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संगठन का स्वरूप

“राष्ट्रीय समग्र विकास संघ” पूर्णत: गैर राजनीतिक, पूर्णत: धर्मनिरपेक्ष एवं पूर्णत: सामाजिक न्याय की अवधारणा पर आधारित संगठन है। उक्त संगठन के सदस्य सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक विषयों पर समय-समय पर अनुसन्धान एवं विश्लेषण करके सरकार और जनता को प्रेस, संगोष्ठियों और सेमिनारों के माध्यम से अवगत कराते हैं।

भारतीय संविधान में निहित सामाजिक न्याय की परिकल्पना का लक्ष्य आज भी अधूरा है। डॉ.भीम राव अंबेडकर ने राष्ट्र निर्माण का असली लक्ष्य तो भारतीय संविधान में पहले ही निर्धारित कर दिया था। भारतीय  संविधान का उद्देश्य "समता, स्वतंत्रता, बन्धुत्व और न्याय" के लक्ष्य को पूरा करने में पूरी तरह से सक्षम है। देश का यह पवित्र क़ानूनी ग्रन्थ अधिकांश आबादी का प्रहरी है। जो तमाम संस्कृतियों, विभिन्न सामाजिक समुदायों, भाषा-भाषियों तथा सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के हितों की रक्षा करता है। अगर जरूरत है तो इसको लागू करने की नियत रखने वाली सरकार की, जो समग्र विकास की धारणा के साथ काम करे। हमें अनेक समाज सुधारकों के लम्बे संघर्ष के बाद यह मुकाम हासिल हो सका है। जिनमें महात्मा ज्योतिवा फुले का सर्वशिक्षा का आंदोलन, कोल्हापुर के महाराज छत्रपति शाहू जी का सामाजिक न्याय का आंदोलन, महान समाज-सुधारक नारायणा गुरु का सांस्कृतिक समानता का आंदोलन, पेरियार रामास्वामी नायकर का आत्मस्वाभिमान आंदोलन एवं बाबा साहब डॉ. अम्वेडकर का समग्र विकास का मिशन उल्लेखनीय है।      

यह सत्य है, कि कुछ यथास्थितवादी ताकतों का लक्ष्य भारत में जाति-व्यवस्था को बनाए रखना है, जबकि जाति-व्यवस्था भारत निर्माण में सबसे बड़ी बाधा है। हम यहाँ एक बात और जोड़ना चाहते हैं कि जाति-व्यवस्था भारतीय समाज की कड़वी सच्चाई है। असमानता पर आधारित उक्त व्यवस्था को परिवर्तित करने के लिए समाज सुधारकों के अलावा अनेक संतों, गुरुओं एवं महापुरुषों ने भी निरंतर संघर्ष किया जिनमें संत कबीर, गुरु रविदास, चोखामेला, विरसा मुंडा, संत गाडगे, गुरु घासी दास, स्वामी अछूतानंद, स्वामी विवेकानंद आदि का महान योगदान रहा है। जाति-व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करने वाले महान समाज सुधारक तो आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन जाति व्यवस्था आज भी कायम है, और जातियों की संख्या पहले से भी अधिक बढ़ गई है। जहाँ तक आजादी के बाद देश के विकास का सवाल है तो, अनेक  सरकारी, गैर-सरकारी एवं अंतराष्ट्रीय संगठनों की रिपोर्टें इस बात की साक्षी हैं कि विगत वर्षों मैं केवल 20 प्रतिशत भारत का ही निर्माण हो सका है, जिसका अधिकतर लाभ समाज के उच्च वर्णीय समर्थवान लोगों को ही प्राप्त हुआ है।