अंबेडकर के EAO में किसानों का हल
- डॉ महीपाल
(किसान एक कमेरा वर्ग है जिसमें जातीय विभाजन, धार्मिक विभाजन, गरीबी, बेरोजगारी और बहिष्कार जैसी कमजोरियां हैं। इन कमियों के कारण सरकार द्वारा उनकी आवाज को अनसुना किया जाता रहा है। इस संकट के टिकाऊ समाधान के लिए जरूरी है की डॉ बीआर अंबेडकर के शिक्षित हो, आंदोलित हो और संगठित हो (EAO) मंत्रयोग को अपनाया जाय। अगर अम्बेडकर के इस सूत्र को व्यवहार में नहीं लाया गया तो किसान वर्ग को निराश और उत्पीड़ित करके दबा दिया जाएगा)
आज के समय में जिस तरह ग्रामीण क्षेत्रों जिसमें विशेष रूप से वर्तमान में किसान वर्ग में सामाजिक विभाजन, धार्मिक विभाजन, गरीबी, बेरोजगारी और उनकी समस्याओं को नजरअंदाज कर उनकी आवाज का न सुना जाना मौजूदा संकट का कारण है। उसके समाधान के लिए जरूरी है कि डॉ. भीम राव अंबेडकर के शिक्षित, आंदोलित और संगठित (ईएओ) वाले तीनों मंत्र अपनाया जाना चाहिए। अगर अंबेडकर की इस त्रिमूर्ति सिद्धांत "ईएओ" को व्यवहार में नहीं लाया गया तो किसान वर्ग के हितों की अनदेखी जारी रहेगी। इस लेख के जरिए हम बताना चाहेंगे कि ईएओ किसानों के वर्तमान संकट के समाधान के रूप में कैसे काम कर सकता है। डॉ अंबेडकर ने लिखा था कि दलित वर्ग के लोगों के लिए जाति के आधार पर समाज में व्याप्त ब्राहम्णवादी सामाजिक व्यवस्था (बीएसओ) के खिलाफ जागृति को एक व्यवस्थित दृष्टिकोण अपनाए बिना इस व्यवस्था के खिलाफ लड़ना मुश्किल था। इसके पीछे ईएओ मंत्र का तर्क है। किसी भी आंदोलन को सफल बनाने के लिए लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कोणों से वंचित होने के कारणों को समझाने के लिए लोगों को शिक्षित किया जाना चाहिए। एक शिक्षित और प्रशिक्षित दिमाग ही सही दिशा में कार्रवाई करने और तथ्यों को समझकर और उसका विश्लेषण कर सकता है।
इसमे 'शिक्षित' का अर्थ वंचितों के लिए औपचारिक शिक्षा के साथ-साथ उनके हाशिए पर और कमजोरी के लिए जिम्मेदार कारणों/ कारकों/ परिस्थितियों को समझने के लिए है। क्योंकि खुद को शिक्षित होन के बाद की भी सोच सकता है कि अगर उनके परिवार उनके समाज के प्रति कोई भी अन्याय या दुर्व्यवहार हो रहा है तो उसके खिलाफ अंदोलन करने का मन करेगा। इस प्रकार शिक्षित शब्द एक प्रकार से मानसिक क्रांति से संबंधित है न कि किसी प्रकार की शारीरिक हिंसा से है। जब मन में आंदोलन' का भाव उत्पन्न होगा तो दूसरे चरण में लोग संगठित होंगे। अगर दूसरे शब्दों में कहें तो मन के आंदोलन के माध्यम से संगठित' रूप में तीसरे चरण की ओर बढ़ने के लिए विचारों की क्रांति की जरुरत होती है क्योंकि शिक्षित दिमाग सामूहिक रूप से कार्य करने के लिए एक साथ आते है। अगर लोगों को सही विचारों पर संगठित नहीं किया जाता है, तो इस बात की संभावना नहीं है कि उनकी शिकायतों का समाधान मौजूदा व्यवस्था द्वारा किया जाएगा। ईएओ के विचार को भारत में दलितों के उत्थान के लिए प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया गया था, जो पहले बहिष्कार, अपमान और शोषण के रूप में त्रिस्तरीय अस्पृश्यता से पीड़ित थे। उसी तरह आज के वक्त में किसानों की मुश्किलों के संदर्भ में