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सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख

प्रथम शिक्षिका सावित्रीबाई का बुद्धिस्ट मार्ग

- के सी पिप्पल

 

[सावित्रीबाई फुले (3 जनवरी 1831-10 मार्च 1897) वह एक समाजिक परिवर्तन की ज्योति, शिक्षाविद और कवियत्री थीं। वह भारत की पहली महिला शिक्षिका हैं। अपने पति, ज्योतिराव फुले और फातिमा शेख के साथ, उन्होंने भारत में शूद्रातिशूद्रों और महिलाओं के सामाजिक और शैक्षिक हालत को बेहतर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्हें भारतीय नारीवाद की मां माना जाता है।]

भारत की पहली महिला और शूद्र शिक्षिका माता सावित्री बाई फुले जिन्होंने भारत के हजारों साल के इतिहास में पहली बार महिलाओं और शूद्रों के लिए शिक्षा के द्वार खोले। बुद्ध ने कहा था बुद्धि की शरण में जाओ सावित्री की शिक्षा ने उनकी इच्छा को पूरा किया। बुद्ध ने कहा संघ की शरण में जाओ, सावित्री का "संघ" सत्य सोधक समाज था। बुद्ध ने कहा धम्म की शरण में जाओ सावित्री का धम्म मानव कल्याण था।    

उनके समय में ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज और आर्य समाज इत्यादि के सवर्ण लोग भारतीय पुनर्जागरण के नाम पर मूलत: बंगाल में हिंदू कुरीतियों के विरुद्ध सामाजिक व्यवस्था और परंपराओं के भीतर सुधार चाहते थे। जिस आंदोलन के अगुवा उच्च जातियों और उच्च वर्गों के लोग थे।

जबकि इसके विपरीत महाराष्ट्र के पुनर्जागरण का आंदोलन सत्यसोधक समाज के लोग चला रहे थे। जिसके द्वारा हिंदू धर्म में व्याप्त छुआ-छूत, शूद्र-अतिशुद्रों की अशिक्षा और किसानों की दुर्दशा जैसी सामाजिक समस्याओं और अमानवीय परंपराओं को चुनौती मिल रही थी। महात्मा फुले ने सबसे पहले वर्ण-जाति व्यवस्था को तोड़ने और महिलाओं पर पुरुषों के वर्चस्व के खात्मे के लिए सार्थक संघर्ष किया। उस समय महाराष्ट्र शूद्रों के पुनर्जागरण की अगुवाई का बड़ा केंद्र था जिसकी अगुआई शूद्र समाज के सुधारक, संत और महिलाएं कर रही थीं।

सामाजिक परिवर्तन के स्तंभ

सामाजिक परिवर्तन  के मूल स्तंभ सावित्री बाई फुले, उनके पति जोतिराव फुले और उनकी सहयोगी फातिमा शेख थे। ब्राह्मणी सामाजिक व्यवस्था और परंपरा में शूद्रों और महिलाओं को एक ही खाने में रखा गया है। हिन्दू धर्म ग्रंथों में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि– स्त्री, शूद्र, गमार, पशु और ढोल एक समान हैं जो ताड़न के पात्र हैं। हिंदू धर्मशास्त्र ये भी कहते हैं कि – स्त्री और शूद्र पढ़ने लिखने के पात्र नहीं हैं। ऐसी मान्यताएं का सभी वर्णों के लोग पालन करते आए थे।

असमानता पर आधारित हिन्दू व्यवस्था को पहली बार किसी महिला ने संगठित रूप से चुनौती दी, उनका नाम क्रांति ज्योति सावित्री बाई फुले है। वे आजीवन शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की शिक्षा के लिए संघर्ष करती रहीं, इसलिए वह भारत की पहली शिक्षिका हैं।

ईसाई मिशनरियों से मिली पढ़ने की सीख

उनका जन्म नायगांव नाम के गांव में 3 जनवरी 1831 को हुआ था। यह महाराष्ट्र के सतारा जिले में है, जो पुणे के नजदीक है। वे खंडोजी नेवसे पाटिल की बड़ी बेटी थीं, जो वर्णव्यस्था के अनुसार शूद्र जाति के थे। वे जन्म से शूद्र और स्त्री दोनों एक साथ थीं, जिसके चलते उन्हें दोनों के दंड जन्मजात मिले थे।

ऐसे समय में जब शूद्र जाति के किसी लड़के के लिए भी शिक्षा लेने की मनाही थी, उस समय शूद्र जाति में पैदा किसी लड़की के लिए शिक्षा पाने का कोई सवाल ही नहीं उठता। वे घर के काम करती थीं और पिता के साथ खेती के काम में सहयोग करती थीं। पहली किताब उन्होंने तब देखी, जब वे गांव के अन्य लोगों के साथ बाजार शिरवाल गईं। उन्होंने देखा कि कुछ विदेशी महिला और पुरुष एक पेड़ के नीचे ईसा मसीह की प्रार्थना करते हुए गाना गा रहे थे। वे जिज्ञासावश वहां रुक गईं, उन महिला-पुरुषों में किसी ने उनके हाथ में एक पुस्तिका थमायी। सावित्रीबाई वह किताब लेने में हिचक रही थीं। किताब देने वाले ने कहा कि यदि तुम्हे पढ़ना नहीं आता, तब भी इस पुस्तिका को अपने साथ ले जाओ। इसमें छपे चित्रों को देखो, तुम्हें मजा आयेगा। वह पुस्तिका सावित्री बाई अपने साथ लेकर आईं। जब 9 वर्ष की उम्र में उनकी शादी 13 वर्षीय जोतिराव फुले के साथ हुई तो वे अपनी ससुराल में भी वह पुस्तिका अपने साथ लेकर आई थीं।

सावित्रीबाई को मिला फातिमा का साथ

जोतिराव फुले सावित्री बाई फुले के जीवनसाथी होने के साथ ही उनके शिक्षक भी बने। जोतिराव फुले और सगुणा बाई की देख-रेख में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद सावित्रीबाई फुले ने औपचारिक शिक्षा अहमदनगर में ग्रहण की। उसके बाद उन्होंने पुणे के अध्यापक प्रशिक्षण संस्थान से प्रशिक्षण लिया। इस प्रशिक्षण स्कूल में उनके साथ फातिमा शेख ने भी अध्यापन का प्रशिक्षण लिया। यहीं उनकी गहरी मित्रता कायम हुई। फातिमा शेख उस्मान शेख की बहन थीं, जो जोतिराव फुले के घनिष्ठ मित्र और सहयोगी थे। बाद में इन दोनों ने एक साथ ही अध्यापन का कार्य भी किया।

फुले दंपत्ति ने 1 जनवरी 1848 को लड़कियों के लिए पहला स्कूल पुणे में खोला। जब 15 मई 1848 को पुणे के भीड़वाडा में जोतिराव फुले ने स्कूल खोला, तो वहां सावित्री बाई फुले मुख्य अध्यापिका बनीं। इन स्कूलों के दरवाजे सभी जातियों के लिए खुले थे। जोतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले द्वारा लड़कियों की शिक्षा के लिए खोले जा रहे स्कूलों की संख्या बढ़ती जा रही थी। इनकी संख्या चार वर्षों में 18 तक पहुंच गई।

फुले दंपत्ति के ये कदम सीधे ब्राह्मणवाद को एक चुनौती थे। इससे ब्राह्मणों के एकाधिकार को चुनौती मिल रही थी, जिससे समाज पर उनका वर्चस्व ढीला पड़ रहा था। इसलिए ब्राह्मणों ने जोतिराव फुले के पिता गोविंदराव पर उनके कार्यों को रोकने के लिए कड़ा दबाव बनाया। गोविंदराव पुरोहितों और समाज के सामने कमजोर पड़ गए। उन्होंने जोतिराव फुले से कहा कि या तो वे अपनी पत्नी सावित्री के साथ स्कूल में पढ़ाना छोड़ें या यह घर छोड़ दें। इस पर दुखी और भारी दिल से जोतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले ने शूद्रों-अति शूद्रों और महिलाओं की शिक्षा को जारी रखने के लिए घर छोड़ने का निर्णय लिया।

सावित्रीबाई पर गोबर और पत्थर फेंके गए

परिवार से निकाले जाने के बाद ब्राह्मणी शक्तियों के बहकावे में आकर उनकी ही समाज ने सावित्री बाई फुले का पीछा नहीं छोड़ा। जब सावित्री बाई फुले स्कूल में पढ़ाने जातीं, तो उनके ऊपर गांव वाले पत्थर और गोबर फेंकते। सावित्रीबाई रुक जातीं और उनसे विनम्रतापूर्वक कहतीं, ‘मेरे भाई, मैं तुम्हारी बहनों को पढ़ाकर एक अच्छा कार्य कर रही हूं। आप के द्वारा फेंके जाने वाले पत्थर और गोबर मुझे रोक नहीं सकते, बल्कि इससे मुझे प्रेरणा मिलती है। ऐसे लगता है जैसे आप फूल बरसा रहे हों। मैं दृढ़ निश्चय के साथ अपनी बहनों की सेवा करती रहूंगी। मैं प्रार्थना करूंगी की भगवान आप को बरकत दें।’ गोबर से सावित्रीबाई फुले की साड़ी गंदी हो जाती थी, इस स्थिति से निपटने के लिए वह अपने पास एक साड़ी और रखती थीं। स्कूल में जाकर साड़ी बदल लेती थीं।

