भारत में आरक्षण का इतिहास- (1882 से अब तक)
भारत के संसद में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व के लिए भी आरक्षण नीति को विस्तारित किया गया है। भारत की केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षा में 27% आरक्षण दे रखा है और विभिन्न राज्य आरक्षणों में वृद्धि के लिए क़ानून बना सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार 50% से अधिक आरक्षण नहीं किया जा सकता, लेकिन कुछ राज्यों अधिक है। कम-प्रतिनिधित्व समूहों की पहचान के लिए सबसे पुराना मानदंड जाति है।
मूलभूत सिद्धांत यह है कि अभिज्ञेय समूहों का कम-प्रतिनिधित्व भारतीय जाति व्यवस्था की विरासत है। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के संविधान ने पहले के कुछ समूहों को अनुसूचित जाति (अजा) और अनुसूचित जनजाति (अजजा) के रूप में सूचीबद्ध किया। संविधान निर्माताओं का मानना था कि जाति व्यवस्था के कारण अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ऐतिहासिक रूप से दलित रहे और उन्हें भारतीय समाज में सम्मान तथा समान अवसर नहीं दिया गया और इसीलिए राष्ट्र-निर्माण की गतिविधियों में उनकी हिस्सेदारी कम रही। संविधान ने सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं की सीटों तथा सरकारी/सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में अजा और अजजा के लिए 15% और 7.5% का आरक्षण रखा है। बाद में, अन्य वर्गों के लिए भी आरक्षण शुरू किया गया। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% तय हो गयी। हालांकि, राज्य कानूनों ने इस 50% की सीमा को पार कर लिया है और सर्वोच्च न्यायलय में इन पर मुकदमे चल रहे हैं। उदाहरण के लिए जाति-आधारित आरक्षण तमिलनाडु की करीब 87% जनसंख्या पर लागू होता है ।
विंध्य के दक्षिण में प्रेसीडेंसी क्षेत्रों और रियासतों के एक बड़े क्षेत्र में पिछड़े वर्गो (बीसी) के लिए आजादी से बहुत पहले आरक्षण की शुरुआत हुई थी। महाराष्ट्र में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति साहूजी महाराज ने 1902 में पिछड़े वर्ग से गरीबी दूर करने और राज्य प्रशासन में उन्हें उनकी हिस्सेदारी देने के लिए आरक्षण का प्रारम्भ किया था। कोल्हापुर राज्य में पिछड़े वर्गों/समुदायों को नौकरियों में आरक्षण देने के लिए 1902 की अधिसूचना जारी की गयी थी। यह अधिसूचना भारत में दलित/पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने वाला पहला सरकारी आदेश है।
देश भर में समान रूप से अस्पृश्यता की अवधारणा का अभ्यास नहीं हुआ करता था, इसलिए दलित वर्गों की पहचान कोई आसान काम नहीं था। इसके अलावा, अलगाव और अस्पृश्यता की प्रथा भारत के दक्षिणी भागों में अधिक प्रचलित रही और उत्तरी भारत में अधिक फैली हुई थी। एक अतिरिक्त जटिलता यह है कि कुछ जातियाँ/समुदाय जो एक प्रांत में अछूत माने जाते हैं लेकिन अन्य प्रांतों में नहीं। परंपरागत व्यवसायों के आधार पर कुछ जातियों को हिंदू और गैर-हिंदू दोनों समुदायों में स्थान प्राप्त है। जातियों के सूचीकरण का एक लंबा इतिहास है, मनु के साथ हमारे इतिहास के प्रारंभिक काल से जिसकी शुरुआत होती है। मध्ययुगीन वृतांतों में देश के विभिन्न भागों में स्थित समुदायों के विवरण शामिल हैं। ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान, 1806 के बाद व्यापक पैमाने पर सूचीकरण का काम किया गया था। 1881 से 1931 के बीच जनगणना के समय इस प्रक्रिया में तेजी आई।
पिछड़े वर्गों का आंदोलन भी सबसे पहले दक्षिण भारत, विशेषकर तमिलनाडु में जोर पकड़ा। देश के कुछ समाज सुधारकों के सतत प्रयासों से अगड़े वर्ग द्वारा अपने और अछूतों के बीच बनायी गयी दीवार पूरी तरह से ढह गयी; उन सुधारकों में शामिल हैं पेरियार, अयोथीदास, ज्योतिबा फुले, छत्रपति साहूजी महाराज और बाबा साहेब अम्बेडकर बाद में इसी कड़ी में मान्यवर कांशीराम जी का नाम उल्लेखनीय है, जिनको आधुनिक समय का सबसे बड़ा बहुजन आंदोलनकारी माना गया है। जातियों को वर्ग में परिवर्तित करके तथाकथित शूद्र या पिछड़े समाज की जातियों को जागरूक करके उन्हें सत्ताधारी होने के लिए प्रेरित किया।
"मनु स्मृति" जैसे प्राचीन ग्रंथों के अनुसार जाति एक "वर्णाश्रम धर्म" है, जिसका अर्थ हुआ "वर्ग या उपजीविका के अनुसार पदों का दिया जाना"।
आजादी से पहले के घटनाक्रम
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1882 - हंटर आयोग की नियुक्ति हुई. महात्मा ज्योतिराव फुले ने नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ सरकारी नौकरियों में सभी के लिए आनुपातिक आरक्षण/प्रतिनिधित्व की मांग की।
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1891- त्रावणकोर के सामंती रियासत में 1891 के आरंभ में सार्वजनिक सेवा में योग्य मूल निवासियों की अनदेखी करके विदेशियों को भर्ती करने के खिलाफ प्रदर्शन के साथ सरकारी नौकरियों में आरक्षण के लिए मांग की गयी।
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1901-02 में कोल्हापुर रियासत के छत्रपति शाहूजी महाराज ने वंचित तबके के लिए आरक्षण व्यवस्था शुरू की। सभी को मुफ्त शिक्षा सुनिश्चित कराने के साथ छात्रों की सुविधा के लिए अनेक हॉस्टल खोले। उन्होंने ऐसे प्रावधान किए ताकि सभी को समान आधार पर अवसर मिल सके। देश में वर्ग-विहीन समाज की वकालत करते हुए अस्पृश्यता को खत्म करने की मांग की। 26 जुलाई 1902 में कोल्हापुर रियासत की अधिसूचना में पिछड़े/वंचित समुदाय के लिए नौकरियों में 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था सुनिश्चित की गई। देश में वंचित तबके के लिए आरक्षण देने संबंधी आधिकारिक रूप से वह पहला राजकीय आदेश माना जाता है। सामंती बड़ौदा और मैसूर की रियासतों में आरक्षण पहले से लागू थे।