यह विचार बहुत प्रासंगिक है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि अंबेडकर के रणनीतिक ईएओ के विचार को लागू नहीं करने के लिए किसान वर्ग को दूसरों की तुलना में उनकी आर्थिक स्थिति को न जानने और समझने के कारण किसानों को एक कोने में धकेल दिया गया है। सभी जानते हैं कि भारत की लगभग 68 प्रतिशत जनसंख्या 6 लाख से अधिक गांवों में निवास करती है। किसानों और ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए कई वादे किए गए हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप से किसानों और मजदूरों की स्थिति अभी भी बहुत गंभीर है। यह शहरों और कस्बों के रूप में शहरी विस्तार के उलट है जिनमें ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक सुविधाएं और आर्थिक अवसर हैं। जनसंख्या आंकड़ों का अनुमान है कि लगभग तीन दशक बाद 2050 में भी भारत की 50 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में ही निवास करेगी।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था केवल ग्रामीणों के लिए ही नही बल्कि भारतीय समाज के विकास के लिए इसमें परिवर्तन बहुत ही जरूरी है। कृषि में आर्थिक नजरिये से कम उत्पादकता है के बावजूद उस पर अधिक निर्भरता है। वहीं दूसरी तरफ कृषि में कम वेतन वाले रोजगार की वजह से प्रति व्यक्ति आय कम होना आज के वक्त में चिंता का विषय है। ग्रामीण और शहरी श्रमिकों के बीच आय में अंतर ज्यादा है। ग्रामीण कामगारों की आय शहरी कामगारों की आय के एक तिहाई से भी कम है। ग्रामीण भारत को एक ऐसी रणनीति की जरुरत है जो रोजगार सृजन के लिए श्रमिकों को कृषि से गैर-कृषि क्षेत्र में स्थानांतरित कर सके। इसमें मुख्य रूप से श्रम आधारित, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम अहम भूमिका निभा सकते हैं।
देशकी ग्रामीण आबादी के सामने सामाजिक समस्याएं बहुत अधिक हैं। आज के वक्त में भी ग्रामीण आबादी का एक बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी सेवाओं से वंचित है। गरीबों और कमजोर लोगों को हाशिए पर ऱखना और उनका बहिष्कार, उनकी आवाज को दबाना और उनके आसपास के समाजिक वातावरण का बिगड़ना बहुत गंभीर समस्याएं हैं। इसलिए इनके विकास के लिए इस पर बारीकी से ध्यान देने की जरुरत है।
ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की समस्या भी एक गंभीर मुद्दा है जो इस बात से स्पष्ट होता है कि 25.70 फीसदी ग्रामीण जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करती है जबकि शहरी क्षेत्रों में यह आंकड़ा मात्र 14 फीसदी है। इससे जाहिर है की शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में समस्या ज्यादा गंभीर है। अगर राज्यों की बात करे तो छत्तीसगढ़ की 44.61 फीसदी, झारखंड की 40.84 फीसदी, अरुणाचल प्रदेश की 38.93 फीसदी, मणिपुर की 38.80 फीसदी, ओडिशा की 35.69 फीसदी, बिहार की 34.06 फीसदी और उत्तर प्रदेश की 30.40 फीसदी ग्रामीण आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रही है। इसे स्पष्ट रूप से महसूस किया जा सकता है। इसी तरह देश में तीन सामाजिक समूह अनुसूचित जनजाति (एसटी), अनुसूचित जाति (एससी) और अत्यन्त गरीब हैं। जिसमें एसटी में 47.3 फीसदी सबसे अधिक गरीब हैं। इसके बाद एससी 42.2 फीसदी और अत्यन्त गरीब 28 फीसदी आबादी है। सभी राज्यों में यह पाया गया है कि असम को छोड़कर, सभी राज्यों में गरीबी एसटी के बाद एससी के अधिक है। परेशान करने वाला तथ्य यह है कि मध्य प्रदेश (61.9 फीसदी, महाराष्ट्र 51.7 फीसदी, झारखंड 51.2% फीसदी उत्तर प्रदेश और बिहार और छत्तीसगढ़ में लगभग 70 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रही हैं। उत्तर प्रदेश में 49.8 फीसदी एसटी और 53.6 फीसदी एससी आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रही है।
जोत के हिसाब से कृषि जनगणना के अनुसार सीमान्त किसानों की संख्या साल 2000-01 में जहां 62.9 फीसदी थी वहीं साल 2010-11 में बढ़कर 67.10 फीसदी हो गई। इतना नही सभी जोत के किसानों के लिए खेती घाटे का सौदा बनती जा रही है। जबकि इसके विपरीत अन्य वर्ग के लोगों की आमदनी बढ़कर रही है। घटती जोत के हिसाब से इसे देखते हुए उचित सिंचाई सुविधाएं, उचित इनपुट प्रावधान और उपज का उचित विपणन कैसे प्रदान कर सकते हैं इसकी योजना बना सकते हैं?
अब मुख्य मुद्दा यह है कि कृषि पर इस तरह का संकट और किसानों की खेती में घटती दिलचस्पी है क्योंकि किसान गैर-कृषि श्रमिकों की तुलना में 33 प्रतिशत से भी कम कमाई कर रहा है। इससे न केवल किसानों में अविश्वास पैदा हो रहा है बल्कि देश की खाद्य सुरक्षा पर भी इसका गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। आजादी के सात दशक बाद भी 30 फीसदी से अधिक क्षेत्र में पारंपरिक किस्मों के तहत खेती की जा रही है क्योंकि आज के वक्त में कृषि की नई तकनीकों का कम विस्तार, गुणवत्ता वाले बीज और गुणवत्ता वाले पौधों की कमी के साथ प्रचार और प्रसार सामग्री का आपूर्ति श्रृंखला के साथ कोई लिंक नहीं जुडा हुआ है और कई राज्यों में तो संस्थागत ऋण की कम उपलब्धता है। साल 2017 में प्रोफेसर रमेश चंद ने देखा कि अन्य फसलों की तुलना में बहुत अधिक उत्पादकता वाले फलों और सब्जियों की खेती10 फीसदी से कम क्षेत्र में की जाती है।
वर्तमान संदर्भ में ईएओ रणनीति की प्रासंगिकता
कृषि की इस परिस्थिति के लिए मुख्य कारक कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़े मुद्दों के ज्ञान की गंभीर कमी है। इसलिए लोगों को उनकी वर्तमान स्थिति और उनके शोषण की प्रक्रियाओं के बारे में 'शिक्षित' करने की जरूरत है। जाहिर है जब लोगों को अपने शोषण के तथ्य नहीं पता होंगे तो उनके मन में इस बात को लेकर कोई हलचल नहीं होगी और स्थिति को बदलने के लिए क्या किया जाए। इसका उत्तर स्वाभाविक रूप से मिलता है कि पीड़ितों के बेहतर संगठन के बिना ऐसे गंभीर मुद्दों का समाधान नहीं किया जा सकता है। जिसके बारे में नीचे वर्णन करेगें।
किसानों और उनके सहयोगियों को उनके शोषण की प्रक्रिया के बारे में जागरूक करने के प्रयास करने के लिए किसान वर्ग के बीच शिक्षितों की एक बड़ी भूमिका है। इस संबंध में मुख्य कारक इस वर्ग की विभिन्न जातियां हैं। इन जातियों को आपस में संघर्ष नहीं करना चाहिए। इस वर्ग को महात्मा फुले, सर छोटू राम, चौधरी चरण सिंह, विजय सिंह पथिक, बीपी मंडल, कर्पूरी ठाकुर और कांशीराम के बारे में किसानों को अवगत कराया जाना चाहिए कि इन किसान नेताओं ने उनके लिए क्या किया था। अपने विरोधी और उनके शोषण की प्रक्रिया को जानना सिखाया जाना चाहिए।
