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नारायण गुरु: सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के नायक

नारायण गुरु: सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के नायक

-डॉ. सौदान सिंह

(अगस्त 26, 1854 – सितंबर 20, 1928)

 

नारायण गुरु ने कहा कि सभी मनुष्यों के लिए एक ही जाति, एक धर्म और एक ईश्वर होना चाहिए। नारायण गुरु मूर्तिपूजा के विरोधी थे। लेकिन वह ऐसे मंदिर बनाना चाहते थे, जहां कोई मूर्ति ही न हो। हाल ही में भारत के उपराष्ट्रपति ने श्री नारायण गुरु की कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद, "नॉट मैनी, बट वन" लॉन्च किया है। नारायण गुरु भारत के महान संत एवं समाजसुधारक थे। कन्याकुमारी जिले में मारुतवन पहाड़ों की एक गुफा में उन्होंने तपस्या की थी। गौतम बुद्ध को गया में पीपल के पेड़ के नीचे बोधि की प्राप्ति हुई थी। उनका धर्म बुद्ध के नाम पर ही है। इसी तरह नारायण गुरु को उस परम ज्ञान की प्राप्ति एक गुफा में हुई। बुद्ध की तरह उनका "श्री नारायणा धर्म" भी उनके नाम पर ही है। इस तरह यहाँ दौनों में कई समनतायें मिलती हैं।

श्री नारायण गुरु का जन्म 26 अगस्त, 1854 को केरल के तिरुवनंतपुरम के पास एक गाँव चेमपज़ंथी में मदन असन और उनकी पत्नी कुट्टियम्मा के घर हुआ था। उनके माता-पिता को नहीं मालूम था कि उनका बेटा एक दिन अलग तरह के मंदिरों को बनवाकर समाज को बदलने में अग्रणी भूमिका निभाएगा।

उस परम तत्व को पाने के बाद नारायण गुरु अरव्विपुरम आ गये थे। उस समय वहां घना जंगल था। वह कुछ दिनों वहीं जंगल में एकांतवास में रहे। एक दिन परमेश्वरन पिल्लै नाम के एक चरवाहे ने उन्हें संत मुद्रा में देखा और उसने बाद में सभी लोगों को नारायण गुरु के इस रूप के बारे में बताया और यही उनका पहला शिष्य भी बना। धीरे-धीरे नारायण गुरु सिद्ध पुरुष के रूप में प्रसिद्ध होने लगे और लोग उनसे आशीर्वाद लेने के लिए आने लगे। उसी समय  गुरुजी के मन में एक ऐसा मंदिर बनाने का विचार आया जिसमें कोई भी प्रवेश कर सके और उनके पंथ में किसी धर्म, जाति, आदमी और औरत के साथ किसी किस्म का कोई भेदभाव न हो।

दक्षिण केरल में नैयर नदी के किनारे अरुविप्पुरम श्री नारायणा सम्प्रदाय का एक खास तीर्थ स्थान है यहां पर नारायण गुरु द्वारा बनवाया गया पहला मंदिर है। यह  मंदिर एक नजर में देखने पर अन्य मंदिरों जैसा ही लगता है, लेकिन यह देश में एक ऐसा ऐतिहासिक और पहला मंदिर है, जहां बिना किसी जातिभेद के कोई भी पूजा कर सकता है। इसके निर्माण के समय जाति के बंधनों में जकड़े ब्राह्मणी हिन्दू समाज में हंगामा खड़ा हो गया था। वहां के ब्राह्माणों ने तो उसे महापाप करार दिया था। तब नारायण गुरु ने कहा था- ‘ईश्वर न तो किसी पुजारी का है और न ही किसी किसान का, वह सबका है और सबमें है’

दरअसल वह बुद्ध की तरह एक ऐसे धर्म की खोज में थे जिसमें इन्सानियत हो, जहां आम से आम व्यक्ति भी बराबरी पर खड़ा हुआ महसूस कर सके। वह स्पृश्य और अस्पृश्य शूद्र (नीची-बाहिष्कृत) समझी जानें वाली जातियों के लोगों को स्वाभिमान से जीते देखना चाहते थे। उस समय केरल में लोग ढेरों देवी-देवताओं की पूजा करते थे। नीच और जाति बाहर लोगों के अपने-अपने आदिम देवता थे। ऊंची जाति के लोग उन्हें नफरत से देखते थे। उन्होंने ऐसे देवी-देवताओं की पूजा के लिए लोगों को निरुत्साहित किया। उसकी जगह नारायण गुरु ने कहा कि सभी मनुष्यों के लिए एक ही जाति, एक धर्म और एक ईश्वर होना चाहिए।

उनका परिवार एझवा जाति से संबंध रखता था और उस समय के सामाजिक मान्यताओं के अनुसार इसे 'अवर्ण’ (शूद्र) माना जाता था। उन्हें बचपन से ही एकांत पसंद था और वे हमेशा गहन चिंतन में लिप्त रहते थे। जातिगत अन्याय के खिलाफ: नारायण गुरु का आविर्भाव दक्षिणी राज्य केरल में ऐसे वक्त में हुआ था, जब वहां अस्पृश्यता घृणित रूप में मौजूद थी। कुछ जातियों के लोगों को न केवल अछूत माना जाता था, बल्कि उनकी छाया भी अन्यों को अपवित्र कर देती थी। एक समान आराध्य और धर्म को मानने के बावजूद इन लोगों को मंदिरों और विद्यालयों में प्रवेश से वंचित रखा गया था। ऐसे वक्त में नारायण गुरु इस सामाजिक जड़ता को तोड़ने और समाज में रचनात्मक बदलाव लाने में सफल रहे थे। उन्होंने इस मान्यता को ठुकरा दिया कि मंदिर का पुजारी केवल ब्राह्मण ही हो सकता है। अन्य मंदिरों में जिनका प्रवेश वर्जित था, वे भी यहां निर्बाध आ सकते थे। यहां किसी के लिए कोई भेदभाव नहीं था, न जाति का, न धर्म का और न ही आदमी और औरत का। इस मंदिर के निकट ही श्री नारायण गुरु ने अपना आश्रम बनाया था। साथ ही एक संस्था बना कर मंदिर संपदा की देखरेख और श्रद्धालुओं के कल्याण की व्यवस्था की थी। इसे बाद में श्री नारायण धर्म परिपालन योगम् (एसएनडीपी) नाम से जाना गया। बाद के दशकों में इस संस्था ने अनेक मंदिर और शिक्षण संस्थानों की स्थापना की। उन्होंने "एक जाति, एक धर्म, एक ईश्वर" (ओरु जति, ओरु माथम, ओरु दैवम, मानुष्यानु) का प्रसिद्ध नारा दिया।

