्तु जोगेंद्रनाथ मंडल को ऐसा लगा की उन्होंने अपना वायदा नहीं निभाया इस लिए संविधान सभा का पहला सभापति और कानून और श्रम मंत्री होने के बाबजूद 1950 को उन्होंने अपना इस्तीफा प्रधानमंत्री लियाकत अली को सौप दिया।

महिलाओं और पिछड़ों के हक के लिए मंडल के गुरु का इस्तीफा

इसी प्रकार डा. अम्बेडकर भारत सरकार के नेहरू मंत्रिमंडल में कानून मंत्री होने के बाबजूद लगातार अवेहलना झेल रहे थे। वे पिछड़े वर्गों के लिए न्याय दिलाने हेतु संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत बैकवर्ड क्लास कमीशन और हिंदू महिलाओं को समानता का अधिकार देने के लिए हिन्दू कोड बिल पास कराना चाहते थे। उनकी यह बात नहीं मानी गयी और इससे खपा होकर 1951 में उन्होंने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। उसके बाद यह कानून नेहरू मंत्रिमंडल द्वारा टुकड़ों में पास कराये गए।

गोलमेज सम्मलेन द्वारा दलितों को मिला “कम्युनल अवार्ड” गांधीजी और अम्बेडकर के बीच हुए “पूना पैक्ट” ने विफल कर दिया था। इसका परिणाम स्वयं डा. अंबेडकर को तब भुगतना पड़ा जब वे अपनी पार्टी AISCF से 1951 में बॉम्बे लोकसभा सीट से तथा 1954 में भंडारा लोकसभा सीट से संयुक्त निर्वाचन प्रणाली के तहत चुनाव लड़े और नेहरू और उनके सहयोगियों ने उनको दोनों बार कॉग्रेस के गैर लोकप्रिय उम्मीदवारों के मुकाबले हरवा दिया। जबकि अनुसूचित जातियों ने उनको ही अपना बहुसंख्य वोट किया था। तब उन्होंने पूना पैक्ट का विरोध करना शुरू कर दिया। यहां तक कह दिया  की इस संविधान के प्रावधानों के रूप में संयुक्त निर्वाचन प्रणाली के तहत अनुसूचित जातियों का सच्चा प्रतिनिधि कभी भी पार्लियामेन्ट में नहीं पहुँच सकेगा। जब मेरा बनाया हुआ संविधान मेरे अधिकारों की रक्षा नहीं कर सका तो आम लोगों की कैसे कर सकेगा। इस तरह पाकिस्तान और भारत के दौनों संविधान निर्माता दलित थे कानून के विशेषज्ञ थे पर दौनों को सत्ता धारियों से धोका मिला। चूंकि लियाकत अली मुस्लिम शासक तथा जवाहर लाल नेहरू हिन्दू शासक पहले थे बाद में जनता के शासक इस लिए उन्होंने धर्म की तरफ रुख किया और वे 1956 में भारतीय मूल के एक अंतराष्ट्रीय धर्म में जाकर बोधिसत्व बन गए।

जिन्ना की मौत के बाद मंडल 8 अक्टूबर, 1950 को लियाकत अली खां के मंत्री मंडल से त्याग पत्र देकर भारत आ गये। बाद में वे पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना जिले के मछलंदपुर में बस गए। वहां वह गरीब, दलित लोगों के उत्थान के लिए बने कई सामाजिक संगठनों से सक्रिय रूप से जुड़ गए थे।