जहां तक हमें जानकारी है कि सर छोटू राम कहते थे कि दो वर्ग थे पहला कमेरा (योगदानकर्ता, उत्पादक और यहां के किसान) और दूसरा वर्ग लुटेरा (वे जो बिना किसी भौतिक योगदान के धन जमा करते हैं)। इसलिए सभी कामेरों को एक मंच पर आना चाहिए और वहां से खुद को मुखर करना चाहिए। इसी प्रकार चौधरी चरण सिंह जाति व्यवस्था को समप्त करने के पक्षधर थे और उन अधिकारियों के साथ विशेष व्यवहार चाहते थे जो अंतर्जातीय विवाह करते हों। कमेरा वर्ग को यह समझना चाहिए कि उनके शोषक कौन हैं और कमेरा वर्ग के सभी घटक (जातियां) एक होने चाहिए। कृषक वर्ग की विभिन्न जातियों के बीच कोई संघर्ष नहीं होना चाहिए। अगर ऐसा होता है तो यह उनके अपने हितों के लिए संघर्ष की धार को निश्चित रूप से मजबूत करेगा क्योंकि तब संघर्ष खुशी की बात बन जाएगी। वह ढांचा किसान वर्ग के दिमाग में बनाना होगा। किसानों और संबद्ध कामगारों के लिए क्षमता विकास अकादमी की स्थापना की जा सकती है जिसका प्रबंधन इस वर्ग के संबंधित और सक्षम व्यक्तियों द्वारा किया जाना चाहिए।
जब किसान वर्ग शिक्षित होगा तो यह उनके मन को अपने मुद्दों को हल करने और समाधान तक पहुंचने के लिए संगठित होने के लिए प्रेरित करेगा। अंबेडकर ने वंचितों की शिक्षा के लिए 1924 में बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की थी। इसी तरह का एक मॉडल वर्तमान में जो किसान संगठन हैं वह तैयार कर सकते हैं। यह उत्तर प्रदेश के संदर्भ में बहुत ही प्रासंगिक है जहां विधानसभा चुनाव नजदीक हैं। बहुसंख्यक किसानों वाले राज्य में विभिन्न राजनीतिक दलों को यह समझना चाहिए कि चुनाव को किसान वर्ग की पहचान को ध्यान में रखकर लड़ा जाना चाहिए न कि जातिगत पहचान को ध्यान में रखकर। यह सामाजिक पूंजी बनाने में भी सहायक होगा जो बदले में इस वर्ग के लोगों के बीच बेहतर समन्वय और सहयोग को स्थापित कर सकता है। बीएसओ जातियों को सामने लाने की कोशिश करेगा लेकिन संगठित किसान वर्ग को ऐसा नहीं होने देना चाहिए। इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए किसान वर्ग और बुद्धिजीवियों को एक साथ आना चाहिए। उन्हें शोषण की प्रक्रिया, स्वतंत्रता संग्राम स्वतंत्रता और अधिकार, मानवाधिकार, संविधान और इसके कार्यान्वयन आदि पर प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए पाठ्यक्रम सामग्री विकसित करनी चाहिए।
(डॉ. महिपाल इंडियन इकोनॉमिक सर्विस के सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और ग्रामीण मामलों के एक्सपर्ट हैं, लेख में व्यक्त विचार उनके निजी विचार हैं)
पार्ट II
पिछड़ों, आदिवासी और दलितों की मुसीबत का टिकाऊ समाधान
-के सी पिप्पल
व्यक्ति की समस्याओं का समाधान बुद्ध के मार्ग में है भाग्य, भगवान, तलवार के मंदिर में नहीं। मंदिर क्या है, इसकी उत्पति क्यों की गई और इसका निर्माण और विकास कैसे हुआ? इनके उत्तर यहां मिल जाएंगे।
मन्दिर क्या है?