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1908- अंग्रेजों द्वारा बहुत सारी जातियों और समुदायों के पक्ष में, प्रशासन में जिनका थोड़ा-बहुत हिस्सा था, के लिए आरक्षण शुरू किया गया।
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1909 - भारत सरकार अधिनियम 1909 में आरक्षण का प्रावधान किया गया।
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1919- मोंटागु-चेम्सफोर्ड सुधारों को शुरु किया गया।
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1919 - भारत सरकार अधिनियम 1919 में आरक्षण का प्रावधान किया गया।
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1921 - मद्रास प्रेसीडेंसी ने जातिगत सरकारी आज्ञापत्र जारी किया, जिसमें गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, भारतीय-एंग्लो/ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए आठ प्रतिशत आरक्षण दिया गया था।
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1935 - भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रस्ताव पास किया, जो पूना समझौता कहलाता है, जिसमें दलित वर्ग के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए।
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1935- भारत सरकार अधिनियम 1935 में आरक्षण का प्रावधान किया गया।
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1942 - बी आर अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के समर्थन के लिए अखिल भारतीय दलित वर्ग महासंघ की स्थापना की, उन्होंने सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की ।
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1946 - 1946 भारत में कैबिनेट मिशन अन्य कई सिफारिशों के साथ आनुपातिक प्रतिनिधित्व का प्रस्ताव दिया ।
आजादी के बाद के घटनाक्रम
1947 में भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की, डॉ॰ अम्बेडकर को संविधान भारतीय के लिए मसौदा समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। भारतीय संविधान ने केवल धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है। बल्कि सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करते हुए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछले वर्गों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएं रखी गयी हैं। 10 सालों के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए हैं। (हर दस साल के बाद सांविधानिक संशोधन के जरिए इन्हें बढ़ा दिया जाता है)।
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1947-1950 - संविधान सभा में बहस।
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26.01.1950- भारत का संविधान लागू हुआ।
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1953 - सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए कालेलकर आयोग को स्थापित किया गया। जहां तक अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का संबंध है रिपोर्ट को स्वीकार किया गया। अन्य पिछड़ी जाति (ओबीसी) वर्ग के लिए की गयी सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया गया।
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1956- काका कालेलकर की रिपोर्ट के अनुसार अनुसूचियों में संशोधन किया गया।
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1976- अनुसूचियों में संशोधन किया गया।
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1979 - मंडल आयोग: मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी सरकार ने सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की पहचान करने के लिए 1979 में इस आयोग का गठन किया। उसके अध्यक्ष संसद सदस्य बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल थे। आकलन के आधार पर सीटों के आरक्षण और कोटे का निर्धारण करना भी आयोग का मकसद था। इसके पास अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) में शामिल उप-जातियों का वास्तविक आंकड़ा नहीं था। आयोग ने 1930 के जनसंख्या आंकड़ों के आधार पर 1,257 समुदायों को पिछड़ा घोषित करते हुए उनकी आबादी 52 प्रतिशत निर्धारित की।
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1980 - आयोग ने एक रिपोर्ट पेश की और मौजूदा कोटा में बदलाव करते हुए 22% से 49.5% वृद्धि करने की सिफारिश की । 2006 तक पिछड़ी जातियों की सूची में जातियों की संख्या 2297 तक पहुंच गयी, जो मंडल आयोग द्वारा तैयार समुदाय सूची में 60% की वृद्धि है।
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1990 मंडल आयोग की सिफारिशें विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा सरकारी नौकरियों में लागू किया गया। छात्र संगठनों ने राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन शुरू किया। दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह की कोशिश की। कई छात्रों ने इसका अनुसरण किया।
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मंडल कमीशन के बाद के घटनाक्रम।
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1991- नरसिम्हा राव सरकार ने अलग से अगड़ी जातियों में गरीबों के लिए 10% आरक्षण शुरू किया।
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1992- इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को सही ठहराया ।
