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आत्मसम्मान के नायक 'पेरियार'- कर्नल आर.एल. राम

 ईवी रामास्वामी नायकर 'पेरियार'

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(17 September 1879 – 24 December 24, 1973)

आईआईटी मद्रास में आंबेडकर पेरियार स्टडी सर्किल (एपीएससी) पर लगा प्रतिबंध पखवाड़े भर की उठा-पटक के बाद हट गया, लेकिन इस बीच एक नाम ने उत्तर भारत के छात्रों के बीच खासतौर पर उत्सुकता जगा दी, जो अभी तक आमतौर पर दक्षिण भारत में ही महत्व रखता था। यह नाम है पेरियार का। ईवी रामास्वामी नायकर 'पेरियार' तमिलनाडु के वह नेता हैं, जिन्हें 'ब्राह्मणवाद' और 'आर्यों के विस्तारवादी सिद्धांत' के खिलाफ द्रविड़ आत्मसम्मान जगाने वाले नायक के रूप में जाना जाता है। द्रविड़ कषगम की स्थापना भी पेरियार ने ही की थी।

करीब पचास बरस पहले उनकी लिखी 'सच्ची रामायण' की वजह से काफी विवाद हुआ था। मूल रूप से तमिल में लिखी गई यह किताब राम सहित रामायण के तमाम चरित्रों को खलनायक के रूप में पेश करती है। पेरियार की स्थापना है कि राम आर्यों के प्रतिनिधि हैं जिन्होंने दक्षिण के द्रविड़ों (मूलत: तमिलजनों) का संहार किया, जिन्हें राक्षस कहा जाता है। यूपी के समाजसुधारक और रिपब्लिकन पार्टी के नेता ललई सिंह यादव ने 1968 में 'सच्ची रामायण' का हिंदी में अनुवाद किया था। लेकिन, इसके प्रकाशन के साथ ही बवाल शुरु हुआ और यूपी सरकार ने 20 दिसंबर 1969 को इसे जब्त कर लिया।

ललई सिंह यादव ने इस प्रतिबंध के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। 19 जनवरी 1971 को जस्टिस एके कीर्ति, जस्टिस केएन श्रीवास्तव और जस्टिस हरि स्वरूप की पीठ ने किताब से प्रतिबंध हटाते हुए ललई सिंह यादव को 300 रुपये हर्जाना दिलाने का आदेश सुनाया। इसके खिलाफ यूपी सरकार सुप्रीम कोर्ट गई। लेकिन न्यायपालिका ने 'भावनाएं आहत होने' की दलील पर अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार को तरजीह दी और 16 सितंबर 1976 को जस्टिस पीएन भगवती, जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर और जस्टिस मुर्तजा फाजिल अली की सदस्यता वाली पूर्णपीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला बरकरार रखने का आदेश सुनाया।

'सच्ची रामायण' की पीडीएफ फाइल इंटरनेट पर छाई हुई है। कहा जा रहा है कि इस किताब को पढ़ने और प्रसारित करने का समय आ गया है। स्वाभाविक है कि पिछड़े, दलित और आदिवासी छात्र-छात्राओं के बीच यह प्रसार ज्यादा है। लेकिन आम उदारवादी तबके के बीच भी यह किताब खूब पढ़ी जा रही है।

पेरियार को सिर्फ एक किताब तक सीमित रखना ठीक नहीं है। तत्कालीन मद्रास प्रांत के इरोड में 17 सितंबर 1879 को जन्मे ईवी रामास्वामी नायकर शुरू में गांधी जी से प्रभावित थे। 1920 के असहयोग आंदोलन में काफी सक्रिय रहे और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी बनाए गए थे। लेकिन छुआछूत और वर्णव्यवस्था से जुड़े अत्याचारों के प्रति कांग्रेस नेताओं की उदासीनता ने उन्हें काफी आहत किया। 1925 में तमिलनाडु कांग्रेस के कांचीपुरम अधिवेशन में जब शूद्रों तथा अतिशूद्रों की शिक्षा और उनके रोजगार से जुड़ा प्रस्ताव पारित नहीं हो पाया तो उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। बाद में वे जस्टिस पार्टी से जुड़े और 1944 में 'द्रविड़ कषगम' की स्थापना की, जिसने आगे चलकर तमिलनाडु की राजनीति में कांग्रेस समेत सभी राष्ट्रीय पार्टियों का सूपड़ा साफ कर दिया।