आपका अपना मंदिर मन के अंदर है, पत्थर की इमारारत के अंदर पत्थर की मूर्ति है, आपका मंदिर आपके शरीर के अंदर है उसके अंदर आपके मन की मूर्ति है। कुछ चालक लोगों ने जो मनोविज्ञान के जानकार है उन्होंने मन की बात समझ ली और उसका स्वरूप मंदिर और उसके अंदर आपके मन माफिक भगवान का निर्माण किया और आप उनके जाल में फंसकर पूजा करने लगे।
मंदिर क्यों बनाया?
इससे पहले हवन और यज्ञ की प्रथा वैदिक ब्राह्मणों में थी। मंदिर और मूर्ति की पूजा वे उस समय नहीं करते थे। इस प्रथा को 700 ईसवी के आसपास आदि शंकरचार्य ने वैदिक धर्म की बलि और गोमांस खाने की परम्परा को त्याग कर बुद्ध की अहिंसा, मूर्ति और मठों की परम्परा को अपनाया। उसके तहत चार ज्योतिर्मठों की स्थापना की और वेदों के स्थान पर उपनिषदों और वेदांत दर्शन का लेखन किया। जिसे सनातन संस्कृति या हिन्दू धर्म का नाम दिया गया। आरएसएस का हिंदुत्व यही सनातनी है वैदिक नहीं जबकि आर्यसमाजियों का हिंदुत्व वैदिक है।
मंदिर का विचार कैसे आया?
वेद की जगह वेदांत और उपनिषद; श्रमण की जगह ब्राह्मण और साधु - सन्यासी प्रथा का प्रचलन; श्रमण मठों की जगह शैव और शिवलिंग के रूप, विष्णू अवतार के रूप, शक्ति के अनेक रूपों की मूर्तियां बना कर मंदिरों में ईश्वर के दर्शन को ब्राह्मणों ने उजागर किया। इन मंदिरों और मंदिरों में पूजा करने वाले समूहों पर नियंत्रण ब्राह्मणों का हो गया।
धन और सुरक्षा मुहैया कराने वाले राजाओं की जय जयकार और विरोध करने वाले राजाओं की निन्दा ब्राह्मणों द्वारा मौखिक और लेखनी के माध्यम से की जाती रही है। ब्राह्मण इतिहासकारों ने इसी के चलते भारत का सबसे शक्तिशाली सम्राट धनानंद का नाम इतिहास से गायब कर दिया।
विरोध करने वाले राजाओं और समूहों को वर्ण और जाति का नया नाम शूद्र और अस्पृश्य दे दिया। इनके पुराने नाम अंत्यज, असुर, राक्षस, दानव, दस्यु और दास भी ब्राह्मणों ने ही दिए थे। आज भी ब्राह्मणों से कुण्डली बनाएंगे तो उसमें गण के खाने में राक्षस या असुर लिखा जाता है। जिस पर लोग ध्यान नहीं देते हैं। नामकरण का अधिकार सनातन समाज में ब्राह्मणों का रहा है; इसीलिए हिन्दू धर्म को ब्राह्मण समाज के दिमाग की उपज या ब्राह्मणों द्वारा संचालित और नियंत्रित व्यवस्था माना जाता है। वर्णाश्रम व्यवस्था इसका प्रशासनिक ढांचा है, जातियां और उपजातियां हर वर्ण की आंतरिक इकाइयां हैं। जातियों के स्तर समान न होकर एक दूसरे से ऊंचे और नीचे हैं। इस समाज में व्यक्ति और परिवार जैसी महत्वपूर्ण सामाजिक इकाई को पूरी तरह नजरंदाज कर दिया गया है। व्यक्ति अपनी निजी भावनाओं का उपयोग करके अपनी स्वतंत्र सोच के अनुसार जाति के बाहर शादी करता है या जातीय नियमों के खिलाफ व्यवहार करता है तो उसे जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता है। यहां तक कि शिक्षा लेना, शिक्षा देना और आर्थिक व्यवसायों को भी जाति से जोड़ दिया है। इस तरह की जड़ और श्रेणीगत परतंत्र समाज आजाद नहीं माना जा सकता। यही वजह रही है कि हिन्दू