.

उत्तर भारत के पेरियार 'ललई सिंह यादव'- सोहन लाल कोली

उत्तर भारत के पेरियार 'ललई सिंह यादव'

 

(1 सितम्बर 1921 - 7 फरवरी 1993)

ब्राह्मणवाद के खिलाफ वास्तविक और ठोस लड़ाई छेड़ने वालों में ललई सिंह यादव (पेरियार) का नाम उल्लेखनीय है। 11 मार्च 1973 को दिल्ली के रामलीला मैदान में तिब्बत के दलाई लामा ने लगभग बीस हजार दलितों को बौद्धधर्म की दीक्षा दिलाई थी। उन दीक्षा लेने वालों की भीड़ में एक पतला-दुबला आदमी कड़क आवाज में किताबें बेच रहा था। यही पेरियार ललई सिंह थे, जो उस समय तक ‘सच्ची रामायण’ का मुकदमा जीतकर दलित-पिछड़ों के हीरो बने हुए थे। उन्हें बहुत से लोग घेरे हुए थे, जो स्वाभाविक भी था। वे सबके प्रिय लेखक थे, जिन्होंने 1967 में बौद्धधर्म अपनाने के बाद ‘यादव’ शब्द हटा लिया था। उस दौर के दो ही हमारे प्रिय लेखक थे-चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु और पेरियार ललई सिंह यादव, जिन्होंने हमारी पूरी सोच को बदल दिया था। श्री ललई सिंह जी अक्टूबर 1980 में कांशीराम के बामसेफ के अधिवेशन में नई दिल्ली भी आए थे। वे बड़े धन्य हो गए होंगे जिनकी उनसे मुलाकात हुई होगी।

‘बामसेफ के अधिवेशन में, जो अक्टूबर‘ 80 में हुआ था, पेरियार श्री ललई सिंह ने एक पुस्तक दिखाते हुए कहा, ‘यह ‘कालविजय’ है। इसमें जो पंक्तियां  लाल स्याही से रेखांकित हैं, उनको पढ़ जाओ।’ उक्त किताब सम्राट अशोक के जीवन पर आधारित एक ऐतिहासिक नाटक के रूप में थी। जिसने भी यह किताब पड़ी उसे ऐसा लगा होगा जैसे किसी ने एक साथ कई हथौड़ों से सिर पर प्रहार किया हो। भ किताब बौद्धधर्म को कलंकित और अपमानित करने का एक सुनियोजित षड्यन्त्र थी। किसकी शैतानियत है इसके पीछे?’ किन्तु उन्हीं से जब यह मालूम हुआ कि यह पुस्तक आगरा और रूहेलखण्ड विश्वविद्यालयों में हिन्दी कक्षाओं में पढ़ाई जा रही है, तो फिर, सचमुच सबकुछ आँखों के आगे स्पष्ट हो गया।

श्री ललई सिंह की हार्दिक इच्छा थी कि ‘कालविजय’ के प्रकाशन और उसकी बिक्री पर प्रतिबन्ध लगे, और उसके लेखक के विरुद्ध 124 ए के अन्तर्गत मुकदमा चले। इसमें सन्देह भी नहीं कि श्री ललई सिंह और श्री जगन्नाथ आदित्य ने इस दिशा में काफी संघर्ष किया। उनके प्रयास से देश भर से लाखों ज्ञापन भारत सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री तथा प्रदेश के राज्यपाल को भेजे गए, और आगरा में (8-9 मार्च 1980 को) चक्कीपाट पर बालासाहेब प्रकाशराव आंबेडकर के नेतृत्व में एक विशाल सम्मेलन हुआ, जिसमें ‘कालविजय’ को जब्त कराने के सम्बन्ध में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास किया गया। इधर भिक्षु संघ भी ‘कालविजय’ के विरुद्ध प्रधानमन्त्री से मिला और उसने अपना लिखित विरोध प्रदर्शित किया।’ ‘कालविजय’ के खिलाफ पूरे देश में विरोध-प्रदर्शन हुआ था, जिसका एकमात्र श्रेय श्री ललई सिंह को ही जाता था। शक्तिशाली की इच्छा का नाम न्याय है। यदि असली न्याय, न्याय होता, तो मैं सच्ची रामायण की चाभी, आर्यों का नैतिक पोल प्रकाश, हिन्दू संस्कृति में वर्णव्यवस्था और जातिभेद क्यों हार जाता?’

सत्तर के दशक में, बहुजन नेता और विचारक रामस्वरूप वर्मा जो कुर्मी समाज में जन्मे थे ने दलित-पिछड़ों में ब्राह्मणवाद के उन्मूलन के लिए अर्जक विचारधारा चलाई थी। उस समय वर्मा जी उत्तर प्रदेश सरकार में वित्त मन्त्री थे। उन्होंने लखनऊ से ‘अर्जक’ अखबार निकाला था, जो साप्ताहिक था और बाद में इसी नाम से राजनीतिक पार्टी भी बनाई थी। इसी अर्जक आन्दोलन से ललई सिंह जी भी जुड़ गए थे। समान वैचारिकी ने उन्हें और वर्मा जी, दोनों को एक-दूसरे का घनिष्ठ साथी बना दिया था।

पुरातन आजीवक ही आधुनिक अर्जक

अर्जक आंदोलन और अर्जक साहित्य का प्रकाशन साठोत्तरी हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण परिघटना है।  हिंदी साहित्य के इतिहासकारों ने इसे अभी तक दबाए रखा है। 1968 से जारी अर्जक आंदोलन से जुड़े कई प्रभावशाली साहित्यकार हुए हैं और न जाने कितनी रचनाएं रची गईं। पूरे हिंदी साहित्य के इतिहास में अर्जक साहित्य के आलोचकों ने पहली बार आलोचना के नए मानदंड स्थापित किए और नए औजारों से धार्मिक ग्रंथों और पौराणिक गल्पों का पुनर्मूल्यांकन किया। मिसाल के तौर पर मनुस्मृति राष्ट्र का कलंक, रामायण की शव परीक्षा, गीता की शव परीक्षा आदि. अर्जक साहित्य ने भारतीय इतिहास का पुनर्पाठ भी किया है। मिसाल के तौर पर भारत के आदि-निवासियों की सभ्यता, आर्यों का नैतिक पोल प्रकाश, क्या कभी सतयुग था, हिंदू इतिहास या हारों की दास्तान आदि। संत साहित्य के बाद हिंदी साहित्य के इतिहास में पाखंड, ढोंग, अंधविश्वास जैसे सामाजिक-धार्मिक मुद्दों पर अर्जक साहित्य सर्वाधिक मुखर है।  ईश्वर की खोज, पाप-पुण्य क्यों और कैसे, धर्म का धंधा, ब्राह्मणवाद की शव परीक्षा आदि पुस्तकें इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। छायावाद के छद्म मानवतावाद को वास्तविक धरातल पर उतारने का श्रेय अर्जक साहित्य को है। रामस्वरूप वर्मा की पुस्तक ‘मानववाद प्रश्नोत्तरी’ पठनीय है। अर्जक साहित्यकारों ने अस्मितामूलक अनेक रचनाकारों की खोज की है जिसमें अछूतानंद जी हरिहर प्रमुख हैं। अर्जक साहित्य ने हाशिये के नायकों को अपने नाटकों का केंद्रीय चरित्र बनाया है।  मिसाल के तौर पर ललई सिंह यादव कृत एकलव्य नाटक, शंबूक वध नाटक, वीर संत माया बलिदान नाटक आदि। अर्जक साहित्य की परंपरा में बुद्ध, फुले और आंबेडकर से लेकर जगदेव प्रसाद तक अनेक काव्यग्रंथ रचे गए हैं। मिसाल के तौर पर शहीद जगदेव महाकाव्य, अमर शहीद जगदेव प्रबंध काव्य आदि। चौधरी महाराज सिंह भारती का ग्रंथ ‘सृष्टि और प्रलय’ अर्जक साहित्य का प्रमुख ग्रंथ है जिसमें दर्ज है कि सृष्टि को ईश्वर ने नहीं बनाया है। रामस्वरूप वर्मा, महाराज सिंह भारती, चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु, भदंत आनंद कौशिल्यायन और ललई सिंह यादव से लेकर सुरेंद्र अज्ञात तथा एल.आर. बाली तक अर्जक आंदोलन से प्रभावित साहित्यकारों की एक लंबी परंपरा है। अर्जक साप्ताहिक, भीम पत्रिका और शोषित साप्ताहिक जैसी पत्र-पत्रिकाओं ने अर्जक साहित्य को बल प्रदान किया है।