पेरियार ऐसे क्रांतिकारी विचारक के रूप में जाने जाते हैं जिन्होंने आडंबर और कर्मकांडों पर निर्मम प्रहार किए। हिंदी और उत्तर भारत के विरोध को लेकर उनके आंदोलन में अतिरेक है। उन्होंने जाति प्रथा बरकरार रहने के विरोध में तमिलनाडु को अलग देश बनाने की कल्पना भी पेश की थी। लेकिन इसमें शक नहीं कि तर्क और बुद्धिवाद को केंद्र में रखते हुए जाति तथा सांप्रदायिक भेद से मुक्त समतामूलक समाज की स्थापना का पेरियार का सपना आधुनिकता की कसौटी है।

ई. वी. रामास्वामी पेरियार जो 1879 में जन्मे और 1973 तक जीवित रहे। वह एक सक्रिय स्वाधीनता सेनानी, कट्टर नास्तिक, प्रखर समाजवादी चिन्तक, नशाबन्दी के घनघोर समर्थक और क्रांतिकारी समाज सुधारक थे। उन्होंने, अस्पृश्यता, जमींदारी, सूदखोरी, स्त्रियों के साथ भेदभाव तथा हिन्दी भाषा के साम्राज्यवादी फैलाव के विरुद्ध आजीवन पूरे दमखम के साथ संघर्ष किया। कांग्रेस के राष्ट्रीयतावाद को वह मान्यता नहीं देते थे तथा गांधी जी के सिद्धांतों को प्रच्छन्न ब्राह्मणवाद बताते हुए उनकी तीखी आलोचना करते थे। वह द्रविड़ों के अविवाद्य रहनुमा तो थे ही दक्षिण में तर्क बुद्धिवाद के अनन्य प्रचारक व प्रसारक भी थे। संक्षेप में यदि उन्हें दक्षिण का अम्बेडकर कहा जाय तो शायद ही किसी को कोई आपत्ति हो। 1925 में उन्होंने 'कुडियारासु` (गणराज्य) नामक एक समाचार पत्र तमिल में निकालना शुरू किया। 1926 में 'सैल्फ रेस्पेक्ट लीग` की स्थापना की और 1938 में जस्टिस पार्टी को पुनर्जीवित किया। 1941 में 'द्रविडार कषगम` के झण्डे तले उन्होंने सारी ब्राह्मणेत्तर पार्टियों को इकट्ठा किया और मृत्युपर्यन्त समाजसुधार के कार्यों में पूरी निष्ठा के साथ जुटे रहे।

लगभग 50 साल पहले उन्होंने तमिल में एक पुस्तक लिखी जिसमें वाल्मीकि द्वारा प्रणीत एवं उत्तर भारत में विशेष रूप से लोकप्रिय रामायण की इस आधार पर कटु आलोचना की कि इसमें उत्तर भारत आर्य जातियों को अत्यधिक महत्व दिया गया है और दक्षिण भारतीय द्रविड़ों को क्रूर, हिंसक, अत्याचारी जैसे विशेषण लगाकर न केवल अपमानित किया गया है बल्कि राम-रावण कलह को केन्द्र बनाकर राम की रावण पर विजय को दैवी शक्ति की आसुरी शक्ति पर, सत्य की असत्य पर और अच्छाई की बुराई पर विजय के रूप में गौरवान्वित किया गया है। इसका अंग्रजी अनुवाद 'द रामायण: ए ट्रू रीडिंग` के नाम से सन् 1969 में किया गया। इस अंग्रेजी अनुवाद का हिन्दी में रूपान्तरण 1978 में 'रामायण: एक अध्ययन` के नाम से किया। उल्लेखनीय है कि ये तीनों ही संस्करण काफी लोकप्रिय हुए। क्योंकि इसके माध्यम से पाठक अपने आदर्श नायक-नायिकाओं के उन पहलुओं से अवगत हुए जो अब तक उनके लिये वर्जित एवं अज्ञात बने हुए थे। ध्यान देने योग्य तथ्य यह सामने आया कि इनकी मानवोचित कमजोरियों के प्रकटीकरण ने लोगों में किसी तरह का विक्षोभ या आक्रोश पैदा नहीं किया बल्कि इन्हें अपने जैसा पाकर इनके प्रति उनकी आत्मीयता बढ़ी और अन्याय, उत्पीड़न ग्रस्त पात्रों के प्रति सहानुभूति पैदा हुई।

लेकिन जो लोग धर्म को व्यवसाय बना राम कथा को बेचकर अपना पेट पाल रहे थे, उनके लिये यह पुस्तक आंख की किरकिरी बन गई। क्योंकि राम को अवतार बनाकर ही वे उनके चमत्कारों को मनोग्राह्य और कार्यों को श्रद्धास्पद बनाये रख सकते थे। यदि राम सामान्य मनुष्य बन जाते हैं और लोगों को कष्टों से मुक्त करने की क्षमता खो देते हैं तो उनकी कथा भला कौन सुनेगा और कैसे उनकी व उन जैसों की आजीविका चलेगी। इसीलिये प्रचारित यह किया गया कि इससे सारी दुनिया में बसे करोड़ो राम भक्तों की भावनाओं के आहत होने का खतरा पैदा हो गया है। इसलिए इस पर पाबन्दी लगाया जाना जरूरी है। और पाबन्दी लगा भी दी गई। लेकिन उसी न्यायालय ने बाद में अस्थायी प्रतिबंध को हटा दिया और अपने फैसले में स्पष्ट कहा-'हमें यह मानना संभव नहीं लग रहा है कि इसमें लिखी बातें आर्य लोगों के धर्म को अथवा धार्मिक विश्वासों को चोट पहुंचायेंगी। ध्यान देने लायक तथ्य यह है कि मूल पुस्तक तमिल में लिखी गई थी और इसका स्पष्ट उद्देश्य तमिल भाषी द्रविड़ों को यह बताना था कि रामायण में उत्तर भारत के आर्य-राम, सीता, लक्ष्मण आदि का उदात्त चरित्र और दक्षिण भारत के द्रविड़-रावण, कुंभकरण, शूर्पणखा आदि का घृणित चरित्र दिखला कर तमिलों का अपमान किया गया है। उनके आचरणों, रीति रिवाजों को निन्दनीय दिखलाया गया है। लेखक का उद्देश्य जानबूझकर हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाने के बजाय अपनी जाति के साथ हुए अन्याय को दिखलाना भी तो हो सकता है। निश्चय ही ऐसा करना असंवैधानिक नहीं माना जा सकता। ऐसा करके उसने उसी तरह अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार का उपयोग किया है जैसे रामकथा प्रेमी आर्यों को श्रेष्ठ बताकर करते आ रहे हैं। इस तरह तो कल दलितों का वह सारा साहित्य भी प्रतिबंधित हो सकता है जो दलितों के प्रति हुए अमानवीय व्यवहार के लिये खुल्लम-खुल्ला सवर्ण लोगों को कठघरे में खड़ा करता है।`

पेरियार की इस पुस्तक को तमिल में छपे लगभग 50 साल और हिन्दी, अंग्रेजी में छपे लगभग तीन दशक हो चले हैं। अब तक इसके पढ़ने से कहीं कोई हिंसक प्रतिक्रिया नहीं दर्ज है। फिर अब ऐसी कौन सी नई परिस्थितियां पैदा हो गई हैं कि इससे हिन्दू समाज खतरा महसूस करने लगा है? यह कैसे हो सकता है कि संविधान लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार तो दे परन्तु धर्म के बारे में कुछ भी पढ़ने व जानने के अधिकार पर अंकुश लगा दे। यह कैसे न्यायसंगत हो सकता है कि लोग रामायण, महाभारत, गीता आदि धार्मिक ग्रन्थों को तो पढ़ते रहें पर उनकी आलोचनाओं को पढ़ने से उन्हें रोक दिया जाय। जहां तक जनभावनाओं का सवाल है इसका इकरतफा पक्ष नहीं हो सकता। यदि राम और सीता की आलोचना से लोगों को चोट लगती है तो शूद्रों, दलितों व स्त्रियों के बारे में जो कुछ हिन्दू धर्म ग्रन्थों में लिखा गया है क्या उससे वे आहत नहीं होते? यह बात भी विचारणीय है।

स्तुत: पेरियार की 'सच्ची रामायण` ऐसी अकेली रामायण नहीं है जो लोक प्रचलित मिथकों को चुनौती देती है और रावण के बहाने द्रविड़ों के प्रति किये गये अन्याय का पर्दाफाश कर उनके साथ मानवोचित न्यायपूर्ण व्यवहार करने की मांग करती है। दक्षिण से ही एक और रामायण अगस्त 2004 में आई है जो उसकी अन्तर्वस्तु का समाजशास्त्रियों विश्लेषण करती है और पूरी विश्वासोत्पादक तार्किकता के साथ प्रमाणित करती है कि राम में और अन्य राजाओं में चरित्रिक दृष्टि से कहीं कोई फर्क नहीं है। वह भी अन्य राजाओं की तरह प्रजाशोषक, साम्राज्य विस्तारक और स्वार्थ सिद्धि हेतु कुछ भी कर गुजरने के लिये सदा तत्पर दिखाई देते हैं। परन्तु यहां हम पेरियार की नजरों से ही बाल्मीकि की रामायण को देखने की कोशिश करते हैं।

वाल्मीकि रामायण में अनेक प्रसंग ऐसे हैं जो तर्क की कसौटी पर तो खरे उतरते ही नहीं। जैसे वह कहती है कि दशरथ 60 हजार बरस तक जीवित रह चुकने पर भी कामवासना से मुक्त नहीं हो पाये। इसी तरह वह यह भी प्रकट करती है कि उनकी केवल तीन ही पत्नियां नहीं थी। इन उद्धरणों के जरिये पेरियार दशरथ के कामुक चरित्र पर से तो पर्दा उठाते ही हैं यह भी साबित करते हैं कि उस जमाने में स्त्रियों केवल भोग्या थीं। समाज में इससे अधिक उनका कोई महत्व नहीं था। दशरथ को अपनी किसी भी बीबी से प्रेम नहीं था। क्योंकि यदि होता तो अन्य स्त्रियों की उन्हें आवश्यकता ही नहीं होती। सच्चाई यह भी है कि कैकेयी से उनका विवाह ही इस शर्त पर हुआ था कि उससे पैदा होने वाला पुत्र उनका उत्तराधिकारी होगा। इस शर्त को नजरन्दाज करते हुए जब उन्होंने राम को राजपाट देना चाहा तो वह उनका गलत निर्णय था। राम को भी पता था कि असली राजगद्दी का हकदार भरत है, वह नहीं। यह जानते हुए भी वह राजा बनने को तैयार हो जाते हैं। पेरियार के मतानुसार यह उनके राज्यलोलुप होने का प्रमाण है।

आर्यों ने जब प्राचीन द्रविड़ भूमि पर आक्रमण किया तब उनके साथ दुर्व्यवहार तो किया ही उनका अपमान भी किया और अपने इस कृत्य को न्यायोचित व प्रतिष्ठा योग्य बनाने के लिये उन्होंने इन्हें ऐसे राक्षस बनाकर पेश किया जो सज्जनों के हर अच्छे कामों में बाधा डालते थे। श्रेष्ठ जनों को तपस्या करने से रोकना, धार्मिक अनुष्ठानों को अपवित्र करना, पराई स्त्रियों का अपहरण करना, मदिरापान, मांसभक्षण एवं अन्य सभी प्रकार के दुराचरण करना इन्हें अच्छा लगता था। इसलिये ऐसे आततायियों को दंडित करना आर्य पुरुषों की कर्तव्य परायणता को दर्शाता है। अब यदि तमिलजन इस तरह की रामायण की प्रशंसा करते हैं तो वे अपने अपमान को एक तरह से सही ठहराते हैं और स्वयं अपने आत्मसम्मान को क्षति पहुंचाते हैं।

शिक्षित तमिल जब कभी रामायण की चर्चा करते हैं तो उनका आशय 'कम्ब रामायण` से होता है। यह रामायण वाल्मीकि की संस्कृत में लिखी रामायण का कम्बन कवि द्वारा तमिल में किया गया अनुवाद है। लेकिन पेरियार मानते हैं कि कम्बन ने भी वाल्मीकि की रामायण की विकारग्रस्त प्रवृत्ति और सच्चाई को छुपाया है और कथा को कुछ ऐसा मोड़ दिया है जो तमिल पाठकों को भरमाता है। इसलिये वे इस रामायण की जगह आनन्द चारियार, नटेश शाय़िार, सी.आर. श्रीनिवास अयंगार और नरसिंह चारियार के अनुवादों को पढ़ने की सिफारिश करते हैं।

लेकिन अफसोस है पेरियार भी रावण की प्रशंसा उसी तरह आंख मूंदकर करते हैं जिस तरह वाल्मीकि ने राम की की है। वह वाल्मीकि पर यह आरोप लगाते हैं कि उन्होंने स्त्रियों की न केवल अवहेलना की है बल्कि उन्हें हीन दिखाने की कोशिश भी की है। लेकिन वह स्वयं भी सीता की मन्थरा व शूर्पणखा की तरह अवमानना करते हैं। क्योंकि वह एक आर्य महिला है। क्या आर्य होने पर स्त्रि स्त्रि नहीं रहती? इस तरह पेरियार कई जगह द्रविड़ों का पक्ष लेते हुए रामायण के आर्य चरित्रों के साथ अन्याय भी करते हैं। अनेक कमियों के बावजूद यह पठनीय है। क्योंकि इससे तस्वीर का एक और पहलू सामने आता है।

राम-कथा का मूल स्रोत

राम-कथा का मूल स्रोत क्या है तथा यह कथा कितनी पुरानी है, इस प्रश्न का सम्यक् समाधान अभी नहीं हो पाया है। विचित्रता की बात यह है कि वेद में राम-कथा के अनेक पात्रों का उल्लेख है। इक्ष्वाकु, दशरथ, राम, अश्वपति, कैकेयी, जनक और सीता, इनके नाम वेद और वैदिक साहित्य में अनेक बार आये हैं, किन्तु, विद्वानों ने अब तक यह स्वीकार नहीं किया है कि ये नाम, सचमुच, राम-कथा के पात्रों के ही नाम हैं। परन्तु इस उल्लेख से एक न्य पशन पैदा होता है कि क्या वेद और साहित्य वाल्मीकि रामायण के बाद लिखा या समकालीन है।  

पंडितों का यह मत है कि वेद में जो इन्द्र नाम से पूजित था, वही व्यक्तित्व, कालक्रम में, विकसित होकर राम बन गया। इन्द्र की सबसे बड़ी वीरता यह थी कि उसने वृत्रासुर को पराजित किया था। राम-कथा में यही वृत्रासुर रावण बन गया है। ऋग्वेद (मंडल 1, सूक्त 6) में जो कथा आयी है कि पंडितों ने गायों को छिपा कर गुफा में बन्द कर दिया था और इन्द्र ने उन गायों को छुड़ाया, उससे पंडितों ने यह अनुमान लगाया है कि यही कथा विकसित होकर राम-कथा में सीता-हरण का प्रकरण बन गयी।

