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संयुक्त राष्ट्र महासभा के सतत विकास लक्ष्यों में अम्बेडकरी छवि

संयुक्त राष्ट्र में पहली बार भारतीय संविधान के रचयिता और दलित अधिकार कार्यकर्ता बीआर अम्बेडकर की जयंती मनाई जाएगी जिसमें सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) हासिल करने के लिए असमानताओं से लड़ने पर ध्यान दिया जाएगा। संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी मिशन कल्पना सरोज फाउंडेशन और फाउंडेशन फॉर ह्यूमन होराइजन के सहयोग से अम्बेडकर की जयंती से 1 दिन पहले 13 अप्रैल को यहां संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में उनकी 125वीं जयंती मनाएगा।

इस मौके पर वहां इन ‘सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए असमानताओं से लड़ाई’ विषय पर एक पैनल चर्चा का आयोजन किया जाएगा। संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि सैयद अकबरुद्दीन ने ट्विटर पर लिखा कि पहली बार संयुक्त राष्ट्र में बाबा साहब की जयंती मनाई जाएगी जिसमें सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए असमानताओं से लड़ने पर ध्यान दिया जाएगा। भारतीय मिशन द्वारा जारी किए गए एक नोट में कहा गया कि भारत अपने ‘राष्ट्रीय प्रेरणास्रोत’ की 125वीं जयंती मना रहा है, जो करोड़ों भारतीयों और दुनियाभर में समानता एवं सामाजिक न्याय के समर्थकों के लिए प्रेरणा बने हुए हैं।

इसमें कहा गया कि हालांकि यह एक संयोग है कि हम गरीबी, भुखमरी और सामाजिक-आर्थिक असमानता के 2030 तक खात्मे के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा अपनाए गए सतत विकास लक्ष्यों में उपयुक्त रूप से बाबा साहब की उज्ज्वल दृष्टि के निशान देख सकते हैं।अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्यप्रदेश के महू (इंदौर) में हुआ था। उनका निधन 1956 में हुआ था और उन्हें 1990 में मरणोपरांत ‘भारतरत्न’  दिया गया था।

 

कौनसी असमानताएं हैं सतत विकास में बाधक 

जातीय असमानता : सन् 1901 की जनगणना के अनुसार, जो जातिगणना की दृष्टि से अधिक शुद्ध मानी जाती है, भारत में उनकी संख्या 2378 है। डॉ॰ जी. एस. घुरिए का मत है कि प्रत्येक भाषा क्षेत्र में लगभग दो सौ जातियाँ होती हैं, जिन्हें यदि अंतर्विवाही समूहों में विभक्त किया जाए तो यह संख्या लगभग 3,000 हो जाती है। मंडल कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार 6743 जातियां मणि गई हैं। भारतीय समाज जातीय सामाजिक इकाइयों से गठित और विभक्त है। श्रमविभाजनगत आनुवंशिक समूह भारतीय ग्राम की कृषिकेंद्रित व्यवस्था की विशेषता रही है। यहाँ की सामाजिक व्यवस्था में श्रमविभाजन संबंधी विशेषीकरण जीवन के सभी अंगों में अनुस्यूत है और आर्थिक कार्यों का ताना बाना इन्हीं आनुवंशिक समूहों से बनता है। यह जातीय समूह एक ओर तो अपने आंतरिक संगठन से संचालित तथा नियमित है और दूसरी ओर उत्पादन सेवाओं के आदान प्रदान और वस्तुओं के विनिमय द्वारा परस्पर संबद्ध हैं। समान परम्परागत  पेशा या पेशे, समान धार्मिक विश्वास, प्रतीक सामाजिक और धार्मिक प्रथाएँ एवं व्यवहार, खानपान के नियम, जातीय अनुशासन और सजातीय विवाह इन जातीय समूहों की आंतरिक एकता को स्थिर तथा दृढ़ करते हैं। 

वर्णो के बीच असमानता : आर्यमूल की उच्च जातियों में जातीय पंचायतों की अनुपस्थिति भी मूल आर्य समाज की जातिविहीन स्थिति की द्योतक है। परंतु हिंदू समाज में जातियों का मौलिक महत्व है और ये वर्णो से भिन्न हैं। ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जिनका वर्णं अनिश्चित और विवादास्पद है, जबकि सभी की जाति निश्चित और संदेह से परे है। वर्णो का सामाजिक मर्यादाक्रम असंदिग्ध और निश्चित है, जबकि जातियों का एक सीमा तक निश्चित होते हुए भी संदिग्ध और विवादास्पद रहता है। सामाजिक मर्यादा की दृष्टि से जातियाँ स्थानीय तथा क्षेत्रीय और वर्णं सार्वदेशिक हैं अर्थात् जातियों में स्थानभेद से मर्यादाभेद हो जाता है। वर्णव्यवस्था में दो वर्णो के बीच विवाहसंबंध निषिद्ध नहीं है, केवल प्रतिलोम विवाह निषिद्ध है। जातिव्यवस्था में अंतर्जातीय विवाह सर्वथा निषिद्ध है। वर्ण समाज की क्रियात्मक वास्तविक इकाइयाँ नहीं हैं और जातितत्व जीवन के प्राय: सभी अंगों में समाविष्ट है। जाति के कारण वर्णो की गतिशीलता अवरुद्ध है और व्यक्ति के लिये वर्णांतर उसी प्रकार असंभव है जिस प्रकार जात्यंतर, क्योंकि व्यक्ति मूलत: जाति से संबद्ध है और जाति के साथ ही उसका वर्णांतर हो सकता है। वर्णविभाजन में किसी जाति का स्थान उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा का द्योतक है। 

 

गैर वर्णीय समूहों में असमानता

हिंदू धर्मशास्त्रों ने पूरे समाज को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णो में विभक्त किया है। जातियों की सामाजिक मर्यादा का अनुमान करने में इससे सुविधा होती है। किंतु अनेक जातियों की वर्णगत स्थिति अनिश्चित है। उत्तर भारत में जाट, गूजर, अहीर आदि क्षत्रिय होने का दावा करते हैं और कायस्थ जाति के वर्ण के विषय में अनेक धारणाएँ हैं।

अंत्यज या अछूत जातियाँ यद्यपि हिंदू समाज क अंग हैं तथापि वर्णव्यवस्था में उनका कोई स्थान नहीं है। दक्षिण भारत में क्षत्रिय तथा वैश्य वर्णं की मान्य जातियाँ हैं ही नहीं। जिन जातियों ने इन वर्णों के पेशे अपना लिए हैं उन्हें आज भी शूद्र ही माना जाता है, यद्यपि वे सब क्षत्रिय या वैश्य होने का दावा करती हैं। केरल के राजवंशों तक की यही स्थिति थी। हिंदुओं के कर्मवाद ने जातिव्यवस्था को धार्मिक आश्रय प्रदान किया और यह आश्रय जाति को दृढ़ तथा स्थायी बनाने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। जाति के साथ सामान्य हिंदू का तादात्म्य धर्म की उपेक्षा और अवज्ञा कर सकता है किंतु जातीय बंधनों, प्रथाओं और आचार व्यवहार का उल्लंघन उसके लिये कठिन है। वास्तव में अधिकांश लोगों की धारणा में धर्म और जाति का भेद है ही नहीं।

जातियाँ एक दूसरे की तुलना में ऊँची या नीची हैं। एक ओर सबसे ऊपर धार्मिक रूप से पवित्र अथवा सर्वोच्च मानी जानेवाली ब्राह्मण जातियाँ हैं और दूसरी ओर सबसे नीचे अंत्यज श्रेणी की अपवित्र और अछूत कही जानेवाली जातियाँ हैं। इनके बीच अन्य सभी जातियाँ हैं जो सामाजिक मर्यादा की दृष्टि से उच्च, मध्यम और निम्न श्रेणी में रखी जा सकती हैं। 

 

गैरहिंदुओं में जातीय असमानता 

भारत में जाति सर्वव्यापी तत्व है। ईसाइयों, मुसलमानों, जैनों और सिखों में भी जातियाँ हैं और उनमें भी उच्च, निम्न तथा शुद्ध अशुद्ध जातियों का भेद विद्यमान है, फिर भी उनमें जाति का वैसा कठोर रूप और सूक्ष्म भेद प्रभेद नहीं है जैसा हिंदुओं में है। ईसा की 12 वीं शती में दक्षिण में वीर शैव संप्रदाय का उदय जाति के विरोध में हुआ था। किंतु कालक्रम में उसके अनुयायिओं की एक पृथक् जाति बन गई जिसके अंदर स्वयं अनेक जातिभेद हैं। सिखों में भी जातीय समूह बने हुए हैं और यही दशा कबीरपंथियों की है। गुजरात की मुसलिम बोहरा जाति की मस्जिदों में यदि अन्य मुसलमान नमाज पढ़े तो वे स्थान को धोकर शुद्ध करते हैं। बिहार राज्य में सरकार ने 27 मुसलमान जातियों को पिछड़े वर्गो की सूची में रखा है। केरल के विभिन्न प्रकार के ईसाई वास्तव में जातीय समूह हो गए हैं। मुसलमानों और सिक्खों की भाँति यहाँ के ईसाइयों में अछूत समूह भी हैं जिनके गिरजाघर अलग हैं अथवा जिनके लिये सामान्य गिरजाघरों में पृथक् स्थान निश्चित कर दिया गया है। किंतु मुसलमानों और सिखों के जातिभेद हिंदुओं के जातिभेद से अधिक मिलते जुलते हैं जिसका कारण यह हे कि हिंदू धर्मं के अनुयायी जब जब इस्लाम या सिख धर्म स्वीकार करते हें तो वहाँ भी अपने जातीय समूहों को बहुत कुछ सुरक्षित रखते हैं और इस प्रकार सिखों या मुसलमानों की एक पृथक् जाति बन जाती है।

भारतीय संविधान और कानून की दृष्टि से छुआछूत का व्यवहार दंडनीय अपराध है। संविधान ने अनुसूचित जातियों (दलित जातियों) और जनजातियों के लिये अनेक प्रकार के आरक्षण का वैधानिक प्राविधान किया है, जिसके अंतर्गत संसद तथा राज्यों के विधानमंडलों में आरक्षित स्थान निश्चित किए गए हैं। इसी प्रकार केंद्रीय तथा राज्य सरकारों की नौकरियों में भी अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिये स्थान आरक्षित हैं।

 

अन्य देशों में जाति असमानताएं :

जातिव्यवस्था भारतीय समाज की विशेषता है। प्राचीन मिस्रं और पश्चिमी रोम साम्राज्य में भी इस प्रकार की व्यवस्था थी जिसमें कार्य विभाजन से उत्पन्न पेशे और पद वंशानुगत कर दिए गए थे। ईसा की 5वीं शताब्दी में रोम साम्राज्य की विधिसंहिता के अधीन सभी धंधे और प्रशासनिक कार्य वंशानुगत थे। विवाहसंबंध अपनी बिरादरी में ही हो सकता था। प्राचीन मिस्र में पुरोहित, सैनिक, लेखक, चरवाहे, सुअर पालनेवाले और व्यापारियों के पृथक् पृथक् वर्ग थे जिनके पेशे और पद वंशानुगत थे। कोई कारीगर अपना पैतृक धंधा छोड़कर दूसरा धंधा नहीं कर सकता था। उसका अपने वर्ग से संबंध अटूट था। सुअर पालने वाले अछूत माने जाते थे और उन्हें मंदिरों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी। वैवाहिक दृष्टि से उनकी अंतर्विवाही जाति थी। सैनिक, पुरोहित और लेखक एवं अध्यापक उच्चवर्ग में थे और एक ही परिवार में तीनों प्रकार के व्यक्ति हो सकते थे। परंतु अन्य वर्गो के लिये उनके पैतृक पेशे निर्धारित थे। इस प्रकार मिस्र और प्राचीन रोम में वर्गो के विभाजन का रूप वैसा न था जैसा भारत में मिलता है। न तो खानपान और छुआछूत संबंधी प्रतिबंध थे और न अंतवर्गीय विवाहों पर धार्मिक या सामाजिक रोक थी। पेशों के संबंध में भी रोम तथा मिस्र दोनों देशों में शासन की ओर से रोक लगाई गई थी।

जापान में सैनिक सामंतवाद (12वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी के मध्य तक) के शासनकाल में अभिजात सैनिक समुराई वर्ग के अतिरिक्त कृषक, कारीगर, व्यापारी और दलित वर्ग थे। समुराई शासन सुविधासंपन्न वर्ग था, जिसके लिये विशेष कानूनी व्यवस्था और अदालतें थीं। दलित वर्ग में एता और हिनिन दो समूह थे जो समाज के पतित अंग माने जाते थे और गंदे तथा हीन समझे जानेवाले कार्य उनके सपुर्द थे। निम्न वर्ग के लोग मछली का शिकार तथा नाविक का कार्य नहीं कर सकते। अफ्रीका में लोहारों का समूह प्राय: शेष समाज से पृथक् रखा जाता है और इस वर्ग के लोग अपनी बिरादरी में ही विवाह करते हैं। बर्मा में पैगोडा का दासवर्ग एक पृथक् और अंतर्विवाही समूह है और उनका पेशा वंशानुगत है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन काल में और सामंतवादी व्यवस्था में पेशों और पदों की वंशानुगत करने को प्रवृत्ति प्राय: सभी देशों में थी। छुआछूत और अंतर्विवाहों पर निषेध के कुछ उदाहरण भी जहाँ तहाँ मिलते हैं। प्राचीन मिस्र, मध्यकालीन रोम और सामंती जापान में राज्य की ओर से अंतर्विवाहों पर प्रतिबंध लगा दिए गए थे और पेशों को वंशानुगत कर दिया गया था। वंशानुगत पेशे, बिरादरी में ही विवाह का नियम और छुआछूत आदि भारतीय जाति के प्रमुख तत्वों में हैं। किंतु भारत के बाहर वर्तमान समय में या पुराने इतिहास में ऐसे किसी समाज का अस्तित्व दिखाई नहीं देता जो स्वत: उद्भूत जातीय व्यवस्था से परिचलित हो और जहाँ जातिव्यवस्था समाज का स्वभाव बन गई हो।

 

सामजिक समानता हेतु बाबा साहब का संघर्ष:

भारत सरकार अधिनियम १९१९, तैयार कर रही साउथबोरोह समिति के समक्ष, भारत के एक प्रमुख विद्वान के तौर पर अम्बेडकर को गवाही देने के लिये आमंत्रित किया गया। इस सुनवाई के दौरान, अम्बेडकर ने दलितों और अन्य धार्मिक समुदायों के लिये पृथक निर्वाचिका (separate electorates) और आरक्षण देने की वकालत की। १९२० में, बंबई में, उन्होंने साप्ताहिक मूकनायक के प्रकाशन की शुरूआत की। यह प्रकाशन जल्द ही पाठकों मे लोकप्रिय हो गया, तब्, अम्बेडकर ने इसका इस्तेमाल रूढ़िवादी हिंदू राजनेताओं व जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति भारतीय राजनैतिक समुदाय की अनिच्छा की आलोचना करने के लिये किया। उनके दलित वर्ग के एक सम्मेलन के दौरान दिये गये भाषण ने कोल्हापुर राज्य के स्थानीय शासक शाहू चतुर्थ को बहुत प्रभावित किया, जिनका अम्बेडकर के साथ भोजन करना रूढ़िवादी समाज मे हलचल मचा गया। अम्बेडकर ने अपनी वकालत अच्छी तरह जमा ली और बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना भी की जिसका उद्देश्य दलित वर्गों में शिक्षा का प्रसार और उनके सामाजिक आर्थिक उत्थान के लिये काम करना था। सन् १९२६ में, वो बंबई विधान परिषद के एक मनोनीत सदस्य बन गये। सन १९२७ में डॉ॰ अम्बेडकर ने छुआछूत के खिलाफ एक व्यापक आंदोलन शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने सार्वजनिक आंदोलनों और जुलूसों के द्वारा, पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी लोगों के लिये खुलवाने के साथ ही उन्होनें अछूतों को भी हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिये भी संघर्ष किया। उन्होंने महड में अस्पृश्य समुदाय को भी शहर की पानी की मुख्य टंकी से पानी लेने का अधिकार दिलाने कि लिये सत्याग्रह चलाया।

१ जनवरी १९२७ को डॉ अम्बेडकर ने द्वितीय आंग्ल - मराठा युद्ध, की कोरेगाँव की लडा़ई के दौरान मारे गये भारतीय सैनिकों के सम्मान में कोरेगाँव विजय स्मारक मे एक समारोह आयोजित किया। यहाँ महार समुदाय से संबंधित सैनिकों के नाम संगमरमर के एक शिलालेख पर खुदवाये। १९२७ में, उन्होंने अपना दूसरी पत्रिका बहिष्कृत भारत शुरू की और उसके बाद रीक्रिश्टेन्ड जनता की। उन्हें बाँबे प्रेसीडेंसी समिति मे सभी यूरोपीय सदस्यों वाले साइमन कमीशन १९२८ में काम करने के लिए नियुक्त किया गया। इस आयोग के विरोध मे भारत भर में विरोध प्रदर्शन हुये और जबकि इसकी रिपोर्ट को ज्यादातर भारतीयों द्वारा नजरअंदाज कर दिया गया, डॉ अम्बेडकर ने अलग से भविष्य के संवैधानिक सुधारों के लिये सिफारिशों लिखीं।

 

लैंगिक असमानता के विरुद्ध बाबा साहब का संघर्ष:

1951 मे संसद में अपने हिन्दू कोड बिल के मसौदे को रोके जाने के बाद अम्बेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। इस मसौदे मे उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की मांग की गयी थी। हालांकि प्रधानमंत्री नेहरू की कैबिनेट के सदस्य तथा अन्य नेताओं ने इस बिल का समर्थन किया पर संसद सदस्यों की एक बड़ी संख्या इसके खिलाफ़ थी। तब उन्होंने स्तीफा देना उचित ही समझा। आंबेडकर ने 1952 में लोक सभा का चुनाव एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप मे लड़ा पर हार गये। मार्च 1952 मे उन्हें संसद के ऊपरी सदन यानि राज्य सभा के लिए नियुक्त किया गया और इसके बाद उनकी मृत्यु तक वो इस सदन के सदस्य रहे।

 

आर्थिक असमानता के विरुद्ध डा आंबेडकर के विचार 

उनका इरादा अर्थशास्त्र के संसार में प्रसिद्ध अध्ययन केंद्र बन विश्व विद्यालय से एक एडवांस कोर्स भी करने का था जिसे वे पैसे की कमी के कारण पूरा नहीं कर सके। उनकी यह शैक्षिक उपलब्धियां उनके अर्थ शास्त्र के प्रकांड विद्वान् होने का प्रमाण हैं।

भारतीय अर्थ व्यवस्था को सुधारने के उद्देश्य से वर्ष 1925 में गठित हिल्टन कमीशन के सामने उन्हें अपना पक्ष रखने के लिए बुलाया गया था। उनके दूसरे असंख्य लेख एवं भाषण न केवल उनके एक अग्रगणी अर्थशास्त्री होने को प्रमाणित करते हैं बल्कि इस से उनकी भारतीय अर्थ व्यवस्था को सुधारने की उत्सुकता भी प्रमाणित होती है। 

स्वंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में वांछित अर्थ-व्यस्था के बारे में उनके विचार "राज्य और अल्पसंख्यक"  नामक पुस्तक, जो वास्तव में उनका संविधान का अपना प्रारूप था, में स्पष्ट तौर पर अंकित हैं। 

डॉ आंबेडकर प्रत्येक नागरिक की मुलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति किसी भी लोकतंत्र का प्रथम कर्तव्य मानते थे। वे साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के खुले विरोधी थे। उनकी सोच में कार्ल मार्क्स और गौतम बुद्ध के विचारों का अदभुत समन्वय है। वे पक्के यथार्थवादी थे। उनकी मान्यता थी कि मानव समाज में पूर्ण समानता नहीं लायी जा सकती। इसलिए वे धन-दौलत एवं अन्य प्रकार की सामाजिक-शैक्षिक असमानताओं को ही क्रमिक और तार्किक ढंग से दूर करना चाहते थे। उन्होंने प्रविपर्स की समाप्ति, बैंकों, बीमा कम्पनियों तथा कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण की बात बहुत पहले उठाई थी। इस से भी आगे बढ़कर उन्होंने भूमि तथा कृषि के राष्ट्रीयकरण की वकालत की थी। वे समाजवाद और सार्वजानिक क्षेत्र के पक्षधर थे जिनके माध्यम से नेहरु जी भी भारतीय अर्थव्यवस्था को नियंत्रित एवं विकसित करना चाहते थे। डॉ आंबेडकर की आर्थिक योजना पर उनके निम्नलिखित शब्द देखिये  "यदि विदेशी तत्वों को निष्काषित करके आर्थिक परिवर्तनों को वरीयता दी जाये तो सशक्त प्रशासन आसानी से दूरगामी समाज-सुधार ला सकता है।" 

डॉ आंबेडकर का दृढ़ मत था कि "हमें अपने लोकतंत्र को सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र बनाना चाहिए क्योंकि इसके बिना राजनितिक लोकतंत्र अधिक दिनों तक नहीं चल सकता।" उन्होंने भारतीय समाज की सामाजिक दशा का चित्रण एक ज़ोरदार राजनितिक एवं आर्थिक शब्दावली में इस प्रकार किया है: " यह अत्यंत असंतोषजनक स्थिति है कि अधिकांश लोगों को अपनी जीविका कमाने के लिए भार ढोने वाले पशुओं की तरह 14-14 घंटे पसीना बहाना पड़ता है और इस प्रकार वे मनुष्य की अमूल्य धरोहर मस्तिष्क एवं मन का प्रयोग करने के अवसरों से सर्वथा वंचित रह जाते हैं। पूर्व में कैसा भी रहा हो, परन्तु वर्तमान समय में वैज्ञानिक और तकनीकि प्रगति ने इसे संभव बना दिया है। कुछ लोगों द्वारा दूसरों का शोषण इस लिए संभव हो पा रहा है कि उत्पादन के साधनों, भूमि और उद्योगों पर समाज का नियंत्रण नहीं है। जब यह संभव कर दिया जायेगा तो मैं इसे वास्तविक क्रांति मानूंगा।"

डॉ आंबेडकर की यह भी मान्यता थी कि सामाजिक और आर्थिक मुक्ति के बिना जीवन और राजनितिक स्वतंत्रता का कानून एवं संविधान द्वारा संरक्षण बेमानी हो जाता है। उन्होंने कहा कि," हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि लोग, दलितों सहित, केवल कानून और व्यवस्था पर जीवित नहीं रहते, उन्हें तो रोटी चाहिए।" लोकतंत्र की सफलता के बारे में उन्होंने कहा कि " मेरे विचार में लोकतंत्र की सफलता की पहली शर्त है कि समाज में घोर असमानताएं न हों। वहां पर कोई शोषित और दलित वर्ग न हो। वहां पर न तो कोई सर्वाधिकार संपन्न वर्ग और न ही कोई सर्वथा वंचित वर्ग हो। अन्यथा ऐसा विभाजन, ऐसी परिस्थिति तथा ऐसा सामाजिक संगठन हमेशा हिंसक क्रांति के बीज संजोये रहता है और लोकतंत्र द्वारा इनका निदान असंभव हो जाता है।"

डॉ आंबेडकर उन राष्ट्रवादियों से असहमत थे जो केवल राजनीतिक स्वतंत्रता को प्राथमिकता देते थे। वे ऐसी कोरी एवं भावुक देशभक्ति को आदर्श नहीं मानते थे। उनकी मान्यता स्पष्ट थी- " भारत में वे लोग राष्ट्रवादी और देशभक्त माने जाते हैं जो अपने भाईयों के साथ अमानुषिक व्यवहार होते देखते हैं किन्तु इस पर उनकी मानवीय संवेदना आंदोलित नहीं होती। उन्हें मालूम है कि इन निरपराध लोगों को मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया है परन्तु इस से उनके मन में कोई क्षोभ नहीं पैदा होता। वे एक वर्ग के सारे लोगों को नौकरियों से वंचित देखते हैं परन्तु इस से उनके मन में न्याय और ईमानदारी के भाव नहीं उठते। वे मनुष्य और समाज को कुप्रभावित करने वाली सैंकड़ों कुप्रथायों को देख कर भी मर्माहत नहीं होते। इन देशभक्तों का तो एक ही नारा है- उनको तथा उनके वर्ग के लिए अधिक से अधिक सत्ता। मैं प्रसन्न हूँ कि मैं इस प्रकार के देशभक्तों की श्रेणी में नहीं हूँ। मैं उस श्रेणी से सम्बन्ध रखता हूँ जो लोकतंत्र की पक्षधर है और हर प्रकार के एकाधिकार को समाप्त करने के लिए संघर्षरत है। हमारा उद्धेश्य जीवन के सभी क्षेत्रों- राजनीतिक, आर्थिक एवं समाज में एक व्यक्ति, एक मूल्य के आदर्श को व्यव्हार में उतारना है।"

 

राजनितिक असमानता के विरुद्ध डा आंबेडकर के विचार 

बाबा साहेब ने राजनीतिक आंदोलनों में मजदूर वर्ग की भूमिका के बारे में 6-7 सितम्बर, 1943 को पांचवी मजदूर सभा को संबोधित करते हुए कहा था- "मैं दो टिप्णियाँ करना चाहता हूँ। पहली- यह कि जो लोग औद्योगिक ढांचे की पूंजीवादी व्यवस्था और राजनीतिक ढांचे की संसदीय व्यवस्था में रह रहे हैं वे अपनी व्यवस्था के अंतर्विरोधों को अवश्य पहचानें। इसमें प्रथम अन्तर्विरोध काम न करने वालों के लिए असीम सम्पदा एवं काम करने वालों के लिए भीषण गरीबी के रूप में है। दूसरा अन्तर्विरोध राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में है। राजनीति में समानता परन्तु आर्थिक क्षेत्र में असमानता। एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य हमारे राजनीतिक आदर्श हैं, परन्तु आर्थिक क्षेत्र राजनीतिक आदर्श का बिलकुल उल्टा है। इन अंतर्विरोधों को दूर करने के रास्तों के बारे में मतभेद हो सकते हैं, परन्तु इस में कोई मतभेद नहीं हो सकता कि ये अन्तर्विरोध हैं। 

मेरी दूसरी टिप्पणी यह है कि जबसे जीवन का आधार स्तर और संविदा हुए हैं तब से जीवन की असुरक्षा एक सामाजिक समस्या बन गयी है और मानवीय जीवन को बेहतर बनाने वालों को इस का हल ढूंढना होगा। मनुष्य के जन्म-सिद्ध अधिकारों एवं स्वतंत्राओं को व्याखित करने में बड़ी शक्ति लगायी है। यह सब बहुत अच्छा है। लेकिन मैं यह कहना चाहता हूँ कि तब तक सुरक्षा संभव नहीं होगी जब तक इन अधिकारों को मूर्त रूप नहीं दिया जा सकता। जैसे - शांति, मकान, पर्याप्त कपड़ा, शिक्षा, अच्छी सेहत तथा सब से ऊपर गिरने के भय के बिना सिर को ऊँचा रखकर चलने का आधिकार।"

 

 डॉ आंबेडकर मशीनीकरण और औद्योगीकरण के प्रबल समर्थक थे। 

 डॉ अम्बेडकर का बहुत बड़ा योगदान भारत के औद्योगीकरण और आधनुकीकरण की नींव डालने का भी रहा है। दुर्भाग्यवश उनके इस योगदान को जानबूझ कर लोगों के सामने प्रकट नहीं किया गया है। इस क्षेत्र में उनका प्रमुख योगदान मजदूर वर्ग का कल्याण, बाढ़ नियंत्रण योजनायें, कृषि सिचाई, बिजली उत्पादन एवं जल यातायात सम्बन्धी योजनायें तैयार करना है। इसके फलस्वरूप ही बाद में भारत में औद्योगीकरण एवं बहुउदेशीय नदी जल योजनायें बन सकीं।  

 

डॉ आंबेडकर का राजकीय समाजवाद में विश्वास  

डॉ आंबेडकर के शब्दों में "समस्या यह है कि अधिनायकवाद के बिना समाजवाद और संसदीय लोकतंत्र के साथ राजकीय समाजवाद कैसे रहे। इसका केवल यही हल दिखता है कि संसदीय लोकतंत्र और संवैधानिक कानूनों द्वारा राजकीय समाजवाद अपनाया जाये जिसे संसदीय बहुमत द्वारा निलंबित, संशोधित अथवा समापित करना असंभव होगा। इस प्रकार समाजवाद लाने, संसदीय लोकतंत्र को स्थापित करने और अधिनायकवाद से बचने के हमारे तीनों उद्देश्यों की पूर्ती हो सकेगी।"

डॉ आंबेडकर का राजनीतिक दर्शन मूलत: सामाजिक- आर्थिक दर्शन है। वे कहते हैं: " बेरोजगार लोगों से पूछिये कि उनके लिए मौलिक अधिकारों की क्या उपयोगिता है। यदि किसी बेरोजगार व्यक्ति को अनिश्चित घंटों वाली सवैतनिक नौकरी और किसी मजदूर यूनियन में शामिल होने, संगठन बनाने अथवा धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के बीच चुनने के लिए कहा जाये तो क्या उसके चुनाव के बारे में कोई शक हो सकता है? वह दूसरी चीज़ कैसे चुन सकता है? भुखमरी, घर-विहीनता, दरिद्रता, बच्चों को स्कूल से दूर रखने जैसी परिस्थितियां किसी भी व्यक्ति को अपने मौलिक अधिकार छोड़ने के लिए बाध्य कर सकती हैं। इस प्रकार बेरोजगार लोग काम तथा जीवन-निर्वाह के लिए मौलिक अधिकारों को तिलांजलि देने के लिए मजबूर होंगे।"

 

लोकतान्त्रिक असमानता का अंत

"संवैधानिक विशेषज्ञ यह मान लेते हैं की स्वंत्रता की सुरक्षा हेतु मौलिक अधिकारों को दे देना ही पर्याप्त है। उनकी मान्यता है कि जब सरकार व्यक्तिगत, सामाजिक और आर्थिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करती तो व्यक्ति की स्वंत्रता सुरक्षित रहती है। किन्तु आवश्कता इस बात की है कि न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप को कायम रखते हुए वास्तविक स्वतंत्रताओं को बढ़ाया जाये। स्वतंत्रता को केवल सरकारी हस्तक्षेप से पूर्ण मुक्ति के सन्दर्भ में ही नहीं परिभाषित किया जाना चाहिए। इस से स्वतंत्रता की समस्या का समाधान नहीं हो जाता। सरकारी हस्तक्षेप के बिना जंगल राज अर्थात जिस की लाठी उसकी भैंस वाला समाज होगा।" इस लिए ऐसी स्वतंत्रता के सन्दर्भ में डॉ आंबेडकर यह प्रश्न उठाते हैं कि ऐसी स्वतंत्रता आखिर कैसी और किस के लिए होगी?  

 

इस का उत्तर वे निम्न प्रकार देते है:

"स्पष्टतया यह स्वंत्रता ज़मींदारों को लगान बढ़ाने, पूंजीपतियों को काम के घंटे बढ़ाने और कम मजदूरी देने की छूट देने वाली होगी। यह ऐसी ही होगी।" 

इसलिए डॉ आंबेडकर ने राजशक्ति की सृजनात्मक भूमिका पर जोर दिया। सही मायने में लोकतान्त्रिक राज लोक कल्याणकारी होगा। ऐसे राज का उपयोग ज़मींदारों और पूँजीपतियों जैसे निहित स्वार्थों को अनुशासित करने और उनके सामाजिक -आर्थिक आधार को ख़तम करने के लिए किया जा सकता है। इनके अधिकारों को सीमित किये बगैर आम जन को स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती। अतः डॉ आंबेडकर ने कहा: " एक अर्थव्यवस्था , जिसमे लाखों मजदूर उत्पादनरत हों, समय समय पर किसी न किसी को नियम बनाने पड़ेंगे ताकि मजदूरों को काम मिल सके और उद्योग चलते रहें, अन्यथा जीवन असंभव हो जायेगा। राजकीय नियंत्रण से स्वतंत्रता का मतलब होगा व्यक्तिगत मालिकों की तानशाही।"

डॉ आंबेडकर के मस्तिष्क में समाजवाद की रूप-रेखा बहुत स्पष्ट थी। उनके अनुसार भारतीय संघ निम्नलिखित को संवैधानिक कानून का अंग घोषित करेगा:

 

1. सभी प्रमुख उद्योग सरकारी नियंत्रण में होंगे तथा सरकार द्वारा ही चलाये जायेंगे। 

2. वे उद्योग भी जो प्रमुख नहीं हैं किन्तु आधारभूत हैं सरकार अथवा सरकारी उद्यमों द्वारा चलाये जायेंगे। 

3. बीमा केवल सरकार के हाथ में होगा तथा प्रत्येक व्यस्क व्यक्ति को जीवन बीमा पालिसी लेना आवश्यक होगा। 

4. कृषि राजकीय उद्योग घोषित होगी। 

5. सरकार सभी प्रमुख उद्योगों, बीमा कम्पनियों एवं कृषि भूमि का उनके मालिकों को डिबेंचरज के रूप में मुआवजा दे कर राष्ट्रीयकरण कर लेगी। 

6. कृषि उद्योग निम्न प्रकार से चलाया जायेगा:

सरकार द्वारा अधिग्रहीत भूमि को उचित आकार के फार्मों में विभाजित करके ग्रामीण परिवार-समूहों को इकाई मानकर उत्पादन करने हेतु निम्न शर्तों पर आवंटित किया जायेगा:

• फार्म पर सामूहिक खेती होगी। 

• फार्म पर सरकार द्वारा बनाये गए नियमों के अनुसार उतपादन किया जायेगा। 

• किरायेदारी कर आदि देने के बाद बचे उत्पादन को निर्धारित तरीके से आपस में बांटा जायेगा। 

• भूमि सभी लोगों में जाति-धर्म आदि के भेदभाव के बगैर इस तरह बांटी जाएगी कि न तो कोई जमींदार होगा और न ही भूमिहीन मजदूर। 

• पानी, उपकरण, पशु, खाद तथा बीज आदि उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेवारी होगी। 

• इस प्रकार हम देखते हैं की डॉ आंबेडकर द्वारा प्रस्तावित राष्ट्र-निर्माण का आर्थिक स्वरूप राजकीय समाजवादी था। वे राज्य का सकारात्मक हस्तक्षेप सामाजिक-आर्थिक रूपान्तरण के लिए आवश्यक मानते थे। 

आज भूमंडलीकरण औए निजीकरण के दौर में हम राजकीय नियंतरण से स्वतंत्रता को वास्तविक स्वतंत्रता मान बैठे हैं। लेकिन डॉ आंबेडकर ने इसमें व्यक्तिगत मालिकों की तानशाही देखी थी। लोकतान्त्रिक राज्य को निपट पूंजीवादी राज्य मानना उचित नहीं हैं। डॉ आंबेडकर ने भारत में व्याप्त आर्थिक और सामाजिक अंतर्विरोधों को दूर करने के लिए जिस राज्य की कल्पना की थी वह राजनितिक दृष्टि से लोकतान्त्रिक और आर्थिक दृष्टि से समाजवादी था। उसे उन्होंने राजकीय समाजवाद कहा था। उसे समाजवादी लोकतंत्र भी कहा जा सकता है। हमारे लिए यह नमूना आज भी प्रासंगिक है।

 

अंत में मैं डॉ आंबेडकर की इस गंभीर चेतावनी को दोहराना आवश्यक समझता हूँ जिस में उन्होंने कहा था, " 26 जनवरी, 1950 को हम विरोधाभासों के क्षेत्र में प्रवेश करने जा रहे है। एक तरफ जहाँ हमारे राजनीतक क्षेत्र में समानता होगी वहीँ हमारी परम्पराओं के कारण सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता बनी रहेगी। हमें इस अन्तर्विरोध को शीघ्रातिशीघ्र दूर करना होगा अन्यथा इस असमानता के शिकार लोग मुश्किल से बनाये गए इस राजनीति लोकतंत्र को ध्वस्त कर देंगे।"

 

भारत में सतत विकास की सच्चाई

यह बात सच है कि भारत से ज्यादा संयुक्त राष्ट्र बाबा साहब के विचारों से प्रभावित है तथा उनके विचारों को अमलीजामा पहनाने का सतत प्रयास कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ के राष्ट्रपति श्री बराक ओबामा ने भारतीय संसद को संबोधित करते हुए डॉक्टर अंबेडकर की प्रशंसा की थी। कोलंबिया विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर एक पत्थर पर विश्व के योग्यतम व्यक्तियों के नाम अंकित किए गए हैं, जो कभी न कभी कोलंबिया विश्वविद्यालय में पढ़ कर गए हैं। उनमें पहला नाम डॉक्टर बी. आर. अंबेडकर का अंकित है, उनको सिंबल ऑफ द नॉलेज यानी ज्ञान का प्रतीक घोषित किया गया है।  बड़ी विडंबना है कि बाबा साहब के ज्ञान का फायदा पूरा विश्व उठा रहा है, परंतु भारत उसका पूरा फायदा नहीं उठा पा रहा क्योंकि यहां की व्यवस्था उनको अभी भी पचा नहीं पा रही है इसका सबसे बड़ा कारण उनका अछूत परिवार में पैदा होना है।  हालांकि यहां की सरकार और संसद उनके पवित्र ग्रंथ भारतीय संविधान से ही संचालित होती है।  नेताओं की सोच में खोट है, वे मनु के संविधान से प्रभावित होने के कारण, संविधान के लक्ष्यों को प्राप्त करने में संकोच करते हैं।  भारतीय संविधान और बाबा साहब के ज्ञान का महत्व पहली बार यह किसी प्रधानमंत्री ने समझा है तो उनमें श्री नरेंद्र मोदी का नाम सबसे पहले आता है।  लोग कहते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा संचालित पार्टी भाजपा का मुखिया बाबा साहब का इतना बड़ा फैन कैसे हो सकता है ? इसमें कोई न कोई चाल नजर आती है।  इस संबंध में मेरा विचार भिन्न है।  शायद लोगों को यह पता नहीं है, कि कांग्रेस सहित देश की प्रमुख पार्टियां आरएसएस की विचारधारा से ही संचालित हो रही है। 

आर्थिक आधार पर आरक्षण का पहली बार मुद्दा कांग्रेस के प्रवक्ता श्री जनार्दन द्विवेदी और मनीष तिवारी ने उठाया था।  जिस पर कांग्रेस के उच्च स्तरीय नेता मोन रहे।  क्रीमी लेयर का प्रावधान भी कांग्रेस के समय में ओबीसी के आरक्षण में हुआ था।  सिक्खों का कत्लेआम भी कांग्रेस के शासनकाल में ही हुआ था। मुसलमानों के ऊपर हिंदू मुस्लिम दंगे, उत्तर प्रदेश और बिहार में हुए थे जो कांग्रेस की   विफलता के  सबसे बड़े कारण रहे हैं।  दलितों और अति पिछड़े वर्ग के लोगों पर सबसे ज्यादा अत्याचार भी उत्तरप्रदेश औरत बिहार में कांग्रेस के शासनकाल में ही हुए।  अनुसूचित जाति और जनजातियों से आरक्षण के नाम पर तथा मुसलमानों से सुरक्षा के नाम पर कांग्रेस वोट लेती रही।  यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कांग्रेस के समय में दलित सब से लाचार तथा मुसलमान सबसे अधिक असुरक्षित महसूस करते थे।  दलितों पर उच्च जातियों द्वारा अत्याचार कांग्रेस और मुसलमानों के ऊपर हमला कांग्रेस और आरएसएस की नीति का प्रमुख हिस्सा रहा है। आज आरएसएस  की प्रमुख पार्टी के द्वारा सरकार संचालित हो रही है। इसमें कोई शक नहीं, परंतु उनका नायक शुद्र का बेटा है।  इसलिए थोड़ा-बहुत मोह तो अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्ग के प्रति होना ही चाहिए। इसका प्रमुख कारण यह भी हो सकता है कि स्वामी विवेकानंद जी ने जिस हिंदू समाज का सपना देखा था, वह ब्राह्मण रहित तथा दलित और पिछड़ों सहित कायस्थ समाज या शुद्र के नेतृत्व का था। 

 यह बात ध्यान देने की है कि श्री नरेंद्र मोदी और श्री नीतीश कुमार स्वामी विवेकानंद के विचारों से पूरी तरह प्रभावित हिंदू हैं।  दूसरी बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि यह दोनों ही नेता बौद्ध दर्शन से भी सर्वाधिक प्रभावित रहे हैं।  स्वामी विवेकानंद और गौतम बुद्ध दोनों गैर ब्राह्मण दार्शनिक थे।  आज भारतीय संविधान के शिल्पी डॉक्टर बाबासाहेब अंबेडकर मोदी और नीतीश कुमार को सबसे अधिक प्रिय है। इसका सबसे बड़ा कारन है कि वह लोकतंत्र के सबसे बड़े हिमायती तथा आधुनिक  भारत में बौद्ध दर्शन को पुनर्जीवित करने वाले बोधिसत्व हैं। मोदी जी और नीतीश कुमार जी में इस समय कंपटीशन चल रहा है, वह 2019 के प्रधानमंत्री के दावेदार बनने का  सपना देख रहे हैं।  डॉक्टर अंबेडकर और स्वामी विवेकानंद के अनुयायियों को जो अच्छे से अपना बनाने में सफल होगा वही भारत का अगला प्रधानमंत्री बन सकता है। यह सिद्ध हो चुका है कि भारत का प्रधानमंत्री बनने के लिए कांग्रेस भी प्रयास कर रही है। ब्राह्मण समाज का प्रधानमंत्री बने इसकी शुरुआत कांग्रेस ने यूपी से कर दी है, वह उत्तर प्रदेश के 2017 के  मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में एक ब्राह्मण नाम घोषित करना चाहती है। 

 जहां तक सवाल सतत विकास का है तो इसके लिए असमानताओं का अध्ययन करना पड़ेगा इस समय देश में कई तरह की असमानताएं हावी है।  सामाजिक असमानता, आर्थिक असमानता, शैक्षिक असमानता, राजनैतिक असमानता, सांस्कृतिक असमानता, लैंगिक  असमानता, लोकतान्त्रिक असमानता अदि प्रमुख हैं। बाबा साहब का सपना था विभिन्न प्रकार की असमानताओं का अंत करना परन्त यह परिकल्पना आज के नेताओं ने निरर्थक सावित कर दी है। इस लिए स्वस्थ लोकतंत्र के बिना सतत विकास संभव नहीं है। 

आज जीडीपी के हिसाब से तो भारत की अर्थ व्यवस्था का विकास  हो रहा है परंतु समग्र और सतत विकास नहीं।  ७७ करोड़ लोगों के पास जितनी सम्पति है उसके बराबर भारत के केवल 15 घरानों के पास संपत्ति केंद्रित हो चुकी है। क्या यही समन्वित विकास है।  100 पूंजीपति घराने भारत की राजनीती और सत्ता को चला रहे हैं। ऐसे में सतत विकास कैसे संभव है?  यही लोकतंत्र का दर्शन है? बाबा साहब के समय से अब तक के काल का अवलोकन किया जाए तो पिछड़े और दलित समाज में काफी सामजिक आर्थिक और राजनितिक परिवर्तन नजर आता है। यह सब बाबा साहब के किये गए कार्यों का परिणाम है। बाबा साहब के विचार सतत विकास के लिए हमेशा ही प्रेरणादाई रहे हैं। यदि सरकार के नेता की नियत में खोट है, तो खाली बाबा साहब का गुणगान करने से सतत विकास नहीं होगा उसको हकीकत में लागू करना होगा। 

जब तक भारत में सच्चा लोकतंत्र स्थापित नहीं होता है, विषमताओं का अंत नहीं होता है, तब तक बाबा साहब की जयंती मनाना बेमानी होगा। 

जय भारत, धन्यवाद