उच्च जातियों की विधवाओं के लिए कार्य

शिक्षा के साथ ही फुले दंपत्ति ने समाज की अन्य समस्याओं की ओर ध्यान देना शुरू किया। सबसे बदतर हालत विधवाओं की थी। ये ज्यादातर उच्च जातियों की थीं। इसमें अधिकांश ब्राह्मण परिवारों की. अक्सर गर्भवती होने पर ये विधवाएं या तो आत्महत्या कर लेतीं या जिस बच्चे को जन्म देती, उसे फेंक देतीं। 1863 में फुले दंपत्ति ने बाल हत्या प्रतिबंधक गृह शुरू किया। कोई भी विधवा आकर यहां अपने बच्चे को जन्म दे सकती थी। उसका नाम गुप्त रखा जाता था।

इस बाल हत्या प्रतिबंधक गृह के पोस्टर जगह-जगह लगाये गये। इन पोस्टरों पर लिखा था कि ‘विधवाओं! यहां अनाम रहकर बिना किसी बाधा के अपना बच्चा पैदा कीजिए, अपना बच्चा साथ ले जाएं या यहीं रखें, यह आपकी मर्जी पर निर्भर रहेगा।’ सावित्री बाई फुले बालहत्या प्रतिबंधक गृह में आने वाली महिलाओं और पैदा होने वाले बच्चों की देखरेख खुद करती थीं। इसी तरह की एक ब्राह्मणी विधवा काशीबाई के बच्चे को फुले दंपत्ति ने गोद लेकर अपने बच्चे की तरह पाला। जिनका नाम यशवंतराव था और वह डाक्टर बना।

सावित्री ने संभाला सत्यशोधक नेतृत्व

सामाजिक परिवर्तन के लिए जोतिराव फुले ने 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की थी। उनकी मृत्यु के बाद सत्यशोधक समाज की बागडोर सावित्री बाई फुले के हाथों में सौंपी गई। 1891 से लेकर 1897 उन्होंने इसका नेतृत्व किया। सत्यशोधक विवाह पद्धति को भी अमलीजामा पहनाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी।

सावित्री बाई फुले आधुनिक मराठी की महत्वपूर्ण कवयित्री भी थीं। उनका पहला काव्य संकलन 1854 में काव्य फुले के रूप में प्रकाशित हुआ, जब उनकी उम्र 23 वर्ष थी। 1892 में उनकी कविताओं के दूसरा संग्रह ‘बावन काशी सुबोध रतनाकर’ प्रकाशित हुआ। यह बावन कविताओं का संग्रह है। इसे उन्होंने जोतिराव फुले की याद में लिखा है और उन्हीं को समर्पित किया है। सावित्री बाई फुले के भाषण भी 1892 में प्रकाशित हुए। इसके अतिरिक्त उनके द्वारा लिखे पत्र भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। ये पत्र उस समय की परिस्थितियों, लोगों की मानसिकता, फुले के प्रति सावित्री बाई की सोच और उनके विचारों को सामने लाते हैं।

1896 में एक एक बार फिर पुणे और आस-पास के क्षेत्रों में अकाल पड़ा। सावित्री बाई फुले ने दिन-रात अकाल पीड़ितों को मदद पहुंचाने लिए एक कर दिया। उन्होंने सरकार पर दबाव डाला कि अकाल पीड़ितों को बड़े पैमाने पर राहत सामग्री पहुंचाए। शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की शिक्षिका और पथ-प्रदर्शक माता सावित्रीबाई फुले का जीवन अनवरत अन्याय के खिलाफ संघर्ष करते और न्याय की स्थापना के लिए समर्पित रहा। उनकी मृत्यु भी समाज सेवा करते हुए ही हुई।

1897 में प्लेग की वजह से पुणे में महामारी फैल गई। वे लोगों की चिकित्सा और सेवा में जुट गईं। स्वंय भी इस बीमारी का शिकार हो गईं। 10 मार्च 1897 को उनकी मृत्यु हुई। उनकी मृत्यु के बाद भी उनके कार्य और विचार मशाल की तरह देश को रास्ता दिखा रहे हैं।

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