मुंबई उच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र में कुपोषण की वजह से शिशुओं की भारी संख्या में हुई मौत पर गहरी चिंता व्यक्त की है। राज्य में पिछले एक वर्ष के दौरान कुपोषण से लगभग 17,000 बच्चों की मौत हो चुकी है। उच्च न्यायालय ने इसे गंभीर बताते हुए राज्य सरकार को त्वरित कार्रवाई का निर्देश दिया है। न्यायालय की चिंता अन्य राज्यों के लिए भी आंखें खोलने वाली है। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल का हाल भी डराने वाला है। वहां कुपोषण से हर रोज 60 बच्चों की मौत की खबर भयभीत करने वाली है। बहरहाल, चिंता का विषय और सवाल यह है कि समस्या का समाधान क्या है और इसके लिए जिम्मेदार कौन है? भारतीय संविधान के अनुच्छेद 47 के अनुसार 'राज्य, अपने लोगों के पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊंचा करने और लोक स्वास्थ्य के सुधार को अपने प्राथमिक कर्तव्यों में मानेगा और राज्य, विशिष्टतया, मादक पेयों और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक औषधियों के औषधीय प्रयोजनों से भिन्न, उपभोग का प्रतिषेध करने का प्रयास करेगा।'
स्पष्ट है कि कुपोषण से लड़ने तथा नागरिकों को पोषाहार स्तर प्रदान करने में अब तक सरकारें विफल रही हैं। सरकार बदलने से इस दिशा में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को नहीं मिला है। मजबूरीवश कम कपड़े व बिना छत के गुजारा कल्पनीय है, लेकिन खाली पेट सोना कल्पना से परे है। आज भी देश में लगभग 19.4 करोड़ लोग भूख के शिकार हैं। पिछले वर्ष संयुक्त राष्ट्र द्वारा भुखमरी पर जारी रिपोर्ट के अनुसार भुखमरी से सर्वाधिक पीड़ित देशों में भारत भी शामिल है। श्रीलंका तथा नेपाल जैसे छोटे देश भी हमसे अच्छी स्थिति में हैं। चौंकाने वाले आंकड़े हैं कि देश का लगभग 20 फीसदी अनाज भंडारण क्षमता के अभाव में बेकार हो जाता है।
गरीबी उन्मूलन की दिशा में यूपीए-दो की सरकार के समय संसद में पारित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 को अधिसूचित किया गया। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत 50 फीसदी शहरी तथा 75 फीसदी ग्रामीण आबादी को राज्य सहायता प्राप्त मूल्यों पर चावल, गेहूं तथा मोटा अनाज प्राप्त करने का हक प्रदान किया गया। इसके अलावा गर्भवती महिलाओं तथा शिशुओं के लिए भी पौष्टिक आहार का प्रावधान रखा गया। वर्तमान सरकार भी अंत्योदय अन्न योजना के नाम से करोड़ों लोगों को सस्ती दरों पर अन्न उपलब्ध करा रही है। सवाल है कि करोड़ों रूपये प्रतिवर्ष खर्च होने के बावजूद कुपोषण से निपटने में भारत अक्षम क्यों रहा है? खानपान के अलावा उचित पुनर्वास तथा सार्वजनिक चिकित्सा व्यवस्था का लचर हाल भी इसके लिए बराबर जिम्मेदार है। एनएसएसओ की रिपोर्ट के अनुसार 80 प्रतिशत से अधिक आबादी के पास न तो कोई सरकारी स्वास्थ्य स्कीम है और न ही कोई निजी बीमा। अस्पतालों में डॉक्टर, टेक्नीशियन, नर्सिंग स्टाफ, फर्मासिस्ट तथा विशेषज्ञों की संख्या में भारी कमी है।
अब तक की गरीबी रेखा गरीबों के साथ मजाक ही साबित हुई है। वर्ष 2015 में नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगड़िया के नेतृत्व में गरीबी रेखा के निर्धारण के लिए नई कमेटी गठित की गई, जो अब तक रिपोर्ट तैयार नहीं कर पाई है। पोलियो मुक्त भारत की तरह कुपोषण और भूख मुक्त भारत भी संभव है। कुपोषण और गरीबी मुक्त भारत में ही राष्ट्रीय जीडीपी में उभार, वैश्विक निवेश में वृद्धि तथा भारत को 'मैन्यूफैक्चरिंग हब' बनाने का सपना साकार होगा।
-लेखक जदयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता