बहुजननायक कांशीराम जी ने अपने मिशन की शुरुआत महात्मा जोतिबा फुले, छत्रपति शाहू जी महाराज, डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर की भूमि महाराष्ट्र से की थी, किंतु इस राज्य में जुझारू दलित समाज के साथ ओबीसी बहुजनों को संगठित कर सशक्त आंदोलन खड़ा करने का उनका प्रयास जन चेतना तक ही सीमित रहा। बावजूद इसके उन्होंने महाराष्ट्र की राजनीति को झकझोर कर रख दिया था। महाराष्ट्र दलित आंदोलन की उर्वरा भूमि रही है। यहां से कांशीराम जी का भी उदय हुआ।
डॉ. अंबेडकर ने लखनऊ में 24 अप्रैल 1948 को एक सम्मेलन में कहा था, ‘राजनैतिक शक्ति ही दलितवर्ग के सर्वांगीण विकास की कुंजी है।’ कांशीराम ने इसी कुंजी को अपने मिशन का मुख्य लक्ष्य बनाया था, कांशीराम उस वक्त पूना में थे। 1971 में रिपब्लिकन पार्टी के दादासाहेब गायकवाड के खेमे ने कांग्रेस से गठजोड़ का निर्णय लिया। पूना के गाडगे बाबा धर्मशाला में दादासाहब गायकवाड और कांग्रेस नेता मोहनधारिया के बीच यह राजनैतिक समझौता हुआ। उसमें तय हुआ की लोकसभा की 521 में 520 सीटों पर कांग्रेस लड़ेगी और एक स्थान रिपब्लिकन पार्टी को दिया जायेगा। इस अपमानजनक समझौते का दलितों की राजनीति पर दीर्घकालीन विपरीत परिणाम हुआ।
इस समझौते पर कांशीराम ने कहा था, ‘मुझे यह समझौता अच्छा नहीं लगा। मैने कुछ नेताओं से बात कर कहा कि यह गलत है। लेकिन आर.पी.आई. नेता कहते थे की इस मूव्हमेंट के चलते हम विधायक (एमएलए), सांसद (एमपी) और मिनिस्टर नहीं बन सकते। लेकिन बाद के दिनों में कांशीराम ने इस बात को पूरी तरह गलत साबित करदिया था। कांशीरामजी ने महाराष्ट्र में कुछ वर्षों तक रिपब्लिकन पार्टी के साथ संबंध रखे। लेकिन इस पार्टी के बिखराव और सिरफुटौव्वल नीति के कारण वे ज्यादा समय तक इस पार्टी से जुड़े नही रह पाए। कांशीराम उस वक्त केंद्र सरकारद्वारा संचालित सेंट्रल इन्स्टीट्यूट ऑफ मिलीटरी एक्सप्लोसिव, पूना मे कार्यरत थे। यहीं उनके जीवन को नया मोड़ मिला। एक्सप्लोसिव रिसर्च एण्डडेवलपमेंट लेबोरेटरी में कांशीराम जी रिसर्च ऑफिसर थे। यहीं एक सहयोगी के साथ घटी घटना से कांशीराम बेचैन हुए और अन्याय के खिलाफ उठ खड़े हुए थे। लेकिन तब तक कांशीराम का दिल नौकरी से उचट चुका था। उन्होंने बहुजन समाज को सत्ता में लाने का संकल्प ले लिया।
पूना में कांशीराम जी ने सर्वप्रथम कर्मचारियों को संघठित करने का निर्णय लिया। 1971 में उन्होंने एस.सी/ एसटी/ ओबीसी/ मायनॉरिटी/ कम्यूनिटी एम्प्लॉईज एसोसिएशन बनाने का निश्चय किया। उन्होंने पूना के खड़की क्षेत्र के मद्रासी स्कूल में पहली सभा ली। सभा में डी. के खापर्डे, मनोहर आटे, मधु परिहार, भीमराव दलाल सहित 50-60 कार्यकर्ता उपस्थित थे। यही लोग आगे उनके प्रमुख साथी बने। उस सभा में कांशीराम जी ने अपनी योजना रखी। उनका कहना था की 1971में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के 17 लाख शिक्षित कर्मचारी हैं। इनमें से यदि हम 1 लाख लोगों को एक झंडे के नीचे ला सकें तब ही कामयाब संगठन चला सकते हैं, अन्यथा नहीं। इसी संकल्प के साथ कांशीराम जी ने एससी, एसटी, ओबीसी, मायनारिटी कम्युनिटी एम्प्लायज एसोसिएशन बनाई। कांशीराम इसके अध्यक्ष थे। मधु परिहार जनरल सेक्रेटरी, मनोहर आटे जॉईंट सेक्रेटरी, भीमराव दलाल ट्रेजरार थे. पूना के नेहरू मेमोरियल हॉल में 14 अक्तूबर 1971 को इस एसोसिएशन कासम्मेलन हुआ, जिसमें तकरीबन एक हजार कर्मचारी, कार्यकर्ता शामिल हुए थे। 1972 तक इस संस्थाका काम बढ़ गया था, इसलिए कांशीरामजी ने स्वतंत्र दफ्तर पूना में 142, रास्ता पेठ में खोला, जिसके प्रमुख थे मनोहर आटे। केवल पूना लेवल पर संस्था चलाकर लक्ष्य की प्राप्ति करना असंभव था। इसलिये राष्ट्रीय स्तर पर शक्तिशाली संगठन की जरूरत महसूस हुई और इस ओर कांशीराम जी ने इस ओर सोचना शुरू कर दिया। तब जाकर ‘बामसेफ’ के गठन का निर्णय हुआ।
‘बामसेफ’ (ऑल इंडिया बैकवर्ड एंडमायनॉरिटी कम्युनिटी एम्प्लाईज फेडरेशन) की नींव पूना मे ही रखी गई। 6 दिसंबर 1973 को दिल्ली के पंचकुइयां हॉल में राष्ट्रीय स्तर पर ‘बामसेफ’ की बैठक हुई। इस सभा में अकेले पूना से 23 लोग सम्मिलित हुए थे। दिल्ली में श्रम मंत्रालय मे दौलतराव बांगर सेक्शन ऑफिसर थे। सबसे पहले उनके घर से ही इस राष्ट्रीय संगठन का ऑफिस चलता था। बामसेफ के साथ बहुजन समाज को इकठ्ठा करने की शुरूआत उन्होंने बहुजन समाज के पढें लिखे लोंगो को संगठित करने से की। 6 दिसंबर 1978 को दिल्ली में बामसेफ का विशाल स्थापना अधिवेशन हुआ।अधिवेशन में कर्मचारी कार्यकर्ताओं के साथ ही बड़ी संख्या में शिक्षित युवा वर्ग सम्मिलित हुआ था। तब तक 3 लाख कर्मचारी बामसेफ के बैनर तले संगठित हो चुके थे। 1979 में कांशीराम जी ने दिल्ली में ‘बामसेफ’ का स्वतंत्र ऑफिस संभालने की जिम्मेदारी मनोहर आटे को सौंपी। तब तक देश भर में ‘बामसेफ’ के लाखों की तादाद में समर्पित कार्यकर्ता तैयार हो चुके थे।
प्रारंभ में कांशीरामजी का अधिकतर समय महाराष्ट्र में बीता। सर्वप्रथम अनकी गतीविधियों का केंद्र पूना शहर रहा। बाद में नागपूर ही उनका मुख्य केंद्र बना। उनके प्रथम सहयोगी मनोहर आटे, खापर्डे नागपूर के ही थे, जो की डॉ. बाबासाहब अंबेडकर की विचार धारा पर पूरी तरह समर्पित थे। रिपब्लिकन पार्टी के लोग स्वाभिमान खोकर कांग्रेस के साथ समझौता करते थे। इसलिये कांशीराम जी चिढते थे। आरपीआई के नेताओं को उनसे डर लगता था। लेकिन कांशीराम जी ने रिपब्लिकन पार्टी को महाराष्ट्र में नहीं छेड़ा था। लेकिन बाद में उन्होंने इस राज्य में बसपा का संगठन विस्तार करने का निर्णय लिया, जिससे महाराष्ट्र की राजनीति में भूचाल आ गया था। मुख्य राजनीतिक दलों में कांशीराम जी की मात्र महाराष्ट्र में उपस्थिति से ही हड़कंप मच जाता था। आर पी आई के विकल्प का स्थान बसपा ने हासिल किया। जिसका मुख्य जनाधार नवबौद्ध (महार) दलित जातियां ही बनीं।
कांशीराम जी ने महाराष्ट्र के बारे में गहन अध्ययन किया था। वे कहते थे ‘महाराष्ट्र के नेताओं ने एम.एल.ए., एम.पी. बनने के चक्कर में बाबासाहब के मिशन को खत्म कर दिया। मैं महाराष्ट्र में उखड़े हुए पौधे को लेकरउत्तर प्रदेश गया। उत्तर प्रदेश में वह पौधा लगाया वहा फुले-शाहु-अंबेडकर विचारधारा की सरकार बनाई। महाराष्ट्र में भी यह संभव है। लेकिन महाराष्ट्र के बौद्ध (महार) इसके लिए तैयार नहीं हैं। वे दिमाग से नहीं भावना से काम करते हैं। वे जल्द ही दूसरे के बहकावे में आ जाते हैं।
महाराष्ट्र के दलितों का खुद पर भरोसा नहीं है कि बाबासाहब के चलाए मिशन को आगे बढ़ाकर सत्ता हासिल करें। मैं हमेशा कहता आया हूं की गांधी को छोड़ो और अपने को ही आगे बढ़ाने की बात करो, लेकिन यह लोग मेरी बात नहीं मानते। वे बाबासाहब के मिशन को तबाह कर रहे हैं। दलितोंको कांग्रेस-भाजपा के दलित प्रेम से सावधान रहना चाहिए। ये लोग राजनैतिक सत्ता के तरफ नहीं बढ रहे है।’ उनका साफ मानना था कि महाराष्ट्र के दलितों को उत्तर प्रदेश के दलितों से सीख लेनी चाहिए। कांशीराम जी की यह बात महाराष्ट्र की दलितों की राजनितिक विफलता की कहानी बयां करती है। उत्तर प्रदेश में कांशीराम जी ने चमत्कार कर दिखाया था। महाराष्ट्र में भी दलित-बहुजनों की एकता हो, तो सत्ता को हिलाने की ताकत आज भी खड़ी हो सकती है।
आज के राज नेताओं तथा सामाजिक नेताओं को कांशी राम जी के संघर्ष से सीख लेनी चाहिए। यदि एक विचारधारा के लोग अनेकों संगठन बना कर अपनी दुकान चलाने का काम करेंगे तो समाज के हित का का काम कौन करेगा? बाबा का मिशन पूरा करने का संकल्प कांशी राम जी ने लिया था, तो कांशीराम जी के अधूरे काम को पूरा करने की जिम्मेदारी कोंन लेगा?