राम का जन्म जन्म नहीं हुआ है इस सम्भावना को इस बात से बल मिलता है कि वाल्मीकि ने आदि रामायण में केवल अयोध्या-काण्ड से युद्ध-काण्ड तक की ही कथा लिखी थी; बाल-काण्ड और उत्तर-काण्ड बाद में अन्य कवियों ने मिलाये।

अनेक बार विद्वानों ने यह सिद्ध करना चाहा कि रामायण बुद्ध के बाद रची गयी रचना है। रामायण के एक संस्करण में जावालि-वृत्तान्त के अन्तर्गत बुद्ध का जो उल्लेख मिलता है (यथा हि चौर: स तथा हि बुद्ध:) उससे प्रमाणित होता है की रामायण बुद्ध के बाद की रचना है। यह भी कहा जाता है कि सीता का हिंसा के विरुद्ध भाषण तथा राम के शांत और कोमल स्वभाव की कल्पना के पीछे 'किंचित् बौद्ध प्रभाव` है।अहिंसा की कल्पना बुद्ध के दर्शन से प्रभावित लगती है। और बौद्ध ग्रंथों में यह भी कहा गया है की सिद्धार्थ २८वे बुद्ध हैं। इस बात से ऐसा लगता है कि बुद्ध दर्शन के आधार पर ही रामचरित मानस और रामायण की रचना ब्राह्मण विद्वानों ने की है।

रामायण में जो तीन कथाएं हैं, उनके नायक क्रमश: राम, रावण और हनुमान यह तीनो क्रमश क्षत्रिय, ब्राह्मण और शूद्रों के प्रतिनिधि दर्शाये गए हैं। ये तीन चरित्र तीन संस्कृतियों के प्रतीक हैं, जिनका समन्वय और तिरोधान वाल्मीकि ने एक ही काव्य में दिखाया है। सम्भव है, यह बात सच हो कि 'राम, रावण और हनुमान के विषय में पहले स्वतंत्र आख्यान-काव्य प्रचलित थे और इसके संयोग से रामायण काव्य की उत्पत्ति हुई है। 

भंडारकर साहब ने तो यहां तक घोषणा कर दी थी कि विष्णु के अवतार के रूप में राम का ग्रहण ग्यारहवीं सदी में आकर हुआ।  वैसे अवतारवाद की भावना ब्राह्मण-ग्रन्थों में ही उदित हुई थी। शतपथ-ब्राह्मण में लिखा है कि प्रजापति ने (विष्णु ने नहीं) मत्स्य, कूर्म और वराह का अवतार लिया था। तैत्तिरीय-ब्राह्मण में भी प्रजापति के वराह रूप धरने की कथा है। बाद में, जब विष्णु की श्रेष्ठता सिद्ध हो गयी, तब मत्स्य, कूर्म और वराह, ये सभी अवतार उन्हीं के माने जाने लगे। केवल वामनावतार के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि वामन, आरम्भ से ही, विष्णु के अवतार माने जाते रहे हैं। वामन के त्रिविक्रम रूप का उल्लेख ऋग्वेद के प्रथम मण्डल द्वितीय अध्याय के बारहवें सूक्त में है। हां, बुद्ध धर्म के साथ राम-कथा का जो रूप भारत से बाहर पहुंचा, उसमें वे विष्णु के अवतार नहीं रहे, न उनके प्रति भक्ति का ही कोई भाव रह गया।