अर्जक विचारधारा के स्तम्भ

आजिवक धर्म के प्रवर्तक मख्खली गौशाल, गौतम बुद्ध, सम्राट अशोक, नानक, बसवन्ना, कबीर, रैदास, शिवाजी महाराज, जिजाऊ माता, संभाजी महाराज, ज्योतिबा फुले, फ़ातिमा शेख, सावित्रीबाई फुले, शाहूजी महाराज, नारायणा गुरु, बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर, अछूतानंद, गाडगे महाराज, अब्दुल कय्यूम अंसारी, पेरियार, ललई सिंह यादव, रामस्वरूप वर्मा, जगदेव प्रसाद, सर छोटूराम, कर्पूरी ठाकुर, बीपी मंडल और कांशीराम जी की विचारधारा है।

जिस दौर में धर्म सियासत का सबसे धारदार हथियार बना हुआ है, उस दौर में एक समुदाय ऐसा भी है जो ईश्वर और धर्म के ऊपर मेहनत को तवज्जो देता है। यह समुदाय अर्जक संघ से जुड़ा हुआ है। साठ के दशक में कानपुर से मजदूर और मेहनतकश समुदाय ने अर्जक संघ नामक संगठन के बैनर तले सवर्ण वर्चस्व के खिलाफ एक आंदोलन छेड़ा था। अर्जक संघ के अनुयायी हर उस विश्वास को खारिज करते हैं जो तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। आज बहुजन समाज के नाम से जो भारत में आंदोलन चल रहा है उसको बनाने में मान्यवर कांशीराम जी का महान योगदान है। उन्होंने रजक जातियों को विभिन्न राज्यों की सत्ताधारी समाज बना दिया। आगे आने वाले दिनों में केंद्र की सत्ता स्थाई रूप से अर्जक वर्ग के हाथों में आने की लड़ाई चल रही है। मंडल कमीशन की रिपोर्ट भारत में लागू होने के बाद इस आंदोलन ने जोर पकड़ लिया है। बहुजन समाज को इकठ्ठा रहने की जरूरत है। यदि बहुजन समाज इकट्ठा हो गया तो शोषक जमात को अपनी फूंक से उड़ा देगा।

ललई सिंह जी 1933 में ग्वालियर की सशस्त्र पुलिस बल में बतौर सिपाही भर्ती हुए थे। पर कांग्रेस के स्वराज का समर्थन करने के कारण, जो ब्रिटिश हुकूमत में जुर्म था, वह दो साल बाद बरखास्त कर दिए गए। उन्होंने अपील की और अपील में वह बहाल कर दिए गए। 1946 में उन्होंने ग्वालियर में ही ‘नान-गजेटेड मुलाजिमान पुलिस एण्ड आर्मी संघ’ की स्थापना की, और उसके सर्वसम्मति से अध्यक्ष बने। इस संघ के द्वारा उन्होंने पुलिस कर्मियों की समस्याएं उठाईं और उनके लिए उच्च अधिकारियों से लड़े। जब अमेरिका में भारतीयों ने लाला हरदयाल के नेतृत्व में ‘गदर पार्टी’ बनाई, तो भारतीय सेना के जवानों को स्वतन्त्रता आन्दोलन से जोड़ने के लिए ‘सोल्जर आफ दि वार’ पुस्तक लिखी गई थी। ललई सिंह ने उसी की तर्ज पर 1946 में ‘सिपाही की तबाही; किताब लिखी, जो छपी तो नहीं थी, पर टाइप करके उसे सिपाहियों में बांट दिया गया था। लेकिन जैसे ही सेना के इंस्पेक्टर जनरल को इस किताब के बारे में पता चला, उसने अपनी विशेष आज्ञा से उसे जब्त कर लिया। ‘सिपाही की तबाही’ वार्तालाप शैली में लिखी गई किताब थी। यदि वह प्रकाशित हुई होती, तो उसकी तुलना आज महात्मा जोतिबा फुले की ‘किसान का कोड़ा’ और ‘अछूतों की कैफियत’ किताबों से होती। श्री जगन्नाथ आदित्य ने अपनी पुस्तक में ‘सिपाही की तबाही’ से कुछ अंशों को उद्धरित किया है, जिनमें सिपाही और उसकी पत्नी के बीच घर की बदहाली पर संवाद होता है। अन्त में लिखा है- ‘वास्तव में पादरियों, मुल्ला-मौलवियों-पुरोहितों की अनदेखी कल्पना स्वर्ग तथा नर्क नाम की बात बिल्कुल झूठ है। यह है आँखों देखी हुई, सब पर बीती हुई सच्ची नरक की व्यवस्था सिपाही के घर की। इस नर्क की व्यवस्था का कारण है-सिन्धिया गवर्नमेन्ट की बदइन्तजामी। अतः इसे प्रत्येक दशा में पलटना है, समाप्त करना है। ‘जनता पर जनता का शासन हो’, तब अपनी सब माँगें मन्जूर होंगी।’

इसके एक साल बाद, ललई सिंह ने ग्वालियर पुलिस और आर्मी में हड़ताल करा दी, जिसके परिणामस्वरूप 29 मार्च 1947 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। मुकदमा चला, और उन्हें पाँच साल के सश्रम कारावास की सजा हुई। 9 महीने जेल में रहे, और जब भारत आजाद हुआ, तब ग्वालियर स्टेट के भारत गणराज्य में विलय के बाद, वह 12 जनवरी 1948 को जेल से रिहा हुए।

1950 में सरकारी सेवा से निवृत्त होने के बाद वह ग्वालियर से अपने गाँव झींझक आ गए और आजीवन वहीं रहे। अब वह समाज को बदलने की दिशा में कार्य कर रहे थे। इसके लिए साहित्य को माध्यम बनाया। उन्होंने ‘अशोक पुस्तकालय’ नाम से प्रकाशन संस्था कायम की और अपना प्रिन्टिंग लगाया, जिसका नाम ‘सस्ता प्रेस’ रखा था। नाटक लिखने की प्रतिभा उनमें अद्भुत थी, जिसका उदाहरण ‘सिपाही की तबाही’ में हम देख चुके हैं। एक तरह से हम कह सकते हैं कि उनके लेखन की शुरुआत नाटक विधा से ही हुई थी। उन्होंने पाँच नाटक लिखे- (1) अंगुलीमाल नाटक, (2) शम्बूक वध, (3) सन्त माया बलिदान, (4) एकलव्य, और (5) नाग यज्ञ नाटक। ‘सन्त माया बलिदान’ नाटक सबसे पहले स्वामी अछूतानन्द जी ने 1926 में लिखा था,  जो अनुपलब्ध था। ललई सिंह जी ने उसे लिखकर एक अत्यन्त आवश्यक कार्य किया था। गद्य में भी उन्होंने तीन किताबें लिखीं थीं- (1) शोषितों पर धार्मिक डकैती, (2) शोषितों पर राजनीतिक डकैती, और (3) सामाजिक विषमता कैसे समाप्त हो? इसके सिवा उनके राजनीतिक-सामाजिक राकेट तो लाजवाब थे। यह साहित्य हिन्दी साहित्य के समानान्तर नई वैचारिक क्रान्ति का साहित्य था, जिसने हिन्दू नायकों और हिन्दू संस्कृति पर दलित वर्गों की सोच को बदल दिया था। यह नया विमर्श था, जिसका हिन्दी साहित्य में अभाव था। ललई सिंह के इस साहित्य ने बहुजनों में ब्राह्मणवाद के विरुद्ध विद्रोही चेतना पैदा की और उनमें श्रमण संस्कृति और वैचारिकी का नवजागरण किया।

इसी समय (सम्भवतः 1967 में) पेरियार ई. वी. रामास्वामी नायकर एक अल्पसंख्यक सम्मेलन में लखनऊ आए थे। उस काल में वह पूरे देश के बहुजनों के क्रान्तिकारी नेता बने हुए थे। ललई सिंह जी भी उनसे बेहद प्रभावित थे। वह उनके सम्पर्क में आए और उन्होंने उनसे उनकी पुस्तक ‘दि रामायना: ए ट्रू रीडिंग’ को हिन्दी में लाने के लिए अनुमति माँगी। लेकिन नायकर जी अपनी तीन अन्य किताबों के साथ इसके अनुवाद की अनुमति भी चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु जी को दे चुके थे। इसलिए नायकर जी ने ललई सिंह जी से उस पर कुछ समय बाद विचार करने को कहा। जिज्ञासु जी ने उनकी तीन पुस्तकें, जिनमें पहली, उनका संक्षिप्त जीवन परिचय (ए पेन पोट्रेट), दूसरी ‘फिलोसोफी’ (भाषण) और तीसरी, सोशल रिफार्म एण्ड रेवोलूशन’ (जिसके अंग्रेजी लेखक ए. एम. धर्मालिंगन थे), को श्री दयाराम जैन से अनुवाद कराकर एक ही जिल्द में ‘पेरियर ई. वी. रामास्वामी नायकर’ नाम से बहुजन कल्याण माला के अन्तर्गत 1970 में प्रकाशित करा दिया था। पर, ‘दि रामायना: ए ट्रू रीडिंग’ का अनुवाद वह नहीं करा सके थे। अन्ततः, नायकर जी ने 1 जुलाई 1968 को पत्र लिखकर ललई सिंह को ‘दि रामायना: ए ट्रू रीडिंग’ के अनुवाद और प्रकाशन की अनुमति प्रदान कर दी। उन्होंने अंगे्रजी में लिखा था- ‘जिन्हें पहले अनुमति दी थी, वह उसे अभी तक प्रकाशित नहीं कर सके हैं, इसलिए आपको अनुमति दी जाती है।

1968 में ही ललई सिंह जी ने ‘दि रामायना: ए ट्रू रीडिंग’ का हिन्दी अनुवाद करा कर ‘सच्ची रामायण’ नाम से प्रकाशित कर दिया। छपते ही सच्ची रामायण ने वह धूम मचाई कि हिन्दू धर्मध्वजी उसके विरोध में सड़कों पर उतर आए। तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने दबाव में आकर 8 दिसम्बर 1969 को धार्मिक भावनाएं भड़काने के आरोप में किताब को जब्त कर लिया। मामला हाईकोर्ट में गया। वहाँ  एडवोकेट बनवारी लाल यादव ने ‘सच्ची रामायण’ के पक्ष में जबरदस्त पैरवी की। फलतः 19 जनवरी 1971 को जस्टिस ए. कीर्ति ने जब्ती का आदेश निरस्त करते हुए सरकार को निर्देश दिया कि वह सभी जब्तशुदा पुस्तकें वापिस करे और अपीलान्ट ललई सिंह को तीन सौ रुपए खर्च दे।

नायकर जी ने ‘दि रामायना: ए ट्रू रीडिंग’ में अपने विचार के समर्थन में सन्दर्भ नहीं दिए थे। उस अभाव को पूरा करने के लिए ललई सिंह ने ‘सच्ची रामायण की चाबी’ किताब लिखी, जिसमें उन्होंने वे तमाम साक्ष्य और हवाले दिए, जो ‘सच्ची रामायण’ को समझने के लिए जरूरी थे।

श्री ललई सिंह पेरियार ललई सिंह कैसे बने, इस सम्बन्ध में श्री जगन्नाथ आदित्य लिखते हैं कि 24 दिसम्बर 1973 को नायकर जी की मृत्यु के बाद एक शोक सभा में ललई सिंह जी को भी बुलाया गया था। यह सभा कहाँ हुई थी,  इसका जिक्र उन्होंने नहीं किया है। इस सभा में ललई सिंह के भाषण से दक्षिण भारत के लोग बहुत खुश हुए। उसी सभा में उन्होंने ललई सिंह को अगला पेरियर घोषित कर दिया। उसी समय से वह हिन्दी क्षेत्र में पेरियर के रूप में प्रसिद्ध हो गए।

बहुजनों के इस अप्रितम योद्धा,  क्रांतिकारी लेखक, प्रकाशक और ब्राह्मणवाद के विरुद्ध विद्रोही चेतना के प्रखर नायक ललई सिंह यादव का जन्म 1 सितम्बर 1921 को कानपुर के झींझक रेलवे स्टेशन के निकट कठारा गाँव में हुआ था और 7 फरवरी 1993 को उनके भौतिक शरीर ने अपनी जीवन-यात्रा पूरी की थी। उनके कृतित्व पर एक बड़े साहित्यिक काम की योजना मेरे हाथ में है, देखिए कब तक सफलता मिलती है।

*****