श्री नारायण गुरु का दर्शन: श्री नारायण गुरु बहुआयामी प्रतिभा, महान महर्षि, अद्वैत दर्शन के प्रबल प्रस्तावक, कवि और एक महान आध्यात्मिक व्यक्ति थे। उन्होंने विभिन्न भाषाओं में अनेक पुस्तकें लिखीं। उनमें से कुछ प्रमुख हैं: अद्वैत दीपिका, असरमा, थिरुकुरल, थेवरप्पाथिंकंगल आदि। श्री नारायण गुरु मंदिर प्रवेश आंदोलन में सबसे अग्रणी थे और अछूतों के प्रति सामाजिक भेदभाव के खिलाफ थे। श्री नारायण गुरु ने वयकोम सत्याग्रह (त्रावणकोर) को गति प्रदान की। इस आंदोलन का उद्देश्य निम्न जातियों को मंदिरों में प्रवेश दिलाना था। इस आंदोलन की वजह से महात्मा गांधी सहित सभी लोगों का ध्यान उनकी तरफ गया। उन्होंने अपनी कविताओं में भारतीयता के सार को समाहित किया और दुनिया की विविधता के बीच मौजूद एकता को रेखांकित किया।

 

 

उनकी मुख्य साहित्यिक कृतियाँ-

दार्शनिक: आत्मोपदेशशतकं, दैवदशकं, दर्शनमाल, अद्वैतदीपिक, अऱिव्, ब्रह्मविद्यापंचकं, निर्वृतिपंचकं, श्लोकत्रयी, होममन्त्रं, वेदान्तसूत्रं।

प्रबोधन: जातिनिर्ण्णयं, मतमीमांस, जातिलक्षणं, सदाचारं, जीवकारुण्यपंचकं, अनुकम्पादशकं, धर्म्म, आश्रमं, मुनिचर्यापंचकं।

गद्य: गद्यप्रार्त्थन, दैवचिन्तनं, दैवचिन्तनं, आत्मविलासं, चिज्जढचिन्तकं, अनुवाद, ईशावास्योपनिषत्त्, तिरुक्कुऱळ्, ऒटुविलॊऴुक्कं।

विज्ञान में योगदान: श्री नारायण गुरु ने स्वच्छता, शिक्षा, कृषि, व्यापार, हस्तशिल्प और तकनीकी प्रशिक्षण पर ज़ोर दिया। श्री नारायण गुरु का अध्यारोप (Adyaropa) दर्शनम् (दर्शनमला) ब्रह्मांड के निर्माण की व्याख्या करता है। इनके दर्शन में  दैवदशकम् (Daivadasakam) और आत्मोपदेश शतकम् (Atmopadesa Satakam) जैसे कुछ उदाहरण हैं जो यह बताते हैं कि कैसे रहस्यवादी विचार तथा अंतर्दृष्टि वर्तमान की उन्नत भौतिकी से मिलते-जुलते हैं। श्री नारायण गुरु की सार्वभौमिक एकता के दर्शन का समकालीन विश्व में मौजूद देशों और समुदायों के बीच घृणा, हिंसा, कट्टरता, संप्रदायवाद तथा अन्य विभाजनकारी प्रवृत्तियों का मुकाबला करने के लिये विशेष महत्त्व है।

गुरु समाधि दिवस: श्री नारायण गुरु की मृत्यु 20 सितंबर, 1928 को हो गई। केरल में यह दिन श्री नारायण गुरु समाधि (Sree Narayana Guru Samadhi) के रूप में मनाया जाता है।

नारायणा गुरु केरल के शूद्र थे: उनके समय "नायर" शूद्र वर्ण होने के कारण निचले स्तर की जाति मानी जाती थी उनके बाद, एझवा जाति और फिर उसके नीचे के क्रम में अनेकों दलित जातियों को रखा जाता था। दलित जातियों के अधिकतर लोग खेतिहर मज़दूर थे वे मेहनत मजदूरी के साथ मछली पकड़ने और ताड़ी निकालने का काम करते थे। इन समुदायों की औरतों के साथ उस समय इतना महाघोर अन्याय हो रहा था कि उन्हें स्तन ढकने तक का भी अधिकार नहीं था। इस प्रथा को बंद करवाने के  लिए विद्रोह स्वरूप एक शूद्र महिला को अपने स्तन ही काट कर ज़मीन पर रखने पड़े। उस बहादुर महिला का नाम बहुत कम लोग जानते होंगे और जो जानते हैं उनको बताने में आज शर्म आती होगी। उसका नाम था नंगेली

नंगेली की क्रांति का इतिहास: किसी स्कूल के इतिहास की किताब में नंगेली ज़िक्र या कोई तस्वीर भी नहीं मिलेगी। लेकिन उनके साहस की मिसाल ऐसी है कि एक बार जानने पर कभी नहीं भूलेंगे, क्योंकि नंगेली ने स्तन ढकने के अधिकार के लिए अपने ही स्तन काट दिए थे। केरल के इतिहास के पन्नों में छिपी ये लगभग सौ से डेढ़ सौ साल पुरानी कहानी उस समय की है जब केरल के बड़े भाग में त्रावणकोर के राजा का शासन था जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी थीं और निचली जातियों की महिलाओं को उनके स्तन न ढकने का आदेश था। उल्लंघन करने पर उन्हें 'ब्रेस्ट टैक्स' यानी 'स्तन कर' देना पड़ता था। ये वो समय था जब पहनावे के कायदे ऐसे थे कि एक व्यक्ति को देखते ही उसकी जाति की पहचान की जा सकती थी। ब्रेस्ट टैक्स का मक़सद जातिवाद के ढांचे को बनाए रखना था। ये एक तरह से एक औरत के निचली जाति में पैदा होने की कीमत थी। इस कर को बार-बार अदा कर पाना इन ग़रीब समुदायों के लिए मुमकिन नहीं था। उस दौर में दलित समुदाय के लोग ज़्यादातर खेतिहर मज़दूर थे और ये कर देना उनके बस के बाहर था। ऐसे में एझवा और नायर समुदाय की औरतें ही इस कर को देने की थोड़ी क्षमता रखती थीं। इसी बीच एड़वा जाति की एक महिला, नंगेली ने इस कर को दिए बग़ैर अपने स्तन ढकने का फ़ैसला कर लिया। केरल के चेरथला में अब भी इलाके के बुज़ुर्ग उस जगह का पता बता देते हैं जहां नंगेली रहती थीं। बताया जाता है कर मांगने आए अधिकारी ने जब नंगेली की बात को नहीं माना तो नंगेली ने अपने स्तन ख़ुद काटकर उसके सामने रख दिए। लेकिन इस साहस के बाद ख़ून ज़्यादा बहने से नंगेली की मौत हो गई। बताया जाता है कि नंगेली के दाह संस्कार के दौरान उनके पति ने भी अग्नि में कूदकर अपनी जान दे दी। नंगेली की याद में उस जगह का नाम मुलच्छीपुरम यानी 'स्तन का स्थान' रख दिया गया। पर समय के साथ अब वहां से नंगेली का परिवार चला गया है और इलाके का नाम भी बदलकर मनोरमा जंक्शन पड़ गया है। नगेली ने यह बलिदान अपने लिए नहीं किया बल्कि सारी औरतों के लिए ये कदम उठाया था, जिसका नतीजा ये हुआ कि राजा को ये कर वापस लेना पड़ा।"