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1995- संसद ने 77वें सांविधानिक संशोधन द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की तरक्की के लिए आरक्षण का समर्थन करते हुए अनुच्छेद 16(4)(ए) डाला. बाद में आगे भी 85वें संशोधन द्वारा इसमें अनुवर्ती वरिष्ठता को शामिल किया गया था।
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1998- केंद्र सरकार ने विभिन्न सामाजिक समुदायों की आर्थिक और शैक्षिक स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए पहली बार राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण किया। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण का आंकड़ा 32% है. जनगणना के आंकड़ों के साथ समझौ्तावादी पक्षपातपूर्ण राजनीति के कारण अन्य पिछड़े वर्ग की सटीक संख्या को लेकर भारत में काफी बहस चलती रहती है। आमतौर पर इसे आकार में बड़े होने का अनुमान लगाया गया है, लेकिन यह या तो मंडल आयोग द्वारा या और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा दिए गए आंकड़े से कम है। मंडल आयोग ने आंकड़े में जोड़-तोड़ करने की आलोचना की है।
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12 अगस्त 2005- उच्चतम न्यायालय ने पी. ए. इनामदार और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य के मामले में 12 अगस्त 2005 को 7 जजों द्वारा सर्वसम्मति से फैसला सुनाते हुए घोषित किया कि राज्य पेशेवर कॉलेजों समेत सहायता प्राप्त कॉलेजों में अपनी आरक्षण नीति को अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक पर नहीं थोप सकता हैं।
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2005- निजी शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिए आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए 93वां सांविधानिक संशोधन लाया गया। इसने अगस्त 2005 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को प्रभावी रूप से उलट दिया।
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2006 - सर्वोच्च न्यायालय के सांविधानिक पीठ में एम. नागराज और अन्य बनाम यूनियन बैंक और अन्य के मामले में सांविधानिक वैधता की धारा 16(4) (ए), 16(4) (बी) और धारा 335 के प्रावधान को सही ठहराया गया।
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2006 - से केंद्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण शुरू हुआ। कुल आरक्षण 49.5% तक चला गया।
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2007 - केंद्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में ओबीसी (OBC) आरक्षण पर सर्वोच्च न्यायालय ने स्थगन दे दिया।
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2008 - भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 10 अप्रैल 2008 को सरकारी धन से पोषित संस्थानों में 27% ओबीसी (OBC) कोटा शुरू करने के लिए सरकारी कदम को सही ठहराया। न्यायालय ने स्पष्ट रूप से अपनी पूर्व स्थिति को दोहराते हुए कहा कि "मलाईदार परत" को आरक्षण नीति के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए. क्या आरक्षण के निजी संस्थानों आरक्षण की गुंजाइश बनायी जा सकती है, सर्वोच्च न्यायालय इस सवाल का जवाब देने में यह कहते हुए कतरा गया कि निजी संस्थानों में आरक्षण कानून बनने पर ही इस मुद्दे पर निर्णय तभी लिया जा सकता है। समर्थन करने वालों की ओर से इस निर्णय पर मिश्रित प्रतिक्रियाएं आयीं और तीन-चौथाई ने इसका विरोध किया। अदालत ने सांसदों और विधायकों के बच्चों को भी कोटे से बाहर रखने का अनुरोध किया है।
संवैधानिक प्रावधान
संविधान के भाग तीन में समानता के अधिकार की भावना निहित है। इसके अंतर्गत अनुच्छेद 15 में प्रावधान है कि किसी व्यक्ति के साथ जाति, प्रजाति, लिंग, धर्म या जन्म के स्थान पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। 15(4) के मुताबिक यदि राज्य को लगता है तो सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के लिए वह विशेष प्रावधान कर सकता है। अनुच्छेद 16 में अवसरों की समानता की बात कही गई है। 16(4) के मुताबिक यदि राज्य को लगता है कि सरकारी सेवाओं में पिछड़े वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो वह उनके लिए पदों को आरक्षित कर सकता है। अनुच्छेद 330 के तहत संसद और 332 में राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित की गई हैं।
राष्ट्रीय आज़ाद मंच द्वारा आरक्षण के विरोध में तर्क (जितेंद्र झा 'गुड्डू', राष्ट्रीय अध्यक्ष)
आरक्षण की कहानी देश में तब शुरू हुई थी जब 1882में हंटर आयोग बना। उस समय विख्यात समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले ने सभी के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा तथा अंग्रेज सरकार की नौकरियों में आनुपातिक आरक्षण की मांग की थी। बड़ौदा और मैसूर की रियासतों में आरक्षण पहले से लागू था। सन 1891 में त्रावणकोर के सामंत ने जब रियासत की नौकरियों में स्थानीय योग्य लोगों को दरकिनार कर विदेशियों को नौकरी देने की मनमानी शुरू की तो उनके खिलाफ प्रदर्शन हुए तथा स्थानीय लोगों ने अपने लिए आरक्षण की मांग उठाई।1902 में महाराष्ट्र के सामंती रियासत कोल्हापुर में शाहू महाराज द्वारा आरक्षण शुरू किया गया। 1908 में अंग्रेजों द्वारा पहली बार देश के प्रशासन में हिस्सेदारी निभाने वाली जातियों और समुदायों के लिए आरक्षण शुरू किया। 1909 में भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान किया गया। 1919 में मोंटाग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों को शुरु किया गया जिसमें आरक्षण के थे कुछ नियम आरक्षण के भी प्रावधान थे। 1921 में मद्रास प्रेसीडेंसी ने ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, भारतीय-एंग्लो/ ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए 8 प्रतिशत आरक्षण दिया। बी आर आंबेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के लिए सन् 1942 में सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की थी।1950 में अंबेडकर की कोशिशों से संविधान की धारा 330 और 332 के अंतर्गत यह प्रावधान तय हुआ कि लोकसभा में और राज्यों की विधानसभाओं में इनके लिये कुछ सीटें आरक्षित रखी जायेंगी।
