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किसानों के लिए आय आयोग चाहिए - देविंदर शर्मा

सितंबर में सरकार ने गैर-कृषि मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी में 42 फीसदी का इजाफा किया, जिससे उनकी रोजाना मजदूरी मौजूदा 246 रुपये से बढ़कर 351 रुपये हो जाएगी और इस तरह उन्हें महीने में न्यूनतम 9,100 रुपये मिलेंगे। लेकिन ध्यान रहे, सरकार ने न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि की घोषणा सिर्फ गैर-कृषि मजदूरों के लिए की है। हालांकि ट्रेड यूनियन इससे भी खुश नहीं हैं और वे (सी) श्रेणी के कर्मचारियों के 18,000 रुपये न्यूनतम वैधानिक मजदूरी की मांग कर रही हैं। यहां सवाल उठता है कि यह निर्धारित न्यूनतम मजदूरी कृषि मजदूरों के लिए भी क्यों नहीं लागू की जानी चाहिए। कृषि मजदूर भी कड़ी मेहनत करते हैं, वे अक्सर बारह घंटे खटते हैं और उन्हें ज्यादा से ज्यादा मनरेगा की मजदूरी मिलती है।

यह उचित नहीं है। 2011 की जनगणना के मुताबिक, हमारे देश में 50 फीसदी से ज्यादा किसान वास्तव में भूमिहीन हैं, जिसका मतलब है कि वे गैर-कृषि मजदूरों की श्रेणी में आ गए हैं, जो वैधानिक न्यूनतम मजदूरी से वंचित रहेंगे। और जिस बात ने मुझे हैरान किया, वह यह कि अगर आर्थिक सर्वेक्षण-2016 के मुताबिक 17 राज्यों में खेतिहर परिवारों की औसत मासिक आय सालाना 20 हजार रुपये या मासिक 1,667 रुपये है, तो भूमिहीन किसानों को क्या मिलता होगा। शायद प्रति दिन 50 रुपये से भी कम। क्या जीविका चलाने के लिए यह मजदूरी पर्याप्त है?

यही मुख्य वजह है कि मैं एक अलग कृषक आय आयोग की मांग कर रहा हूं, जो गैर-कृषि मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी तय करे। मुझसे अक्सर पूछा जाता है कि किसानों के लिए एक अलग आय आयोग क्यों, जबकि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) उपलब्ध कराने के लिए एक अलग मूल्य तंत्र पहले से ही मौजूद है। और वह भी तब, जब देश भर के किसान स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की मांग कर रहे हैं, जिसमें किसानों को उत्पादन लागत पर 50 फीसदी मुनाफा देने की सिफारिश की गई है। फिर अलग आयोग की जरूरत क्या है?

बेशक मैं इससे सहमत हूं कि किसानों को सरकार द्वारा घोषित एमएसपी के हिस्से के रूप में 50 फीसदी का मुनाफा दिया जाना चाहिए, पर तथ्य यह है कि देश के मात्र छह फीसदी किसान ही एमएसपी का लाभ पाते हैं। शेष 94 फीसदी किसान बाजार की शक्तियों की दया पर निर्भर हैं। यही नहीं, विश्व व्यापार संगठन ने स्पष्ट कर दिया है कि खरीद मूल्य फसलों के कुल मूल्य से दस फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए, जो आगे एमएसपी में वृद्धि के विकल्प को प्रतिबंधित करता है। इससे स्पष्ट है कि 'मूल्य नीति' का समय खत्म हो गया है और इसकी जगह पर 'आय नीति' लागू की जानी चाहिए। जब मैं खरीद मूल्य की गणना के तरीके को देखता हूं, तो महसूस होता है कि यह मुश्किल से उत्पादन लागत के साथ दस फीसदी लाभ को पूरा करता है और वह भी प्रबंधकीय लागत के रूप में। दूसरी तरफ गैर-कृषि श्रमिकों की मजदूरी भारतीय श्रम सम्मेलन,1957 के अनुसार निर्धारित की जाती है। उसके अनुसार न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण न्यूनतम मानवीय जरूरतों के हिसाब से होना चाहिए।

वर्ष 1991 में सुप्रीम कोर्ट ने न्यूनतम मजदूरी के निर्धारण के लिए छह मापदंड तय किए थे-बच्चों की शिक्षा, चिकित्सीय जरूरत, न्यूनतम मनोरंजन समेत त्योहारों, समारोहों, वृद्धावस्था, शादी के प्रावधानों के लिए 25 फीसदी कुल मजदूरी में शामिल किया जाना चाहिए। इसके अलावा, न्यूनतम मजदूरी में महंगाई भत्ता का प्रावधान होना चाहिए, जिसे साल में दो बार संशोधित किया जाए और उसे मूल वेतन में शामिल नहीं किया जाना चाहिए। मेरी समझ में नहीं आता कि कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी), जो हर वर्ष 23 फसलों के लिए एमएसपी निर्धारित करता है, वह सुप्रीम कोर्ट के बताए इन छह मापदंडों का पालन क्यों नहीं करता। क्या आपने कभी सुना है कि किसानों को ये भत्ते दिए जा रहे हैं? चूंकि एमएसपी ही किसानों की आय का एकमात्र तरीका है, मैं कोई कारण नहीं देखता कि क्यों किसानों को न्यूनतम मानवीय जरूरतों से वंचित किया जाना चाहिए, जिसे खरीद मूल्य में शामिल किए जाने की जरूरत है।

मैं केंद्रीय कर्मियों को दिए जाने वाले 108 भत्तों की बात नहीं कर रहा, बल्कि मैं तो सिर्फ चार भत्ते किसानों को देने की बात कर रहा हूं-शिक्षा, चिकित्सा, आवास और यात्रा। जब से हरित क्रांति की शुरुआत हुई, तब से किसान जरूरत-आधारित खरीद मूल्य से वंचित हैं। हैरानी नहीं कि हर बीतते वर्ष के साथ कृषि संकट बढ़ रहा है। बीते 20 वर्षों में तीन लाख से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी कर ली। किसान नेताओं को समझना चाहिए कि स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट लागू करने भर से न्याय नहीं होगा। इससे मात्र छह फीसदी किसानों को फायदा होगा, जो एमएसपी पर अपनी फसल बेचने में सक्षम हैं, बाकी 94 फीसदी किसान घाटे में रहेंगे। और चूंकि विश्व व्यापार संगठन द्वाा निर्धारित सीमा से आगे एमएसपी नहीं बढ़ाई जा सकती, नतीजतन सरकार किसानों को वास्तविक मूल्य देने से लगातार इन्कार करती रहेगी। इसलिए जरूरी है कि किसानों के लिए एक आय आयोग का गठन किया जाए, जो किसान परिवारों के लिए न्यूनतम निश्चित मासिक आय सुनिश्चित करे। स्वयं डॉ. स्वामीनाथन ने किसान आय आयोग की मांग की थी।

ट्रेड यूनियनें न्यूनतम मजदूरी कानून, 1948 में संशोधन की मांग कर रही हैं, जिसमें ठेका मजदूर भी आते हैं। किसान नेताओं को समझना चाहिए कि मजदूरों के हक के लिए दस ट्रेड यूनियनें एकजुट हुई हैं। उन्हें भी आय के मुद्दे और सीएसीपी के संदर्भ शर्तों में बदलाव के लिए एक आम समझ तैयार करनी चाहिए। सीएसीपी को अब सिर्फ फसलों के उत्पादन लागत की गणना नहीं करनी चाहिए, बल्कि न्यूनतम मानवीय जरूरतों के आधार पर मासिक आय पैकेज निर्धारित करने का निर्देश देना चाहिए। इसलिए सीएसीपी का नाम बदलकर किसान आय एवं कल्याण आयोग कर देना चाहिए।

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