संस्कृत के धार्मिक साहित्य में राम-कथा का रूप, अपेक्षाकृत, कम व्यापक रहा; फिर भी, रघुवंश, भटि्टकाव्य, महावीर-चरित, उत्तर-रामचरित, प्रतिमा-नाटक, जानकी-हरण, कुन्दमाला, अनर्घराघव, बालरामायण, हनुमान्नाटक, अध्यात्म-रामायण, अद्भूत-रामायण, आनन्द-रामायण आदि अनेक काव्य इस बात के प्रमाण हैं कि भारतवर्ष के विभिन्न क्षेत्रों के कवियों पर वाल्मीकि-रामायण का कितना गम्भीर प्रभाव पड़ा था। जब आधुनिक देश-भाषाओं का काल आया, तब देशी-भाषाओं में भी रामचरित पर एक-से-एक उत्त्म काव्य लिखे गये और आदि कवि के काव्य-सरोवर का जल पीकर भारत की सभी भाषाओं ने अपने को पुष्ट किया।

एक विचित्रता यह भी कि रावण पर जैन और बौद्ध पुराणों की श्रद्धा दीखती है। गुणभद्र के उत्तर-पुराण में राम-कथा का जो वर्णन मिलता है, उसमें कहा गया है कि लंका-विजय करने के बाद लक्ष्मण एक असाध्य रोग से मरे और मरने के बाद उन्हें नरक प्राप्त हुआ, क्योंकि उन्होंने रावण का वध किया था। इस कथा में रावण के जेता राम नहीं, लक्ष्मण दिखलाये गये हैं। इस कथा की एक विचित्रता यह भी है कि इसके अनुसार, सीता मन्दोदरी के पेट से जन्मी थीं। किन्तु, ज्योतिषियों के यह कहने पर कि यह बालिका आपका नाश करेगी, रावण ने उसे सोने की मंजूषा में बंद करके दूर देश मिथिला में कहीं गड़वा दिया था।

वैदिक, बौद्ध एंव जैन पुराणों में जो कथाएं मिलती हैं, उनमें से कितनी ही तो एक ही कथा के विभिन्न विकास हैं। सभी जातियों की संस्कृतियों का समन्वय ज्यों-ज्यों बढ़ता गया, त्यों-त्यों विभिन्न कथाएं भी, एक दूसरी से मिलकर, नया रूप लेने लगीं, और जो कथाएं पहले एृक रूप में थीं, उनमें भी वैविध्य आ गया। विशेषत:, रामकथा पर तो केवल भारत ही नहीं, सिंहल, स्याम, तिब्बत, हिन्देशिया, बाली, जावा, सुमात्रा आदि द्वीपों में बसने वाली जनता की रुचि का भी प्रभाव दृष्टिगोचार होता है। कश्मीरी रामायण के अनुसार, सीता का जन्म मन्दोदरी के गर्भ से हुआ था। बंगाल के कृत्तिवासी रामायण के बहुत-से स्थलों पर शाक्त-सम्प्रदाय की छाप पायी जाती है। खोतानी रामायण (पूर्वी तुर्किस्तान में प्रचलित) में राम जब युद्ध में मूर्छित होते हैं, तब उनकी चिकित्सा के लिए सुषेण नहीं, प्रत्युत, बौद्ध वैद्य जीवक बुलाये जाते हैं तथा आहत रावण का वध नहीं किया जाता है। स्यामदेश में प्रचलित 'राम कियेन` रामायण में हनुमान की बहुत-सी प्रेम-लीलाओं का वर्णन किया गया है। प्रभा, बेडया, नागकन्या, सुवर्णमच्छा और अप्सरा वानरी के अतिरिक्त, वे मन्दोदरी के साथ भी क्रीड़ा करते हैं। स्याम में ही प्रचलित राम-जातक में 'राम तथा रावण चचेरे भाई माने गये हैं।`

पुराणों की महाकथाओं में ये जो विविधताएं मिलती हैं, उनकी ऐतिहासिकता चाहे जो हो किन्तु यह सत्य है कि वे अनेक जातियों और जनपदों की रुचियों के कारण बढ़ी हैं, और यह भी हुआ है कि जिस लेखक को अपने सम्प्रदाय के समर्थन में जो कथा अनुकूल दीखी, उसने उसी कथा को प्रमुखता दे डाली अथवा कुछ फेर-फार करके उसे अपने मत के अनुकूल बना लिया। 

एक रूसी पत्रकार से उन्होंने साफ शब्दों में कहा था- ‘हमारे देश को स्वतंत्र हुए 17 साल बीत चुके हैं, लेकिन सच यह है कि यह आजादी सिर्फ ब्राह्मणों को ही मिली है।’ पेरियार द्वारा लगभग 95 साल की उम्र में दिए उनके एक भाषण का अंश इस प्रकार है ‘भारत की लगभग 97.25 प्रतिशत आबादी गैर ब्राह्मणों की है। सभी धर्मो के अनुयायी परस्पर भाई-बहन माने जाते हैं। सिर्फ हिंदू धर्म ही ऐसा है जिसमें सब बराबर नहीं है। ऊंची-नीची जाति के लोग हैं। यह सामाजिक अपमान हम कब तक झेलते रहेंगे।

अपने भाषण में उन्होंने सामाजिक सिद्धांत सामने रखे थे-

ईश्वर की समाप्ति, धर्म की समाप्ति, कांग्रेस का बहिष्कार, ब्राह्मणवाद का बहिष्कार। पेरियार ने ‘सच्ची रामायण’ लिख कर ब्राह्मणवाद और समाज विरोधी मानसिकता पर जम के प्रहार किया, इन्होने ईश्वर और मूर्ति पूजा जैसे पाखंडो के खिलाफ जम के प्रहार किया और खुद को नास्तिक घोषित किया । प्रेरियर की मुख्य शिक्षाए थी-

1- सभी मानव एक है हमें भेदभाव रहित समाज चाहिए, हम किसी को प्रचलित सामाजिक भेदभाव के कारन अलग नही कर सकते ।

2- हमारे देश को आजादी तभी मिल गई समझाना चाहिए जब ग्रामीण लोग, देवता, अधर्म , जाति ओर अंधविस्वास से छुटकारा पा जायेंगे।

3- आज विदेशी लोग दूसरे ग्रहों पर सन्देश ओर अंतरिक्ष यान भेज रहे है ओर हम ब्राहमणों के द्वारा श्राद्धो में परलोक में बसे अपने पूर्वजो को चावल ओर खीर भेज रहे है। क्या ये बुद्धिमानी है?

4- ब्राहमणों से मेरी यह विनती है कि अगर आप हमारे साथ मिलकर नही रहना चाहते तों आप भले ही जहन्नुम में जाए| कम से कम हमारी एकता के रास्ते में मुसीबते खड़ी करने से तों दूर जाओ। 

5- ब्राहमण सदैव ही उच्च एवं श्रेष्ट बने रहने का दावा कैसे कर सकता है? समय बदल गया है उन्हें नीचे आना होगा, तभी वे आदर से रह पायेंगे नही तों एक दिन उन्हें बलपूर्वक ओर देशाचार के अनुसार ठीक होना होगा।

आत्म सम्मान आन्दोलन

पेरियार और उनके समर्थकों ने समाज से असमानता कम करने के लिए अधिकारियों और सरकार पर सदैव दबाव डाला। ‘आत्म सम्मान आन्दोलन’ का मुख्य लक्ष्य था गैर-ब्राह्मण द्रविड़ों को उनके सुनहरे अतीत पर अभिमान कराना। सन 1925 के बाद पेरियार ने ‘आत्म सम्मान आन्दोलन’ के प्रचार-प्रसार पर पूरा ध्यान केन्द्रित किया। आन्दोलन के प्रचार के एक तमिल साप्ताहिकी ‘कुडी अरासु’ (1925 में प्रारंभ) और अंग्रेजी जर्नल ‘रिवोल्ट’ (1928 में प्रारंभ) का प्रकाशन शुरू किया गया। इस आन्दोलन का लक्ष्य महज ‘सामाजिक सुधार’ नहीं बल्कि ‘सामाजिक आन्दोलन’ भी था।

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