केरल में वाम मोर्चा: वाम मोर्चा को मुख्यत उन दलित और पिछड़ी जातियों का समर्थन मिलता है। जिन्होंने समाज सुधार और आत्म सम्मान के आंदोलनों से अपनी स्थिति काफी अच्छी की है। ऐसा सबसे बड़ा समूह है एझवा लोगों का जो पारंपरिक रूप से ताड़ी निकालने का काम करते थे। इनकी आबादी प्रदेश में 22 फीसदी है और उनके दो तिहाई वोट वाम मोर्चा को मिलते हैं। अन्य पिछड़ी जातियों और 8 फीसदी दलितों में भी वाम मोर्चे को ज्यादा वोट मिलते हैं। नायरों की आबादी लगभग 15 फीसदी है और वे आमतौर पर वाम मोर्चा के खिलाफ होते हैं। हाल के चुनावों में भाजपा को इसी समुदाय का समर्थन सबसे ज्यादा मिला है। वायसनाड की पहाड़ियों में थोड़े से आदिवासी हैं पर उनकी संख्या इतनी नहीं है कि वे राज्य की राजनीति को ज्यादा प्रभाविक कर पाएं। केरल के मतदान में सिर्फ जाति समुदाय ही नहीं धर्म भी आधार रहता है। सामाजिक जातीय समूहों की कमजोर आर्थिक स्थिति से भी जुड़ा है वाम मोर्चे की तरफ लोगों का स्वाभाविक रुझान।

संघ और भाजपा: हाल में ऑर्थोडॉक्स और जेकोबाईट चर्चो के बीच एक पुराने सम्पति विवाद को सुलझाने में काफी रूचि दिखलाई। उन्होंने एक हजार साल पुराने एक ऑर्थोडॉक्स चर्च को राष्ट्रीय राजमार्ग के चौड़ीकरण के लिए गिराए जाने से भी बचाया। चर्च के अलावा, संघ और भाजपा एझवा समुदाय में घुसपैठ करने का प्रयास भी कर रहे हैं। एझवा वही समुदाय है जिसमें नारायण गुरु का जन्म हुआ था। यह केरल का सबसे बड़ा OBC समुदाय  है और लंबे समय से ब्राह्मणवाद के कट्टर विरोधी के रूप में जाना जाता रहा है।

सन् 1979 से – मतलब करीब 42 सालों से – यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) के ज़रिए मुस्लिम लीग का नायरों और सीरियन ईसाईयों से निकट जुड़ाव रहा है। इन 42 वर्षों में से 21 वर्षों में इन समुदायों का राज्य पर शासन रहा है। यूडीएफ की सरकारों ने इन समुदायों को राज्य की मदद से समृद्ध बनने का भरपूर मौका दिया।

सन् 1990 के दशक से देश के राजनैतिक फलक पर संघ/भाजपा का उदय शुरू हुआ, जिसकी अंतिम परिणति थी 2014 में उनका केंद्र में सत्ता में आना। इस अवधि में नायर मतदाताओं के एक बड़े तबके ने यूडीएफ से किनारा कर राष्ट्रीय स्तर पर उदयीमान संघ/भाजपा का दामन थाम लिया। सन् 1970 के चुनाव, जो यूडीएफ के गठन के पूर्व राज्य का अंतिम ‘सामान्य’ चुनाव था, में संघ परिवार को 0.6 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे। वहीं सन् 2016 के विधानसभा चुनाव में उसे 10.55 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। यह मुख्यतः नायरों की बदौलत ही हो सका, जो राज्य की आबादी का 12 प्रतिशत हैं। केरल में संघ और भाजपा का अर्थ है नायर। केरल में वे ही भगवा ध्वजधारियों के खेवैया हैं। राज्य में अगर भाजपा अपने कदम जमा पा रही है तो इसका अर्थ यह है कि नायर समुदाय ने यूडीएफ को त्याग दिया है और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि नायर मुसलमानों के खिलाफ हो गए हैं।

यूडीएफ में अब मुसलमानों का साथ देने वाला एक ही समुदाय बचा है और वह है ईसाई समुदाय। हिंदुत्ववादियों अर्थात नायरों को लग रहा है कि यह चुनाव मुसलमानों को पूरी तरह अलग-थलग करने का एक सुनहरा मौका है। ईसाई धर्म के पास एक वैश्विक शक्ति है। इतिहास गवाह है कि केरल की पुरानी सामंती अर्थव्यवस्था में जमींदार बतौर नायरों और ईसाईयों ने दमनकारी जाति व्यवस्था को बनाए रखने में खासी भूमिका निभायी। अब ऐसा लग रहा है – और यह संभव भी है –  कि नायरों के वर्चस्व वाले आरएसएस और सीरियन चर्च में एक समझौता हो गया है। और वह यह कि जहां तक संभव हो, चर्च आरएसएस की निंदा करने से बचे और संघ के एजेंडा के अनुरूप इस्लाम को आतंकवाद फैलाने और महिलाओं के प्रति दुराग्रह रखने का दोषी ठहरा कर उस पर हमले करे। हाल में केरल के (सायरो-मलाबार कैथोलिक) चर्च ने एक वक्तव्य जारी कर कहा कि ‘लव जिहाद’ सचमुच हो रहा है।

मुसलमान केरल की धरती के पुराने निवासी हैं। वे राज्य की कुल आबादी का 27 प्रतिशत हैं औ राज्य का सबसे बड़ा धार्मिक समुदाय हैं। वे केरल की बहुवर्णी संस्कृति का अभिन्न और मुख्य भाग हैं। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि मुसलमान न तो अलग-थलग हों, न वे यह महसूस करें कि उन्हें अलग-थलग कर दिया गया है और ना ही उन्हें ऐसा लगे कि उन्हें अलग-थलग करने के प्रयास हो रहे हैं। हमें उन्हें ‘दूसरा’ नहीं बनने देना है। यह न केवल गलत होगा वरन् राज्य की सामाजिक एकता के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बन जाएगा।

दरअसल, हिंदुत्ववादियों की रणनीति दोहरी नहीं बल्कि तिहरी है। वे मुसलमानों के खिलाफ अभियान चला रहे हैं, इजवाओं को रिझा रहे हैं और नारायण गुरु पर कब्ज़ा कर रहे हैं। ये तीनों काम एक साथ, समानांतर रूप से किए जा रहे हैं। वे अलग-अलग लग सकते हैं परन्तु वे एक-दूसरे से संबद्ध हैं।   

संघ अनार्य और अवर्ण समुदायों पर डोरे डाल रहा है। उसका उद्देश्य इन समुदायों को आर्य, सवर्ण सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा बनाकर एकसार, संस्कृत-आधारित, ब्राह्मणवादी हिन्दू समुदाय का निर्माण करना है। जैसा कि गोलवलकर का कहना था – “एक देश, एक राष्ट्र, एक विधायिका, एक कार्यपालिका”।       