आज मतुआ मठों (ठाकुर द्वारों ) में माथा टेकने के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की पहल पर उनकी राजनीतिक विंग भाजपा के कुछ शीर्ष राजनेता पश्चिमी बंगाल में ठाकुर नगर तथा बांग्ला देश के औरकन्डी गुरु जी के जन्म स्थान पहुंचे थे। उन्होंने नागरिकता संशोधन कानून पर पार्लियामेंट में बहस के दौरान जोगेंद्र नाथ मंडल के स्टीफ़े का जिक्र किया था। वे 14 अगस्त 1947 से 8 अक्टूबर, 1950 तक पाकिस्तान की सरकार में कानून मंत्री थे तथा वहां के संविधान निर्माता भी रहे थे। सरकार से नाता तोड़ने का हवाला जोगेंद्रनाथ मंडल ने स्वयं 8 अक्टूबर 1950 को दिए अपने स्तीफे में विस्तार से दिए हैं। बंगाल में अप्रेल-मई 2021 को हो रहे विधान सभा चुनाव में उनका 14 फीसदी वोट पाने की कीमत के तौर पर मंडल साहब के साथ तथा बाद में भारत  आये दलित हिन्दुओं को नागरिकता देकर शरणार्थी के कलंक से मुक्त करने का भाजपा ने घोषणा की हैं। उनकी आगे की रणनीति जोगेंद्रनाथ मंडल को भाजपा के नए आइकॉन की तरह स्तेमाल किया जा सकता है। इसके लिए आरएसएस के कुछ लोग जोगेंद्रनाथ मंडल के साहित्य की सलेक्टिव स्टडी कर सकते हैं।

5 अक्टूबर, 1968 को 64 वर्ष की आयु में मछलंदपुर में उनकी आकस्मिक मृत्यु हो गई। बहुजन समाज की नामशूद्र शाखा में जन्मे अम्बेडकरवादी मान्यवर जोगेंद्र नाथ मंडल भारत में सामाजिक परिवर्तन की नाव पर चढ़ कर राजनीतिक शिखर पर पहुंचे। उनका संघर्ष ही हमारे लिये प्रेरणा है। उनका विचार आज भी जीवित है और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है।

"जाति" सामाजिक उत्पीड़न का औजार है इसके प्रकोप से भारत के आधे से भी अधिक लोग गूंगे, बहरे, निराश, लाचार, दमित और गरीब बन चुके हैं जिन्हें सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक आधार पर पिछड़ा माना गया है। आज एससी/ एसटी/ ओबीसी और परिवर्तित धार्मिक अल्पसंख्यक को पिछड़ा या “बहुजन” के नाम से जाना जाता है जिनकी आबादी लगभग 85-90 फीसद होगी। समानता की संस्कृति को भारत में स्थापित करना हमारे संविधान का लक्ष्य है। केवल मंदिरों में प्रवेश करने, ऊँची जाति का नकली आवरण ओड़ लेने और सत्ताधारियों की हाँ में हाँ मिलाकर जातीय उत्पीड़न नहीं रोका जा सकेगा। सामाजिक गैरबराबरी और आर्थिक शोषण से मुक्त होने के लिए हमारे पुरखों के बताये हुए उचित राजनीतिक और सांस्कृतिक औजार ही कारगर साबित हो सकते हैं। इनका स्तेमाल डॉ अम्बेडकर और उनके शिष्य मान्यवर मंडल साहब ने कैसे किया, इसकी चर्चा इस आलेख में शुरू से अंत तक विस्तार से की गयी।

काश अम्बेडकर और मंडल दलित जाति से नहीं होते तो उनका सम्मान सबसे ऊपर होता इस लिए जाति एक आवश्यक बुराई है यह मानवीय भाईचारे को और योग्यता को नकार कर असमानता को जन्म देती है, अत: जितनी जल्दी हो इसे निर्मूल कर देना चाहिए। जिसका एकमात्र उपाय है बौद्ध बनना जो बाबा साहब ने किया। राजनीति को राजनेता नहीं बल्कि पीछे से धार्मिक नेता चलाते हैं। अंत में हम कह सकते हैं जोगेंद्र नाथ मंडल फेल नहीं हुए बल्कि उनसे आज के जनप्रतिनिधियों को सबक लेना चाहिए। चाटुकार और पिछलग्गू जनप्रतिनिधि जो अपने ही समाज के उत्पीड़न पर मूक दर्शक बने रहते हों और पार्लियमेंट और राज्य की विधान सभाओं में खुलकर आबाज नहीं उठा पाते हों, ऐसे नेताओं को बाबा साहब और मंडल साहब का अनुयायी कहने का हक़ नहीं है। 

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