समाज का 90 फीसदी हिस्सा आज तक सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक रूप से अविकसित है। इस तरह यह एक विडम्बना है कि मुट्ठीभर लोगों ने इतने विशाल समाज को पंगु और विकलांग बना दिया है, इससे बड़े शर्म की बात हमारे लिए और क्या हो सकती है। जब तक जाति की समस्या का हल नहीं होगा तब तक सारी समस्याएं जस की तस बनी रहेंगी। बुद्ध, फुले, अम्बेडकर और कांशीराम ने सिर्फ इसी समस्या के समाधान के लिए हर व्यक्ति को काम करने के लिए प्रेरित किया। यही सद्धर्म है इसके अलावा सब व्यर्थ है।
धार्मिक और राजनीतिक नियंत्रण
इस तरह बौद्ध परम्परा को 700-800 ईसवी तक पूरी तरह तहस नहस करके हिन्दू के नाम पर आत्मसात कर लिया। हिन्दू परम्परा पर भी ब्राह्मणों का नियंत्रण बरकरार है और उनके द्वारा पैदा किए गए सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर भी ब्राह्मणों का ही नियंत्रण है। राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) जो पहले हिन्दू महासभा और भारतीय जन संघ के नाम से था, इस पर आरएसएस का नियंत्रण है अर्थात ब्राह्मण संघ का कब्जा है। जबकि कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, तेलांगना राष्ट्र समिति इत्यादि पर पर केवल ब्राह्मण परिवार का कब्जा है।
बाकी सभी पार्टियों पर कोई सांस्कृतिक संगठन का या ब्राह्मण परिवार का कब्जा नहीं है उन्हें क्षेत्रीय दलों के या जातिवादी दलों के नाम से ब्राह्मणों द्वारा प्रचारित करके उनकी ताकत को नकारा जाता है।
इसके मूल में क्या है?
(श्रमण+ब्राह्मण)= सनातन धर्म है आरएसएस का हिंदुत्व एजेंडा।
पुरातन या सनातन बौद्ध लोग ही आज के शूद्र हैं। शूद्रों न शैव दर्शन को अपनाया और बाद में शिवजी की मूर्ति शमशान में लगाईं गईं। शिवजी को भूतनाथ, योगीनाथ, भोला, भंडारी, नागनाथ, रुद्रनाथ इत्यादि नामों के साथ उन्हें मठघट अर्थात मरघट का देवता ब्राह्मणों ने बना कर उपेक्षित किया। आर्थात हिंदुओं में उपेक्षित समूह शूद्र का देवता भी उपेक्षित बना दिया। यह सब आपकी स्वीकारिता और नासमझी की वजह से हुआ।
आदि शंकराचार्य ने वेदांत साहित्य की रचना 700 ईसवी के आसपास की ऐसा माना जाता है। आदि शंकराचार्य ने अद्वैत दर्शन के लिए वेदांत साहित्य की रचना की जो पशुबलि और यज्ञ प्रथा के खिलाफ एक क्रांति थी। यह पुरातन वैदिक व्यवस्था मैं बुद्ध की व्यवस्थाा के अनुकूल धार्मिक परिवर्तन था। आदि शंकराचार्य ने शैव और बुद्ध परंपराओं को मिलाकर वैदिक सभ्यता का हिंदू संस्कृति के रूप में पुनर्निर्माण किया।
1. आदि शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत दर्शन का अर्थ एक ईश्वरीय शक्ति में विश्वास रखने से है, मतलब केवल ब्रह्म ही सत्य है और जगत मिथ्या है।
2. रामानुजाचार्य ने अद्वैत दर्शन को विशिष्ट अद्वैतवाद के रूप में परिमार्जित किया।
3. माधवाचार्य ने इस कड़ी को आगे बढ़ाते हुए द्वैत शाखा अर्थात ईश्वरीय शक्तियों के दो रूपों अर्थात जीव और ब्रह्म की समान सत्ता विद्दमान होने की बात कही है!
बाद में इनमें अनेक अनेक पंथ, परंपराएं और मत मतांतर जुड़ते गए। इसी कड़ी में 1925 में ब्राह्मण समाज ने स्वयं सेवा देने के लिये अपना नया संगठन आरएसएस बनाया जो तत्कालीन सुधारवादियों और रूढ़िवादियों का संगम था। यह संगठन धार्मिक कम राजनीतिक अधिक है क्योंकि यह नकारात्मक सोच पर आधारित है। इसी राजनीतिक सोच के चलते समरसता के नाम पर आरएसएस ने आज दलित, पिछड़ा और आदिवासी समाज में अपनी स्वीकारिता बनाने के लिए इनके सजातीय नायकों के स्मारक और मंंदिर बनानेे; एक गांव में सभी हिन्दू जातियों के लिए, एक साझा कुआं और एक साझा शमशान बनाने; निम्नतम दलित जाति के घरों में भोजन करने आदि कार्यक्रम शुरू किए हैं। धीरे धीरे मंडल का समाज ब्रह्मा के कमंडल में जाना शुरू हो गया है। यह आरएसएस के समरसता सिद्धांत का एक्शन प्लान है। इस तरह इस कार्यक्रम के द्वारा एक तीर से दो शिकार होंगे, यानि हिंदू-धर्म की जातीय कटुता और बैर में भी कमी आयेगी तथा राजनीतिक लक्ष्य भी सध जाएगा। यह आरएसएस का जाति निरपेक्षता का उदारवादी तरीका है जो धर्मनिरपेक्षता के तरीके के विपरीत है और भारतीय मूल के पंथों के अनुकुल है।
बुद्ध और अम्बेडकर का रास्ता
बुद्ध ने कहा अपने मन पर नियंत्रण करके हम दुखों से मुक्ति पा सकते हैं। लालच, माया, मोह, ईर्ष्या, कुंठा, अनुराग, द्वेष इत्यादि मन की बीमारियों पर नियंत्रण करके आप एक विजेता बन सकते हैं। मार्ग दर्शक बन सकते है। नियंत्रण में रहने वाले से नियंत्रण करने वाले बन सकते हैं। इसी में छुपा है शासक बनने का राज। पहले स्वशासित बनो तभी शासक बन सकते हो। स्वशासित व्यक्ति और समाज ही किसी प्रकार के छलावे से मुक्त रहकर सुखी जीवन जी सकते हैं। डॉ. अम्बेडकर ने भी बुद्ध के बुद्धम् शरणम् गच्छामि, धम्मम् शरणम् गच्छामि, संघम् शरणम् गच्छामि की तरह टू एजुकेट, टू एजिटेट और टू ऑर्गेनाइज (EAO) जैसा त्रिशरण सूत्र (Triangle Formula) दिया।
उक्त मार्ग ही जीवन का उत्तम मार्ग है, इसके सिद्धांतों पर चल कर हम अपना, अपने परिवार, अपना समाज और अपने देश का समग्र विकास कर सकते हैं। अत मन ही मंदिर है और मन ही सदमार्ग और असदमार्ग पर ले जाता है। चमचा युग पुस्तक के अंतिम चरण में मा. कांशीराम साहब ने समग्र विकास का टिकाऊ समाधान बहुजनों द्वारा समानता की संस्कृति की स्थापना और उसका नियंत्रण है।
(के सी पिप्पल RSVS के संस्थापक अध्यक्ष और इंडियन इकोनॉमिक सर्विस के सेवानिवृत्त अधिकारी हैं)