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सामाजिक न्याय का एजेंडा- अच्छे लाल

7 अगस्त, 1990 न केवल समकालीन इतिहास बल्कि देश के तीन हज़ार सालों के इतिहास का एक महत्वपूर्ण दिन है। यह दिन 15 अगस्त, 1947 से भी ज्यादा मायने रखता है। भारत के तीन हज़ार सालों का इतिहास विदेशी गुलामियों का इतिहास रहा है। एक विदेशी शासन के बाद दूसरा विदेशी शासन आया किन्तु भारत की सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन हीन रही। 15 अगस्त, 1947 को देश आज़ाद जरूर हुआ किन्तु देश की 90% दलित-पिछड़ी और आदिवासी जनता को इससे कुछ खास नहीं मिला। सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक शोषण में कोई कमी नहीं आई। सामाजिक न्याय और परिवर्तन का एजेंडा राष्ट्रीय स्तर पर अपनी आवाज़ नहीं सुना पाता था। 7 अगस्त, 1990 को प्रधान मंत्री वी पी सिंह ने जैसे ही देश की संसद में मंडल आयोग की मात्र एक अनुशंसा की और केन्द्र सरकार की नौकरियों में शूद्र जातियों को 27% आरक्षण की व्यवस्था को लागू करने की घोषणा की तो जैसे एक झटके में सामाजिक न्याय और परिवर्तन का एजेंडा राष्ट्रीय फलक पर छा गया।

दलितों-आदिवासियों के लिए आरक्षण 1947 के पहले से मौजूद है। किन्तु इनकी आबादी कम होने के चलते इनके लिए आरक्षण सामाजिक न्याय और परिवर्तन के एजेंडा को राष्ट्रीय स्तर पर ला पाने में अक्षम था। परिमाण किसी वस्तु में गुणात्मक परिवर्तन लाता है। जब 1990 में मंडल के माध्यम से देश की 52% आबादी को आरक्षण की परिधि में लाया गया तो तीनों आरक्षित श्रेणियों को मिलाकर 1931 की जनगणना के अनुसार लगभग 75 प्रतिशत से अधिक आबादी आरक्षण की परिधि में आ गयी।  इसके चलते सामाजिक न्याय और परिवर्तन का एजेंडा राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने की स्थिति में आ गया।

बीसवीं सदी के भारत का इतिहास आरक्षण के समर्थक और विरोधी शक्तियों के बीच संघर्षों का इतिहास है। जाति व्यवस्था जो सत्ता, संपत्ति और सम्मान पर मुट्ठी भर जातियों के एकाधिकार पर टिका हुआ है। ऐसे एकाधिकार को खत्म करने के लिए एक कारगर उपाय के रूप में सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण देने का काम सबसे पहले २६ जुलाई, 1902 में महाराष्ट्र की कोल्हापुर रियासत के राजा शाहू जी महाराज ने किया था। इसके बाद इसे मद्रास प्रेसीडेंसी में जस्टिस पार्टी की ब्रिटिशकालीन सरकार और आगे चलकर पूरे देश में अलग-अलग राज्यों ने अलग-अलग समय पर सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण व्यवस्था को लागू किया। जहाँ कहीं भी आरक्षण लागू हुआ वहाँ सामाजिक एकाधिकारवादी ग्रुपों द्वारा विधान सभा, संसद और सड़क से लेकर क़ानून की अदालतों तक इसका जोरदार विरोध किये जाने के बावजूद भारत की न्यायपालिका ने हमेशा जाति आधारित आरक्षण को संविधान सम्मत घोषित किया। आरक्षण के मोर्चे पर विरोधियों की हमेशा हार हुई है, और सामाजिक न्याय के सिद्धान्त की हमेशा विजय हुई है। यहाँ पर फैज़ अहमद फैज़ की पंक्ति दोहराई जा सकती है: "यूं ही हमने हमेशा खिलाए हैं आग में फूल, न उनकी हार नयी है, न हमारी जीत नयी।" इसका यह मतलब नहीं है कि उन्हें आरक्षण के कारवां को रोकने में कोई सफलता नहीं मिली है। ओबीसी आरक्षण में क्रीमी लेयर लागू करना उनकी ऐसी ही एक सफलता है।

आरक्षण ने सत्ता, संपत्ति और सम्मान पर चंद जातियों के एकाधिकार को तोड़कर इसके दलित, आदिवासी, अति पिछड़ी और पिछड़ी जातियों के बीच विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया को पैदा किया है।  इससे भारतीय समाज और राजनीति (शासन और प्रशासन) के लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया को बल मिला है। कुछ लोग आरक्षण को गरीबी, बेरोजगारी और अशिक्षा दूर करने का उपाय समझते हैं जो आरक्षण के सिद्धांत का अति सरलीकरण है। आरक्षण की ऐसी व्याख्या जान-बूझकर की जाती है ताकि क्रीमी लेएर की अवधारणा को सही ठहराया और आर्थिक आधार पर आरक्षण का मार्ग प्रशस्त कर जाति आधारित आरक्षण को खत्म किया जा सके। आरक्षण यदि गरीबी, बेरोजगारी और अशिक्षा दूर करने का उपाय होता तो राज्य और केन्द्र सरकार की गरीबी, बेरोजगारी और अशिक्षा उन्मूलन की ढेरों योजनाओं और आरक्षण में कोई अंतर नहीं रहता और तब आरक्षण की व्यवस्था सरकारी योजनाओं की तरह सर्वमान्य अवधारणा होती। किन्तु उक्त सिद्धांत कभी भी सर्वमान्य अवधारणा नहीं नहीं रहा है, यह सामाजिक एकाधिकारवादी ग्रूपों का सतत विरोध झेलता रहा है। आरक्षण ने जाति व्यवस्था को किसी भी अन्य आंदोलन की तुलना में सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाकर 'समता की अवधारणा' को मजबूत किया है। आज यदि आरक्षण को खत्म कर दिया जाए तो भारतीय समाज एक झटके में सौ साल पीछे चला जाएगा जब दलित अपने कमर में झाडू बाँध कर चलते थे, आदिवासी नगर सभ्यता से दूर रहते थे, और शूद्र जातियाँ प्रताड़ना और वंचना की शिकार होती थीं।

एक आधुनिक और लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत की आज जो पहचान बनी है उसके प्रमुख  कारक  हैं; जैसे पब्लिक सेक्टर, फ्री प्रेस, संसदीय लोकतंत्र, विदेश नीति में गुटनिरपेक्षता, क़ानून और संविधान की प्रतिष्ठा आदि, इन सबमें आरक्षण का बेहद महत्वपूर्ण स्थान है। आरक्षण के चलते दलित, आदिवासी, अति पिछड़ी, पिछड़ी जातियों में एक मध्यम वर्ग तैयार हुआ है जिसके चलते सीमित संख्या के सवर्ण मध्यम वर्ग के बाहर भारतीय बाजार का विस्तारीकरण हुआ है, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था को न केवल मजबूती मिली है बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह बड़ी अर्थव्यवस्थाओं से प्रतिस्पर्धा भी कर रहा है। यही कारण है कि सामाजिक एकाधिकारवादी ग्रूपों से आने वाले उदारवादी और दूरदृष्टिसम्पन्न बुद्धिजीवियों, राजनीतिज्ञों और न्यायधीशों ने जाति आधारित आरक्षण को मान्यता प्रदान किया है।

लेखक: MTNL में सीनियर इंजीनियर रहे हैं तथा वर्तमान में "राष्ट्रीय समग्र विकास संघ (RSVS)" के कोषाध्यक्ष हैं -