आरक्षण को लेकर धर्म के आधार पर किसी के साथ कोई भेद भाव नही किया जायेगा: आजाद भारत के संविधान में यह सुनिश्चित किया गया कि नस्ल, जाति, लिंग और जन्म स्थान तथा धर्म के आधार पर किसी के साथ कोई भेद भाव नहीं बरता जाएगा साथ ही सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएं रखी गईं। राजशेखरैया ने अपने लेख ‘डॉ. आंबेडकर एण्ड पालिटिकल मोबिलाइजेशन ऍाफ द शेड्यूल कॉस्ट्स’ (1979) में कहा है कि डॉ. आंबेडकर दलितों को स्वावलंबी बनाना चाहते थे। यही आश्चर्यजनक कारण है कि संविधान सभा में दलितों के आरक्षण पर जितना जोर सरदार पटेल ने दिया उतना डॉ. आंबेडकर ने नही दिया।
आरक्षण का मतलब बैसाखी नही सहारा- डॉ अम्बेडकर: डॉ अम्बेडकर ने स्वयं कहा था कि “दस साल में यह समीक्षा हो कि जिनको आरक्षण दिया जा रहा है क्या उनकी स्थिति में कुछ सुधार हुआ कि नहीं? उन्होंने यह भी स्पष्ट रूप में कहा यदि आरक्षण से यदि किसी वर्ग का विकास हो जाता है तो उसके आगे कि पीढ़ी को इस व्यवस्था का लाभ नही देना चाहिए क्योकि आरक्षण का मतलब बैसाखी नही है जिसके सहारे आजीवन जिंदगी जिया जाये, यह तो मात्र एक आधार है विकसित होने का |
जाति धर्म पर नहीं आय पर आधारित हो आरक्षण - महात्मा गांधी: महात्मा गांधी ने 'हरिजन' के 12 दिसंबर 1936 के संस्करण में लिखा कि धर्म के आधार पर दलित समाज को आरक्षण देना अनुचित होगा। आरक्षण का धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है और सरकारी मदद केवल उसी को मिलनी चाहिए कि जो सामाजिक स्तर पर पिछड़ा हुआ हो।
आरक्षण लोगो के बीच दरार पैदा करेगी- पंडित जवाहर लाल नेहरू : इसी तरह 26 मई 1949 को जब पंडित जवाहर लाल नेहरू कांस्टिट्वेंट असेंबली में भाषण दे रहे थे तो उन्होंने जोर देकर कहा था कि यदि हम किसी अल्पसंख्यक वर्ग को आरक्षण देंगे तो उससे समाज का संतुलन बिगड़ेगा। ऐसा आरक्षण देने से भाई-भाई के बीच दरार पैदा हो जाएगी।
आरक्षण को लेकर पड़ा वोट, सात में से पांच वोट आरक्षण के खिलाफ: आरक्षण के मुद्दे पर बनी कमिटी की रिपोर्ट के आधार पर। 22 दिसंबर, 1949 को जब धारा 292 और 294 के तहत मतदान कराया गया था तो उस वक्त सात में से पांच वोट आरक्षण के खिलाफ पड़े थे। मौलाना आजाद, मौलाना हिफ्ज- उर-रहमान, बेगम एजाज रसूल, तजम्मुल हुसैन और हुसैनभाई लालजी ने आरक्षण के विरोध में वोट डाला था।
आरक्षण को लेकर राजनेताओं की सोच अंग्रेजों की सोच से भी ज्यादा निकली गन्दी: भारतीय संविधान ने जो आरक्षण की व्यव्यस्था उत्पत्ति काल में दी थी उसका एक मात्र उद्देश्य कमजोर और दबे कुचले लोगों के जीवन स्तर की ऊपर उठाना था। लेकिन देश के राजनेताओं की सोच अंग्रेजों की सोच से भी ज्यादा गन्दी निकली। आरक्षण का समय समाप्त होने के बाद भी अपनी व्यक्तिगत कुंठा को तृप्त करने के लिए वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें न सिर्फ अपनी मर्जी से करवाई बल्कि उन्हें लागू भी किया। उस समय सारे सवर्ण छात्रों ने विधान-सभा और संसद के सामने आत्मदाह किये थे।
आरक्षण बना आज के लोगो के लिये मुसीबत: नैनी जेल में न जाने कितने ही छात्रों को कैद करके यातनाएं दी गई थी। कितनों का कोई अता-पता ही नहीं चला। तब से लेकर आज तक एक ऐसी व्यवस्था कायम कर दी गई कि ऊंची जातियों के कमजोर हों या मेधावी सभी विद्यार्थी और नवयुवक इसे ढोने के लिए विवश हैं।
आयोग की रिपोर्ट में एक नया वर्ग आया उभरकरOBC यानी अदर बैकवर्ड क्लास: सामने 1953 में तो कालेलकर आयोग की रिपोर्ट में एक नया वर्ग उभरकर सामने आया OBC यानी अदर बैकवर्ड क्लास। इसने भी कोढ़ में खाज का काम किया। बिना परिश्रम किये सफलता पाने के सपनों में कुछ और लोग भी जुड़ गये।
आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय: साल 2006 में तो शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण इस कदर बढाकि वह 95% के नजदीक ही पहुंच गया था। 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी वित्तपोषित संस्थानों में27% ओबीसी कोटा शुरू करने के लिए सरकारी कदम को सही ठहराया पर सम्पन्न तबके को इससे बहर रखने को कहा । आज संविधान को लागू हुए 65 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं और दलितों का आरक्षण भी 10 वर्षों से बढ़कर65 वर्ष पूर्ण कर चुका है किन्तु क्या दलित समाज स्वावलंबी बन पाया? सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यपालिका को निर्देश दिया था कि वह बराबर नजर रखें कि आरक्षण का वास्तविक लाभ किसे मिल रहा है।
निर्णय से हटकर दिखी हकीकत: परन्तु वास्तविकता ये है कि जातिगत आरक्षण का सारा लाभ तो वैसे लोग ले लेते हैं जिनके पास सबकुछ है और जिन्हे आरक्षण की ज़रूरत ही नहीं है। पिछड़े वर्गों के हजारों-लाखों व्यक्ति वर्तमान उच्च पदों पर हैं। कुछ अत्यन्त धनवान हैं, कुछ करोड़पति अरबपति हैं,फिर भी वे और उनके बच्चे आरक्षण सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। ऐसे सम्पन्न लोगों के लिए आरक्षण सुविधाएँ कहाँ तक न्यायोचित है? कुछ हिन्दू जो मुस्लिम या ईसाई धर्म में परिवर्तित हो चुके हैं, अर्थात् सामान्य वर्ग में आ चुके हैं, फिर भी वे आरक्षण नीति के अन्तर्गत अनुचित रूप से विभिन्न सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं।
आरक्षण के पक्ष में तर्क (कुशालचंद्र एडवोकेट, पाली राजस्थान)
1902 में कोलाहपुर के छत्रपति शाहू जी महाराजा ने अपने राज्य में 50 प्रतिशत प्रतिनिधित्व व्यवस्था लागू किया। 1930, १९३१और 1932 में डॉ अम्बेडकर ने प्रतिनिधित्व की मांग गोलमेज सम्मेलन में की। जिस पर अंग्रेजों ने अछूतों को कम्युनल अवार्ड के अंतगर्त पृथक निर्वाचन का अधिकार दिया। जो हजारों वर्षों बाद मिला पहला अधिकार था। जिस पर गांधी ने आमरण अनशन किया। गांधी व् अम्बेडकर के बीच समझोता हुआ जिसे “पूना पेक्ट” के रूप में जाना जाता है। जिससे अछूतों को हर स्तर पर आरक्षण की व्यवस्था की गयी। अथार्त् यह 1932 से लागू है।
भारत के संविधान में आरक्षण शब्द नही है बल्कि उसमें प्रतिनिधित्व शब्द है। देश में सच्चा लोकतन्त्र स्थापित करने के लिए सभी वर्गों को अनुपातिक प्रतिनिधित्व देना जरूरी होता है। सविधान सभा ने तय किया था की देश के विकास में सबकी भागीदारी होनी चाहिये इसलिये “सामाजिक व् आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गो” को प्रतिनिधित्व दिया गया है। सामाजिक पिछड़ापन अथार्त् वह शोषित वर्ग हजारों सालों से शोषण का शिकार रहा है उन्हें यह प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया गया है। भारत में आरक्षण शब्द राजनीतिक मुद्दों के कारण नेगेटिव सोच के रूप में बदल दिया गया है। जबकि यह वास्तविक रूप से “प्रतिनिधित्व शब्द” होना चाहिए।
आज देश में 3 प्रकार का आरक्षण अथार्त् प्रतिनिधित्व व्यवस्था है:
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शिक्षा में आरक्षण;
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सरकारी नोकरी में आरक्षण उक्त दोनों में कोई समय सीमा नही है;
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राजनेतिक आरक्षण जिसकी समय सीमा सविधान में 10 वर्ष थी लेकिन यह हर बार बिना बहस के बढ़ाई जाती है जबकि इसकी कभी भी मांग नहीं की जाती है यह राजनीतिक आरक्षण है;
दुनियां में भारत ही एक मात्र ऐसा देश है जहां वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था विद्धमान है। केवल शूद्र वर्ण के अंतर्गत 6743 जातियाँ है तथा प्रत्येक जाति में 12 उप जातियाँ हैं, जो सामाजिक रूप से ऊँचा–नीचा और गैर बराबरी पर आधारित समाज का निर्माण करती हैं। धर्म शास्त्रों के सपोर्ट के कारण उक्त व्यवस्था व्यक्ति – व्यक्ति में भेद पैदा करती है जो हमारे समाज के लिए कोढ़ है। जिसके कारण बहुसंख्यक शूद्र जातियां हजारों वर्षो से शोषण का शिकार हुई हैं उन्हें आज आरक्षण के द्वारा बराबरी के स्तर पर लाने का सफल प्रयास किया गया है। जिसे सविधान सभा के 300 सदस्यों ने सर्वसम्मति से लागू किया और यह माना कि जब तक समाज में गैर बराबरी है तब तक यह लागू रहेगा। वेसे इसमें समय - समय पर समीक्षा होनी चाहिए बशर्ते बैकलॉग पूर्ण हो ताकि देश व् समाज के विकास में सबकी हिस्सेदारी सुनिश्चित हो सके। लेकिन वोट बैंक की राजनीति के कारण यह सम्भव नही हो पाया है।
आरक्षण को कैसे खत्म किया जा सकता है?
आरक्षण का आधार जातियां है यदि जातियों को खत्म किया जाए तो आरक्षण स्वतः ही खत्म जाएगा: डॉ अम्बेडकर सविधान में जातिवाद खत्म करने का प्रावधान करना चाहते थे, लेकिन कट्टर जातिवादी समर्थकों ने यह प्रावधान नहीं बनाने दिया। लेकिन फिर भी संविधान में समता स्वतन्त्रता बन्धुता के कानून के कारण छुआछूत कम हुआ है। लेकिन आज भी देश के 60 प्रतिशत भागों में यह गन्दगी हमारे ही कुछ लोगों की वजह से विद्धमान है। आज देश के लोकतन्त्र के 4 पिलर हैं उनमें अनुपातिक प्रतिनिधित्व की जरूरत है तथा इनके अलावा अन्य क्षेत्रों में भी आरक्षण जरूरी है।
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विधायका: विधायका में आरक्षण है जिसकी वजह से देश में अधिकतर वर्गो का प्रतिनिधित्व है।
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कार्यपालिका: कार्यपालिका में आरक्षण है जिसकी वजह से देश में अधिकतर वर्गो का प्रतिनिधित्व है ।
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न्यायपालिका: लेकिन उच्च न्यायपालिका में आरक्षण न होने के कारण आज देश के 90 प्रतिशत जनसंख्या का केवल 5% भी प्रतिनिधित्व नही है। जो एक गम्भीर चिंता का विषय है अथार्त् यहा लोकतन्त्र का अच्छा उदाहरण नहीं है।
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मिडिया: मिडिया में आरक्षण नहीं होने के कारण आज देश के 90 प्रतिशत जनसंख्या का का प्रतिनिधित्व नगण्य है। यह लोकतन्त्र के लिए शर्मनाक बात है।
अन्य क्षेत्र -
देश एक परिवार की तरह होता है जिसमें कमजोर व् पिछड़े वर्गों को विकास के समान अवसर होने के साथ साथ विकास में सबकी हिस्सेदारी बराबर होना चाहिए इसलिये प्रतिनिधित्व अथार्त् आरक्षण जरूरी है।
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आरक्षण की व्यवस्था दुनियां के अधिकतर देशों में मौजूद है जिसके कारण अमेरिका में श्री बराक हुसेन ओबामा काले समुदाय से होने के बाबजूद भी राष्ट्रपति बनने में कामयाब हुए।
शक्ति के सभी स्रोतों में जनसँख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व जरूरी
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हमें यह समझना चाहिए की आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नही है यह प्रतिनिधित्व का मामला है।आज देश में 85 प्रतिशत जनसख्या को 49.5 प्रतिशत प्रतिनिधित्व दिया गया है वह अनुपातिक प्रतिनिधित्व नहीं हो पाया है। आज जनसँख्या के अनुपात में प्रति निधित्व देना सामाजिक न्याय की पुकार है। देश की शक्ति के सभी स्रोतों में जनसँख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व नीचे दी गई तालिका 1 के हिसाब से होना चाहिए।
Table 1: Social category-wise distribution of population as per Census data of 2011
Social group | Population (Numbers) | Percentage share in all Population |
Overall India Population | 1210854977 | 100.00 |
A-Scheduled Castes(SCs) | 201378372 | 16.63 |
B-Scheduled Tribes(CTs) | 104545716 | 8.63 |
C-Other Backward Classes(OBC) | 693940987 | 57.31 |
ग-1 पिछड़ी हिन्दू जातियां | 529143625 | 43.70 |
ग-2 गैर हिन्दू पिछड़ी जातियां | 101711818 | 8.40 |
ग-3 OBC में आने वाली जातियां (मराठा, जाट, कापू और पटेल) | 63085544 | 5.21 |
मराठा | 26759895 | 2.21 |
जाट | 12108550 | 1.00 |
कापू और पटेल | 24217100 | 2.00 |
D-Forward Classes among all religions | 211052023 | 17.43 |
घ-1 उन्नत हिन्दू जातियां तथा समुदाय | 149782761 | 12.37 |
ब्राह्मण (भूमिहारों को मिला कर) | 66839195 | 5.52 |
राजपूत | 47223344 | 3.90 |
वैश्य (बनियां) | 22764074 | 1.88 |
कायस्थ | 12956148 | 1.07 |
घ-2 उन्नत अल्पसंख्यक जातियां तथा समुदाय | 93962346 | 7.76 |
नोट: मंडल कमीशन की रिपोर्ट के चैप्टर 12 में दी गई तालिका में दिए गए समुदायों के प्रतिशत आंकड़ों को 2011 की जनगणना के मौजूद जनसँख्या आंकड़ों में समायोजित करके प्राप्त समुदायक जनसँख्या। (स्रोत: मंडल कमीशन की रिपोर्ट एवं 2011 की जनगणना रिपोर्ट।)
जाति के आंकड़ों से सुनिश्चित होगी समुदायों की हिस्सेदारी
लोकसभा चुनावों में अमित शाह और नरेंद्र मोदी की जोड़ी ने यूपी बिहार के ओबीसी नेताओं को न सिर्फ शिकस्त दी बल्कि बहुजन समाज (दलित/ पिछड़े/ अल्पसंख्यक) की सबसे बड़ी नेता माया वती की बसपा को ज़ीरो पर पहुंचा दिया, लेकिन उसी जोड़ी पर आज यह आरोप लग रहा है कि वे जाति आधारित जनगणना को सार्वजनिक होने से क्यों रोक रहे हैं। इस पर राजेश रामचंद्रन का एक दिलचस्प विश्लेषण इकोनोमिक टाइम्स में 12 जुलाई 2015 को छपा था । उन्होंने लिखा है कि जब रिपोर्ट से सम्बंधित अफसरों ने देखा कि इस गणना में अपर कास्ट की संख्या बहुत ही कम हैं, तो अब और भी प्रमाणिकता के साथ यह सवाल उठेगा कि जिसकी संख्या सबसे कम है सरकार में उसकी भागीदारी सबसे अधिक क्यों हैं? राजेश का अनुमान है कि इसी आशंका से रिपोर्ट दबाई जा रही है।
मोदी कैबिनेट में एकमात्र असरदार बैकवर्ड कास्ट मंत्री अगर कोई है तो ख़ुद मोदी ही हैं। 27 सदस्यों की उनकी कैबिनेट में वर्चस्व अपर कास्ट का ही है। 8 कैबिनेट मंत्री ब्राह्मण हैं और चार क्षत्रिय हैं। क्या बीजेपी इसलिए डर रही है कि इस रिपोर्ट के बाद सरकार पर शिक्षा और नौकरियों में ओबीसी आरक्षण कोटा बढ़ाने का दबाव बढ़ेगा।
लालू यादव और नीतीश कुमार जाति आधारित जनगणना की रिपोर्ट सार्वजनिक करने की मांग पर खूब ज़ोर दे रहे हैं। लालू यादव ने पटना में राजभवन तक मार्च किया और कहा कि प्रधानमंत्री मोदी बैकवर्ड कास्ट के दुश्मन हैं। अगर वे हितैषी हैं तो जाति जनगणना की रिपोर्ट सार्वजनिक करके दिखायें। नीतीश कुमार ने दिल्ली में कहा जब सर्वेक्षण कराया गया, गणना कराई गई तो उसकी रिपोर्ट आनी चाहिए और लोगों को संख्या के बारे में मालूम होना चाहिए और समाज के जो विभिन्न समूह हैं, उनकी आर्थिक स्थिति के बारे में, सामाजिक स्थिति के बारे में जानकारी मिलनी चाहिए।
दिल चस्प बात यह है की मंडल कमीशन की रिपोर्ट को संसद के पटल पर रखवाने वाले रामविलास पासवान ने कहा कि रिपोर्ट हम अपने समय से पब्लिश करेंगे, वैसे जाति की जनगणना की एक शर्त यह भी थी कि इसे पब्लिश नहीं किया जाएगा।
क्या पासवान सही बोल रहे हैं। मेरी जानकारी में ऐसी कोई शर्त नहीं है कि जाति की जनगणना सार्वजनिक नहीं की जाएगी। 2010 में जाति आधारित जनगणना को लेकर काफी बहस हुई थी। 1931 के बाद भले ही जाति की गिनती नहीं हुई लेकिन कहा गया कि 1980 के मंडल कमीशन से मोटा मोटी मालूम चल गया था कि देश में 54 प्रतिशत ओबीसी हैं, 30 प्रतिशत के आस पास अनुसूचित जाति और जनजाति और 16 से 18 प्रतिशत अपर कास्ट। अगर अपर कास्ट का अनुपात दस प्रतिशत से भी कम हुआ तो प्रतिनिधित्व के सवाल को लेकर भारतीय राजनीति में फिर से भूचाल आ सकता है।
Recommendations of the NCBC:
The matter pertaining to Sub-Categorization within the OBCs was considered at length in the various meetings of the Commission. A formal proposal in this regard has been sent to MoSJ&E giving the principles and parameters which need to be kept in mind on the basis of which the exercise of Sub-Categorization can be conducted on a nationwide basis by NCBC.
The Commission proposed that Other Backward Classes/ castes/ communities/ synonyms be divided into the following three categories:
NCBC, Annual Report-2014-15
(i) Extremely Backward Classes (Group ‘A’): This would include Aboriginal Tribes, Vimukta Jatis, nomadic and semi-nomadic tribes, wandering classes etc., whose traditional occupation is/was begging and pig-rearing, snake-charming, bird catching, game-sneakers, religious mendicants, drum beaters, bamboo workers, hunters and labourers, making mats from date leaves, basket making, agricultural labourers, earth workers, boatmen etc.