एझवाओं को जोड़ने के पीछे चुनावी गणित भी है। एझवा केरल का सबसे बड़ा हिन्दू (OBC) समुदाय है (आबादी का करीब 22 प्रतिशत)। भाजपा नायरों में जितनी घुसपैठ कर सकती थी, वह कर चुकी है। नायर कुल आबादी का 11.9 प्रतिशत हैं और सन् 2016 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 12 प्रतिशत और 2019 के लोकसभा चुनाव में 13 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे। साफ़ है कि नायरों के सहारे और आगे बढ़ने की गुंजाइश अब है नहीं। भाजपा को यदि चुनाव में और ज्यादा वोट पाने हैं तो उसे इजवा समुदाय को अपने साथ लेना ही होगा। इजवा मुख्यतः लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) के साथ हैं। अगर वे भाजपा के साथ जुड़ जाते हैं तो इससे पार्टी एक तीर से दो निशाने साध सकेगी – उसका आधार मज़बूत होगा और एलडीएफ का खोखला।

अगर आप सावरकर की व्हाट इज़ हिंदुत्व या गोलवलकर की बंच ऑफ़ थॉट्स – जो संघ और हिन्दू महासभा की बाइबिल हैं – पढ़ें तो आपको यह साफ़ समझ में आ जाएगा कि हिंदुत्व आंदोलन केवल मुस्लिम विरोधी नहीं है। वह ईसाई विरोधी भी है। हिंदुत्व जानता है कि अगर देश के ओबीसी और एससी/एसटी हिन्दू धर्म को त्याग कर किसी अन्य धर्म का वरण करेंगे तो वह धर्म ईसाईयत होगा, इस्लाम नहीं। ईसाई दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे धनी धर्म है। पृथ्वी के लगभग 2.3 अरब निवासी (दुनिया की आबादी का एक-तिहाई) ईसाई हैं और दुनिया के 195 देशों में से 120 में ईसाईयों का बहुमत है। और इन देशों में दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र शामिल हैं। इसके विपरीत, केवल 50 देशों की बहुसंख्यक आबादी मुस्लिम है।

केरल के हिंदु-  केरल के हिंदुओं में लगभग 420 जातियाँ हैं, और औसत गाँव में 17 जाति समूह हैं। इनमें कितना भेदभाव है इसको एक उदाहरण से समझा जा सकता है कि - एक नायर,  परंपरागत रूप से एक नंबूदरी से संपर्क कर सकता है, लेकिन इसे स्पर्श नहीं कर सकता। एक एझावा को ब्राह्मण से 36 कदम की दूरी बनाकर रखनी चाहिए, और एक पुलाया को 96 कदम दूर रहना चाहिए। जातियों को यहां तक परिभाषित किया जाता है कि उनकी दृष्टि मात्र भी अपवित्र है। केरल के हिंदुओं के बीच जाति क्रम-श्रेणियों  का विस्तार लगभग एक तरफा सीढ़ी है और जाति रैंकिंग के अधिकतम विस्तार के लिए चरम सीमा तक सभी जातियों को योग्यतानुसार चार संरचनात्मक दर्जों (वर्णों) में समाहित है।

एझावा और थिया जाति- आजकल इज़हावन, ईशान, एज़हवान, एज़ुवा, इज़ुवा, इशुवा, इज़ुवन, इज़ुवन, इज़ह्वा, इज़हावन, इज़ावन, इलुवन, इलुवन, इरावा, इरुवा, इज़हवास और थियायस आदि उपजातियों में विभाजित हैं और यह सभी ओबीसी में आते हैं। एझवा केरल के हिन्दू समुदायों के बीच में सबसे बड़ा समूह है। उन्हें प्राचीन तमिल चेर राजवंश के विलावर संस्थापकों का वंशज माना जाता है, जिनका कभी दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों पर शासन हुआ करता था। मालाबार में उन्हें थिय्या कहा जाता है, जबकि तमिलनाडु में वे बिल्लवा नाम से जाने जाते हैं। उन्हें पहले 'ईलवर' नाम से जाना जाता था। वे आयुर्वेद के वैद्य, योद्धा, कलारी प्रशिक्षणकर्ता, सैनिक, किसान, खेत मजदूर, सिद्ध चिकित्सक और व्यापारी हुआ करते थे। कुछ लोग कपड़ा बनाने, शराब के व्यापार और ताड़ी निकालने के कामों में भी शामिल थे। इझाथु मन्नानर जैसे एझावा (थिय्या) राजवंशों का भी केरल में अस्तित्व है। इस समुदाय के अंतर्गत का योद्धा वर्ग चेकावर स्थानीय सरदारों और राजाओं की सेना का एक अंग हुआ करता था। उनके लोग प्रसिद्ध कलारी पयट्टू विशेषज्ञ भी थे। उत्तरी केरल के इस समुदाय के सदस्यों के बीच सर्कस एक विशेष आकर्षण रखता है और भारत के अनेक प्रसिद्ध कलाबाज़ इस समुदाय से आते हैं।

इजवा और मुसलमान कुल मिलाकर केरल की आधी आबादी हैं। एससी, एसटी और गैर-इजवा ओबीसी का कुल आबादी में प्रतिशत 22 है। इसका अर्थ यह है कि अगर मुसलमान, इजवा, गैर-इजवा ओबीसी, एससी और एसटी मिल जाएं तो वे राज्य की आबादी का 70 प्रतिशत से अधिक होंगे। वे सभी वर्ण व्यवस्था के चलते सामाजिक अन्याय का शिकार रहे हैं और आज भी हैं। केरल के भविष्य की रक्षा के लिए यह ज़रूरी है कि ये पांच समूह, जो अलग-अलग जातियों और धर्मों से हैं, केरल के लिए एक साझा एजेंडा बनाएं जो धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील और सामाजिक न्याय पर आधारित हो।

धार्मिक, क्षेत्रीय और जाति भेदभाव की जटिलता के कारण विवेकानंद ने केरल को सांप्रदायिकता का "पागलखाना" कहा था। केरल की आबादी में 27 फीसदी मुस्लिम, 18 फीसदी ईसाई और 55 फीसदी हिंदू हैं, इनमें 95 फीसदी वे जातियां हैं जो कभी शूद्र (OBC/SC/ST) जातियों की अंग हैं। मुस्लिम समुदाय, जिसे मपिल्लस कहा जाता है, केरल में नौवीं शताब्दी से आया है।

केरल कई मामलों में देश से आगे चलता है, यहां 1950 के दशक में ही गठबंधन की राजनीति शुरू हो गयी थी और 1960 के दशक में तो यहां गठबंधन बन गए थे। इन दो दशकों में राज्य में सारी राजनीतिक उठापटक चली पर इसी दौरान यहां के लोगों ने सामाजिक परिवर्तन की राजनीति में असली भूमिका को भी ठीक से समझ लिया।

लोकतांत्रिक मोर्चा और वाममोर्चा का मौजूदा स्वरूप 1980 में दशक में बना और बहुत थोड़े बदलावों के साथ अभी तक चल रहा है। बाक़ी मुल्क अभी भी केरल की तरह गठबंधन चलाने का गुर सीखने में ही व्यस्त है। बाकी मुल्क को गठबंधन की राजनीति मंडल-युग और कांशीराम की बहुजन राजनीति के उदय के बाद में समझ में आई। भाजपा की हिदुत्व की राजनीति अभी वहां वेअसर दिखाई देती है। इस सामाजिक परिवर्तन में नारायणा गुरु के स्वाभिमान आंदोलन का बड़ा हाथ है। कहा जा सकता है कि आज के केरल में दिख रहे सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक विकास की नींव श्री नारायण गुरु और उनके द्वारा स्थापित एसएनडीपी ने रखी थी। श्री नारायण गुरु की शिक्षाओं को इस साल से केरल के स्कूली पाठ्यक्रम में भी शामिल किया गया है।

इसी श्री नारायण गुरु की प्रेरणा से उनके भक्तों ने केरल के पड़ोसी राज्यों में भी ऐसे मंदिरों की स्थापना की थी, जिसके दरवाजे सभी मनुष्यों के लिए खुले थे। इन्हीं में मंगलोर के कुद्रोली में 1912 में स्थापित प्रतिष्ठित श्री गोकर्णनाथेश्वर मंदिर भी है, जिसमें प्राण प्रतिष्ठा खुद श्री नारायण गुरु ने की थी। इस मंदिर में दो विधवा महिलाओं, 67 साल की लक्ष्मी और 45 साल की इंद्रा को पुजारी नियुक्त किया गया है। नियुक्ति से पहले दोनों महिलाओं को पुजारी के रूप में काम करने के लिए चार महीने का प्रशिक्षण दिया गया था। मंदिर प्रबंधन की इस पहल की देश-विदेश में व्यापक सराहना की गयी थी। हालांकि, जैसा कि हर सुधारवादी कदम के बाद होता रहा है, कुछ स्थानीय कट्टरपंथी समूह इसके विरोध में भी उतरे थे।

 पार्ट II

बुद्ध के वंश में श्री नारायण गुरु कौन थे?

नारायणा गुरु को कहीं बेहतर तरीके से जानने के लिए उनके हिन्दू पुनर्जागरण के संदेश का यहां उल्लेख करना जरूरी है। हिंदू धर्म में सुधार संभव है! यह अनोखा तरीका उन्होंने निकाल कर विषम समय में महान योग्यता का परिचय दिया।

बहुत लंबे समय की बात नहीं है जब स्वामी विवेकानंद केरल गए। वहां पर खुले तौर पर प्रचलित जातीय भेदभाव से वे इतने नाराज हुए कि उन्होंने उस जगह को पागलखाना घोषित कर दिया। वह तथाकथित 'निम्न जाति' के लोगों पर थोपी गई असाधारण क्रूर प्रथाओं से नाराज थे।

जाहिर है, मंदिर उनकी सीमा से बाहर थे। तो सार्वजनिक कुएं थे। उनके साथ खाने वाली 'उच्च जातियां' स्पष्ट रूप से सवाल से बाहर थीं। 'निम्न जाति' के लोगों को अपने शरीर के ऊपरी हिस्से को ढंकने की अनुमति नहीं थी: इसलिए महिलाओं को नंगे स्तन जाना पड़ता था, और आभूषण पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया जाता था। उन्हें खुद को संदर्भित करने के लिए बेहद आत्म-अपमानजनक भाषा का उपयोग करना पड़ा, और साथ ही 'उच्च जातियों' का जिक्र करते हुए अत्यधिक प्रशंसा का उपयोग करना पड़ा: इस प्रकार प्रत्येक शब्द के साथ अपने और अपने स्वामी के बीच की खाई को मजबूत करना, और इस प्रकार उनके स्वयं के अयोग्यता। दिलचस्प बात यह है कि सबसे असहिष्णु नंबूदिरी ब्राह्मण नहीं थे, बल्कि 'उच्च' शूद्र जातियाँ 'निचली जातियों' से कुछ ही ऊपर थीं।

तुलनात्मक रूप से कहें तो, एझावा/थियास (आज की भाषा में ओबीसी जाति) कुछ हद तक संपन्न थे: उनमें से कुछ वैद्य और संस्कृत-विद्वान, जमींदार और छोटे व्यवसायी थे, लेकिन अधिकांश किसान, भूमिहीन मजदूर और ताड़ी काटने वाले थे। उनके पास एक मार्शल परंपरा की यादें थीं, खासकर मालाबार के समुराई जैसे चेकावर योद्धाओं के रूप में। उनके साथ गंभीर रूप से भेदभाव किया जाता था, लेकिन 'निम्न' शूद्रों के रूप में वे वास्तव में उत्पीड़ित 'अछूत' जातियों, जैसे कि परिया, पुलायस, नायडी आदि की तुलना में बहुत बेहतर थे।

केवल अस्पृश्यता ही अस्तित्व में नहीं थी; अछूतता थी - यानी, एक 'निम्न जाति' के व्यक्ति की छाया एक 'उच्च जाति' के व्यक्ति को प्रदूषित कर देगी, इसलिए अच्छी तरह से परिभाषित दूरी थी - 5 फीट, 30 फीट - जिसके आगे 'उच्च जाति' के सदस्य भी थे। उच्च जाति के संबंध में खड़ा होना पड़ा।

अविश्वसनीय रूप से, 'अदृश्यता' भी थी। नीच शिकारियों की कम से कम एक जाति को इतना अशुभ माना जाता था कि उनकी दृष्टि ही लोगों को प्रदूषित कर देती थी। इन बदकिस्मत लोगों को चिल्लाना पड़ा, "मैं इस तरह से आ रहा हूँ, कृपया दूर देखो, मेरे स्वामी!"  देखने से बचने के लिए।

संयोग से, प्रदूषण की सजा - भले ही अनजाने में - आमतौर पर निचली जाति के व्यक्ति की मृत्यु थी।

हां, यकीन करना मुश्किल है कि हमारे बीच इतनी अमानवीयता थी।  इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह थी कि ये सभी प्रदूषण कानून केवल हिंदुओं पर लागू होते थे।  किसी भी 'निम्न जाति' के व्यक्ति को केवल ईसाई धर्म और इस्लाम में परिवर्तित होना पड़ता था, और तुरंत ही वे सबसे बुरे भेदभाव से बच जाते थे।  ऐसी कई सड़कें थीं जिनसे 'निम्न जाति' के हिंदुओं को गुजरने की अनुमति नहीं थी, लेकिन ईसाई और मुसलमान उनका उपयोग कर सकते थे।  इसलिए यह आश्चर्यजनक है कि केरल में कोई 'निम्न जाति' के हिंदू बचे हैं।  लेकिन वहाँ हैं, और वे अभी भी वहाँ हिंदू आबादी का बहुमत बनाते हैं जैसा कि वे हर जगह करते हैं।  वास्तव में, यदि गुरु नहीं होते, तो एझावा सामूहिक रूप से ईसाई धर्म में परिवर्तित हो जाते, इस प्रकार केरल को तुरंत - जैसे नागालैंड और आगे - ईसाई-बहुमत बना देते।

आज, एक सौ साल बाद, यह वास्तव में अविश्वसनीय है कि केरल - या अधिक सटीक रूप से, त्रावणकोर और कोचीन की रियासतें - एक समय में जीवित स्मृति के समान थीं। आज केरल समतावाद का एक मॉडल है, शायद भारत में एकमात्र ऐसा स्थान है जहाँ स्पष्ट जातिवाद और भेदभाव पूरी तरह से अनुपस्थित हैं।  एक जन आंदोलन ने त्रावणकोर के महाराजा को 12 नवंबर, 1936 को एक युगांतरकारी 'मंदिर प्रवेश उद्घोषणा' करने के लिए मजबूर किया, जिसमें सभी मंदिरों को सभी हिंदुओं के लिए खोल दिया गया।

जनता की सोच बदल गई थी। उन्हें जातिवाद की बुराइयों का एहसास हुआ। इस कायापलट के लिए एक सच्ची क्रांति की आवश्यकता थी। और यह क्रांति एक सबसे असंभाव्य क्रांतिकारी से प्रेरित और उत्प्रेरित थी: एक पारंपरिक शैव वेदांतिन, एक अभ्यास करने वाले तपस्वी और भिक्षु जिन्होंने संस्कृत, तमिल और मलयालम में असंख्य भक्ति गीतों की रचना की। वह महान क्रांतिकारी श्री नारायण गुरु थे।

जब कोई गुरु के बारे में बात करता है, तो उसे अतिशयोक्ति का उपयोग करने के लिए मजबूर किया जाता है, और उसकी तुलना एक आकाशगंगा के साथ की जाती है। अतुलनीय आदि शंकर के बाद से दक्षिण भारत में आने वाले सबसे महान हिंदू सुधारक। बीसवीं सदी में उत्पीड़ित हिंदुओं के अधिकारों का सबसे बड़ा और सबसे सफल चैंपियन, महात्मा गांधी और बाबासाहेब अंबेडकर से ज्यादा सफल।

श्री नारायण गुरु ने केरल की पूरी सामाजिक व्यवस्था को उलट दिया, लेकिन तमिलनाडु में ई वी रामास्वामी नायकर के रूप में गंभीर दुश्मनी और विपरीत उत्पीड़न पैदा किए बिना। नारायणा गुरु एक क्रांतिकारी सुधारक थे, जिनकी आत्मनिर्भरता और आत्म-सुधार का आह्वान दुनिया में कहीं भी उत्पीड़ितों में एक राग अलापता है। व्यक्ति के आदर्शों ने महान मलयालम कवि कुमारन आसन के स्पष्ट आह्वान को प्रेरित किया:

मट्टुविन चटंगले! एलेनकिल मट्टम, अथुकली निंगलेथन! सुधार करो, नियम बदलो!  वरना वो बहुत नियम आपका पतन होगा!

जैसा कि थॉमस ग्रे की भव्य कविता में, मानव क्षमता और क्षमता की जबरदस्त बर्बादी मानवता के खिलाफ एक अपराध था; यह भारत माता के खिलाफ एक असहनीय पाप था कि आबादी के एक बड़े हिस्से को वह सर्वश्रेष्ठ नहीं होने दिया गया जो वे हो सकते थे।

शुद्धतम किरण के अनेक रत्नों से परिपूर्ण सागर, भालू की अंधेरी अथाह गुफाएं; अनगिनत फूल पैदा होते हैं अनदेखी को शरमाने के लिए और इसकी मिठास को रेगिस्तान की हवा में बर्बाद करो।

डॉ मार्टिन लूथर किंग के नेतृत्व में अमेरिका में अश्वेतों के संघर्ष के साथ भी समानताएं हैं। उनकी हत्या से ठीक पहले, डॉ किंग ने 1968 में मेम्फिस, टेनेसी में नागरिक अधिकारों से संबंधित हड़ताल का नेतृत्व किया, जब प्रदर्शनकारियों ने एक साधारण लेकिन हड़ताली बयान के साथ एक बैनर ले लिया: 'मैं एक आदमी हूं,' एक इंसान। गुरु ने केरल के उत्पीड़ितों को एक ही अहसास दिलाया: कि वे इंसान थे, सम्मान और विचार के योग्य थे।

तथ्य यह है कि आज, केरल में, एक मुखर समतावाद है, मुख्य रूप से आध्यात्मिक और बौद्धिक पुनरुत्थान के लिए जिम्मेदार है जिसे गुरु ने एक मरणासन्न और पतनशील समाज में लाया। तथ्य यह है कि केरल में ऐसा हुआ था, हमें इस बात की काफी उम्मीद है कि भारत के अन्य हिस्सों में भी इसी तरह की, सौम्य, क्रांतियां हो सकती हैं, जो वर्तमान में केरल के रूप में सौ साल पहले अंधेरे में थे: कहते हैं, भारत-गंगा के मैदान की खराब भूमि।

और यह तथ्य कि श्री नारायण गुरु पूरी तरह से हिंदू धर्म के ढांचे के भीतर ऐसा करने में सक्षम थे, वास्तव में उल्लेखनीय है। हिंदू धर्म की सबसे बड़ी ताकत हमेशा नवीनीकरण, पुनर्जागरण, सुधार की क्षमता रही है: और इस उदाहरण में, एक महान संत के व्यक्तित्व की शक्ति केरल के हिंदू धर्म को सदियों की संचित गंदगी से शुद्ध करने के लिए पर्याप्त थी।

भारत के लिए इसका अपना एक बड़ा सबक है: हमारे राष्ट्र की प्राचीन सभ्यता, शायद एकमात्र ऐसी सभ्यता जो कमोबेश बची हुई है, जो निर्धारित बाहरी लोगों के हमलों को बरकरार रखती है। यह वास्तव में सनातन है, शाश्वत है। जब भी सभ्यता बहुत तनाव में होती है, ऐसे व्यक्ति उत्पन्न होते हैं जो अपने व्यक्तित्व की शक्ति से समाज को पुनर्जीवित करने और उसका नवीनीकरण करने में सक्षम होते हैं।

यह उल्लेखनीय है कि दुनिया के वर्तमान में संख्यात्मक रूप से प्रमुख धर्मों में अकेले हिंदू धर्म में सुधार की संभावना है। इसमें सुधार किया जा सकता है, और वास्तव में इसे समय-समय पर सुधारने की आवश्यकता हो सकती है। यह आश्चर्यजनक है कि ऐतिहासिक समय में, हर 1,200 वर्षों में, आश्चर्यजनक नियमितता के साथ, हिंदू धर्म ने वास्तव में खुद को सुधार लिया है। सहस्राब्दियों के अंतःकरणों से शुद्ध होने के बाद, अतीत से हटकर, अब सनातन धर्म के लिए एक और स्वर्ण युग का समय आ गया है।

भगवद गीता में, भगवान वापस लौटने का वादा करते हैं जब अज्ञानता और बुराई के साम्राज्य चलते हैं:

याद यादहि धर्मस्य गलनिरभावती भारत: अभ्युथनं अधर्मस्य तदत्मानं सरुजं याहं: परित्राणय साधनां विनसय च दुष्कृतम्धर्म संस्थानपर्णर्धय संभवमि युगेयुगे (भगवद-गीता 4:7,8)

अर्जुन, जब भी धर्म का पतन होता है और अधर्म व्याप्त होता है, तब मैं स्वयं को व्यक्तिगत रूप से प्रकट करता हूं। पुण्यात्माओं की रक्षा के लिए, दुष्टों का नाश और धर्म की पुन: स्थापना के लिए, मैं सहस्राब्दी से सहस्राब्दी तक प्रकट होता हूं।

2,500 साल पहले जब सनातन धर्म पतनशील हो गया, तो बुद्ध और महावीर के दिव्य व्यक्तित्व प्रकट हुए। उनके सुधार ने उन प्रथाओं पर हमला किया और उन्हें ठीक किया जो समय के साथ धर्म में जमा हो गए थे, इसे अपनी जड़ों में वापस कर दिया।

लेकिन सुधार भी क्षय हो जाते हैं। बारह सौ साल बाद, जब धर्म को एक काउंटर-रिफॉर्मेशन की आवश्यकता थी, वहाँ आदि शंकर, माणिककवचकर, तिरुजनाना संबंध, अववय्यार, जयदेव जैसे दैवीय प्रेरित व्यक्ति दिखाई दिए, जिनकी बुद्धि और भक्ति ने हिंदू धर्म को फिर से जीवंत करने में मदद की।

इसी तरह, एक और बारह सौ साल बाद, ऋषियों की एक चमकदार आकाशगंगा प्रकट हुई: राजा राम मोहन राय, दयानंद सरस्वती, रमण महर्षि, श्री रामकृष्ण, स्वामी विवेकानंद, श्री अरबिंदो, बाबासाहेब अम्बेडकर, मोहनदास करमचंद गांधी, श्री नारायण गुरु। निश्चित रूप से, सनातन धर्म की रक्षा में स्वयं को पुनर्जन्म लेने वाले दैवीय तत्व हैं।

इतिहासकारों को भी, और केवल भक्तों के लिए यह स्पष्ट नहीं है कि महापुरुष समय-समय पर प्रकट होते हैं। ए स्टडी ऑफ हिस्ट्री में अर्नोल्ड टॉयनबी कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति पैदा होते हैं 'जो उन समाजों में विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हैं जिनसे वे 'संबंधित' होते हैं ... वे वह काम कर सकते हैं जो पुरुषों को चमत्कार लगते हैं क्योंकि वे स्वयं एक शाब्दिक रूप से अलौकिक हैं और मात्र लाक्षणिक अर्थ में नहीं।'

श्री नारायण गुरु, युगपुरुष थे। उनके शब्द और कार्य सार्वभौमिक हैं, और दुनिया में कहीं भी उत्पीड़ितों के लिए एक प्रेरणा है, और आत्म सम्मान हासिल करने और खुद को दूसरों के सम्मान के योग्य बनाने के लिए उनका एकमात्र आह्वान प्रतिभा का एक स्ट्रोक है।

और इस सौम्य क्रांति को पूरी तरह से सनातन धर्म के ढांचे के भीतर बनाने की गुरु की क्षमता, एक खतरनाक द्वंद्व पैदा किए बिना, शायद धार्मिक सुधारकों के इतिहास में अद्वितीय है। वास्तव में, कोई यह भी कह सकता है कि गुरु एक विध्वंसक थे: क्योंकि उन्होंने भीड़-भाड़ वाली जनता को दिखाया, जिसे आज के संदर्भ में बहुजन कहा जा सकता है, कि जिस धर्म से उन्हें वंचित रखा गया था, वह वास्तव में उनका था। पुरोहित वर्ग को केवल लोगों के नाम पर विश्वास के साथ सौंपा गया था।

एक प्रेरित अधिनियम के साथ, त्रिवेंद्रम के पास अरुविप्पुरम में एक शिव छवि का अभिषेक, उन्होंने जनता को दिखाया कि वे कितनी आसानी से धर्म को फिर से लागू कर सकते हैं: क्योंकि यह हमेशा उनका था, और उनका अकेला; उस पर किसी का एकाधिकार नहीं होना था। क्योंकि हम सबका रचयिता निश्चय ही हम सबका समान रूप से है।

शिवरात्रि की रात, 1888 में, मध्यरात्रि में, गुरु ने नेय्यर नदी से एक शिवलिंग उठाकर उसका अभिषेक किया। यह पहला सत्याग्रह था, जो एक स्पष्ट रूप से अन्यायपूर्ण शासन के खिलाफ शांतिपूर्ण, अहिंसक विरोध था, जिसे बाद में तब प्रतिध्वनित किया गया जब महात्मा गांधी ने दांडी में समुद्र से वह मुट्ठी भर नमक लिया।

एक चश्मदीद गवाह है: 'आधी रात को स्वामी जी ने नदी में डुबकी लगाई। वह एक पल के बाद अपने हाथों में एक शिवलिंग के आकार का एक बेलनाकार पत्थर लेकर उठे और वह अस्थायी मंदिर में चले गए। वहां वे गहरे ध्यान में आंखें बंद किए खड़े थे, वे अपने हाथ से शिवलिंग को अपनी छाती से चिपकाए हुए थे, उनके गालों पर आंसू बह रहे थे, दुनिया से बेखबर होकर पूरे तीन घंटे तक एकटक खड़े रहे, जबकि भीड़ ने आधी रात की हवा में "ओम नम शिवायः", "ओम नम: सिवायः" के नारे के साथ उदघोष किए, उनके पास केवल एक ही आवेग, एक ही विचार, एक ही प्रार्थना, 'ॐ नमः शिवायः! थी।

जब उन्हें अभिषेक करने के अपने अधिकार के बारे में चुनौती दी गई, तो उन्होंने हल्के से लेकिन अत्यधिक महत्व के साथ उत्तर दिया, 'यह केवल एक एझावा शिव था जिसे मैंने प्रतिष्ठित किया था।' उस सरल कथन की महान विडंबना - महान भगवान स्वयं 'स्वामित्व' कैसे हो सकते हैं' किसी के भी द्वारा? - पूरे देश में गूंज उठा।

बाद में, नारायणागुरु ने एक मंदिर में एक दर्पण का अभिषेक किया; और दूसरे में एक दीपक: उनका संदेश था कि परमात्मा हम सभी में है, और हमें उसका सम्मान और पोषण करने की आवश्यकता है। जब उनके अनुयायियों ने शिकायत की कि उन्हें स्कूलों से बाहर रखा गया है, तो उन्होंने उन्हें अपना खुद का निर्माण करने के लिए कहा। क्योंकि उन्हें मंदिरों से बाहर रखा गया था, उसने उन्हें अपना निर्माण करने के लिए कहा। आत्म-सहायता (Self help) और आत्म-सुधार (Self change) उनका मंत्र था।

तोड़फोड़ के उनके दैवीय रूप से प्रेरित कृत्यों के लिए, गुरु को यथास्थिति का सबसे बड़ा परिवर्तक, एक सहस्राब्दी में भारत में आध्यात्मिक मामलों में सबसे बड़ा क्रांतिकारी कहना अनुचित नहीं होगा।  महात्मा गांधी ने राजनीतिक क्षेत्र में जो हासिल किया, श्री नारायण गुरु ने आध्यात्मिक क्षेत्र में पूरा किया: उन दोनों ने गुलामों से मुक्त पुरुषों को बनाया।

यह गुरु का वह पहलू है जिस पर अक्सर टिप्पणी की जाती है।  लेकिन यह भी एक तथ्य है कि गुरु एक महान धार्मिक विद्वान और लेखक थे, जो स्वामी विवेकानंद और श्री अरबिंदो के समान धर्म पर एक टिप्पणीकार थे।

गुरु का सबसे महत्वपूर्ण संदेश था: 'एक जाति, एक धर्म, मनुष्य के लिए एक ईश्वर'- और उनका मतलब सामी धर्मों का दमनकारी एकेश्वरवाद नहीं था, बल्कि आदि शंकर के अद्वैत का सर्वेश्वरवादी अद्वैतवाद था। हम सब एक जाति के हैं: मानव जाति; एक धर्म: मानवतावाद का धर्म; और हमें एक ईश्वर की पूजा करनी चाहिए, हम सभी के निर्माता, जो आखिरकार, उसकी रचना से अलग नहीं है। यह गीता में भगवान के जोरदार कथन को प्रतिध्वनित करता है:

चतुर वर्णम् माया श्रष्टम् गुण कर्मविभाग: अर्थात् योग्यता और व्यवसाय के अनुसार मेरे द्वारा चार वर्गों की रचना की गई है। (भगवद गीता 4:13)

स्पष्ट रूप से, भगवान यहां स्वयं स्पष्ट करते हैं कि यह जन्म, जन्म नहीं है,  व्यक्तियों को जाति निर्धारित करता है, बल्कि गुण, योग्यता/ योग्यता/ रुचि और कर्म, व्यवसाय/ गतिविधियां/ कार्य निर्धारित करता है। यह जातिवाद की गुरु की आलोचना भी है: हम सभी के पास अलग-अलग प्राकृतिक दान हो सकते हैं, लेकिन यह जन्म और विरासत की दुर्घटना के बजाय व्यक्तिगत प्रकृति पर आधारित है।

वास्तव में एक उदार व्यक्ति के रूप में, नारायणागुरु का यह भी मानना था कि: 'इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपका धर्म क्या है, आपको एक इंसान के रूप में सुधार करना चाहिए।' उन्होंने अरुविप्पुरम में मंदिर और आश्रम के प्रवेश द्वार पर निम्नलिखित अंकित किया था:

जाति भेदम माता द्वेषम, एतुम इलथे सरवरुम, सोदारत्वेना वझुन्ना, मातृका स्थानम अनिथु: अर्थात्: इस अनुकरणीय मन्दिर में जाति और धर्म के पूर्वाग्रह से मुक्त, हर कोई भाइयों की तरह रहता है।

उनका 'पहाड़ी पर वसा शहर', उनके आदर्श राज्य का एक नमूना था।संक्षेप में गुरु नारायणा का उपदेश बहुत सरल था: 'विद्या कोंडू प्रभुधर अवुक: संघटन कोंडू शक्तार अवुकः प्रायत्नम कोंडु सम्पन्नार अवुकः अर्थात्: शिक्षा के माध्यम से प्रबुद्ध बनें, संगठन के माध्यम से मजबूत बनें और मेहनत से समृद्ध बनें।'

नारायणा गुरु का संदेश अन्य महान पुरुषों के साथ प्रतिध्वनित हुआ जो सौ साल पहले आध्यात्मिक और बौद्धिक पुनर्जागरण का हिस्सा थे। शिवगिरी की अपनी यात्रा के बाद रवींद्रनाथ टैगोर ने जो लिखा: 'मैं दुनिया के विभिन्न हिस्सों का दौरा कर रहा हूं ... इन यात्राओं के दौरान, मुझे कई संतों और महर्षियों के संपर्क में आने का सौभाग्य मिला है। लेकिन मुझे स्पष्ट रूप से यह स्वीकार करना होगा कि मैं कभी भी ऐसे व्यक्ति से नहीं मिला जो आध्यात्मिक रूप से केरल के स्वामी श्री नारायण गुरु से बड़ा हो- नहीं, एक व्यक्ति जो आध्यात्मिक उपलब्धियों में उनके बराबर है। मुझे विश्वास है कि मैं उस दीप्तिमान चेहरे को कभी नहीं भूलूंगा, जो दिव्य महिमा के स्वयं-प्रज्ज्वलित प्रकाश से प्रकाशित है और वे योगिक आंखें दूर क्षितिज पर एक दूरस्थ बिंदु पर अपनी निगाहें टिकाए हुए हैं।'

इसी तरह महात्मा गांधी भी नारायणा गुरु से 1924 में वायकोम सत्याग्रह के समय (एक प्रसिद्ध संघर्ष जिसमें 'निम्न-जाति' के लोग महान शिव मंदिर के आसपास के मैदानों का उपयोग करने के अधिकार के लिए आंदोलन कर रहे थे) प्रभावित हुए। इसके अलावा, गुरु से मिलने पर गांधी ने पूछा, शायद थोड़ा अतिशयोक्तिपूर्ण, 'क्या गुरु अंग्रेजी बोलते हैं?' गुरु ने विशेषता के साथ उत्तर दिया, 'नहीं, लेकिन क्या महात्मा संस्कृत बोलते हैं?' जो निश्चित रूप से महात्मा ने कहा था नहीं।

जाति के मुद्दे पर गांधी के विचारों पर इस बैठक का एक बड़ा प्रभाव पड़ा होगा, इसके बाद उन्होंने जातिवाद को दूर करने के अपने प्रयासों को दोगुना कर दिया। शिवगिरी में 'निम्न जाति' के बच्चों को पुजारी बनने के लिए प्रशिक्षित होते देखकर उन्हें खुशी हुई। उन्होंने अतिथि पुस्तक में लिखा: 'मैं इसे अपने जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य मानता हूं कि सुंदर त्रावणकोर राज्य का दौरा किया और सबसे आदरणीय संत, श्री नारायण गुरु और स्वामी त्रिप्पदंगल से मुलाकात हुई।'

अस्पष्ट कारणों से, गुरु जी की असाधारण उपलब्धियों को केरल के बाहर पूरा हक नहीं मिला है। कोई केवल यह आशा कर सकता है कि समय के साथ, इस असाधारण मानवतावादी, सुधारक और संत का जीवन और समय आम जनता के लिए और अधिक सुलभ हो जाए। क्योंकि वह बुद्ध और आदि शंकर के क्रम में भारत के सबसे महान सपूतों में से एक थे। 

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