(ii) More Backward Classes (Group ‘B’): This would include vocational groups whose traditional occupation is/was making of brushes for weaving looms and dyers, painting and doll making, weavers, toddy tappers, cotton ginning, oil pressing, silk weavers, potters, sheep-rearing and combing weaving, earth workers, jute weaving and gunny bag making, butchers, tailoring, fishing, gardening, dancers and singers, barbers, petty traders in kumkum and bangles, dyeing, petty dealers in beads, needles etc., scheduled castes converted into Christianity and their progeny, washer men etc.
(iii) Backward Classes (Group ‘C’): This would include land owning, cultivating castes, agriculturists, business and trading castes and comparatively advanced castes/communities.
A policy decision by the Government of India and a formal approval of the proposed methodology needs to be conveyed by Mo/SJ&E before this work can be undertaken by NCBC with the help of an Expert Organisation like the ICSSR. Some commitment of funds on behalf of MoSJ&E would also be necessary to undertake this nationwide exercise. The full report can be accessed from the NCBC website. www.ncbc.nic.in
Socio-Economic Caste Census of 2011 (SECC – 2011)
General Census of India and SECC-2011:
When preparations were being made for conducting the General Census of India in 2011, NCBC had moved a proposal that a separate column should be added to the Census Questionnaire asking for OBC status of the individual (if any). NCBC was informed that since the General Census of India is being done under the Act of Parliament, there is no provision for collecting the OBC status of any person. Hence, Govt. of India decided to conduct a separate Caste Census called the Socio-Economic Caste Census (SECC) – 2011 in which the castes of the persons were to be collected for the first time since 1931.
The Registrar General of India (RGI) had undertaken a nationwide exercise to conduct a Caste Survey of the entire country through the Socio-Economic Caste Census (SECC) of 2011. The RGI has undertaken this work on behalf of the Ministry of Rural Development for Rural Areas and the Ministry of Housing, Urban Development and Poverty Alleviation (HUPA) for Urban Areas. The whole issue of SECC - 2011 was examined in the NCBC from the angle of enumeration of the population of the country belonging to the Other Backward Classes. It was observed that in the formats prescribed for the collection of the data belonging to the Castes/Tribes status of any person, in the relevant column No. 13 of the household Schedule (side “A”) the following options are indicated:-
(i) Scheduled Castes;
(ii) Scheduled Tribes;
(iii) Others
(iv) No Caste/Tribe
It may be seen that there is no separate entry for OBCs. In column 14 of the Schedule the respondents have been asked to give the specific name of their castes/tribes in case they have filled “Others” under column 13. The Commission felt that since there was a separate indication for SCs and STs, there should have been a separate indication for OBCs also on similar lines. Such a provision for OBCs was not made thus diluting the efforts to get a comprehensive picture of OBCs of the country. However, in the present Schedule canvassed during the SECC – 2011 OBCs have been clubbed with all “Other” castes except SCs/STs.
From this exercise, the NCBC feels that it will be very difficult to extract the exact figures of persons belonging to OBCs. Firstly, OBCs have been clubbed with all “Others” which includes all castes except SCs/STs. Secondly, the respondents have been asked to indicate the names of their castes/tribes separately. To collate this entry of the names of castes/tribes and then to fit it into a Category of OBCs or otherwise appears to be a gigantic task which might become well nearly impossible unless a supreme human effort is to put into the whole exercise. However, despite strong appeals by NCBC, no separate column for OBCs was provided in SECC-2011 form. The columns were SC, ST and “Others”. Another column was provided to collect the actual “Caste” of a person if he has checked “Others” column. In other words, the OBCs have got merged with all other castes of the population like Brahmins, Rajputs, Vaishyas etc., (except SC/ST). Since what has been done cannot be undone it is now necessary for the RGI to compute, tabulate and validate the caste data collected from all over the country. Thereafter the data for “Others” has to be culled out. After this is done, the data set of “Others” has to be gone through individually to see who belongs to OBC category. Not only will this exercise be mind-boggling, it will also require specialized groups in each of the States to go through approximately 90 crore entries and match them against the existing OBC caste names in each State. The NCBC does not think that this will be an exercise which can be done accurately or speedily. Here, it would not be out of place to mention that this issue of SECC-2011 was taken up with NCBC by Shri Bandaru Dattatreya, MP who had been the National Vice-President of BJP and the Chairman of the Parliamentary Committee on Welfare of OBCs. The request of Shri Dattatreya was placed before the full Commission meeting and the NCBC took up this matter with MoSJE and has been pursuing since then.
Utility of SECC-2011 Data
It is more than 4 years since the SECC - 2011 data was collected on the ground. It is yet to see the light of the day. Indications are that there is no immediate hope of getting any meaningful data on the socio-economic and educational backwardness status of the OBCs for the purpose of determining the backward classes under Article 16(4) and 15(4) of the Constitution of India.
There is also a requirement of setting up of an Expert Group in the Government of India which would look into the data collected from the Socio- Economic Caste Census - 2011 and collate the figures pertaining to separate castes including the OBCs. The Vice-Chairman of Niti Ayog has been nominated as the Chairman of this Expert Group which is yet to be constituted. Even after its constitution, it will take a very long time and a back-breaking effort, if at all, to arrive at the final figures pertaining to the OBCs of India.
In the recent Judgement of Ram Singh V/s Union of India (popularly known as Jat case), the Supreme Court has very clearly pointed out that any decision to include/exclude any caste from the OBC List should be based on CONTEMPORANEOUS DATA.
SECC- 2011 is the only detailed and recent caste survey which can provide us the latest Socio/Educational/Economic Caste data. This data can be used by NCBC for the following purposes:-
-
To include and exclude castes from the List of OBCs depending upon their Socio-Educational status.
-
To undertake the DECADAL REVIEW which is mandated by the NCBC Act to be undertaken every ten years but which has not been taken up since 1993. M/o SJE has been requesting NCBC to take up this DECADAL REVIEW but this has not been possible due to want of SECC-2011 data for OBCs. Only SECC-2011 data can provide NCBC with a sound and valid data-set on which to base considered recommendation for inclusion/exclusion from the list of OBCs and also to suggest other measures for upliftment and welfare of OBCs.
Decadal Review:
Section 11 of the NCBC Act requires that Revision of the Central Lists of OBCs is required to be undertaken after every ten years. However, since the SECC-2011 data is lacking on the critical aspect of traditional occupations of the castes, it will be very difficult for the NCBC to identify the social backwardness for the purpose of determining the Backward Classes status of the people concerned. In order to take up the work of revision of Backward Classes as envisaged by Section 11 of the NCBC Act, 1993, it is absolutely necessary to have details about the social backwardness for which details of traditional occupations of the castes are necessary. The NCBC has requested both the RGI as well as Ministry of Social Justice & Empowerment to go ahead in this direction to enable NCBC to fulfil its obligations.
At the initiative of MoSJ&E, a meeting was called by Secretary, MoSJ&E with Registrar General of India and Member - Secretary, NCBC on 23rd December, 2014. After detailed discussion of all issues concerned it was decided that MoSJ&E will move a Cabinet Note proposing the setting up of an Expert Group to cull out the OBC data from the SECC-2011 data which has been collected by the RGI. The Government has announced the appointment of the Vice- Chairman of the NITI-AYOG as the Chairman of this Expert Group. However, the Group is yet to be fully constituted and only after that will it start its long and arduous exercise.
Under these circumstances, NCBC HAS requested MoSJE that the Expert Group is fully constituted at an early date to enable the OBC data to be culled out from SECC-2011 to enable the Commission to consider a Decadal Review and also to consider the cases of Over Inclusion and Under Inclusion in the view of the recent Judgement of the Hon’ble Supreme Court.
Resolution of NCBC:
On 27th September, 2013, the full Commission passed a Resolution for providing constitutional or statutory mechanism for NCBC for implementation and enforcement of special provisions and safeguards provided under the Constitution, particularly with reference to Articles 15(4), 15 (5), 16 (4) and 16 (4B) of the Constitution of India or any other statutory measures for the welfare of Backward Classes. The matter await a decision from the Government.
Judgment of Hon’ble Supreme Court in Jat Case
The Central Government requested NCBC in letter dated 26.12.2013 to reconsider the inclusion of ‘Jats’ in the Central List of OBCs for the nine States of Haryana, Gujarat, NCT of Delhi, Uttarakhand, Uttar Pradesh, Himachal Pradesh, Rajasthan (Bharatpur and Dhaulpur Districts), Madhya Pradesh & Bihar and tender its Advice.
On examination of the various reports, material, books and oral submissions during the Public Hearing, it was concluded by the NCBC that ‘Jats’ as a class cannot be treated as a backward class. The Commission, therefore, rejected the request of the ‘Jat’ caste/community for their inclusion in the Central List of OBCs for all the concerned nine States. A comprehensive speaking Advice running into over 130 pages was prepared and sent to the Government in record time on 26.02.2014. A copy of this Advice is placed on the NCBC website www.ncbc.nic.in.
However, despite this rejection Advice of NCBC, the Government of India, went ahead with the inclusion of Jat caste/community in the Central List of OBCs for all the nine States and notified their inclusion vide Gazette Notification No. 20012/129/2009-BC-II dated 04.03.2014. Under the NCBC Act, the Government is required to record and to lay on the table of the Parliament the reasons for not accepting the Advice of the NCBC. This notification was challenged by multiple petitions before the Hon’ble Supreme Court. The Hon’ble Supreme Court in the judgment of Ram Singh & Ors. Vs. Union of India (Writ Petition (Civil) No.274 of 2014) delivered on 17.03.2015 set aside and quashed the aforesaid notification and upheld the Advice tendered by NCBC in this regard.
The salient issues pertinent of the OBCs which have emerged as the result of NCBC’s examination of the Judgment in Ram Singh Case are as follows:-
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Caste is not the sole criteria for determining backwardness. It is only a starting point;
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The Hon’ble Supreme Court has been routinely discouraging identification of a group as backward solely on the basis of caste alone;
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For a complete and fool-proof identification of backward classes of the country, 100% population has to be surveyed;
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The data on the basis of which identification of a backward class is done has to be contemporaneous data. It cannot be out-dated. For these reasons, NCBC has been stressing the need of getting SECC-2011 data from the MoSJE because it is contemporaneous and covers 100% population as directed by the Hon’ble Supreme Court;
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State cannot blind itself to the existence of other forms and instances of backwardness e.g. Transgenders, Orphans, daily wage workers, agricultural labourers, Rickshawpullers, etc. In fact, the welfare State should keep an eye out for new and emerging forms of backwardness in the society.
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Mandal Commission has recognized the backward classes only on the basis of caste at the beginning but did not consider the other forms of most depressed and deserving classes based on the occupation-cum-income such as daily wage workers, agricultural labourers, rickshawpullers, orphans, transgenders, etc. Therefore the 9 Judge Constitution Bench judgment in Indra Sawhney case followed by the recent smaller bench judgment in the case of Ram Singh has impressed upon the Government about the need to identify other such depressed and deserving classes as backward classes;
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Ministry should start the process for conduct of a decadal review for deleting those who have crossed the bar and who have since become elevated above backwardness and also to include the most deserving and depressed classes;
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The powers of the Union under Article 16(4) become limited when there is an enactment of the specific statutory provisions like the NCBC Act whose recommendations are required to be adequately considered by the Union before taking its final decision;
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The advice of the NCBC is ordinarily binding on the Government. Since in the Jat case, the Ministry has overturned the advice of the NCBC, Section 15 of the NCBCAct requires that MoSJE place the reasons for no acceptance of the advice of the NCBC before the Parliament;
NCBC has already started implementation of all the directives of the Hon’ble Supreme Court contained in the Ram Singh judgment. NCBC has already made a recommendation that Transgenders should be included in the list of OBCs. In addition, the NCBC is presently examining considering “Orphans” as a backward class irrespective of the caste to which they belong. For this, the matter has been referred to all the State Governments for their views and also their suggestions to prevent any misuse of these provisions;
Some people are eking out their livelihood on daily wages either as agricultural manual labourers, daily wage workers, rickshaw pullers, etc., who can be considered as depressed and deserving class of citizens. Therefore, accurate data and up-to date data is required to identify the class of daily wage workers, rickshaw pullers, etc. for giving affirmative policy action to provide reservation benefits to the children of such classes. Once such firm data is available, NCBC will be able to examine this matter further.
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